अमृतरस का पान (Kahani)

October 1991

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गायत्री उपासना के संबंध में गीता में भगवान कहते हैं कि यह मार्ग किसी भी स्थिति में नुकसान पहुँचाने वाला नहीं।

योगीराज कृष्ण कहते है-

नेहाभिक्रम नाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥

अर्थात्- इस मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले का पथ अवरुद्ध नहीं होता। उलटा परिणाम भी नहीं निकलता। थोड़ा सा प्रयत्न करने पर भी भय से त्राण मिलता है।

निष्क्रिय पड़ा रहता है। स्वयं वैज्ञानिक कहते हैं कि 83 से 87 प्रतिशत मस्तिष्कीय भाग अभी तक खोजा नहीं जा सका प्रसुप्त है। इसीलिए भगवान विष्णु सोये हुए दर्शाए गए हैं। शिवभक्तों ने इसी ब्रह्मरंध्र को शिवलोक कहा है। ग्रेमैटर मानसरोवर, सहस्रार, कैलाश, प्रकाश ज्योति शिव तथा शिव के मस्तिष्क से गंगा का उद्गम-ब्रह्मज्ञान का अवतरण। यह अलंकारिक चित्रण वस्तुतः एनाटॉमी की दृष्टि से भी सही है। शक्ति उपासक इसी विवरण को कमलासन पर बैठी गायत्री या दुर्गा के रूप में बताते व साधना की महिमा प्रतिपादित करते हैं।

आनन्दमयकोश के केन्द्र सहस्रार चक्र को अमृतकलश भी कहते हैं। यह कलश जाग्रति की स्थिति में स्वयं को आनन्दित रखने वाले और दूसरों में पुलकन उत्पन्न करने वाले प्रवाह का उत्पत्ति केन्द्र है। दया, करुणा, ममता, उदारता, सेवा-सद्भाव आदि सुकुमार संवेदनाएँ इसी केन्द्र से उठती, उमगती व पनपती हैं। इस सरसता को अध्यात्म शास्त्रों में “सोमरस” के नाम से पुकारा गया है। देवताओं का अमृतपान यहीं हैं। इसी का रसास्वादन ब्रह्मानन्द कहलाता है। इसी विशेषता के कारण परमात्मा को “सच्चिदानन्द”कहा जाता है।

सहस्रारचक्र की साधना के लिए दो मार्ग गायत्री साधना में बताए जाते हैं एक ब्रह्मरंध्र में प्रकाश ज्योति का ध्यान, दूसरा खेचरी मुद्रा द्वारा तालु देश से जिह्वा मूल को लगाकर इस अमृतरस का पान करना।

ब्रह्मरंध्र में प्रकाश ज्योति का ध्यान कमल पुष्प के दीपक में जलने वाली प्रकाश ज्योति के रूप में किया जाता है। इस ब्राह्मी स्थिति की प्रतीक प्रतिमा अखण्ड ज्योति के रूप में मानी जाती है। निरन्तर जलने वाला घृतदीप इस ब्रह्मरंध्र का ब्रह्मलोक का प्रतीक प्रतिनिधि मानकर पूजा-उपचार में प्रतिष्ठित किया जाता है। जिह्वा को उलटकर कपालकुव्हर में प्रविष्ट कराने और भूमध्य में दृष्टि स्थिर रखने से खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है, जिसे यह हो जाती है, वह रोग मृत्यु निद्रा, भूख-प्यास मूर्च्छना से मुक्त हो जाता है। योग रसायन में कहा गया है-

खेचरी योगं तो योगी शिरश्चंद्रादु पागतम्।

रसं दिव्यं पिवेन्नित्वं सर्व व्याधि विनाशम्”।

अर्थात् - खेचरी साधना में योगी शिरश्चंद्र से झरने वाले उस दिव्य रस को पीता है, जो सर्वव्याधियों का नाश करने वाला है।

आनन्दमय कोश की साधना गायत्री महाशक्ति की उच्चस्तरीय साधनाक्रम में श्रेष्ठतम साधना मानी गयी है। ईश्वर मिलन की, शिव और शक्ति के मिलन की कुण्डलिनी जागरण की साधना इसे कहते हैं। भावनात्मक क्षेत्र में इस दिव्य मिलन की प्रतिक्रिया आनन्द और उल्लास के रूप में दृष्टिगोचर होती है। यह भक्ति की पराकाष्ठा वाला स्वरूप है। संसार के श्रेष्ठ देवपक्ष को देखते हुए प्रसन्न होना आनन्द है और निकृष्ट दैत्य पक्ष को निरस्त करने के लिए उमगते शौर्य साहस को दिखाना उल्लास है। भक्ति से हटकर कुण्डलिनी जागरण वाला रूप शक्ति पक्ष है जो समृद्धि व सामर्थ्य का भण्डार है।आनन्दमय कोश की साधना वस्तुतः गायत्री साधक को वह सब देने में समर्थ है, जिसके लिए व्यक्ति भौतिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र में आकाँक्षा रखता है। भक्ति व शक्ति दोनों का ही इसमें समन्वय है।


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