नारी उत्कर्ष का उज्ज्वल भविष्य के लिए महत्व समझा जाय

September 1996

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नारी उत्कर्ष अपने समय का सबसे बड़ा काम है। उसके बिना नवयुग की आशा का पूरा हो सकना बन ही न पड़ेगा। सुविधा साधन बढ़ाने से जीवनयापन में सरलता तो हो सकती है, पर उतने भर से जीवन तो नहीं बनता। जीवन खाने-सोने गम्भीरता व गरिमा तो स्तर पर निर्भर है। उच्चस्तरीय व्यक्तित्व ही वह आधार है, जिसके सहारे अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी स्वर्गीय संभावनाओं को मूर्तिमान बनाया जा सकता है। इस कमी के रहते यदि सुविधा-साधन उपार्जन को महत्वहीन नहीं बताया जा रहा है, बल्कि यह कहा जा रहा है कि उत्कृष्ट व्यक्तित्व की गरिमा सर्वोपरि है। उसकी उपेक्षा की गयी तो प्रगति का रथ दल-दल में फँसे का फँसा ही रह जाएगा। अतएव नवयुग के उज्ज्वल भविष्य की आशा करते हुए हमें यह सोचना होगा कि समुन्नत एवं सुसंस्कृत समाज के घटक बन सकने योग्य, सुयोग्य एवं आदर्शवादी नागरिकों की फसल कैसे उगायी जाय?

देश में, विश्व में, मानव रत्नों का उत्पादन बढ़े, यही समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है और इसकी पूर्ति सुसंस्कृत नारी के अतिरिक्त और कोई कर ही नहीं सकता। बौद्धिक ज्ञान की अभिवृद्धि स्कूलों में हो सकती है। शिल्प-उद्योग की शिक्षा उद्योगशालाओं में - विज्ञान की प्रयोगशालाओं में मिल सकती है। पर व्यक्तित्व को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने का कार्य परिवार की प्रयोगशाला में नारी के अतिरिक्त और कौन कर सकता है?

बच्चे आसमान से नहीं उतरते। वे माता के शरीर का ही भाग होते हैं। उनमें विद्यमान चेतना का सिंचन -परिपोषण भी माता के द्वारा ही होता है। गर्भस्थ शिशु में प्रसुप्त चेतना को जाग्रत और विकसित करने का काम माता का अचेतन ही करता रहता है। प्रसव के उपरान्त शिशु का आहार माता के वक्षस्थल से ही मिलता है, जो माता के शरीर ही नहीं मन की भी संयुक्त प्रक्रिया अपने साथ जोड़े रहता है। बच्चा इसी को पीता है और न केवल भूख बुझता है - शरीर बढ़ाता है, वरन् चिन्तन एवं दृष्टिकोण का भी अनुदान इसी के आधार पर प्राप्त करता है। मानवी विद्युत के विज्ञान को जो लोग समझते हैं उन्हें स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई न होगी कि प्रबल विद्युत सम्पन्न व्यक्ति अपने से दुर्बल साथियों को अनायास ही प्रभावित करता व छाप छोड़ता रहता है। पर्यवेक्षण से इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि मनुष्य पर सूक्ष्म स्तर का प्रभाव अन्य सबकी अपेक्षा माता का ही अधिक पड़ता है।

नवयुग की नई फसल के लिए नए धान रोपने पड़ेंगे और उनके लिए नई भूमि तैयार करनी होगी। सभी जानते हैं कि ऊसर, बंजर, रेतीली, खारवाली, खाद-पानी रहित कंकड़-पत्थरों से भरी हुई ऊबड़-खाबड़ भूमि में अच्छी फसल उगाना अन्य ऊपरी उपचारों से भी सम्भव नहीं होता। अच्छी भूमि की आवश्यकता समझी जा सकती है, तो फिर यह मानने में किसी को कोई कठिनाई न होनी चाहिए कि अगली प्रखर पीढ़ी के निर्माण की भूमिका सुविकसित नारी के अलावा और किसी के लिए सम्पन्न कर सकना सम्भव नहीं।

पीढ़ियां जनने और सुयोग्य बनाने से भी पूर्व पारिवारिक वातावरण का नव निर्माण आवश्यक है। बच्चों को प्रभावित करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है। आज की स्थिति में सुखद परिवर्तन लाने की दृष्टि से भी यह ऐसा कदम है जो अविलम्ब उठाया जाना चाहिए। नारियाँ परिवार की धुरी है। पूरा परिवार -चक्र उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। पारिवारिक सुख के लिए अर्थ साधनों की आवश्यकता से कोई इनकार नहीं करता’; पर ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि इस प्रयोजन के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता सद्भावना एवं सुव्यवस्था की है। यह दोनों तत्त्व विद्यमान रहेंगे तो अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी हँसते-हँसाते दिन गुजारे जा सकते हैं। स्नेह-सौजन्य, सहकार, सद्व्यवहार ही वह पूँजी है, जिसके सहारे एक साथ रहने वाले मनुष्य पारस्परिक आदान-प्रदान से, छोटे से परिवार में स्वर्गीय वातावरण का सृजन कर सकते हैं।

प्रश्न यहाँ भी यही उत्पन्न होता कि ऐसा वातावरण किस प्रकार उत्पन्न हो, उसका सृजन कौन करे ? इस ताले की कुंजी सुगृहिणी के हाथ में है। पुरुष सुयोग्य और सुसम्पन्न होने पर इस संदर्भ में सिर्फ हाथ बँटा सकता है, साधन जुटा सकता है, पर आगे बढ़कर कोई भूमिका निभा सकना उसके लिए सम्भव नहीं हो सकता; क्योंकि उसकी भूमिका परिवार व्यवस्था में बहुत ही स्वल्प होती है। नहाने, खाने, सोने जैसे ढर्रे के नित्य कामों को करने में ही उसका अधिकांश समय बीत जाता है। निपटने के तुरन्त बाद आजीविका उपार्जन अथवा दूसरे आवश्यक कार्यों के लिए उसे बाहर भागने कह जल्दी पड़ती है। ऐसी दशा में वह झल्लाने -समझाने की रस्म पूरी कर देने के अतिरिक्त अन्य कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभा ही नहीं पाता। यह कार्य तो सुयोग्य गृहिणी ही कर सकती है, गृहलक्ष्मी को जो नाम दिया गया है, वह अलंकार या भावुकता नहीं, उसके पीछे तथ्य है। लक्ष्मीजी के व्यक्तित्व, कर्तव्य ने अपने लोक को स्वर्ग बनाया, इस पौराणिक प्रतिपादन का प्रत्यक्ष उदाहरण देखना हो तो किसी गृहलक्ष्मी के घर में जाकर वहाँ बरसने वाले स्नेह, सौजन्य और सज्जनोचित क्रिया -कलापों के माध्यम से सहज ही देखा जा सकता है।

हमारे घरों में ऐसा वातावरण बने तो उस प्रयोजन की बहुत कुछ पूर्ति मात्र भावनात्मक आधार पर ही हो सकती है, जिसके लिए प्रचुर सम्पदा का संग्रह आवश्यक समझा जाता है। उत्कृष्ट व्यक्तियों के लिए नयी पीढ़ी कार्यक्षेत्र में उतरे, इसकी प्रतीक्षा करने की भी आवश्यकता नहीं है। आज जैसी भी परिस्थितियाँ है, उन्हीं में परिवार के उद्यान इस स्तर के बनाए जा सकते हैं, जिनमें लगे वृक्ष आज की अपेक्षा कल ही अधिक छाया, हरियाली और फल-फूलों की सम्पदा प्रदान करने लगें। परिवारों का वातावरण सुसंस्कारी बनाया जा सके तो उसमें रहने,पलने वाले व्यक्ति कुछ ही समय में दूसरे ढाँचे में ढले हुए प्रतीत होंगे और परिवर्तन की प्रक्रिया कल से ही आरम्भ हो जाएगी।

आन्दोलनों की चकाचौंध में हमें वे ही कार्य महत्वपूर्ण मालुम पड़ते हैं, जिनके लिए धुआँधार शोर मचता है और कर्णबेधी नगाड़े बजते हैं। लोग यह भूल जाते हैं कि महत्व उपद्रवों, धमाकों एवं बवंडर उन सृजनात्मक प्रवृत्तियों का है जो मनुष्य की अन्तः चेतना को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। परिवार का वातावरण यदि परिष्कृत किया जा सके तो उनमें पलने और परिपक्व होने वाले व्यक्ति कल से ही प्रसन्नचित्त, सत्प्रयोजनों में निरत होते और सन्तुष्ट, उल्लसित दिखाई पड़ सकते हैं। ऐसे लोगों की न केवल क्रियाशक्ति, विवेकशीलता ही बढ़ेगी, वरन् ये सृजनात्मक प्रयोजनों में बढ़-चढ़कर अनुदान भी प्रस्तुत कर रहे होंगे।

व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती कड़ी परिवार है। लोग व्यक्ति की समीक्षा करते हैं और समाज की आलोचना करते हैं। इन्हीं दो को सुधारने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न होते हैं और आन्दोलन चलते हैं। पर यह भुला दिया जाता है कि व्यक्ति के निर्माण का अधिकांश उत्तरदायित्व परिवार पर है और समाज की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, परिवार के समूह का नाम ही समाज है। परिवार वह मध्यबिन्दु (न्यूक्लियस) है, जिसकी धुरी पर सार शक्ति -सन्तुलन टिका है, यदि परिवार का महत्व स्वीकारा जाय तो फिर यह मानने में कोई कठिनाई न रहेगी कि उसका स्तर एवं वातावरण बनाने में सुसंस्कृत नारी ही प्रधान भूमिका प्रस्तुत कर सकती है अन्य लोग तो सहायक समर्थक भर हो सकते हैं। नारी उत्कर्ष अभियान प्रकारांतर से परिवारों को स्वर्ग समतुल्य बनाने का ऐसा सृजनात्मक काम है, जिसके सत्परिणामों को सोचने भर से आंखें चमकने लगती है।

उपरोक्त दो बाते तो इस उथली दृष्टि से सोची गयी हैं, जैसे कि गाय पालने से दूध, खाद और बछड़े आदि मिलने के लाभों का लेखा-जोखा लगाया जाता है। यदि और अधिक मानवी दृष्टिकोण से नारी समस्या पर विचार करना हो तो फिर यों सोचना होगा कि नारी भी मनुष्य ईश्वर प्रदत्त कुछ मौलिक अधिकार अपने साथ लेकर आता है। उस पवित्र धरोहर पर अनावश्यक और अवाँछनीय प्रतिबन्ध नहीं लगाए जाने चाहिए। नारी यदि मनुष्य है तो उसे स्वास्थ्य रक्षा का, शिक्षा का, स्वावलम्बन का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए। अस्तित्व की रक्षा -उमंगों की स्वतन्त्रता और विकास की अनुकूलता चाहना कोई ऐसे अपराध नहीं है जिसे बलपूर्वक रोका जाय और परम्पराओं के नाम पर हथकड़ी -बेड़ी पहना दी जाय।

पददलित नारी से किसने क्या पाया ? वह अपने पालने वालों के लिए गले का पत्थर बनकर रह गयी। कैदी भी जेल में कुछ श्रम करते हैं, पर जेलर से लेखा - जोखा माँगने पर वे साफ तौर से स्वीकार करेंगे कि यह घाटे का व्यवसाय है। कैदी जो कमाते हैं, उससे कई गुना खर्च उनके ऊपर बैठता है। प्रतिबन्धित नारी भी अपने संरक्षकों के लिए किस प्रकार उपयोगी और लाभदायक सिद्ध हो सकती है?

यदि नारी को उसके मानवी अधिकार वापिस कर दिए जाएँ तो उसमें पुरुष की नहीं -बल्कि उसके अनाचार की ही हार होगी। इस विजय में नारी की नहीं, न्याय की ही जीत होगी। जो लोग न्याय, औचित्य,समानता,मनुष्यता,धर्म,कर्तव्य आदि का समर्थन, प्रतिपादन करते हैं और अवाँछनीयता को निरस्त करना चाहते हैं, उन्हें यह कार्य अपने घर से ही आरम्भ करना चाहिए। हमारे परिवारों में प्रत्येक नारी को यह अनुभव होना चाहिए कि वह कैदी तरह विवशतापूर्वक नहीं, इस घर में नवनिर्माण की सृजन शिल्पी बनकर रह रही है। उनके ऊपर कर्त्तव्य तो लदे है, पर कुछ अधिकार भी हैं। कम से कम अपनी स्वास्थ्य रक्षा, शिक्षा एवं स्वावलम्बन के लिए मानवोचित सुविधा प्राप्त करने जैसी छूट उन्हें मिल गयी है। ऐसा किया जा सके तो घर से बाहर भी हमारी आवाज वह बल होगा, जिससे न्याय का समर्थन उचित ठहराया जा सके।

करनी और कथनी में अन्तर रखकर हम किसी को भी ऐसा उपदेश नहीं दे सकते, जिसे अपनाने के लिए वह सहमत हो सके। सामाजिक न्याय इस युग की सबसे प्रबल माँग है। यह अपने उद्देश्य की दिशा में एक-एक कदम आगे बढ़ा रही है। सम्भवतः यह इतनी प्रचण्ड है कि कोई इसे रोक न सकेगा। अच्छा हो कि हम अपने घरों में उसका स्वागत-समर्थन आरम्भ करें और सिद्ध करें कि समय की माँग को समझने और स्वीकार करने में हम समर्थ हो गए हैं।

विकसित नारी अपने व्यक्तित्व को समुन्नत बनाकर राष्ट्रीय समृद्धि के सम्वर्द्धन में कितना बड़ा योगदान दे सकती है? इसे उन देशों में जाकर आंखों से देख या समाचारों से जाना जा सकता है, जहाँ नारी को मनुष्य मान लिया गया है और उसके अधिकार उसे सौंप दिये गये है। उपयोगी श्रम करके प्रगति में योगदान दे रही है परिवार की आर्थिक समृद्धि बढ़ा रही है। सुयोग्य बनकर रखने पर अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रही है और परिवार को छोटा -सा उद्यान बनाने और उसे सुरक्षित पुष्प-पल्लवों से भरा-पुरा बनाने में सफल हो रही रही है।पुरुष कन्धे से कन्धा मिलाकर चलन वाली नारी किसी पर भार नहीं बनती,वरन् साथियों को सहारा देकर प्रसन्न होती और प्रसन्न रखती देखी जा सकती है। हम विकसित देशों के प्रशंसक है,भाषा, पोषक आदि को अपनाने में गर्व अनुभव करते है फिर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उनके व्यवहार में आने वाले सामाजिक-न्याय की नीति को अपनाएँ और कम से कम अपने घर में नारी की स्थिति सुविधाजनक एवं सम्मानास्पद बनाने में भी पीछे न रहें।

नारी देवत्व की मूर्तिमान प्रतिमा है। यों दोष तो सबमें रहते हैं, सर्वथा निर्दोष तो एक परमात्मा हैं। अपने घर की नारियों में भी दोष हो सकते हैं, पर तात्त्विक दृष्टि से नारी की अपनी विशेषता है -उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति। पुरुषार्थ प्रधान पुरुष अपनी जगह ठीक है, पर आत्मिक सम्पदा की दृष्टि से वह नारी से पीछे ही रहेगा। अगले दिनों द्रुतगति से बढ़ता आ रहा नवयुग निश्चित रूप से अध्यात्म मान्यताओं से भरा-पुरा होगा। मनुष्यों का चिन्तन, दृष्टिकोण उसी स्तर का होगा। व्यवस्थाएँ और परम्पराएँ उसी ढाँचे में ढलेंगी। जनसाधारण की गतिविधियाँ उसी दिशा में उन्मुख होंगी। शासनतन्त्र, धर्मतन्त्र, समाजतन्त्र और अर्थतन्त्र का सारा क्लेश उसी स्तर पर पुनर्निमित होगा। ऐसी स्थिति में नारी को हर क्षेत्र में विशेष भूमिकाएँ निबाहनी पड़ेंगी, विशेष उत्तरदायित्व सँभालने पड़ेंगे, कारण कि अध्यात्म की विभूतियाँ जन्मजात रूप से उसी को अधिक परिणाम में उपलब्ध हुई हैं।

नारी उत्कर्ष की आवश्यकता का प्रतिपादन करने और औचित्य सिद्ध करने के उनके आधार हैं। उनमें से किसी को भी अपनाकर विचार किया जाय तो आवश्यक प्रतीत होगा कि समय की माँग को देखा जाय-उज्ज्वल भविष्य को ध्यान में रखा जाय तो नारी उत्कर्ष अपने समय का सबसे बड़ा काम प्रतीत होगा। अच्छा हो कि औचित्य को अपनाने के लिए अग्रगामी बनने वाले विवेकशीलों की पंक्ति में हमारा अपना नाम भी सम्मिलित रहे।


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