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October 1991

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तदित्यृ च समोनास्ति मंत्रो वेदा चतुष्टये।

सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च दानानि च तपाँसिच

समानि कलया प्राहुर्मुनयो नतदित्यृ चः॥

- विश्वामित्र

“गायत्री के समान मंत्र चारों वेदों में नहीं है। सम्पूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप, गायत्री की एक कला के समान भी नहीं है, ऐसा मुनि लोग कहते हैं।”

किन्तु ऐसा हुआ नहीं। उन्हें औपचारिक शिक्षा से कहीं अधिक याद हिमालय की आती थी। पूर्व जन्म में जहाँ तपस्या की थी, जिन ऋषि-मुनियों का सान्निध्य मिला था, उनकी स्मृति आ जाती थी। एक दिन वे घर से भाग लिए। उम्र थी मुश्किल से नौ वर्ष। गन्तव्य हिमालय का उत्तराखण्ड क्षेत्र। साधन कुछ नहीं, पता मालूम नहीं पर उत्कण्ठा इतनी तीव्र थी कि नजदीक के स्टेशन बरहन तक पहुँच गए। घर वालों को पता चला तो वापस लेकर आए। पिता ने गंभीरता पूर्वक सोचा कि अब यज्ञोपवीत संस्कार करा देना चाहिए। वे महामना मालवीय जी के पास बनारस पहुँचे व उनके हाथों द्विजत्व का यह पावन संस्कार संपन्न हुआ। मालवीय जी ने एक सूत्र उनके कान में दिया। “गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है। इससे सब कुछ मिल सकता है भौतिक जगत का भी व आध्यात्मिक जगत का भी।” बस यह सूत्र उनने गाँठ बाँध लिया।

परम पूज्य गुरुदेव के जीवन का यह महत्वपूर्ण मोड़ था। गायत्री महाशक्ति से साक्षात्कार का भी यह पहला ही अवसर था। उनने ब्राह्मणत्व की सिद्धि की दिशा में प्रयास आरंभ कर दिया व संयमी जीवन की परमार्थ परायणता की भावना अपने अंदर विकसित की। ब्राह्मण की कामधेनु से आशय जो उन्हें समझ में आया वह यह कि जो ब्राह्मणत्व की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़े अपना जीवन परिष्कृत कर ब्रह्मनिष्ठ बना ले,गायत्री उसकी हर कामना पूरी करती है। सारे जीवन भर जो भी दृश्य क्रियाकलाप गुरुदेव के जीवन में देखने को मिलते हैं, वे सब उसी तपश्चर्या की ब्राह्मणत्व की सिद्धि के हैं। वे अक्सर कहा करते थे कि “स्थूल जीवन से मैंने जो कुछ भी किया है,वह ब्राह्मणत्व का चमत्कार है। जो विशिष्ट अनुष्ठानादि किए हैं, उनका उपयोग तो मेरे जाने के बाद कारण शरीर की सत्ता करेगी।” अपनी महत्वाकाँक्षा को भौतिक से आध्यात्मिक मोड़ देकर सही अर्थों में ब्राह्मण बन कर जीना कितनी कठिन साधना है, यह हर कोई नहीं समझ सकता। किन्तु परम पूज्य गुरुदेव का जीवन जिनने देखा है, वे जानते है कि उनका एक-एक पल औरों को ऊँचा उठाने के निमित्त नियोजित था। निज के लिए उनने कभी कुछ माँगा नहीं। अपना सब कुछ पैतृक सम्पत्ति से लेकर आर्षग्रन्थों के भाष्य व तीन हजार पुस्तकों से मिल सकने वाली रायल्टी समाज को दान में दे दी। जो भी दिया वह बादल बनकर उनके पास लौटा, उन पर जीवन भर अनुग्रह बरसता रहा। जो भी कुछ उनने समाज के खेत में बोया,उसे समय आने पर काटा व फिर समाज में बाँट दिया। यही तो सिद्धि से अभिपूरित ब्राह्मण जीवन है।

पंद्रह वर्ष की आयु में उनके जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण मोड़ अपनी गुरुसत्ता से साक्षात्कार के रूप में आया। वे गायत्री उपासना के दौरान कक्ष में सूक्ष्म छाया रूप में आए व विस्मित अपने शिष्य को पूर्वजन्मों की झाँकी तथा भविष्य के अनेकों कार्यक्रम का भार सौंप कर चले गए। पूर्वजन्मों की झाँकी इसलिए कि महाकाल की अवतारी सत्ता को आत्मबोध हो सके कि उनके अवतरण का कितना महान प्रयोजन है। हर गुरु ने अपने-अपने समय में अपने शिष्य को इसी तरह ज्ञानचक्षु दिए हैं। निर्देश साथ में यह दिए गए कि वे तुरंत चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण आरंभ कर दें। ये चौबीस वर्ष से सत्ताईस वर्ष में संपन्न किये जायँ। इस अवधि में किसी बंद कोठरी में न बैठकर रोजमर्रा का काम भी करें, स्वतंत्रता संग्राम में भाग लें तथा ज्ञानार्जन कर अखण्ड दीपक जो प्रज्वलित किया है, उसकी ज्योति घर-घर पहुँचाएँ ताकि गायत्री साधना का महत्व जन-जन को समझ में आ सके। अनुष्ठान की अवधि में मात्र जौ की रोटी व छाछ पर रहना था। जौ भी


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