महिला जागरण की यह चिनगारी-दावानल बनेगी - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

September 1996

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इस अंक में प्रस्तुत है परमपूज्य गुरुदेव का एक उद्बोधन, जो अब से ठीक इक्कीस वर्ष पूर्व इन्हीं दिनों 19 सितम्बर, 1975 में शाँतिकुँज परिसर में दिया गया था। यह उद्बोधन यहाँ ‘ महिला जाग्रति अभियान’ के अंतर्गत चल रहे कन्या प्रशिक्षण सत्रों के दैनिक उद्बोधनों की शृंखला की एक कड़ी मात्र है। किन्तु इसका एक-एक शब्द ऐसा है जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि उन दिनों था, विशेषकर इसलिए भी कि हम युग परिवर्तन के उस क्षण के अति निकट आ पहुंचे हैं, जिसमें मातृसत्ता प्रधान इक्कीसवीं सदी को नारी सदी कहा गया है। नारी उत्कर्ष के लिए कुछ सोचने व कर गुजरने के लिए पढ़े, आत्ममंथन करें व गहन मनन करें- अमृतवाणी का।

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों, भाइयों ! भगवान बुद्ध ने धर्मचक्र के नाम से अपना आन्दोलन चलाया था। यह क्या था? धर्म के चक्र को घुमा देना। भगवान बुद्ध ने इसका शुभारम्भ किया और सम्राट अशोक ने इसे आगे बढ़ाया आपको अपने राष्ट्रीय झण्डे के अंतर्गत जो अशोक चक्र दिखाई पड़ता है, वह धर्मचक्र के प्रवर्तन का चिन्ह है। इसका मतलब जो रुकी हुई धाराएँ थीं उनको भगवान बुद्ध ने फिर से प्रवाहवान बना दिया, जाग्रत कर दिया और फिर से चला दिया। तालाब का पानी रुका हुआ हो तो सड़ जाता है। नदी का पानी चलता रहता है। प्रवाह माने पानी का बहाव। नदी के पानी की धारा अगर छोटी भी हो तथा पानी चल रहा हो तो वह सड़ेगा नहीं। तालाब कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसका पानी सड़ने लगता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी प्रगति की ओर चलना पड़ता है। उसे बार-बार विचार करना पड़ता है कि हमसे गलतियाँ कहाँ हुई ? क्या हुई ? इस प्रकार के विचार करते रहने से आदमी का बहाव ठीक रहता है। आज का दिन वह है जिसमें हमें विचार करना होगा कि पिछले दिनों हमसे क्या-क्या भूलें हुई हैं ? कहाँ हमने गलतियाँ को हैं? उन्हें सुधारने की आवश्यकता है। यह धर्मचक्र प्रवर्तन का दिन है, प्रातःकालीन उदयमान सूर्य का दिन है, अन्धकार की समाप्ति का दिन है। आज हमको अपनी गतिविधियों पर नये सिरे से विचार करना होगा। एक विचार हमारे सामने आता है और आना भी चाहिए कि गाड़ी के दो पहियों में से एक पहिया छोटा हो गया है। इस स्थिति में गाड़ी आगे कैसे चलेगी ? गाड़ी आगे चल नहीं सकती है। हमने-आपने कई बार यह सूना है कि अमुक रोड पर मोटर, ठेलागाड़ी पलट गयी। अगर हम इस दुर्घटना पर निगाह डालें तो यह पायेंगे कि उस मोटर ठेले का एक पहिया पंचर हो गया था। इस पंचर के कारण ही गाड़ी पलट जाती है और दुर्घटना हो जाती है। इसमें क्या होता है कि एक पहिया बड़ा हो जाता है और एक पहिया हवा निकल जाने के कारण छोटा हो जाता है उस समय उसके ऊपर लदा हुआ माल एक तरफ झोंका लेता है और संतुलन बिगड़ने के कारण गाड़ी पलट जाती है। कई बार तो ड्राइवर, कन्डक्टर की मृत्यु भी हो जाती है और कीमती ट्रक चकनाचूर हो जाता है। यह सारा का सारा खेल केवल जरा-सी असावधानी से घटित हो जाता है। इसके कारण मालिक को और ड्राइवर के घर वालों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

इसी प्रकार मनुष्य रूपी गाड़ी भी दो पहियों की है। इसमें एक का नाम पुरुष तथा दूसरे का नाम स्त्री है। ये दोनों अलग-अलग नहीं हैं। आपने अर्द्धनारीश्वर का चित्र तो देखा ही होगा। आधे अंग में शंकर एवं आधे में पार्वती, आधे अंग में राधा एवं आधे में कृष्ण की मूर्तियां बनायी जाती हैं। आधे में सीता ओर आधे में राम होते हैं। यह मूर्तियां आपको जगह-जगह के मेलों में मिलती रहती हैं। वहाँ आपने इन्हें देखा भी होगा तथा अपने घर में रखा भी होगा। इसका मतलब है कि दोनों अंग समान हैं, दोनों अंग मिले-जुले हैं तथा दोनों अंग बराबर महत्व के हैं। मनुष्य के दोनों हाथ बराबर के हैं, अगर किसी के थोड़े उन्नीस-बीस हो जायें, तो हम कुछ कह नहीं सकते हैं परन्तु सामान्यतया दोनों हाथ बराबर के हैं। गाँधीजी का जब दाहिना हाथ थक जाता तो वे बायें हाथ से लिखने का काम करते थे। उसी प्रकार वे चरखा को दायें हाथ से कातने थे। जब वह थक जाता था तो चरखा का पहिया घुमा देते थे और बायें हाथ से कातने का काम किया करते थे। हम एवं आप अभ्यास के कारण ही दायें हाथ से ज्यादा काम कर लेते हैं, परन्तु अगर हमें अभ्यास करें तो देखेंगे कि दायें हाथ से बायाँ हाथ भी कम काम नहीं करता है। बहुत से लोगों को हमने देखा है कि वे बायें हाथ से भी दायें हाथ की तरह ज्यादा और जल्दी काम करते हैं। इसी प्रकार हमारी दोनों आंखें बराबर हैं। इनमें से न कोई हमारी मालिक है और न कोई गुलाम है। इनमें न कोई हिन्दू है और न कोई मुसलमान है, बल्कि एक ही नस्ल की हैं। हमारी दो टाँगें हैं, इनमें से कोई बड़ी एवं कोई छोटी नहीं है। अगर बड़ी-छोटी टाँगें हो जाये तो हमारा चलना मुश्किल हो जाएगा। फिर स्त्री और पुरुष में भेद क्यों? शरीर के दोनों अंगों की भाँति वे समान हैं। इसलिए दोनों की साथ-साथ, पाँव से पाँव मिलाकर, कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहिए। हमारी प्रगति का रास्ता दोनों के द्वारा ही संभव है।

प्राचीनकाल के इतिहास को उठाकर जब देखते हैं तो हमें कहीं भी कोई फर्क दिखाई नहीं पड़ता। एक बार की बात है- देवताओं ने राजा दशरथ को युद्ध में सहायता करने के लिए बुलाया था। निमन्त्रण पाकर उनका साथ देने के लिए दशरथ उस युद्ध में गये। इस देवासुर संग्राम में उनकी रानी कैकेयी, जो कि धनुष-बाण चलाने में निपुण थी, घुड़सवारी भी कर लेती थी, उनके साथ गयी थी। कहते हैं कि उस देवासुर संग्राम में जब दशरथ के रथ का पहिया कील निकल जाने के कारण डगमगाने लगा, तो उसे वीराँगना कैकेयी ने देख लिया और राजा दशरथ को पता भी नहीं लगने दिया और अपने हाथ की अंगुली उस पहिये में लगाकर सारे युद्ध में डटी रही। वास्तव में वह किसी भी प्रकार राजा दशरथ से कम नहीं थी। वह बराबर की योद्धा, बराबर की वीर, बराबर की शुरमाँ और बराबर की शक्तिशाली महिला थी जो रणनीति में भी निपुण थीं।

एक बार श्रीकृष्ण-अर्जुन में लड़ाई हुई थी, ऐसा एक काव्य में लिखा है। पता नहीं सत्य है या गलत है, परन्तु यह बात सही है कि जब अर्जुन लड़ने के लिए श्रीकृष्ण के पास गये, उस समय सारथी द्रौपदी थी, जो रथ चला रही थी और अर्जुन धनुष-बाण चला रहे थे। दोनों ही बराबर के योद्धा-लड़ाई लड़ने वालों में से थे। रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती का नाम हमें मालूम हैं। उन्हें हम भुला नहीं सकते। हम यह कहना चाहते हैं कि न केवल लड़ाई के सम्बन्ध में बल्कि विद्या एवं ज्ञान के संदर्भ में भी नारियाँ नर से कभी भी, किसी क्षेत्र में पीछे नहीं रही । राजा जनक की सभी में गार्गी एवं याज्ञवल्क्य का संवाद होता है। प्रश्नोत्तर का क्रम चलता है, गार्गी जब याज्ञवल्क्य से प्रश्न-पर प्रश्न पूछती चली गयीं तो उनको पसीना आ गया और वे चक्कर में पड़ गये। गुस्से में आकर याज्ञवल्क्य जी ने कहा कि अगर तुम इसी तरह बार-बार सवाल करती चली गयीं तो हम तुम्हें शाप दे देंगे और तुम्हारा सिर कटकर नीचे आ जाएगा। गार्गी ने कहा- बस हो गया, क्या आपका ज्ञान केवल सिर काटने वाली बात तक ही सीमित है ? अरे ऋषिवर! आप हमारे प्रश्नों का उत्तर दीजिए, चुप क्यों हो गये ? मित्रों, हम कहना यह चाहते हैं कि गार्गी भी उसी प्रकार की विद्वान एवं विदुषी महिला थी, जिस प्रकार याज्ञवल्क्य ऋषि थे। प्राचीनकाल के इतिहास को हम देखते हैं तो हमें पता चलता है कि वे वेद को बनाने वाली तथा मंत्रों की द्रष्टा रही हैं। सात ऋषियों में एक अनुसूया का भी नाम आता है। वे इतनी महान थीं कि सात ऋषियों का नेतृत्व करती थीं।

हम क्या कह सकते हैं ? अगर प्राचीनकाल की धर्म-संस्कृति के इतिहास को देखें, तो आपका पता चलेगा कि उनका स्थान कितना महान था ? नर-नारी दोनों में कोई फर्क नहीं था। अगर हम ध्यान से देखते हैं तो हमें पता चलता है कि नारियाँ सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक, साँस्कृतिक, धार्मिक, वीरता एवं पारिवारिक किसी भी क्षेत्र में नर से पीछे नहीं रहीं। गाड़ी के दोनों पहिये बराबर थे। पटरी पर गाड़ी ठीक चल रही थी। हम उन दिनों प्रगति पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते चले जा रहे थे। परन्तु हाय रे हमारा समय, हाय रे हमारा दुर्भाग्य! जिसने न जाने हमें क्या-क्या सिखा दिया तथा न जाने क्या-क्या करने को हमें मजबूर कर दिया। जब हम अपने गौरवमय अतीत का विचार करते हैं तो यह पाते हैं कि भारतीय संस्कृति एवं धर्म के अंतर्गत नारी को हमेशा शक्तिरूपा एवं भगवान माना जाता था और उसकी स्तुति इस प्रकार करते थे-

या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

नारी हमारी माँ है और नारी हमारी धर्म-पत्नी भी है। वह हमारी गृहिणी है। घर उसी ने बनाया है, अगर वह नहीं होती तो हम जंगलों में भिखारी एवं फकीर की तरह धूम रहे होते । हमारा कोई भी महत्व नहीं होता। हम नशे में पड़े रहते, होटल में खाना खा रहे होते एवं मस्जिद में नमाज पढ़ रहे होते अथवा मंदिर में कीर्तन- भजन गा रहे होते। हमारी धर्मपत्नी ने हमारे लिए एक घोंसला बनाया, जिसमें जब हम थककर आते हैं तो जाकर विश्राम करते हैं। अगर व नहीं होती तो हमें न जाने कहाँ जाना पड़ता और न जाने हम किस तरह से मारे-मारे फिरते होते।

मित्रों, नारी हमारी बेटी हैं, जो हमारे और आपके अन्दर सौजन्य एवं स्नेह भरती है॥ हमारी आँखों में पवित्रता भरती है और उसे जीवित रखती है। अगर बहिन हमारी न हो, तो हमारे एवं अन्य स्त्रियों में कुत्ते एवं कुतिया की तरह रिश्ता हो जाता और उस समय हर आदमी इसी धरती पर शालीनता एवं मर्यादा का उल्लंघन करने लग जाता। बहिन हमारे ऊपर अंकुश लगाती है ताकि हम इस संसार में एक संस्कारवान इनसान के रूप में जी सकें। परम पवित्रता की मूर्ति हमारी बेटी, शालीनता एवं मर्यादा की प्रतीक हमारी बहिन, घोंसला बनाने वाली हमारी धर्मपत्नी, हमारी सहयोगी, वीर योद्धा, अर्द्धांगिनी और हमारी माँ, जिसके पेट में हमने अपना नौ महीने का समय बिताया। उसके पेट में हमने नौ महीने पैर पसारे और उसकी छाती का दूध पिया है ! उसे हम कैसे भूल सकते हैं। वास्तव में हम नारी को माँ, पत्नी, बहिन, बेटी किसी भी रूप में देखें। हर रूप में वह त्याग, तपस्या, क्षमा करुणा और दया की मूर्ति हमें दिखायी पड़ती हैं जिसके कारण हमें मनुष्य होने का गौरव प्राप्त हुआ है। वह पूज्य है, जिसका भारतीय संस्कृति एवं धर्म में कितना महत्वपूर्ण स्थान था, परन्तु हाय रे भगवान! आज हम जब उसकी स्थिति देखते हैं तो हमें रोना आता है कि हे भगवान ! उसका रूप क्या हो गया ! नारी के दयनीय रूप को आज हम देखते हैं तो हमें बड़ा दुःख बड़ा क्लेश होता है। आजकल यह सब उनके अभ्यास में आ गया है, स्वभाव में आ गया है।

हम अभ्यास की बाबत क्या कह सकते हैं ? रोम में कैदियों को एक ऐसे बन्द कमरे में रख जाता था, जहाँ रोशनी भी नहीं पहुँचती थी। जब उन्हें रिहा किया जाता था तो वे पागलों की तरह से भागते थे और यह कहते थे कि हमें सूरज की रोशनी नामंजूर हैं। हम बाहर नहीं जाएँगे। हमें अंधेरे में ही रहना अच्छा लगता है। वे भगवान से प्रार्थना करते थे कि हम अंधेरे में ही रहें ताकि हमारी आँखों की रोशनी बनी रह सके। इसी प्रकार आज के समाज, परिवार व्यक्ति के अंतर्गत यह स्वभाव-सा बन गया है कि उन्हें नर-नारी के बीच कोई अन्तर दिखाई नहीं पड़ता है। स्त्रियाँ घर में खाना बनाती हैं, घर का अन्य काम करती रहती हैं। हम बाहर खेतों में, कारखानों में काम करते हैं। इसमें क्या फर्क है, इसमें क्या सोचना है ? परन्तु यह कहने की बात नहीं है। यह भेद आपको तब मालूम पड़ सकता है जब आपको स्त्री बना दिया जाय। आपके ऊपर जादू का डंडा फिरा दिया जाय और आपको स्त्री बना जाय। आप सबके लम्बे-लम्बे बाल हो जायें तथा दाढ़ी-मूंछें समाप्त हो जायें। सबके दो-तीन-चार बच्चे हो जायें। आपको यह हुक्म दे दिया जाय कि आप घर से बाहर नहीं निकल सकते हैं। आपको जब भी बाहर जाना हो तो एक आदमी को लेकर जाना होगा। आप कहेंगे। कि गुरुजी! हम तो मर जाएँगे। हमें इस प्रकार दंडित मत करो। हम तो दफ्तर से आते हैं और सिनेमा देखने चले जाते हैं। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि हम घर के जेलखाने में बन्द रहें। यह तो हमारे लिए बड़ा मुश्किल होगा। चलिए, इतना नहीं तो इतना ही हम करते हैं कि आप में से हर आदमी को कल से कम से कम घूँघट मार कर दफ्तर , बाजार जाना होगा! आप कहेंगे कि कोई आदमी इस तरह नहीं रह सकता है। गुरुजी, हमारी तो मिट्टी पलीद हो जाएगी ओर हम कहीं के नहीं रहेंगे, हम तो बर्बाद हो जाएँगे! वास्तव में यह सत्य है कि इस प्रकार की प्रथा तो इनसान के लिए गैर मुनासिब है। बेटे! जिस प्रकार के बन्धन जानवर बर्दाश्त नहीं कर पाते, वे बन्धन इनसान पर लगा दिये जाएँगे तो वह कैसे बर्दाश्त करेगा ? जानवर मुँह खोलकर सड़क पर चल सकते हैं तथा चिल्ला सकते हैं, परन्तु यह क्या तुक है कि हमारी पत्नी मुँह नहीं खोल सकती। हमारे मारने-डाँटने पर वह कुछ न कहे तथा घर में चिल्लाये भी नहीं, यह कैसे हो सकता है ? और अगर वह चिल्लायेगी तो हमारे पड़ोसी इकट्ठे हो जाएँगे तथा हमारी बेइज्जती हो जाएगी। यदि इस बात को वह अपने भाई से, बाप से कह दे तो, आप उसे भला-बुरा कहते हैं कि तूने हमारी शिकायत क्यों की ? बेटे ! बात-बात पर हम यह कहते हैं कि हम मर्द हैं ओर तु औरत है। इसलिए हमारी बात को तुझे अपने भाई से नहीं कहना चाहिए और हम जैसे कहते हैं।, तुझे वैसा ही करना चाहिए। ये विचित्र परिस्थितियां जैसे-घूँघट वाली, लड़के एवं लड़की में भिन्नता वाली, शिक्षा से वंचित हो जाने वाली न जाने क्यों और कहाँ से उत्पन्न हो गयी हैं जिसके कारण नारियों की स्थिति दयनीय हो गयी है। भगवान न करे कहीं आपको लड़की बना दिया जाय और आपकी बहिन को लड़का बना दिया जाये तथा घर में भैंस का दूध आये और आपको न दिया जाये तो आपकी क्या मनःस्थिति होगी । जरा सोचने का प्रयास करें कि अगर आपकी मम्मी यह कहें कि लड़कियाँ दूध नहीं पीती हैं, अगर वे दूध पी लेंगी तो उनकी मूँछें निकल आयेंगी। लड़की बाद में कहती है कि मम्मी हम दूध नहीं पियेंगे, पर हमारी मूँछें मत निकलवाना।

बेटे ! एक ही माँ के पेट से जन्मे दो बच्चों में से एक को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा जाता है और दूसरे को नहीं भेजा जाता है। एक को अपनी जायदाद में से हिस्सा दे दिया जाता है और दूसरे को दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया जाता है। यह कैसी विडम्बना है हमारे समाज की ? इतना ही नहीं लड़के की शादी होती है तो पैसा लिया जाता है और जब लड़की की शादी होती है तो समाज के लोग यह कहते हैं कि इस मरी हुई गाय को हम खरीदने के लिए तैयार नहीं हैं, अगर इसका देना ही चाहते हैं तो इसके कफ़न के लिए, इसके खाने के लिए आपको पैसा देना होगा। तब हम यह कहते हैं कि हमारी लड़की गूँगी , बहरी, अंधी नहीं है। आपके घर में चार रोटी खायेगी, फटे-पुराने कपड़े पहनेगी परन्तु आपके घर का काम करके पैसा चुका देगी। आप हमसे पैसा क्यों माँगते हैं ? आपके घर में सफाई का काम, खाना बनाने का काम, बच्चा पैदा करने का काम, चौकीदारिन का काम करेगी तथा आपसे तो केवल चार रोटी ही तो लेगी। साहब आप पैसा क्यों माँगते हैं ? जिस लड़की को योग्य बनाया, जो कि बी.ए., एम.ए. पास है। आप उसके पिता से पैसा माँगते हैं, लानत है आपको।

आपको मालूम नहीं है हमारे आश्रम में जो महिलाएँ खाना पकाती हैं, उनको हम खाना देते हैं, कपड़े देते हैं, उनका स्वास्थ्य खराब होने पर दवा-दारु की भी व्यवस्था करते हैं तथा हर महीने साठ रुपये उनके बैंक खाते में पैसा भी जमा करते हैं । बेटे, तुम्हें मालूम होना चाहिए कि केवल खाना पकाने की मजदूरी इतनी होती है, जबकि घर की महिलाएँ तो किफायतशारी होती है। आप को तो उन्हें इससे भी अधिक देना चाहिए क्योंकि वे सफाई करती हैं, कपड़े धोती हैं। आपको एक बात और बतायें, जब हम गायत्री तपोभूमि में रहते थे, उस समय आस-पास ज्यादा बस्ती तो थी नहीं, सो चोर आया करते थे। तब हमने एक बूढ़ा चौकीदार रखा था। हम उसको पचास रुपये माहवार देते थे। अब हम आपसे पूछते हैं कि आपकी स्त्री चौकीदारिन है कि नहीं ? हाँ साहब है तो, क्योंकि हम तो सुबह आफिस चले जाते हैं, दुकान चले जाते हैं और शाम को कभी-कभी ज्यादा काम होने पर रात को भी आते हैं। वह सारे दिन घर की रखवाली करती है और रात में भी करती है। आप पचास रुपये प्रतिमाह के हिसाब से दिन एवं रात के सौ रुपये निकालिये ! अगर यह घर में नहीं होती और आप आफिस चले जाते, तो चोर आते और आपके कमरे का ताला तोड़कर सारा सामान चुराकर ले जाते, यह हिसाब आपको जोड़ना चाहिए कि खाना पकाने का, चौकीदारी का, कपड़ छोने का, बाल-बच्चा पैदा करने का घर को व्यवस्थित रखने का कितना पैसा खर्च करना पड़ेगा, उतना पैसा हिसाब से दीजिए। यह सब हम साँसारिक बातों का जिक्र करते हैं। आपसे! अभी हम उसकी आत्मा की बात नहीं करते! इतना होने के बाद भी आप पन्द्रह-बीस हजार रुपये माँगते हैं। इस बात पर कभी तो आपको सोचना चाहिए कि यह क्या है ?

मित्रों, यह अनीति है, भ्रष्टाचार और अन्याय है, दुष्टता है, अत्याचार है। जिस दिन ये चीजें समाज का अंग बन जाएँगी, उस दिन समाज का सत्यानाश हो जाएगा। यहाँ पर मनुष्यता का कोई मूल्य ही नहीं रह जाएगा। वह समाज नष्ट हो जाएगा, वह समाज कभी फल-फूल नहीं सकता है । हजार वर्ष तक गुलाम बनाकर मुसलमान शासक हमारे ऊपर बुरी तरह से हुकूमत करते रहे। इतनी बुरी हुकूमत दुनिया में कभी भी नहीं हुई। इतने कत्लेआम किसी जमाने में नहीं हुए होंगे। शहर के शहर, गाँव के गाँव जिसमें स्त्री, पुरुष और बच्चे सभी रह रहे होगे, उन्हें उन लोगों ने साफ कर दिया। ऐसे अत्याचार दुनिया में कहीं नहीं हुए। ये केवल हिन्दुस्तान के ऊपर हुए हैं। इसका कारण हम हैं, क्योंकि हमने आज तक अपने आधे अंग पर जुल्म किया है। यदि ये जुल्म हम जानवरों पर करते, मुर्गे पर करते भी तो कोई और बात थी, परन्तु इन अज्ञानियों ने तो अपनी बेटी, बहिन, माँ और धर्मपत्नी को खाया है और रोज ही उनका जनाजा निकलता जा रहा है। हम बच्ची को पढ़ाना नहीं चाह रहे हैं। क्योंकि हमें दहेज में मोटी रकम देनी होगी।

सामाजिक अत्याचार की बात हम क्या कहें ? हमारे पिताजी की जब मृत्यु हुई तो हमें याद है कि हमारे घर में महाब्राह्मण आये थे। उन्होंने भोजन किया, उसके बाद उन्होंने कहा कि हमारे मुँह को भरो। फिर उन्होंने अपना मुँह खोल दिया और सभी लोगों ने उनके मुँह में पैसा डालना शुरू किया। उस सस्ते के जमाने में उनके मुँह में लगभग चालीस या पचास रुपया आ गये। उस जमाने में उनका ही काफी महत्व था। आज जो दहेज माँग रहे है। उन निखट्टू लोगों की तुलना हम उन्हीं महाब्राह्मण से करते हैं, जिन्हें कोई शर्म नहीं कि घर में शोक का वातावरण है और हम पैसे के लिए बाध्य कर रहे हैं। हमने समाज के अंतर्गत नारियों को शिक्षा से, घर के सामान्य अधिकारों से वंचित कर दिया है और दहेज के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। वास्तव में हमने इन्हें इनके मौलिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया है। हमने यह कभी नहीं सोचा कि इससे समाज की क्या स्थिति होगी। हर संस्था वालों ने सरकार ने इस बात की पुष्टि की है कि हर आदमी अपने मौलिक अधिकारों का भाग करने के लिए स्वतंत्र है। फिर भी हमने स्त्रियों को इससे वंचित क्यों किया ? यह एक मूल प्रश्न हम सब के सामने है।

हम पूछते हैं कि आप क्या लड़की कन्यादान करेंगे ? क्यों? यह कोई बेचने का सामान है जो आप बुड्ढे से मोल-तोल करके बेच रहे हैं। यह सम्पत्ति नहीं है, इनसान है। राष्ट्रसंघ के संविधान में यह स्वीकार किया गया है कि नर एवं नारी दोनों के मौलिक अधिकार एक हैं, मानवीय अधिकार एक हैं, मानवीय अधिकार एक हैं। दोनों मनुष्य है इसलिए उन्हें समान अधिकार प्राप्त हैं। हमारे भारतीय संविधान ने भी यह घोषणा की है कि हम नर एवं नारी की भिन्नता को नहीं मानते हैं। हम दोनों को इनसान मानते हैं। दोनों को स्वाधीन मानते हैं। दोनों को स्वेच्छा एवं सहयोग पर विश्वास करते हैं। कोई किसी की संपत्ति या मिलकियत नहीं हो सकते हैं। परन्तु हमारे व्यवहार में यह कहाँ आ रहा है। आज भी स्त्री तो हमारे गले का पत्थर बनी हुई है, वह भार बनी हुई है। आज वह हमारे लिए सहायक नहीं है। उसके बाप ने पढ़ने नहीं दिया, हमने उसे पढ़ने नहीं दिया। उसके विकास के लिए किसी ने प्रयास ही नहीं किया । वह स्वावलम्बी नहीं है, कोई उद्योग नहीं कर सकती है, खेती बाड़ी , नौकरी नहीं कर सकती है। वह तो चार-पाँच बच्चों की माँ है। वह क्या कर सकती है।

हमारी नौकरी क्लर्क की है। हमें ढाई सौ या तीन सौ रुपये मासिक वेतन मिलता है। हम उस परिस्थिति में मर जाते हैं तो हमारे मरने के बाद उस बीबी का क्या होगा, जिसके पास चार पाँच बच्चे मौजूद हैं। कोई जमाना था जब जेठ, देवर बच्चों को पाल लिया करते थे। कोई जमाना था जब भाई कहता था कि हम अपनी बहिन का पालन कर लेंगे, हमें कोई चिन्ता नहीं है। परन्तु आज जमाना बदल चुका है, परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। आज कोई एक भी उसके सहयोगी या सहायक नहीं बन पा रहे हैं। यह कलयुग है, यह सन् उन्नीस सौ पचहत्तर है। जिसमें भाई अपने भाई के खून का प्यास बना हुआ है। वह चाहता है कि भाई की मृत्यु बाद भाभी को हम जहर दे दें, बच्चों को लावारिस करदें ताकि खेत के हम मालिक बन जायें। इनका पैसा, गहना हमें मिल जायें, कहा भाभी को घर से भगा देते हैं, कहते हैं तू कौन होती है। ये मेरे भाई की कमाई है, इसमें मेरा हम है। इन पाँच बच्चा का क्या होगा ? वह मायके जाती है, तो उससे कहा जाता है वापस वहीं जाओ और देवर-जेठ के जूठे बर्तन साफ करो। ये उन स्त्रियों का हाल है जिन्हें हम धर्मपत्नी, अर्द्धांगिनी कहते हैं। बेटे! हमें ही यह सोचना होगा कि हमारी भी कोई जिम्मेदारी है या नहीं? हम तो कपड़े और चार रोटी के टुकड़े फेंककर निश्चित हो जाते हैं। आप बी.ए. पास है तथा आपकी पत्नी मैट्रिक है तो आप उसे पढ़ाने का प्रयास करें, उसे भी बी.ए. पास कराइए अधिक बच्चे पैदा करके उसकी सेहत खराब न करें, उसके लिए जालिम तथा हत्यारे न बनें। आप इनसान हैं तो इनसानियत की बात कीजिए और इस समस्या को गम्भीरता के साथ सोचिए।

महात्मा गाँधी दक्षिणी अफ्रीका गये थे। वहाँ गोरे एवं काले में अन्तर समझा जाता था काले में अधिकांश हिन्दुस्तानी थे। उनके स्कूल, बसें सब अलग थी गोरे, काले लोगों को बहुत नीच समझते थे। गाँधीजी ने वहाँ सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने कहा कि हम भी इनसान हैं तथा हमें भी गोरे लोगों की तरह रहने का मौका मिलना चाहिए । हमें भी हमारा हम मिलना चाहिए। इस काले-गोरे की मान्यता को विश्व की मानवीय संस्था राष्ट्रसंघ ने अस्वीकृत कर दिया। उन्होंने कहा कि नस्ल की वजह से कोई बड़ा-छोटा नहीं हो सकता आदमी अपने कर्त्तव्य-कर्मों से बड़ा-छोटा हो सकता है। अच्छे काम करेंगे तो आपका सम्मान हो सकता है तथा बुरे काम करेंगे तो आपका अपमान हो सकता है। वंश-जाति की वजह से आप अपने को बड़ा नहीं समझ सकते। आपके बाप-दादा ब्राह्मण थे, परन्तु आप ब्राह्मण नहीं हो सकते। गाँधीजी ने वहाँ कहा कि गोरे-काले का अन्तर नहीं होना चाहिए । इस पर उन लोगों ने कहा कि आप जो हमसे कहते हैं, वह भेदभाव पहले भारत में समाप्त कीजिए।

मित्रों, स्त्रियाँ भी इनसान हैं, उन्हें भी वे अधिकार प्राप्त होने चाहिए, जो मर्दों को प्राप्त हैं। उन्हें भी यज्ञोपवीत, हवन, यज्ञ, गायत्री उपासना का अधिकार होना चाहिए। इसके लिए हमने अब तक लड़ाई लड़ी है और आगे भी लड़ेंगे। बाप-दादों की बातों को हम नहीं जानते, वे अंधकार के जमाने में पैदा हुए थे। मध्यकालीन युग में स्त्रियों पर तरह-तरह के बंधन लगाये गये थे। उससे पहले प्राचीनकाल का जो समय था, वह दिन का समय था। उस समय में उनका गौरवमय अतीत था। वे लक्ष्मीनारायण, सीताराम, राधेश्याम के रूप में विराजमान थीं। हम सरस्वती का त्यौहार, बसंत पंचमी, लक्ष्मी का दिन, दीपावली तथा दुर्गा का दशहरा, गायत्री का गंगा दशहरा मनाते हैं। यह क्या हैं ? बेटे, यह स्त्रियों का सम्मान ! प्राचीनकाल में दोनों एक-दूसरे को सम्मान देते और कंधे से कंधा मिलाकर चलते थे। ये देवी थी। हर नारी के नाम से साथ देवी शब्द इसीलिए प्रयुक्त होता था। हम इन्हें भगवान का ही शक्ति रूप मानते थे। शास्त्रों में नारी को हमने भगवान माना है और सारे पूजा-पाठ उसी के निमित्त हैं। नवरात्रि में हम नवदेवियों की पूजा करते हैं।

मध्यकाल में बाप-दादों ने आपके अंदर जो मान्यताएँ बना दीं, वे वस्तुतः आन्ता और अंधकार युग की देन हैं। हमें मालूम है एक जमाना ऐसा भी आया था, जिसमें जिसकी लाठी उसकी भैंस होती थी। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती थी। यह जंगल के कानून थे जो इनसान को खा जाते थे। आल्हा-ऊदल, मलखान की कहानी तो आपने पढ़ी है न । वे क्यों लड़ाई लड़ना चाहते थे ? ये लड़ाई लड़ना चाहते थे ? ये लड़ाई बिना सिर-पैर की थीं। इसमें न कोई इनसाफ की, न इनसानियत की और न ही आजादी की लड़ाई थी, यह तो केवल उनके अहंकार की लड़ाई थी और यह यह थी कि हम उसकी लड़की को छीनकर भाग जाएँगे। यह सामन्तवादी, जमींदार एवं ठाकुरों का युग था। इनका साम्राज्य सारे हिन्दुस्तान में और कहीं-कही तो हिन्दुस्तान से बाहर भी फैल गया था। उस जमाने में लुटेरे दो चीजें लुटते थे। एक तो जवान मर्दों को, जिनसे बैलों की तरह काम कराते और गुलाम बनाकर रखते थे। आपको मालूम नहीं मिस्र के पिरामिड में तीस लाख गुलामों का खून किया गया था। जब तक गुलाम जवान रहे, उनका उपयोग किया जाता रहा और जब वे बुड्ढे , असमर्थ हो गये तो उन्हें मार दिया गया।

इसी सामंतशाही युग में लूट का दूसरा चरण यह उठा कि जहाँ कही भी जवान औरतें दिखीं, उनको चुरा लिया गया, अपहरण कर लिया गया। रईस, जमींदारों के यहाँ सौ से लेकर एक हजार तक औरतें रखी गयी। आप सोच सकते हैं कि इस परिस्थिति में वहाँ बगावत पैदा हो सकती थी या नहीं ? इन लोगों ने उन स्त्रियों पर लगाम लगाकर, चेहरे पर नकाब, बुर्का लगाकर बहुत ही कन्ट्रोल में रखा आपको मालूम नहीं है जब आजादी मिल गयी तो हैदराबाद के राजा निजाम पर साढ़े सात सौ औरतों ने ‘क्लेम’ किया था। आप जरा विचार करके देखें कि किसी के यहाँ अगर दो औरतें होती हैं तो खून-खच्चर होता है और जहाँ साढ़े सात सौ औरतें होंगी वहाँ खून खच्चर नहीं होगा तो क्या होगा ? इसी कारण उन्हें बन्धनों में रखा जाता था ताकि वे बगावत न करें, कहीं जहर न देदें और अपने द्वेष एवं अहंकार वंश कोई घटना न कर दे। उन्हें घूँघट में इसलिए रखा जाता था ताकि उनके आँसू उनके पड़ौसी ,भाई, बाप को दिखायी न पड़े सकें, नहीं तो कोई भी उनके साथ सहानुभूति कर सकता है। यह उस जमाने की बात है जब मुसलमान हमारे देश में आये और उन्होंने बहुपत्नी प्रथा को प्रारम्भ किया था। इसके बाद हिन्दुओं के यहाँ भी यह परम्परा धीरे-धीरे शुरू हो गयी।

उस जमाने में पंडित लोग भी कहीं-कहीं ऐसे उदाहरण दे दिया करते थे कि जब भगवान श्रीकृष्ण के सोलह हजार छह सो आठ पत्नियाँ हो सकती हैं, तो आप क्यों नहीं रख सकते? आप कम से कम सोलह सौ तो रख ही सकते हैं। ऐसी विडम्बना मध्यकाल में पंडों-पुरोहितों ने फैलाकर नारी समाज पर घोर अपराध किया था। वे लोग राजा जनक के सौ रानियों का, उनकी पटरानियों का विवरण देते थे।वे राजा दशरथ की भी चार रानियों की बातें करते थे। क्या आप उन्हें ही बाप-दादे कहेंगे , जो लूटकर औरतें लाते थे और बंदिशों में रखकर उनके साथ अत्याचार करते थे। आप उन्हें बाप-दादा मानने से इनकार करें, यह हमारी राय है । इन्हीं लुटेरों से सयानी लड़कियों को बचाने के लिए माँ-बाप ने छोटी उम्र में शादी ब्याह यानि बाल विवाह शुरू कर दिये। तब सोलह वर्ष की लड़की की गोद में बच्चा आ जाता था। वह कमजोर हो जाती थी, चल-फिर भी नहीं सकती थी, परन्तु माँ-बाप यह कहकर संतोष कर लेते थे कि हमारी लड़की जैसी भी है, कम से कम जिन्दा तो रह जाएगी। कोई डाकू-लुटेरा उठाकर तो नहीं ले जाएगा। उस जमाने में जो कुछ भी रहा हो उसे हम यह मान सकते हैं कि लोगों ने आपत्ति धर्म का पालन किया और कम उम्र में बच्चों का विवाह करा दिया। मजबूरी में आदमी न जाने क्या -क्या कर देता है।

बेटे, आज ये परिस्थितियाँ हमारे सामने अस्वाभाविक हैं। इनका समापन होने की, सुधार होने की आवश्यकता है। हम अपनी मान्यताएँ, अपना दृष्टिकोण बदलें, अन्यथा ऐसी स्थिति में मनुष्य का जीवन कैसे चल सकता है ? हमने अपनी जिन्दगी में हो अपने बीबी-बच्चों को अनाथ कर दिया। उनके भविष्य में गुजारे का भी काई प्रबन्ध नहीं किया। हमने इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि स्त्रियों को स्वावलम्बी होना चाहिए। इसके लिए उन्हें पढ़ाने की , प्रोत्साहन की आवश्यकता है। विदेशों में महिलाओं के जिम्मे सौ प्रतिशत काम हैं। वहाँ पुरुष वर्ग फैक्टरी तथा सरकारी ऑफिसों में काम करते हैं, बाकी कृषि, सामाजिक कार्य तथा स्कूल-कालेजों में स्त्रियाँ ही काम करती हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और एक गाड़ी के दो पहियों की तरह हैं।क्या वहाँ लोग जीवन नहीं जो रहे ? अपने देश में लोगों को यह शंका है कि यहाँ की नारी आगे बढ़ जाएगी तो हमारा जीवन गुजारना मुश्किल हो जाएगा। इन मान्यताओं को हमें बदलना होगा। जब तक हम एक-दूसरे के पूरक बनकर काम नहीं करेंगे, हमारा विकास संभव नहीं है। जापान में जाकर देखिये वहाँ महिलाएँ कैसे आत्मविश्वास से काम करती हैं।

एक हम हैं जो सोचते हैं कि वह आगे बढ़ेगी तो उसके पंख निकल आएँगे । वह हमें मारेगी, गाली देगी, जवाब देगी और भी न जाने क्या-क्या कुकल्पना करते हैं। अगर आप कोई गलत कार्य करते हैं तो वह नाराज क्यों नहीं होगी ? अगर आप गाली देंगे तो वह गाली देगी। आप शराफत के साथ पेश आएँगे तो वह भी शराफत से पेश आएगी। अगर आप प्यार भरा व्यवहार करेंगे तो वह भी आपसे प्यार भरा व्यवहार ही करेगी ! अतः आप गलत काम की बजाय अच्छा काम ही करें। आप शीशे के सामने हाथ जोड़ेंगे तो उधर से भी हाथ जोड़ता व्यक्ति नजर आएगा। अतः जैसा व्यवहार करेंगे वैसा ही उसका व्यवहार होगा। हम अपना सुधार कर लें तो सब ठीक हो जाएगा। बेटे, हम कठोर हैं, स्त्रियाँ कठोर नहीं होतीं। औरतें माँ होती हैं, बहिन होती हैं, बेटी होती हैं, पत्नी होती हैं। जिनके हृदय में करुणा, दया एवं प्यार भरा हुआ होता है। यह समय दूसरा आ गया है। अब हमें इनसाफ को और सत्य को लेकर चलना होगा। हमारे मिशन का उद्देश्य धर्म प्रचार का तो है ही, उसके साथ ही बेइन्साफी के विरुद्ध लोहा लेना भी हमारा काम है। केवल ज्ञान-अर्जन, अनुष्ठान कराना हमारा उद्देश्य नहीं है, बल्कि दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन करना भी हमारा उद्देश्य है।

एक बार द्रोणाचार्य से लोगों ने पूछा- आप अपनी पीठ पर तीर-धनुष क्यों रखे हैं ? आप तो संत हैं, ब्राह्मण हैं। उन्होंने कहा-

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