प्राणशक्ति एक जीवन्त ऊर्जा, महत्वपूर्ण उपलब्धि

October 1991

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मानवी चेतना को पाँच भागों में विभाजित किया गया है। इन्हें पंचकोश कहा जाता है। अन्नमय कोश का अर्थ है-इन्द्रिय चेतना। प्राणमय कोश से आशय है जीवनी शक्ति-जिजीविषा। मनोमय कोश अर्थात् विचार बुद्धि-प्रज्ञा। विज्ञानमय कोश अर्थात् आकाँक्षा-संवेदना-भाव प्रवाह तथा अंतिम आनन्दमय कोश अर्थात् आत्मबोध-आत्मजाग्रति-जीवन्मुक्ति। गायत्री को पंचमुखी इन्हीं कोशों के साथ जोड़ते हुए निरूपित किया जाता है। इस अलंकारिक चित्रण में इतना ही संकेत है कि गायत्री की उच्चस्तरीय उपासना में पंचकोशों के जागरण-अनावरण की साधना का महत्वपूर्ण स्थान है। पाँचकोश वस्तुतः तिजोरी के भीतर पाँच तालों में बंद बहुमूल्य रत्न भण्डार के समान हैं।

चेतना का एक विभाजन तीन शरीर तीन ग्रंथियों के रूप में भी है। त्रिपदा साधना में स्थूल-सूक्ष्म कारण शरीर को विकसित करने की साधना की जाती है। स्थूल शरीर की साधना में यों अन्नमय व प्राणमयकोश दोनों ही आते हैं। सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत मनोमय कोश तथा विज्ञानमय कोश की साधना का पूर्वार्ध आता है तथा कारण शरीर के अंतर्गत विज्ञानमय कोश का उत्तरार्ध एवं आनन्दमय कोश की अंतिम स्थिति आती है। यह दोनों विभाजन यों सूक्ष्म एनाटॉमी की दृष्टि से पृथक-पृथक हैं अतः मोटे रूप में ही दोनों में कुछ साम्यता बिठाई जा सकती है। पाँचकोशों की साधना हो चाहे तीन शरीरों की, है यह गायत्री की उच्चस्तरीय साधना व इसके प्रतिफल बड़े महत्वपूर्ण हैं। अन्नमयकोश की सिद्धि से नीरोगता, दीर्घजीवन व चिरयौवन का लाभ मिलता है। प्राणमयकोश से साहस, शौर्य, पराक्रम, प्रभाव, प्रतिभा जैसी विशेषताएँ उभरती हैं। मनोमयकोश की जाग्रति से विवेकशीलता, दूरदर्शिता, बुद्धिमत्ता, धैर्य-संतुलन, तनाव मुक्ति जैसे गुण उपलब्ध होते हैं, अतीन्द्रिय ज्ञान, अपरोक्षानुभूति, दिव्यदृष्टि जैसी उपलब्धियाँ विज्ञानमयकोश के जागरण की हैं। आनन्दमयकोश के विकास से ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार, स्वर्ग-मुक्ति हर घड़ी आनन्द स्थिति जैसी महान उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं। अन्नमयकोश का केन्द्र षटचक्रों से संगति बिठाते हुए स्वाधिष्ठान चक्र बताया गया है। प्राणमय कोश का मणिपूर, मनोमय कोश का आज्ञा चक्र, विज्ञानमय कोश का विशुद्धि तथा आनन्दमय कोश का केन्द्र सहस्रार चक्र है। पंचकोशों का जागरण-अनावरण के साथ ही चक्र वेधन होता व दिव्य सिद्धियाँ प्रकट होने लगती हैं। यही कुण्डलिनी साधना है।

इन्द्रिय चेतना व जीवनी शक्ति का समन्वित रूप जो प्रारंभिक दो कोशों की परिधि अपने में समाहित किए हुए है-एक नाम से संबोधित किया जा सकता है-प्राणशक्ति। मनुष्य एक प्राणी है। प्राणी उसे कहते हैं, जिसमें प्राणों का स्पन्दन हो रहा हो। प्राण निकल जाने पर शरीर निर्जीव होकर सड़ गल जाता है, भौतिक अस्तित्व समाप्त हो जाता है। मनुष्य जीवित है एवं विविध क्रियाकलापों में संलग्न है, क्योंकि उसमें प्राण है। वस्तुतः इस प्राणशक्ति की न्यूनाधिकता ही व्यक्ति की सशक्तता, समर्थता एवं प्रतिभाशीलता का निर्धारण करती है। प्राण एक विद्युत है, जो जिस क्षेत्र में भी जिस स्तर पर संयुक्त होती है, संचित होती है, उसी में चमत्कार उत्पन्न कर देती है। गायत्री महामंत्र की साधना का प्रमुख लाभ प्राणशक्ति जीवनी शक्ति के रूप में ही साधक को मिलता है।

शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है- “सा हैषा गयाँस्तत्रै प्राणः वै गयास्तत्प्राणंस्तत्रें। तद्यद् गयाँस्तत्रे। तस्याद् गायत्री नाम।” अर्थात् गय कहते है प्राण को। त्री अर्थात् त्राण-रक्षा करने वाली। जो प्राणों की रक्षा करे उस शक्ति का नाम गायत्री हुआ।

याज्ञवल्क्य संहिता में कहा गया है-

“गायत्रं त्रायते इति वा गायत्री, प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः।” अर्थात् प्राणों का संरक्षण करने वाली होने से उसे गायत्री कहा जाता है।

कितना सटीक नाम करण है- गायत्री। तीन अक्षरों से भावार्थ निकलता है जो प्राणशक्ति की रक्षा करे-उसका अभिवर्धन करे। शरीर में प्राण का बाहुल्य हो तो व्यक्ति नीरोग, दीर्घजीवी परिपुष्ट, समर्थ एवं प्रफुल्ल दिखाई देता है। मन में प्राण का बाहुल्य हो तो मस्तिष्क की उर्वरता बढ़ जाती है। स्मरण शक्ति, सूझबूझ, निर्णय क्षमता, एकाग्रता जैसी विशेषताएं उत्पन्न हो जाती हैं। अंतरंग में, अध्यात्म क्षेत्र में, यही प्राण शक्ति शौर्य, साहस, जीवट, संकल्प शक्ति, मनोबल की सामर्थ्य के रूप में दिखाई देती है।

आज संसार में सबसे बड़ा अभाव कोई है तो वह है। प्राणशक्ति का, जीवट का। स्वास्थ की दृष्टि से आज अधिकाँश व्यक्ति निस्तेज दिखाई देते हैं। थोड़ा सा दिनचर्या का व्यतिक्रम या मौसम का असंतुलन आज व्यक्ति को रुग्ण बना देता है। मनोबल भी अनिवार्य है रोग से जूझने के लिए चाहे वह शारीरिक हो अथवा मानसिक। मनःशक्ति के कम होने का कारण है प्राण को संचित करने की क्षमता में ह्रास तथा इसका प्रतिफल है अनेकानेक मनोरोग, मनोशारीरिक रोग तथा शरीरगत जटिल व्याधियों के शिकार व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि। प्राणशक्ति के मूल्य पर व्यक्ति भौतिक समृद्धियाँ व जीवन व्यापार में सफलता पाता है। प्राण का उपार्जन मनुष्य का सर्वोपरि पुरुषार्थ है व जब यह संपन्न नहीं होता, व्यक्ति रुग्ण तेजहीन व बलहीन होता, जीवन संग्राम में पराजित होता देखा जाता है।

प्राणशक्ति का उपार्जन करने के कई भौतिक उपाय भी हैं और एक सीमा तक उन उपायों से प्राणशक्ति बढ़ाई भी जा सकती है। मूल महत्व उसे आध्यात्मिक विकास में प्रयुक्त करना है। तत्ववेत्ता -मनीषी उधर ही ध्यान देते रहे हैं। गायत्री महामंत्र वस्तुतः प्राण शक्ति उपलब्ध कराने के रूप में ही साधक को प्रमुख लाभ देता है। इस महामंत्र की उपासना यदि ठीक प्रकार से की जाय,तो उपासक में प्राणशक्ति की अभिवृद्धि शीघ्र ही होने लगती है और वह इस अभिवर्धन के आधार पर कई तरह की सफलताएँ प्राप्त करता है। कहने वाले इसे गायत्री माता का अनुग्रह आशीर्वाद कहा करें पर वस्तुतः होता यह है कि इस उपासना से साधक में प्राणशक्ति, आत्मबल विकसित होता चला जाता है। व्यक्तित्व में कई प्रकार के परिष्कार-परिवर्तन देखें जाते है, कठिनाइयों के अवरोध मार्ग से हटते हैं तथा सफलताओं का पथ प्रशस्त होता है। गायत्री की उपासना वस्तुतः प्राणशक्ति की ही उपासना है। जिसे जितना प्राण-बल उपलब्ध हो गया हो, समझना चाहिए कि उसकी उपासना उतने ही अंशों में सफल हो गयी है। सामर्थ्यवान गुरु अपने शिष्यों को इसी प्राण सम्पदा से सुसम्पन्न बनाकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाते हैं। शिष्य की गायत्री साधना के बदले गुरु माध्यम बनकर आरुणि के लिए महर्षि धौम्य, जाबालि के लिए गौतम, अर्जुन के लिए इन्द्र, नचिकेता के लिये यम तथा कच के लिए शुक्राचार्य रूप में एवं विवेकानंद के लिए रामकृष्ण परमहंस रूप लेकर प्राणशक्ति में शिष्यों को ओतप्रोत कर देते हैं।

प्राणशक्ति का यथावत संतुलन बना रहें तो जीवसत्ता के सभी अंग प्रत्यंग ठीक काम करते हैं। शरीर स्वस्थ रहेगा तो मन प्रसन्न रहेगा और


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