हमारे उच्च चेतन की विलक्षण क्षमताएँ

October 1991

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स्वामी विशुद्धानन्दजी, जिन्हें ”गंधबाबा” नाम से भी जाना जाता रहा है गायत्री के सिद्ध उपासक एवं सूर्य विज्ञान के ज्ञाता के रूप में ख्याति प्राप्त संत हैं। वे कहते थे कि सृष्टि में जो भी जीवचेतना है,जो भी स्पन्दन है,उसके मूल में सविता देवता की शक्ति ही है। यदि उससे निस्सृत किरणें का उपयोग आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिए किया जा सके तो व्यक्ति अगणित सिद्धियों का अधिकारी बन सकता है। उनका स्वयं का जीवन उपरोक्त कथन का प्रमाण है। एक बार प्रत्यक्ष अनुभव का प्रसंग उठने पर स्वामी जी ने माला में से प्रत्येक फूलों में जिज्ञासु दर्शकों की इच्छा के अनुरूप विभिन्न फूलों की गंधों का समावेश कर दिखाया था। वे स्वयं सिद्धियों के प्रदर्शन के विरुद्ध थे किन्तु गायत्री व सविता की महत्ता समझाने के लिए यदा-कदा सुपात्रों को ऐसे विलक्षण घटनाक्रम दिखा दिया करते थे।

स्वामी जी का अभिमत था कि जो कुछ भी दृश्य जगत में है, उसके परमाणु सूर्य की किरणों व परोक्ष ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। गायत्री साधक यदि चाहे तो उनसे आहार ग्रहण कर सकता है,अपने लिए जो चाहे उस विराट महासागर में से ले सकता है। अनेकों बार स्वामी जी ने अविज्ञात के गर्भ से अनेक वस्तुएँ निकालकर अपने शिष्यों को सूँघने, खाने व देखने को दीं ताकि वे जन-जन को बता सकें कि गायत्री व सविता रूपी महाशक्ति की उपासना से व्यक्ति कितनी विलक्षण क्षमताओं का स्वामी बन जाता है।

यहाँ यह प्रतिपादन किया जा रहा है कि गायत्री महाशक्ति की उच्चस्तरीय साधना से मनोमय एवं विज्ञानमयकोश की सिद्धि द्वारा विलक्षण प्रतिभा, अद्भुत संकल्प शक्ति से लेकर पूर्वाभास, दूरदर्शन, परोक्ष जगत की जानकारी से लेकर पदार्थ हस्तांतरण तक की उच्च चेतन स्तर की क्षमताएँ अर्जित की जा सकती हैं। ये सब विभूतियाँ मात्र पौराणिक मिथक नहीं हैं, इस सदी में भी अगणित ऐसे साधक हमारे देश व बाहर हुए हैं, जिनने साधना द्वारा सिद्धि की यह सामर्थ्य हस्तगत की है। जानना चाहें तो मनोमयकोश से मस्तिष्कीय विकास, उत्कृष्ट चिन्तन-प्रतिभा परिष्कार चमत्कारी प्रज्ञा रूप में इन्हें समझ सकते है, दूसरी और विज्ञानमय कोश को असामान्य स्तर की बुद्धि के विकास, परोक्ष से संपर्क जोड़ने की क्षमता तथा आदर्शवादी उमंगों के उभार के रूप में जान सकते हैं।

मनोमयकोश की साधना में एकाग्रता की शक्ति का सम्पादन एवं अभिवर्धन किया जाता है। मनःशक्ति बिखरी होने पर मस्तिष्क के पूर्ण समर्थ होते हुए भी व्यक्ति को पिछड़ेपन से ही ग्रस्त तथा बौद्धिक दृष्टि से दुर्बल बनाती है। इस बिखराव को गायत्री की ध्यानयोग प्रक्रिया द्वारा मनःसंस्थान के विभिन्न क्षमता केन्द्रों पर संचित-केन्द्रित कर लिया जाता है तो प्रसुप्त पड़े संस्थान जाग्रत होने लगते हैं। वे विशेषताएँ जो भीतर पहले नहीं थीं, जाग्रत होने लगती हैं। स्मरण शक्ति-प्रतिभा-बुद्धिलब्धि जैसी कितनी ही क्षमताएँ इस आधार पर विकसित की जा सकती हैं। आतिशी शीशे के माध्यम से कुछ ही सीमित क्षेत्र में फैली सूर्य किरणों को जब एक ही बिन्दु पर एकत्रित किया जाता है, तो उतने भर से अग्नि प्रज्वलित हो जाती है। चूल्हें पर पानी गरम करते समय ढेरों भाप उड़ती रहती है पर यदि 100 ग्राम पानी की भाप प्रेशर कुकर में ठीक ढंग से प्रयुक्त की जाय तो उतने भर से कई आदमियों का भोजन तुरन्त पकाया जा सकता है। भाप को निकलने का मार्ग मिले व कुकर या कोई बड़ा बर्तन फट जाय तो यही भाप विनाश लीला भी मचा सकती है।सेरों बारूद जमीन पर फैलाकर जला दी जाय तो थोड़ी रोशनी व लपट की चमक भर दीखेगी किन्तु यदि उसे बंदूक की गोली या तोप के गोले के रूप में चलाया जाय तो वह बड़े से बड़ा क्षेत्र को चीरती हुई गन्तव्य तक जा पहुँचती व नुकसान पहुँचाती है। नदी का पानी बहता रहता है, किन्तु जब उसी को संचित कर ऊपर से जलधारा को टर्बाइन्स पर गिराया जाता है तो विद्युत प्रचुर परिमाण में उत्पन्न होने लगती है। ये सारे उदाहरण बिखराव को रोकने व केन्द्रीकरण की दिशा में मोड़ने से उत्पन्न चमत्कार के हैं।

व्यक्ति की सामान्यतः सारी जीवन सम्पदा बिखरी सी रहती है। पेट व प्रजनन तक सीमित व्यक्ति अपना समय किसी तरह काटते व समय, अर्थ विचार व इन्द्रिय सम्पदा का मनमाना उपभोग करते देखे जाते हैं। किन्तु जब इसी सम्पदा का दुरुपयोग रोककर सारे बिखराव का एकीकरण कर लिया जाता है तो उसी सामान्य व्यक्ति में से असामान्य महापुरुष उपज पड़ता है जो ऋद्धि-सिद्धियों का धनी देखा जाता है। प्रवीणता, पारंगतता, सफलता जैसी अनेकों उत्साहवर्धक विभूतियाँ वस्तुतः एकाग्रता की, मनोमय कोश की साधना की उपलब्धियाँ है। वैज्ञानिक कहते हैं कि मस्तिष्कीय कोशों को सतत् उत्तेजना देकर प्रसुप्त केन्द्रों को उद्दीप्त किया जा सकता है। गायत्री महाविद्या के जप द्वारा मूलतः यही प्रक्रिया संपन्न होती है व व्यक्ति विलक्षण मानसिक क्षमताओं से संपन्न बन जाता है। विकसित कला-कौशल, बढ़ी हुई स्मरण शक्ति, आविष्कर्ता स्तर की सूझबूझ, मौलिक स्तर का चिन्तन करने जैसी बुद्धि इसी प्रकार की सिद्धियाँ है। इससे न केवल व्यक्ति की स्वयं की क्षमताएँ परिष्कृत होती हैं, वह दूसरों को प्रभावित कर सकने की प्रतिभा का भी धनी बन जाता है।

गायत्री साधक में साहसिकता-संकल्प शक्ति का अभिवर्धन भी मनोमय कोश की जाग्रति की उपलब्धियाँ हैं। प्रगति पथ पर अग्रगामी होने के लिए प्रतिकूलताओं से लड़कर साधन सामग्री जुटाने व अभावों का निवारण करने के लिए मानवी संकल्प शक्ति ही प्रमुख भूमिका निभाती है। संकल्प शक्ति चमत्कारी उपलब्धियों की जननी है। संकल्प शक्ति प्रचण्ड हो तो व्यक्ति एकाकी ही दुस्साहस करता हुआ बढ़ता चला जाता है व भौतिक-आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में प्रगति के शिखर पर पहुँच कर दिखा देता है। मनःसंस्थान वस्तुतः ज्ञान, अनुभव, कौशल, प्रतिभा के साथ-साथ संकल्प शक्ति का भी केन्द्र है व इसे साध लेने पर सिद्धिदात्री महत्वपूर्ण उपलब्धियों का साधक अधिकारी बन जाता है। पानी वाले बाबा से लेकर “डाउसिंग“ प्रक्रिया में निष्णात् भूगर्भ से लेकर कहीं भी विद्यमान वस्तु को दिव्य दृष्टि से देख लेने वाले व्यक्तियों जैसी क्षमता इस कोश की आज्ञाचक्र की सिद्धि की ही परिणति है। इससे व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में काम आने वाली दूरदर्शिता से लेकर सूक्ष्म जगत में हो रही हलचलों को समझ सकने में भी निष्णात् हो जाता है। ध्यानयोग प्रक्रिया के अंतर्गत आज्ञाचक्र को जगाकर मनोमय कोश की साधना को सिद्धि स्तर तक पहुँचाया जाता है।

विज्ञानमय कोश की साधना इससे ऊँचे स्तर की है। यह विचार क्षेत्र से गहरे स्तर पर भाव-प्रवाह से संबंधित है। इस कोश का केन्द्र विशुद्धिचक्र माना गया है। कहीं-कहीं अनाहत चक्र को भी इसका केन्द्र बताया गया है। इस कोश की संतुलित साधना मनुष्य को उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी एवं शालीन बनाती है। परमार्थ भावना का “आत्मवत् सर्वभूतेषु” की भावना का विकास इस कोश की सिद्धि द्वारा होता है।


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