साधना की सफलता वातावरण पर निर्भर

October 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विशिष्ट स्तर के परिवर्तनों के लिए जहाँ उपयुक्त उपचार पद्धति, प्रयोगाधिकारी तथा आवश्यक साधन उपकरणों की आवश्यकता होती है, वहाँ विशेष वातावरण का भी चयन करना पड़ता है। टीलों पर बाग लगाना-रेगिस्तान में खेती करना-दलदल में नगर बसाना-इच्छा होते हुए नहीं बन पड़ता। इसके लिए समस्त साधन होते हुए भी वातावरण अनुकूल न होने के कारण स्थान बदलना पड़ता है। हर काम हर स्थान पर नहीं हो सकते। बहुत सी दुर्लभ जड़ी बूटियाँ ऐसी है जो ठण्डे या गरम प्रदेशों में ही उत्पन्न हो सकती हैं। उन्हें विपरीत वातावरण में लगाया जाय तो मेहनत और लागत बेकार चली जाती है। यही बात विशिष्ट आध्यात्मिक साधना पर भी लागू होती है। उसके लिए ऐसे वातावरण का चयन अनिवार्य है, जहाँ प्राणतत्व पहले से विद्यमान हो, लम्बे समय तक विशिष्ट तपश्चर्या सम्पन्न होती रही हो एवं छोटे प्रयास करने पर जहाँ भारी सफलता मिलने की संभावना हो।

भगवान कृष्ण और रुक्मिणी का विचार एक बार उच्चस्तरीय संतान उत्पन्न करने का हुआ, इसके लिए उन्हें विशिष्ट तप करना था। हलकी फुलकी साधना तो घर गाँव में रहते हुए सामान्य क्रियाकलापों के साथ भी चलती रहती है किन्तु उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रयास ही सब कुछ नहीं होता। इसके लिए वातावरण भी चाहिए। अस्तु दोनों को सुसम्पन्न नगरियों में उपलब्ध अपने प्रस्तुत साधन छोड़ने पड़े और अभीष्ट प्राप्ति के लिए उपयुक्त स्थान उत्तराखण्ड के हिमाच्छादित क्षेत्र में ढूँढ़ना पड़ा। वहाँ उन लोगों ने बारह वर्ष तक मात्र जंगली बेर खाकर तप किया। तदुपरांत ही उनके स्तर की सुसंतति के रूप में प्रद्युम्न का जन्म हो सका।

लंका विजय सतयुग स्थापन के उपरान्त राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघन को आत्म कल्याण की साधना आवश्यक प्रतीत हुई। गुरु वशिष्ठ ने भी इस आकाँक्षा का समर्थन किया। अयोध्या में साधनों की कमी नहीं थी, उसके लिए सभी सुविधाएँ जुट सकती थी, पर मूल प्रश्न एक ही था कि अभीष्ट वातावरण वहाँ कहाँ से आये? जन्म भूमि और कर्म भूमि के साथ मनुष्य के अनेकानेक संस्कार जुड़े होते हैं। अपना-पराया, राग-द्वेष, स्मृति-अभ्यास, संपर्क-स्वभाव के कुछ ऐसे प्रवाह मनुष्य के साथ जुड़े होते हैं कि बहुत रोकथाम करने पर भी मनुष्य की चिन्तन पद्धति अभिरुचि और आदतें उसी अभ्यस्त ढर्रे में अनायास ही घूमती रहती है। विचारों तक की रोकथाम और मोड़-मरोड़ जब कठिन पड़ती है, तब अचेतन के साथ जुड़े रहने वाले स्वभाव-अभ्यास को कैसे बदला जाय? इसके लिए स्थान बदलने की आवश्यकता पड़ती है। परिस्थितियों का भी मनःस्थिति पर प्रभाव पड़ता है। स्थान बदलने पर वहाँ के पदार्थ और व्यक्तियों के साथ संबंध भी झीने पड़ते हैं। फलतः आगे न बढ़ने देने वाले संचित संस्कारों की पकड़ भी ढीली हो जाती है। साथ ही अधिक प्रभावी वातावरण का दबाव पड़ने पर भी मन का बदलना सरल हो जाता है। इन्हीं महत्ताओं को ध्यान में रखकर गुरु वशिष्ठ ने चारों भाइयों को हिमालय जाकर साधना करने का निर्देश दिया। देवप्रयाग, मुनि की रेती, लक्ष्मण झूला जैसे स्थानों पर उन लोगों की तपःस्थली थी, ऐसा मनीषियों का मत है।

महाभारत के उपरान्त पाण्डव सिंहासनारूढ़ तो हुए पर साथ ही आत्मोत्कर्ष की आकाँक्षा भी उमगती रही। भगवान कृष्ण ने उनकी अभिलाषा को समझा और इसके लिए स्थान बदल देने का परामर्श दिया। द्रौपदी समेत पांचों पाण्डवों ने हिमालय के लिए प्रस्थान किया, बद्रीनाथ के निकट पाण्डुकेशर नामक विशिष्ट स्थान में वे तपश्चर्या करते रहे। यहीं पर भगवान ने उन्हें पाण्डव गीता सुनाई थी। वह ज्ञान भी ‘योगवशिष्ठ’ के समतुल्य ही माना जाता है। तपस्वी जीवन बिताते हुए उच्चस्तरीय साधना करते हुए, पाण्डवों ने स्वर्ग प्रस्थान किया था यह सभी को विदित है। यह विशिष्ट कार्य वे इन्द्रप्रस्थ अथवा हस्तिनापुर रहते हुए राजकाज चलाते हुए नहीं कर सकते थे। वातावरण व्यक्ति का तीन चौथाई मन अपने साथ अनायास ही जकड़े रहता है। अभ्यस्त ढर्रे में स्थान के साथ-स्वजन संबंधियों के साथ जुड़े हुए सम्बन्ध इतने सघन होते हैं, जिनका उल्लंघन करते हुए पार जा सकना दुष्कर समझकर यही उपाय अपनाया जाता है कि उपयुक्त वातावरण की दृष्टि से पुराने संबंधों से जकड़ा हुआ स्थान बदल दिया जाय। पाण्डवों ने भी राम बंधुओं की तरह वही किया।

दिव्य वातावरण के कारण ही महान तपश्चर्याओं का इतिहास हिमालय क्षेत्र के साथ जुड़ा है। तीर्थ स्थानों में लोग इन्हीं कारणों से जाया करते थे। गंगा स्नान से पवित्रता अनुभव होती है, वह उसी पानी को तालाब या कुलाबे से निकालकर नहा लेने से पूरी नहीं हो सकती। स्थान और वातावरण का अपना महत्व है। येरुशलम जैसा ईसाइयों का अन्य धर्म केन्द्र नहीं बन सकता। संसार भर के बौद्ध भारत में भगवान बुद्ध के लीला केन्द्रों में अपनी श्रद्धाँजलियाँ अर्पित करके ही सन्तोष की साँस लेते हैं। जैन और सिख तीर्थों के भौतिक स्थानों के संबंध में भी यही बात है। इमारतों और पुरोहित का प्रबंध अन्यत्र कर लेने पर भी वैसा समाधान हो सकना कठिन है।

स्थानों की अपनी विशेषता और महत्ता न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से वरन् भौतिक दृष्टि से भी है। धरती के कुछ स्थान ऐसे हैं जिनकी अपनी विशेषता है। वह विशेषता कृत्रिम रूप से अन्यत्र पैदा नहीं की जा सकती। दक्षिण अफ्रीका में संसार का अधिकाँश सोना पैदा होता है। मृत सागर में अत्यन्त गाढ़ा एवं खारा पानी है। खगोल विद्या की आवश्यक जानकारी पर एक विशेष क्षेत्र में भू चुम्बकीय धाराओं व अन्तरिक्षीय प्रवाहों के आधार पर मिश्र में पिरामिड बने हैं। कोणार्क का सूर्य मंदिर ऐसे स्थान पर बना है जहाँ से सूर्य ग्रहण का अनुसंधान करने के लिए संसार भर के विज्ञानी वहाँ आते हैं। गर्म पानी के जमीन से निकलने वाले ऐसे फव्वारे (गीजर्स) मात्र न्यूजीलैण्ड में ही पाये जाते हैं, जिनसे बड़े परिमाण में ऊर्जा पैदा की जाती है। रूस के कजाकिस्तान व अजर बेजान क्षेत्र में जितनी लम्बी आयु के जीने वाले दीर्घजीवी होते हैं, संसार में अन्यत्र नहीं देखे जाते। वायु का दबाव जैसा हालैण्ड में है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं। पवन चक्कियाँ उस देश में जितनी सफल हुई है उतनी और किसी देश में नहीं।

वातावरण स्थान एवं जलवायु को देखते हुए ही स्वास्थ्य सुधार के लिए “सैनिटोरियम” विशेष स्थान पर ही बनाये जाते हैं। भले ही लोगों को वहाँ पहुँचने में असुविधा होती है। भुवाली, कसौली, कौसानी नामक स्थानों पर सैनिटोरियम प्रायः ऊँचे पर्वतीय स्थानों पर स्वास्थ्य सुधार की दृष्टि से उपयुक्त समझे गये वातावरण में बने हैं। परिणामों को देखते हुए स्पष्ट है कि रोग और उपचार अन्यत्र जैसा रहने पर भी वहाँ भर्ती हुए रोगी आशातीत प्रगति करते हैं और जल्दी अच्छे होने में इन उपचार गृहों का परिणाम आश्चर्यजनक रहता है। यह सफलता रोगी अपने-अपने स्थानों पर रहकर उपलब्ध नहीं कर सकते।

बम्बई का केला, नागपुर का सन्तरा, लखनऊ का आम मैसूर का चन्दन, बलसाड़ का चीकू, हिमालय का सेब, सिन्ध का खजूर एवं हींग, समुद्र तटीय क्षेत्र का नारियल प्रसिद्ध है। उन्हीं पौधों को अन्यत्र लगाया जाय तो वह विशिष्टता और गुण उपलब्ध नहीं होंगे। इसमें माली का दोष नहीं, जलवायु मूल कारण है। सरहदी पठान और नम क्षेत्र के निवासी बंगाली का शरीर देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि आहार आदि की सुविधा में अन्तर न रहने पर भी स्वास्थ्य में इतना अन्तर क्यों रहता है?

जो बात भौतिक क्षेत्र में जलवायु और जमीन पर लागू होती है, वही अध्यात्म क्षेत्र के प्रयोगों और परिणामों के संबंध में उच्चस्तरीय वातावरण पर निर्भर रहती है। इसमें भूमिगत संस्कार, प्राणवान सान्निध्य तथा क्षेत्रीय वातावरण पुरातन संस्कार आदि कितने ही कारण काम करते हैं। तीर्थों की स्थापना पुरातन काल में इन्हीं तथ्यों को समन्वित करते हुए की गई थी।

हरिद्वार का शाँतिकुँज अपने समय का एक ऐसा गायत्री तीर्थ है जो स्थान की महिमा, वातावरण की पवित्रता, घनीभूत प्राणऊर्जा, तपश्चर्या के बलशाली चुम्बक एवं प्रफुल्लता के दिव्य तत्वों को अपने अन्दर सँजोए हुए है, जिसके साये में मानव अपने दैनन्दिन जीवन के संताप, क्लेश, त्रिताप, आदि-व्याधि एवं भयंकर मुसीबतों से छुटकारा पा सकते हैं। यह एक सुविदित तथ्य है कि ओजस्वी, मनस्वी, और तपस्वी स्तर के महापुरुष अपनी प्रचण्ड ऊर्जा से वातावरण को गरम करते हैं। विशिष्ट साधना उपचारों द्वारा वातावरण में गर्मी उत्पन्न की जाती है, जिसकी व्यापक प्रखरता के दबाव से सब कुछ सहज ही बदलता चला जाता है। शाँतिकुँज की स्थापना इन दोनों कसौटियों पर कसने के उपरान्त परम पूज्य गुरुदेव द्वारा 1971 में की गई। इस स्थान पर कभी गायत्री मंत्र के प्रथम द्रष्ट विश्वामित्र से लेकर भारद्वाज, कश्यप, अत्रि, गौतम, जमदग्नि, वशिष्ठ ऋषि आदि ने ज्ञान-विज्ञान संबंधी महत्वपूर्ण प्रयोग किये थे। उनकी सूक्ष्म एवं दिव्य प्राण ऊर्जा को यहाँ सतत् अनुभव किया जा सकता है।

हिमालय का प्रवेश द्वार होने के कारण एक और शिवालिक पहाड़ियाँ, दूसरी ओर गढ़वाल हिमालय की छत्रछाया उस पर घनीभूत रहती है। भौतिक शक्तियों के धरती पर अवतरण का केन्द्र बिन्दु विज्ञान जगत में ध्रुव प्रदेशों को माना जाता है। अध्यात्म जगत में वैसी ही मान्यता इस हिमालय के प्रवेश द्वार के संबंध में है। यह दिव्य भूमि दिव्य चेतनाओं का अवतरण केन्द्र है जहाँ सप्तऋषियों ने शोध अनुसंधान एवं तप किया है वस्तुतः जिस स्थान पर गायत्री के ऋषि महर्षि विश्वामित्र ने नूतन सृष्टि सृजन हेतु तप किया था, उसी स्थान पर शाँतिकुँज बना है।

गंगा की गोद-हिमालय की छाया सप्त ऋषियों की तपोभूमि होने के कारण शाँतिकुँज के स्थान की विशेषता को आध्यात्मिक त्रिवेणी संगम के समकक्ष कहा जा सकता है। स्थापना के पश्चात् यहाँ चौबीस करोड़ गायत्री जप, अखण्ड दीप के सम्मुख कुमारी कन्याओं द्वारा संपन्न किये गए। नित्य यहाँ 24 लक्ष का जप सतत् चलता रहता है। 67 वर्ष से जलने वाली अखण्ड-ज्योति की यहाँ अनुपम स्थापना है जिसका दर्शन मात्र समस्त भवबन्धनों आधि-व्याधियों, दुःख तापों से मुक्ति दिलाने में समर्थ है। नौ कुण्डों की यज्ञशाला में अनुष्ठानी साधकों द्वारा सहस्राधिक आहुतियों का यज्ञ नित्य होता है।

स्थानीय निवासी तथा बाहर के आगन्तुक सभी अपनी साधना बड़ी मात्रा में करते हैं, जो प्रतिदिन कितने ही लक्ष मंत्र जप के समकक्ष हो जाती है। दोनों नवरात्रियों में तो यहाँ इतने अधिक साधक हर वर्ष आते हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि अभी भी साधना तपश्चर्या के प्रति लोक-निष्ठ समाप्त नहीं हुई। स्थापना से लेकर अब तक जितना जप यहाँ संपन्न हुआ है, उसे देखते हुए इसे गायत्री तीर्थ नाम दिया जाना उचित ही है। दिव्य साधना का सूक्ष्म प्रभाव साधना के दौरान साधकों को स्पष्ट अनुभव होता है। घर में की गई साधना की अपेक्षा यहाँ की साधना जल्दी फलीभूत होती है। परोक्ष प्रभाव वह है जिसमें हिमालय की देवात्मा, सप्तऋषियों का प्रतीक पूजन अदृश्य सत्ताओं को आकर्षित करता रहता है। संस्थापक ऋषियुग्म की तपश्चर्या विशेष प्रभाव उत्पन्न करती है।

हिमालय की दिव्य सत्ता का संरक्षण, वशिष्ठ अरुन्धती के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं परम वंदनीया माताजी का सूक्ष्म एवं स्थूल सान्निध्य, अनुभवपूर्ण मार्गदर्शन तथा प्राणवान अनुदान जैसी ऐसी सुविधाएँ अन्यत्र मिल सकना कठिन है। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा प्रक्रिया को शिक्षार्थियों के अन्तराल की गहराई तक उतारने की व्यवस्था यहाँ के नौ दिवसीय सत्रों में है। मनोबल और आत्मबल बढ़ाने वाले आहार के साथ दिव्य औषधियों का सेवन भी आवश्यकतानुसार जुड़ा रहता है। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में बहुमूल्य यंत्रों द्वारा मूर्धन्य वैज्ञानिक हर शिविरार्थियों की चिकित्सकीय जाँच पड़ताल करते हैं। इन विशेषताओं से स्पष्ट है कि पुरातन तीर्थ स्थानों में जो उच्चस्तरीय विशेषताएँ आदि से अंत तक भरी रहती थी, लगभग


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118