प्रेम के मोल भगवान बिके

September 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सूर्यग्रहण के महापर्व पर कुरुक्षेत्र में अपार मानव समुदाय एकत्र हुआ था। अधिकांश ऋषिगण तथा राजाओं के समुदाय आये थे। महान स्नान के पुण्य को प्राप्त करने का सुअवसर तो था ही, श्रीकृष्ण के सामीप्य देव - दुर्लभ लाभ सबसे बड़ा आकर्षण था। द्वारिका में ऋषि जा सकते थे; किन्तु वहाँ राजसदन में उन आरण्यवासियों को वह उल्लास कैसे मिल सकता था, जो इस विस्तीर्ण तीर्थभूमि में सहज सुलभ था। नरपति कोई भी कुशस्थली जाय, उसे यादवाधीष का अतिथि ही होकर तो रहना होता। यहाँ राजाओं के भी अपने शिविर हैं। साथ ही श्रीकृष्ण दर्शन का महान सुयोग। महाराज उग्रसेन अपने पूरे परिकर के साथ पधारे थे। यादवों की सभा में विराजमान मधुसूदन की जो उपस्थिति है, उनका सान्निध्य, चरण वन्दन का सौभाग्य यहाँ सहज सुलभ है।

इस महोत्सव के मंजु उल्लास में वसुदेवजी के महायज्ञ किया। कोई आगत ऋषि-मुनि ऐसा नहीं था जो इस यज्ञ में ऋत्विक् बनने न आया हो। यज्ञ और दान की महिमा, कुरुक्षेत्र की इस भूमि में समन्तपंचक क्षेत्र में अल्पदान का भी अतिशय महात्म्य बार-बार सभी के कानों में पड़ा। सम्यभामा जी के चित्त में एक लालसा जागी। उन्होंने एक दिन अपने आवास में पधारे देवर्षि से पूछा- “देव ! दान में जो कुछ दिया जाता है, वह वस्तु अक्षय होकर उपलब्ध होती है, यह सत्य है। “

“हाँ देवि ! यदि दाता में शुद्ध श्रद्धा हो, दान पुण्य स्थल पर, शुभ समय में और सत्यपात्र को दिया जाए। “ देवर्षि ने किंचित आश्चर्य से पूछा -” किन्तु श्रीहरि की वल्लभा को ऐसा क्या अप्राप्य है, जिसकी वे कामना करें। उनकी उपलब्धि को तो काल स्पर्श नहीं करता। “

मैं कुछ दान करना चाहूँ आप स्वीकार करेंगे ? सत्यभामा जी ने देवर्षि के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। उनमें शुद्ध श्रद्धा नहीं है, ऐसी आशंका भला कौन करेगा। यह भगवान परशुराम की पुण्य यज्ञस्थली धर्मक्षेत्र इस जैसा पुण्य यज्ञस्थली धर्मक्षेत्र इस जैसा पुण्य स्थल उपलब्ध है और दान का महापर्व काल है। सम्मुख खड़े परम भक्त देवर्षि नारद यदि दान ग्रहण करना स्वीकार कर लें तो श्रेष्ठतम सत्पात्र की समस्या सुलझ गयी।

“नारद निवास हीन परिव्राजक है और नितान्त अपरिग्रही।” देवर्षि ने फिर भी कहा-”देवि! ऐसा कोई भाग्यहीन नहीं, जो आपके करों से प्राप्त दान को अपने जन्म-जन्मान्तर का पुण्यफल न माने।”

“तब आप कल प्रातः दर्शन देने का अनुग्रह करें।” सत्यभामा जी ने उन्हें बड़ी श्रद्धा से नमन करते हुए कहा।

दूसरे दिन अभी प्रातः हुई ही थी। नित्य कर्म, सन्ध्या हवन आदि समाप्त करके भगवान श्रीकृष्ण अपने आसन पर विराजे ही थे कि सत्यभामा जी ने आकर उनके चरणों पर मस्तक रखते हुए एक मन्दस्मित के साथ उनसे पूछा- “आप मुझसे सचमुच प्रेम करते है?”

“आप तो इस प्रकार सभी से कहते हैं।” सत्यभामा जी में मान नहीं उच्छलित राग था। “मेरा तो यह मेरे हाथ का कंगन है। जिसे चाहूँ उसे दे दूँ।”

“यह जन भी तुम्हारा इसी प्रकार का रत्नाभरण है, इसे भी जिसे चाहो दे सकती हैं। “माधव का कमल मुख सहज हास्यभूषित हुआ।

“सच?” सत्यभामा ने अद्भुत भंगिमा से देखा। “आपका कुछ विश्वास नहीं।”

“देवि! यह तीर्थ भूमि है और में आजकल नियम पालन कर रहा हूँ, यह आप जानती हैं।” श्रीकृष्ण चन्द्र सुप्रसन्न थे।

अभी बातें हो ही रही थी, इतने में नारायण गोविन्द की मधुर ध्वनि के साथ देवर्षि का वीणा की झंकार सुनायी दी। द्वारिकानाथ ने देवर्षि का जब तक स्वागत किया, सत्यभामा जी स्वर्णपात्र में जल कुश ले आयीं।

“अहं श्रीकृष्ण पत्नी सत्यभामा, ब्रह्मपुत्राय नारदाय त्वाभिमं पतिं प्रददे।” सविधि सम्पूर्ण देश-कालादि उच्चारणपूर्वक हाथ में जल-कुश लेकर सत्यभामा ने संकल्प का उच्चारण किया।

इसी के साथ देवर्षि ने दाहिना हाथ बढ़ाकर वह कुश-अक्षत ग्रहण कर लिया। प्रातः वन्दन के लिए उपस्थित अन्य सभी ने आश्चर्य से एक दूसरे का मुख देखा।

“श्याम ! नारद परिव्राजक है। अब उठो और मेरे साथ चलो।” देवर्षि ने वीणा उठाई। श्रीकृष्ण चुपचाप उठ खड़े हुए।

“ भगवान! आप इनका उचित मूल्य ले लें।” सत्यभामा ने अब हाथ जोड़कर प्रार्थना की।

“देवि! नारद परिग्रही नहीं है। कोई भी वस्तु लेकर मैं क्या करूंगा। दान में प्राप्त वस्तु का विक्रय ग्रहण करने वाले व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है और मैं श्री कृष्ण का विक्रय नहीं करूंगा।” देवर्षि ने खुलकर हँसते हुए कहा। “देवी ने ठीक सोचा था कि इस पावन स्थली में इनका दान करके आप इन्हें अक्षत रूप से प्राप्त कर लेंगी; किन्तु यह तो ऐसा धन नहीं है कि इसका लोभ नारद के मन में न हो। श्रीकृष्ण आओ चलें।”

नारद का कथन सुनकर सत्यभामा का मुख फीका पड़ गया। देखते-देखते कुछ ही क्षणों में समस्त यदुवंश वहाँ एकत्रित हो गया। देवर्षि का कथन अनुचित है, यह भी कोई कैसे कह दे। अपने आराध्य को बेचने की बात तो किसी सामान्य साधक के मन में भी नहीं आता।

“दया करें प्रभु!” महारानी रुक्मिणी अन्त में आगे आयीं।

“दया तो आप कर रही हैं करुणामयी।” देवर्षि सहसा गम्भीर हो गए। आप कह सकती हैं। कि यह दान अवैध है। श्रीकृष्ण पर आपका स्वत्व सर्वाधिक है। किन्तु आपको यह विवाद नारद से तो नहीं करना। फिर भी अगर चाहती हैं तो मैं इन निखिल ब्रह्माण्डनायक का उचित मूल्य लेने को प्रस्तुत हूं।

“मैं दूँगी मूल्य। आप जो माँगना चाहें, ले लें। “सत्यभामा सोल्लास आगे आ गयीं।

‘निखिल ब्रह्माण्डनायक’ रुक्मिणी के अधरोष्ठ काँपे। वे झुककर पीछे हट गयीं। वे जानती थीं कि उनके आराध्य भावेक गम्य हैं। जो उन्हें जैसा मानता-जानता है उसके लिए वे वैसे ही होते हैं। अब इस समय देवर्षि उन्हें निखिल ब्रह्माण्डनायक देखना चाहते हैं- तब उन अनन्त कोटि ब्रह्माण्डधीश का मूल्य कहाँ से आएगा? सत्यभामा के उल्लास में उन्हें केवल बालचापल्य दिखा।

“उचित मूल्य देवि!” नारदजी किंचित व्यंग के ढंग से हँसे। “इन्हें तुला पर बैठा दीजिए। नारद के लिए तो रत्न, स्वर्ण तथा शिलाएं समान हैं। आप दूसरी ओर ताम्र लोह, पाषाण भी रखें तो मुझे आपत्ति नहीं है। श्रीकृष्ण तुल जायँ, बस मुझे इतना चाहिए।”

विशाल तुला स्तम्भ तत्काल स्थापित हो गया। यदुकुल शिरोमणि की पट्टमहिषी अपने प्राणधन को रत्नों से तौल देने के उत्साह में थीं। किन्तु रत्न, स्वर्ण राशि, रजत भी जब पर्याप्त नहीं हुआ, ताम्र तक पर यदुवंशी उतर आये। अन्ततः उन्हें श्रीकृष्ण को खोना तो था नहीं।

“ये भावमय हैं। आप दूसरे तुला पर संकल्पित धन का कोई प्रतीक भी धरेंगे, तो वह अपना सम्पूर्ण भार दगा।” देवर्षि ने समझाया।

रानियाँ निराभूषण हो चुकी थीं। किसी यादव के शिविर में तथा शरीर पर एक आभूषण नहीं बचा था। पाण्डव शिविर ही नहीं, दूसरे मित्र राजाओं के शिविर भी उस तुला पर रिक्त हो चुके थे। इतने पर भी श्रीकृष्ण जिस पलड़े पर थे, वह भूमि पर स्थिर धरा था।

‘सम्पूर्ण राज्य एवं राजकीय कोष।’ एक साथ महाराज उग्रसेन तथा चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर ने अपने मुकुट तुला पर धर दिए। तुला किंचित भी तो हिली होती। उसमें तो क्षुद्रतम कम्पन भी नहीं हो रहा था। केवल स्थिर खड़े थे एक ओर पितामह भीष्म और दूसरी ओर पाण्डव साम्राज्ञी द्रौपदी, दोनों के नेत्र झर रहे थे। दोनों के कण्ठों से प्रायः गदगद स्वर साथ ही फूटे-’भक्तवत्सल।’

वत्से! माता देवकी ने रुक्मिणी की ओर देखा।

“मातः! मैं उनकी चरण सेवक हूँ।” उन लक्ष्मी स्वरूप ने मस्तक झुका लिया। “मैं अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ स्वयं भी तुला पर बैठ जाऊँ तो भी निखिल ब्रह्माण्ड का वैभव अपने नायक की समता नहीं कर सकेगा।

“तुम?” माता ने श्री हलधर की ओर देखा।

यह ठीक है कि श्रीकृष्ण मेरे अनुज हैं। श्री बलदाऊ ने माता को कोई आशा नहीं दी। “लेकिन इस समय तुला में उनका समत्व करने जैसा साहस मैं अपने में नहीं पाता हूँ।”

“बेटी। ऐसे अवसर पर सम्मान रखना चाहोगी तो काम चलेगा नहीं।” माता रोहिणी ने सत्यभामा के कंधे पर हाथ रखा। “ब्रजराज के शिविर में जाओ। श्याम प्रेम के मोल बिकता है और वहाँ प्रत्येक इसका धनी है। किसी को भी ले आओ वहाँ से।”

आश्चर्य की बात नहीं थी कि ब्रज के शिविर से कोई अब तक वहाँ आया नहीं था। श्रीकृष्ण को सहन नहीं था कि ब्रज के जन द्वारिका के शिविर में आकर किसी की भी उपेक्षा देखें। उन्होंने बाबा से आग्रह कर रखा था “द्वारिका के जिस किसी को श्रीचरणों का दर्शन करना हो, उसे यहाँ आना चाहिए। केवल विशेष रूप से आमन्त्रित होने पर ही यहाँ का कोई भी उस शिविर में जाएगा।”

ब्रज के लोग तो कन्हाई के संकेत पर प्राण देने वाले। उन्होंने देखना भी नहीं चाहा कि द्वारिका के शिविर का स्वरूप कैसा है। सत्यभामा जी तो इस समय विह्वल हो रही थीं। वे रथ में बैठीं और रथ जब ब्रजराज के शिविर के सम्मुख रुका, उन्होंने यह भी नहीं देखा कि उन द्वारिका की महारानी को कौन, कैसे देख रहा है। रथ से उतरकर वे दौड़ी ओर सीधे श्री वृषभानु जी के शिविर में जाकर श्री राधा जी के चरणों में सिर रख दिया उन्होंने। बहिन शीघ्र चलो। इस विपत्ति से मुझे बचा लो।

“चलो महारानी।” श्री वृषभानू-नन्दिनी को बड़ा संकोच हुआ। उन्होंने बड़ी त्वरा से सत्यभामा को उठाकर अंकमाल दी। यह भी नहीं पूछा कि विपत्ति क्या है और कहाँ चलना है उन्हें? जैसे बैठी थी वैसे ही वे उठ खड़ी हुई। उनकी दो सखियों ने स्वतः उनका अनुगमन किया। क्योंकि उन्होंने तो किसी को कोई संकेत तक नहीं किया। रथ पर ही उन्होंने सुना कि विपत्ति का रूप कैसा है।

“वत्से!” माता रोहिणी ने दौड़ कर उन्हें गले लगा लिया था, रथ से उतरते ही “तू आ ही गयी?”

संकेत से ही उन श्री रासेष्वरी ने सत्यभामा जी को सूचित किया कि तुला के दूसरे पलड़े पर जो कुछ भी अब तक रखा गया है। उसे उठा लिया जाना चाहिए। वे माता देवकी की पदवन्दना करने बढ़ीं तो तुला रिक्त होने लगी।

अपने कण्ठ में पड़ी वनमाला से एक तुलसीदल निकाला उन्होंने। नमित मुख बढ़ीं वे और वह दल कितने स्नेह, कितने सुकोमल ढंग से तुला पर उन्होंने धरा-कोई अतिशय श्रद्धालु अपने आराध्य पर भी कदाचित् ही ऐसे दल अर्पण कर पाता हो। तुलसीदल तुला पर चढ़ा और तुला का दूसरा पलड़ा उठ गया। तुला सन्तुलित, सर्वथा संतुलित हो गयी।

क्षणार्द्ध लगा इसमें। सभी आश्चर्य चकित थे। देवर्षि ऐसे आतुर होकर बढ़े मानों कोई अन्य उस दल को उठा लेगा- ऐसा भय हो उन्हें। उस दल को उठाकर उन्होंने अपनी जटाओं में छिपा लिया। रोम-रोम पुलकित, स्वेद स्नात स्वर्णांग, अजस्र स्रवित लोचन, वे उपाम नृत्य करने लगे, किन्तु गदगद स्वर से वाणी नहीं फूट रही थी।

उनकी इस दशा से सभी अवाक् थे। सबको आतुरता थी इस रहस्य को जानने की। आखिर यह सब कैसे हो गया? प्रभु का इंगित समझकर देवर्षि कहने लगे-”योग, जप, तप, कठिन साधनाएँ सभी नारी हृदय के भाव विकास के समक्ष फीकी है। श्री राधाजी में नारी हृदय के भावविकास का चरमोत्कर्ष है। वह प्रेम स्वरूपा है और प्रभु प्रेम के मोल बिकते हैं। तभी तो उन्होंने अपने प्रेम के मोल से निखिल ब्रह्माण्ड नायक को खरीद लिया। उनके भागवत् प्रेम के प्रतीक इस तुलसीदल को पाकर मैं भी धन्य हो गया। “इतना कहते हुए देवर्षि नारद फिर प्रेम विभोर होकर उन्मदन्त्य करने लगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118