गायत्री सावित्री और सविता

October 1991

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गायत्री मंत्र की व्याख्या का विस्तार चारों वेदों के रूप में हुआ, इसी से गायत्री को वेदमाता कहते हैं, वेदों के प्रत्येक मंत्र का एक छन्द, एक ऋषि और एक देवता होता है। उनका स्मरण-उच्चारण करते हुए विनियोग किया जाता है। गायत्री महामंत्र का गायत्री छन्द, विश्वामित्र ऋषि और सविता देवता है। बोलचाल की भाषा में सविता को सूर्य कहते हैं। सविता की अधिष्ठात्री होने के कारण गायत्री का दूसरा नाम सावित्री भी है। सविता और सावित्री का युग्म माना गया है, प्राथमिक उपासना में गायत्री का मातृसत्ता के दिव्य शक्ति के रूप में नारी कलेवर रूप में निर्धारण हुआ है। मानवी आकृति में उसे देवी की प्रतीक-प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। यह उचित भी है। इसमें पवित्रता, सहृदयता, उत्कृष्टता, सद्भावना, सेवा-साधना जैसे मातृशक्ति में विशिष्ट रूप से पाये जाने वाले गुणों का साधक को अनुदान मिलता है। इस प्रतीक पूजा से नारी तत्व के प्रति पूज्य भाव की सहज श्रद्धा उत्पन्न होती है। अस्तु इस चिन्तन के इस दिव्य प्रवाह को यदि अलंकारिक रूप से नारी के रूप में चित्रित किया गया है, तो उसे उचित ही कहा जा सकता है। इस प्राथमिक प्रतिपादन के रूप में प्रस्तुत किये गये नारी-विग्रह से भी गायत्री महाशक्ति के उच्चस्तरीय स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता।

इसकी साकार उपासना में भी गायत्री माता का ध्यान सदा सूर्य मंडल के मध्य में विराजमान महाशक्ति के रूप में किया जाता है। साथ ही गायत्री माता के नारी स्वरूप को सूर्य मंडल के बीच प्रतिष्ठित-चित्रित किया जाता है। निराकार उपासना करने वाले चिदाकाश एवं महदाकाश में प्रतिष्ठित तेज मंडल के रूप में उसका ध्यान करते है, दोनों ही स्थितियों में सूर्यमंडल की स्थापना अनिवार्य रूप से रहेगी। प्रकाश के तेजोवलय को समन्वित किये बिना गायत्री महाशक्ति का ध्यान हो ही नहीं सकता। गायत्री उपासना के अन्त में सूर्यार्घ्यदान के रूप में जप की पूर्णाहुति की जाती है। उपासना के समय दीपक की, अगरबत्ती की, अग्नि स्थापना की आवश्यकता भी सूर्य शक्ति का प्रतिनिधित्व रखने के रूप में ही जाती है। यज्ञाग्नि में आहुति देने का विधान भी गायत्री पुरश्चरणों का अंग है। इसमें भी दूरस्थ सूर्य की निकटस्थ प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठ करने की भावना है।

सविता और सावित्री की युग्म-भावना एक कल्पना पर नहीं, तथ्यों पर आधारित है। अग्नि तत्व से बना दृश्यमान सूर्य तो चेतन सविता देव का स्थूल प्रतीक भर है। प्रतीक पूजा का स्वरूप ही यह है कि जड़ पदार्थों के माध्यम से चेतनात्मक प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी करायी जाय। सविता चेतना ब्रह्मतेज को कहते हैं। वह अदृश्य है। ब्रह्माण्डीय चेतना के रूप में, दिव्य प्रखरता के रूप में सर्वत्र व्यापक और विद्यमान है। उसी के साथ आत्मचेतना की घनिष्ठता बढ़ाने के लिए प्रतीक रूप से सूर्य अग्निपिण्ड ध्यान साधना में प्रयुक्त किया जाता है। प्रकारान्तर से सूर्य उपासना का तात्पर्य ब्रह्मतेज की अवतरण प्रक्रिया आत्मचेतना की पृष्ठभूमि पर सम्पन्न कराना है। आत्मा को पृथ्वी और ब्रह्मतेज को सूर्य की उपमा दी जा सकती है। पृथ्वी पर जो जीवन दृष्टिगोचर होता है, वह सूर्य का ही अनुदान है। सूर्य को जगत की आत्मा बताया गया है। पृथ्वी पर जिस तरह सूर्य केन्द्र से जीवन बरसता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी पृथ्वी पर ब्रह्मसत्ता के प्राण तेज की वर्षा होती है। इसी से अन्तःभूमि विभूतियों की हरीतिमा उगती और फूलती-फलती है। गायत्री के साथ उनके देवता सविता का अन्योन्याश्रय संबंध इसी आधार पर जड़ा हुआ है। गायत्री का दूसरा नाम सावित्री, सविता की शक्ति, ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।

शास्त्रों में गायत्री को प्राण, प्राण को सविता कहा गया है। इस त्रिकोण विवेचन से गायत्री के सवितामय होने का ही निष्कर्ष निकलता है। प्राण और सविता को भी इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति करने वाला बताया गया है। शास्त्र वचनों में इस त्रिकोण को रेखागणित के त्रिभुज की तरह एक-दूसरे के साथ जुड़ा हुआ समझा जा सकता है। कहा भी गया है-

यो वै सः प्राण एषा सा गायत्री

(शतपथ 1/3/5/15)

अर्थात् जो प्राण है, उसे ही निश्चित रूप से गायत्री जानना।

अन्यत्र उल्लेख मिलता है-

प्राण एव सविता विद्युत्तरेव सविता

(शतपथ 7/7/9)

अर्थात् प्राण ही सविता है, विद्युत ही सविता है।

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि सविता तेज को भौतिक अग्नि अथवा प्रकाश न मान लिया जाय, इसलिए यह स्पष्टीकरण आवश्यक समझा गया कि यह ‘तेजस्’ विशुद्ध से ब्रह्मतत्त्व का है। सविता तेज को ब्रह्मतेज के अतिरिक्त और कुछ समझ बैठने की भूल किसी अध्यात्म विद्या के छात्र को नहीं ही करनी चाहिए। आप्त ग्रन्थों में यह भी कहा गया है कि गायत्री का देवता-सविता-सूर्य विश्व के जीवन का ज्ञान और विज्ञान का केन्द्र भी वही है। चारों वेदों में जो कुछ है, वह सब भी इस सविता शक्ति का विवेचन मात्र है। तप, श्रद्धा और साधना के द्वारा योगीजन इसे ही प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं। नाम रूप सुविधानुसार कुछ भी माना जाए, पर वस्तुतः वह सविता देवता ही सब का उपास्य है, उसी के तेज को-ब्रह्मतेज को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक साधक को प्रयत्नशील होना पड़ता है।

महर्षि याज्ञवलक्य ने इसी सविता की उपासना का विधान वर्णन करते हुए उसकी महत्ता, विशेषता एवं उपलब्धियों का संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित शब्दों में इस प्रकार उल्लेख किया है-

“मैं ॐकार स्वरूप भगवान को नमस्कार करता हूँ। हे भगवान! आप ही समस्त जगत की आत्मा और काल स्वरूप हैं। समस्त प्राणी, चर-अचर में आप ही संव्याप्त है।”

सविता की असाधारण रहस्यमयी शक्तियों का, सावित्री का उपयोग हम यंत्रों के माध्यम से तो कर ही रहे हैं, चाहें तो तंत्र और मंत्र योगों द्वारा भी वैसे ही लाभ उठा सकते हैं, जैसे कि भौतिक विज्ञान वाले उठा रहे हैं या उठाने की बात सोच सकते हैं। सूर्य का प्रयोग भौतिक जीवन में सुविधाएँ बढ़ाने के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध होता रहा है। आगे यह उपयोगिता और भी बढ़ने की संभावना है।

असली सविता जो गायत्री मंत्र का देवता है, इस उदीयमान सूर्य से भी ऊँचा है। उसे असंख्य सूर्यों का सूर्य, परमशक्ति स्त्रोत, इस सृष्टि का नियामक, पोषणदाता, विधाता, प्रजापति कहा जाता है। उसके साथ संबंध संपर्क बनाकर यदि सान्निध्य-लाभ किया जा सके, तो दृश्य सूर्य की अपेक्षा वह आध्यात्मिक सविता हमारे लिए असंख्य गुने सुख-साधन प्रस्तुत कर सकता है। परमात्मा की, परमशक्ति गायत्री की, सविता की अविच्छिन्न क्षमता सावित्री की उपासना करके हम वह लाभ ले सकते है, जिसके लिए यह मानव शरीर उपलब्ध हुआ है। वस्तुतः गायत्री उपासना सावित्री साधना ही हमारा जीवन लक्ष्य हो सकता है, होना चाहिए।

ऐसा भ्रम किसी को नहीं करना चाहिए कि गायत्री से सावित्री भिन्न हो सकती है। एक ही शक्ति के दो नाम हैं। जब वह शक्ति भौतिक प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्रयुक्त की जाती है, तब उसे सावित्री कहते है और जब वह आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिए काम आती है, तब उसी को गायत्री कहने लगते हैं। मृत शरीर को जलाते समय जो अग्नि जलती है, वह “लोहिता” और भोजन बनाने की भट्टी में जलने वाली को “रोहिता” कहते हैं। लोहिता और रोहिता यह दो नाम प्रयोग में आने वाले विभाजन के अनुरूप है। वस्तुतः अग्नि एक ही है। इसी प्रकार उस महाशक्ति का परा-अपरा, सावित्री और गायत्री के नाम से पहचाना जाता है। सविता तत्व के साथ संबंध होने के कारण उसे सावित्री कहा गया है। सावित्री का देवता होने के कारण उस परमतत्व को सविता कहते है। यह सावित्री का ही स्वरूप है। गायत्री में जिस वरेण्य, भर्गदेव, सविता का स्मरण-चिन्तन किया जाता है, वह परम तेजस्वी, सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर सविता-प्रसविता परमात्मा ही है। उस परमात्मा की सर्वतोमुखी-सर्वोपरि शक्ति को चाहे गायत्री कहें या सावित्री-वस्तुतः एक महत्व से उसका प्रयोजन है। कहा भी गया है-

नमस्ते देवि गायत्री सावित्री त्रिपदेक्षरे।

(वशिष्ठ संहितार्य वाँत्रिक)

हे! तीन पदों वाली गायत्री-सावित्री देवी, हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।

दैविक, दैहिक और भौतिक इन तीन क्षेत्रों में सावित्री का आधिपत्य होने के कारण ही उसे तीन पाद वाली कहा गया है। कहते हैं कि वामन भगवान ने तीन चरणों में राजा बलि के तीनों लोकों वाले राज्य को नाप लिया था। सावित्री के तीन पाद भी तीनों लोकों तक लम्बे है, अर्थात् उनके प्रभाव से तीनों लोकों में अपनी स्थिति सुख-शान्तिमय बनती है। तीन लोक आकाश, पाताल और पृथ्वी को भी कहते हैं, पर यहाँ दैविक, दैहिक भौतिक अर्थात् आध्यात्मिक शारीरिक, और सम्पत्तिपरक तीनों ही क्षेत्रों में सावित्री का प्रकाश पहुँचता है और उस महाशक्ति की उपासना से इन सभी क्षेत्रों में आनन्द-उल्लास की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं।

आप्त वचनों में सावित्री को षट्कुक्षि और पाँच मस्तक वाली कहा गया है। यहाँ षट्कुक्षि का तात्पर्य षट्चक्र जागरण से है। शरीर में छिपे हुए छहों शक्ति संस्थान सावित्री उपासना से जाग्रत हो जाते हैं। किसी मशीन में यदि छः इंजन हों और वे सभी बन्द हो, तो पूरी मशीन ही ठप्प हो जायेगी किन्तु एक-एक कर यदि वे सभी चलने लगें तो मशीन अपनी पूरी रफ्तार से चलने लगेगी। सावित्री के षट्कुक्षि का यही आशय है। इससे शरीर के छहों चक्र जाग्रत हो जाते हैं। इसलिए उसे छः कुक्षि वाली, छः साधनाओं वाली बताया गया है। सावित्री के पाँच मस्तक शरीर के पाँच शक्ति कोशों के प्रतीक प्रतिनिधि हैं।

सावित्री का दूसरा नाम गायत्री के अर्थ पर जब हम विचार करते हैं, तो ज्ञात होता है कि यह “गय”- और “त्री” दो शब्दों के मेल से बना है। गय अर्थात् प्राण और त्री अर्थात् त्राण इस प्रकार गायत्री का समग्र अर्थ हुआ-प्राणशक्ति का उत्थान करने वाली विद्या। अपने देवता सविता से गायत्री महामंत्र में प्राण शक्ति अभिप्रेत है और उसी का एक अंश अपने में धारण करके गायत्री उपासक स्वयं को धन्य बनाता है।

यह भ्रम किसी को नहीं करना चाहिए कि गायत्री मंत्र की शक्ति अग्नि पिण्ड रूपी सूर्य पर अवलम्बित है। यह तो रोशनी और गर्मी मात्र देता है। यह सब तो बिजली की मशीनों से भी प्राप्त किया जा सकता है। इतने मात्र के लिए किसी उपासना की क्या आवश्यकता थी? गायत्री सूर्य की आत्मा-सविता शक्ति के साथ साधक को जोड़ती है, जिसके द्वारा वह परब्रह्म महाप्राण को अपने करके लौकिक सुख एवं आत्मिक शान्ति को अनुभव करता हुआ जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

यह महाप्राण जब शरीर क्षेत्र में अवतीर्ण होता है, तो आरोग्य, आयुष्य, तेज, ओज, बल, पराक्रम पुरुषार्थ के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जब वह मनः क्षेत्र में अवतीर्ण होता है, तो उत्साह, स्फूर्ति, प्रफुल्लता, साहस, एकाग्रता, स्थिरता, धैर्य, संयम, आदि गुणों के रूप में देखा जाता है। जब उसका अवतरण आध्यात्मिक क्षेत्र में होता है, तो तप त्याग, श्रद्धा, विश्वास, दया, उपकार, प्रेम, विवेक आदि के रूप में दिखाई देता है। तीनों ही क्षेत्र उस महाप्राण से जैसे-जैसे भरते हैं, जैसे ही मनुष्य अपूर्णता से पूर्णता की ओर, लघुता से विभुता एवं तुच्छता से महानता की


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