आखिर यह दारुण दुर्दशा कब तक सही जाय ?

September 1996

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नारी की जो आज स्थिति है, उसे किसी प्रकार न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के कुछ जन्म सिद्ध अधिकार है। प्रत्येक मानव प्राणी को अपनी मर्जी का नैतिक जीवन जी सकने की स्वतन्त्रता रही है और होनी भी चाहिए। मैत्री के आधार पर कोई किसी के लिए कुछ भी त्याग कर सकता है, पर कैदी के अतिरिक्त अन्य किसी को बलात् बन्धन में बाँधने का , उसका बलात् उपयोग करने का अधिकार नहीं हैं। लेकिन नारी इस मूलभूत अधिकार से भी वंचित है ?कन्या का, उसके अभिभावक कहीं भी किसी के साथ भी ब्याह कर सकते हैं या बेच सकते हैं। पति उसे बलपूर्वक अपने अधिकार में रख सकता है और अनिच्छा होते हुए भी जो चाहे सो अपनी मर्जी के अनुसार करा सकता है। उसके साथ चाहे जैसा व्यवहार कर सकता है। पशुओं जैसी मार पीट कर सकता है, लुक-छिपकर जान भी ले सकता है। यह स्थिति मनुष्य के मौलिक अधिकारों के विपरीत है। किसी के भी जीवन पर इतने कड़े प्रतिबन्धों का होना, न्यायोचित तो नहीं कहा जा सकता है। पर्दा प्रथा का दण्ड जिसे भुगतना पड़ता है, उसकी स्थिति तो और बदतर है किन्तु शताब्दियों से चल रही अवाँछनीय परम्पराओं ने इन्हीं विडम्बनाओं को मर्यादा के रूप में मान्यता दे दी है।

इस स्थिति में चिरकाल तक रहती चली आयी महिलाएँ धीरे-धीरे अपनी मानवीय उपलब्धियों से वंचित होती चली और आज की दुःखद स्थिति आ पहुँची। घर के छोटे-से पिंजड़े में आजीवन कैद रहने के कारण उसका स्वास्थ्य चौपट हो गया । खुली हवा, खुली धूप, हाथ-पाँव हिलाने की स्थिति न मिलने पर स्वास्थ्य का सर्वनाश होता ही है। छोटी आयु में विवाह हो जाने पर किशोरावस्था और नवयौवन के दिनों होने वाले शारीरिक विकास की जड़ें ही कट जाती है। शरीरशास्त्र का स्पष्ट निष्कर्ष है कि बीस वर्ष से कम आयु में सन्तानोत्पादन-नारी के स्वास्थ्य को मटियामेट करके रख देता है। उसे छोटी-बड़ी अनेक बीमारियाँ आरम्भ से ही घेर लेती है। और मरते दम तक साथ रहती है। पेडू का दर्द,कमर का दर्द, पेट दुखना, मासिक धर्म की अनियमितता, श्वेत प्रदर पेशाब में जलन जैसे रोग स्पष्टतः शक्ति से अधिक मात्रा में जननेन्द्रिय का दुरुपयोग किए जाने के ही दुष्परिणाम है।

छोटी आयु से ही कच्चे अंग- अवयवों पर जब दाम्पत्य हलचलों का अमर्यादित भार पड़ेगा ,तो उससे स्वास्थ्य की जड़ें खोखली होनी ही है। स्त्रियों में अधिकांश को अपच, सिर दर्द, अनिद्रा, हाथ-पैरों में टूटन, आँखों में जलन, मुँह में छाले, थकान, सुस्ती, बेचैनी जैसी शिकायतें बनी रहती हैं । इसका कारण उनकी जीवनीशक्ति का क्षीण हो जाना ही होता है। जिन लड़कियों का अपना शरीर ही सुविकसित नहीं हो पाया, उनके ऊपर समय से पहले बच्चे पैदा करने का भार पड़ेगा , तो वह शक्ति, जो अपना शरीर पुष्ट कर सकती है, सहज ही समाप्त हो जाएगी । बच्चे का शरीर आखिर माता का शरीर काटकर ही तो बनता है। उसका रक्त, माँस, हड्डी आदि जो कुछ है, वह स्पष्टतः माता के पास जो शरीर संपत्ति थी , उसी का एक टुकड़ा अलग से टूटकर खड़ा हो गया । जो दूध बच्चा पीता है, वह माता के रस-रक्त के अतिरिक्त और क्या है ? उसे बच्चा पीता रहेगा तो माता के शरीर में उसकी कमी पड़ेगी ही । जो रक्त-माँस लड़कियों के अपने स्वास्थ्य संवर्द्धन के लिए आवश्यक था, वही यदि सन्तान में निकलता चला जाय तो स्पष्ट है कि इस कारण उसे स्वास्थ्य की दृष्टि से दुर्बल, रुग्ण और गई-गुजरी स्थिति में रहना पड़ेगा । दुर्बल के पास न तो रूप बचता है, न यौवन, न उत्साह ,न स्फूर्ति, न ताजगी , न मुसकान । लड़कियों को छोटी आयु से ही दाम्पत्य जीवन के दबाव में जिस प्रकार पिसना पड़ता है, वह उनकी अकाल मृत्यु का बहुत बड़ा कारण हैं। प्रसव पीड़ा से लाखों महिलाएँ हर साल बेमौत मरती है इसका कारण उनके प्रजनन अंगों की दुर्बल स्थिति होते हुए भी असह्य दबाव का पड़ना हैं । प्रसव काल में जितना रक्त आता है, जितना कष्ट होता है, उसे परिपुष्ट माता का स्वास्थ्य ही सहन कर सकता है। कमजोर शरीर वाली लड़कियों के लिए तो यह बेमौत मारे जाने जैसा अभिशाप है।

यहाँ नहीं कहा जा रहा है कि विवाह नहीं करना चाहिए और बच्चे उत्पन्न नहीं करने चाहिए , लेकिन यह सब बातें सहज, स्वाभाविक रीति से होनी चाहिए। स्त्री का स्वास्थ्य जितना दबाव पड़ना चाहिए । किन्तु इस क्षेत्र में नारी सर्वथा असहाय है, वह इस संदर्भ में मुँह नहीं खोल सकती । पति की इच्छापूर्ति के लिए उसे विवश होना पड़ता है । सन्तानोत्पादन के लिए शरीर में गुंजाइश न होने पर भी उसे वह भार बलात् उठाना पड़ता है। अपना स्वास्थ्य नष्ट होने, दुर्बलता, रुग्णता और अधिक बढ़ने, अस्वस्थ सन्तानें जनने, गर्भपात आदि होते रहने, असह्य प्रसव पीड़ा न सह सकने, अकाल मृत्यू को गले न बाँधने जैसे विचार उसके मन में उठते रह सकते हैं, पर वह कह कुछ नहीं सकती, कर कुछ नहीं सकती पराधीन की स्वेच्छा क्या ? उसकी अपनी मर्जी कहाँ ? उसे अपने स्वास्थ्य की बात सोचने का अधिकार ही किसने दिया है?

नारी पुरुष की तुलना में शारीरिक दृष्टि से जितनी दीन, दुर्बल बनकर रह रही है, यह सहज स्वाभाविक स्थिति नहीं हैं। पश्चिमी देशों की महिलाएँ हर क्षेत्र में, स्वास्थ्य में भी पुरुषों के समतुल्य है। यह अभागा भारत ही है जिसने नारी को मानवोचित अधिकारों से वंचित किया। फलस्वरूप जो परिस्थिति उत्पन्न हुई, उसने नारी के स्वास्थ्य को खा लिया । इसे भाग्य का, भगवान का दोष कहकर मन को समझाया जा सकता है, पर वस्तुतः यह पुरुष के ही अनाचार, अत्याचार का दुष्परिणाम है । जिसे रोते, कराहते, छटपटाते नारी तो भुगतती है, पर इस स्थिति से पुरुष भी कुछ अधिक प्रसन्न नहीं रह सकता है । इससे उसे भी कुछ लाभ उठाने का अवसर नहीं है । शोषित तो मिटता ही है शोषक को भी विधि का विधान सुख की साँस नहीं लेने देता। नारियों को अस्वस्थ बनाकर उसके मलिक कहलाने वाले भी इस स्थिति में क्या सन्तोष अनुभव कर रहे हैं ? रोते-कराहते स्वर आखिर उन्हें भी तो कुछ तो कष्ट देंगे ही। सहानुभूति समाप्त हो गई हो, तो भी खीझ और झुँझलाहट तो सताती ही रहेगी । उससे तो पीछा नहीं ही छूटेगा।

शारीरिक स्वास्थ्य की ही तरह मानसिक स्वास्थ्य से भी नारी को वंचित रहना पड़ रहा है। जिसकी अपनी कोई इच्छा,महत्वाकाँक्षा, मर्जी, पसंदगी न हो, जिसे जन्म से मरण तक बिना उचित -अनुचित का अन्तर किए केवल आज्ञा पालन ही करना है, उसके लिए अपना भविष्य निर्माण की बात सोचना ही निरर्थक है। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के विकास में स्वतन्त्र चिन्तन का, महत्वाकाँक्षाओं का, कुछ कर सकने का परिस्थिति का प्रधान योगदान होता है।वह न मिले तो खाद-पानी न मिलने वाले पौधे की तरह ज्वलन्त सम्भावनाएँ भी नष्ट हो जाती है। ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा कितनी ही क्यों न हो, मालिकों की मर्जी के बिना उसका उपयोग कर सकने का महिलाओं के लिए कोई अवसर नहीं । इच्छा तो आखिर हर किसी की कुछ न कुछ होती ही है। उन्हें फलवती करने का जब अधिकार ही नहीं , तो आकाँक्षाओं की चिंता और राख मनःक्षेत्र में घुटन की दुर्गन्ध ही भरे रहेगी ।

पग-पग पर प्रतिबन्ध, क्षण-क्षण में तिरस्कार जिसके भाग्य में लिखा हो, वह दुर्भाग्य के आँसू ही बहाता रह सकता है। नारी निष्प्राण मशीन रही होती तो अच्छा था। पर जानदार प्राणी होने के कारण उसका अपना निज का मन भी है और निज की कुछ इच्छाएँ भी । स्वभावतः वे फैलाने , फूटने का, फलने-फूलने का अवसर चाहती हैं पर इसके लिए अधिकार रहित नारी के लिए गुंजाइश कहाँ ? चौबीसों घण्टे उसे मन को मारना पड़ता है और उस दुष्ट को देखो जो मरता तो है नहीं, उलटे विद्रोही बनकर नाना प्रकार के उपद्रव खड़े करता है। इन्हें तरह-तरह के मनोरोगों के, मनोविकारों के रूप में देखा जा सकता है।

मृगी, हिस्टीरिया से ग्रसित रोगियों में तीन-चौथाई नारी और एक चौथाई पुरुष होते हैं। तरह-तरह की सनकें, चिड़चिड़ापन , अनुदारता , दुःख, असन्तोष आशंका , दोषारोपण जैसी मानसिक विकृतियाँ उन्हें घेर रहती है। सनकी, जिद्दी , अव्यवस्थित, नासमझ, बेवकूफ, स्वार्थी आदि न जाने कितने दोष उन पर लगाए जाते रहते हैं। जो किसी कदर ठीक भी होते हैं। निराश , चिन्ता, भय, भीरुता, आशंका , अविश्वास से ग्रसित उनमें से बहुतों को देखा जाता है। सन्तोषजनक मुसकान शायद ही किसी के चेहरे पर हर घड़ी खेलती हुई देखी जाएगी । यह आदत जिनमें बचपन में थी भी , गृहस्थी में आते ही समाप्त हो जाती है। असन्तोष और क्षोभ से उद्विग्न करता है, वहाँ खिलौने देकर पुचकारता भी है। शृंगार, सजधज ,फैशन की भौंड़ी तरकीब बताकर कहता है, कुछ न सही तो इस खिलौनों से मन बहलाओ, अपना जी हलका करो।

प्रायः विकृत मन वाली महिलाएँ शृंगार प्रसाधन अपनाकर अपना खोया सम्मान इस बनावट के सहारे किसी हद तक प्राप्त कर लेने की बात सोचती है। इसमें उन्हें मिलता तो कुछ नहीं । पैसा और समय तो गँवाती ही है, मूर्ख,हास्यास्पद और छिछोरी भी बनती है। प्रशंसा पाने चली थी उपहास लेकर लौटती है। व्यंग्य रूप में ही कोई मसखरा उनके मुँह पर उस सजधज की शायद प्रशंसा, भी कर देता होगा । ये विडम्बनाएँ वे स्वेच्छा से नहीं , छलिया मन के विचित्र बहकावे में फँसकर रचती है । असन्तोष को सन्तोष में परिणत करने का कुछ भी औंधा-सीधा मार्ग वे खोजती है। इन्हीं में से एक शृंगारिक सजधज भी है अन्यथा शालीन नारी का व्यक्तित्व तो स्वच्छ , सभ्य और सरलता , सादगी के साथ ही जुड़ा रहता है। विवेक और उद्धत शृंगार का प्रत्यक्ष बैर है, जहाँ एक एक रहेगा, वहाँ से दूसरे को पलायन करना ही पड़ेगा

स्मरण शक्ति की कमी आवेशग्रस्तता, जिद्दीपन , शंकालु अनुदारता, अदूरदर्शिता, मन्दबुद्धि आदि मानसिक त्रुटियाँ स्त्रियों में बहुधा अधिक होने की बात कही जाती हैं । यदि यह सच है तो इतना ही कहा जा सकता है कि यह उनकी आन्तरिक घुटन की प्रतिक्रिया है अन्यथा मानसिक बनावट में वे पुरुषों से पीछे नहीं आगे ही रहती है। स्कूल-कालेजों के परीक्षाफल इसके प्रमाण में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। लड़के अधिक और लड़कियां कम फेल होती है। अच्छे डिवीजन लड़कियों के हिस्से आते हैं । वे छुरे, चाकू तमंचे लेकर नकल के बल पर पास होने की उद्दण्डता भी नहीं बरतती। अपनी सहज प्रतिभा एवं स्वाभाविक श्रमशीलता के आधार पर अच्छे नम्बरों से पास होती रहती है। अन्य क्षेत्रों में भी नारी को जब भी जितना भी अवसर मिलता है, सदा उसने अपनी बौद्धिक प्रखरता का परिचय दिया है। न वे शरीर की दृष्टि से दुर्बल है और न मानसिक दृष्टि से पिछड़ी हुई है। परिस्थितियों ने ही उन्हें दुर्दशाग्रस्त बना दिया है। आज तो वे दुर्बल और रुग्ण ही नहीं मन्दबुद्धि और मानसिक रोगों की व्यथा भी बेतरह सहन कर रही है।

इस स्थिति से उनका उबरना नितान्त आवश्यक है अन्यथा वे स्वयं के लिए परिवार के लिए, समाज के लिए महत्वपूर्ण योगदान देने की जगह, भार भूत ही बनी रहेंगी । रुग्ण व्यक्ति अपनी बेकारी , पीड़ा परिचर्या चिकित्सा आदि के कारण स्वयं दुःखी रहता और अपने सम्बन्धियों को दुःखी करता है। नारी की शारीरिक, मानसिक अस्वस्थता हर दृष्टि से , हर क्षेत्र के लिए दुखद परिणाम ही प्रस्तुत करेगी।

राजनैतिक दृष्टि से, पराधीन रहने वाला देश आर्थिक दृष्टि से ही शोषित नहीं होता, वरन् साँस्कृतिक, मानसिक , चारित्रिक और बौद्धिक दृष्टि से भी अपंग हो जाता है। ठीक इसी तरह सामाजिक दृष्टि से पराधीन बनाई गयी नारी भी अपनी प्रखरता और उपयोगिता गँवा बैठी है। तथ्य को समझा जाना चाहिए और विषवृक्ष के पत्ते तोड़ने की अपेक्षा उसकी जड़ काटी जानी चाहिए। नारी को हर क्षेत्र में विकास का अवसर मिलना चाहिए और उसके पिछड़ेपन को मिटाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किया जाना चाहिए । अपहरणकर्ता के रूप में पुरुष का ही दोष अधिक है । इसलिए प्रायश्चित, परिमार्जन, प्रतिकार की दृष्टि से उसी को आगे आना चाहिए । आघात पहुँचाने वाले को हर्जाना भी देना चाहिए और क्षतिपूर्ति के लिए प्रबल प्रयास करके कलंक कालिमा को जल्दी से जल्दी धो डालने के लिए कमर कसकर तत्पर होना चाहिए।


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