सुनियोजन के आधार पर संभव (Kahani)

October 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

 भागवत में एक कथा आती है, जिसके अनुसार एक बार पंद्रह वर्षों की लम्बी अवधि का घोर दुर्भिक्ष पड़ा। वनस्पति और जल के बिना अगणित प्राणी मर गए। सभी ऋषिगणों ने विचार किया कि गायत्री के परम उपासक तपोनिष्ठ महर्षि गौतम के पास चलना चाहिए। सबका कष्ट सुनकर गौतम ऋषि ने संकट निवारण हेतु गायत्री महाशक्ति से प्रार्थना की।

माँ गायत्री ने प्रसन्न होकर महर्षि को एक अक्षय पात्र दिया व कहा कि इससे तुम्हारी अभीष्ट कामनाएँ पूर्ण हो जाया करेंगी। यह कहकर वेदमाता अन्तर्ध्यान हो गयीं और उस पात्र की कृपा से अन्न के पर्वतों जैसे ढेर लग गए। गौतम ऋषि ने आगंतुकों के लिए वहाँ गायत्री का परम तीर्थ बना दिया,जहाँ रहकर वे सब गायत्री माता के पुरश्चरण भक्ति पूर्वक करने में संलग्न हो गए।

अक्षयपात्र जिसका वर्णन कथा में आया है, और कुछ नहीं मानवी आँतरिक शक्तियों का विकास ही है।

अन्तः करण में सद्बभाव व सन्तोष झलकेगा। किन्तु यदि इस क्षेत्र में विसंगति-विकृति उत्पन्न होने लगे तो उसकी प्रतिक्रिया आधि-व्याधियों के रूप में, विपत्तियों विभीषिकाओं के रूप में सामने खड़ी दिखाई देगी। रक्त दूषित हो तो अनेकों प्रकार के चर्मरोग, फोड़े फुँसी, दर्द- सूजन आदि विग्रह उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार प्राणतत्व में असंतुलन उत्पन्न होने पर शारीरिक अवयवों की क्रियाशीलता लड़खड़ाती है। कई प्रकार की व्यथा, बीमारियां उपजती हैं। मनः क्षेत्र में उत्पन्न हुआ प्राण विग्रह-असंतुलनों, आवेगों और उन्मादों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। भावना क्षेत्र में विकृत हुई प्राणसत्ता मनुष्य को नरकीटक-नरपिशाचों के घिनौने गर्त में गिरा देती है। पतन के अनेकों आधार प्राणतत्व की विकृति से ही संबंधित होते हैं। गायत्री का अवलम्बन लेने पर पतन से उत्थान का जो पथ प्रशस्त होता है, वह इसी प्राणशक्ति के सुनियोजन के आधार पर संभव हो पाता है।

प्राण एक शक्ति है और शक्ति उत्पन्न करने का एक विज्ञानसम्मत तरीका है- घर्षण (फ्रिक्शन)। भौतिक जगत में इस प्रयोग से शक्तिशाली उपलब्धियाँ प्राप्त की जाती हैं। आत्मिक जगत में प्राणशक्ति का उपार्जन करने के लिए भी यही प्रक्रिया प्रयुक्त होती है।

जंगलों में लगने वाली आग-दावानल, बड़वानल जैसे नाम से संबोधित की जाती है। यह मनुष्यों के द्वारा नहीं लगती, वरन् सूखे पेड़ों की टहनियों के तेज हवा के कारण हिलने व परस्पर टकरा जाने से-रगड़ से उत्पन्न होती है। चकमक पत्थर के टुकड़ों को आपस में टकराकर चिनगारियाँ उत्पन्न करने की कला कभी आदि मानव ने सीखी थी। बाद में फिर अग्नि उत्पादन के अन्य तरीके सामने आते गए। यज्ञ कार्यों में लकड़ियाँ रगड़ कर अरुणि-मंथन की क्रिया द्वारा अग्नि उत्पन्न की जाती है। प्राणायाम की प्रक्रिया लगभग इसी प्रकार की होती है। प्राणायाम में श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया को क्रमबद्ध-तालबद्ध, लयबद्ध बनाया जाता है। स्वास्थ्य संवर्धन के क्षेत्र में इस प्रक्रिया को फेफड़ों की कसरत बताया जाता है। किन्तु प्राणायाम का प्रयोजन तो इससे भी अति महत्वपूर्ण है। प्राणायाम द्वारा निखिल ब्रह्माण्ड में से प्राणतत्व की अभीष्ट मात्रा को आकर्षित कर उस उपलब्धि को अभीष्ट संस्थानों में पहुँचाया जाता है। साँस के साथ घुला प्राण जब रगड़ के साथ अंदर जाता व बाहर आता है तो उससे जो ऊर्जा पैदा होती है, वह व्यक्ति को वास्तविक शक्ति देती है। प्राणायाम में संकल्प शक्ति का समावेश करना पड़ता है। उसी के चुम्बकत्व से व्यापक प्राणतत्व को आकाश से खींच सकने में सफलता मिलती है। इस प्रकार श्वसन क्रिया के साथ-साथ प्रचण्ड मनोबल का समावेश करने पर ही प्राण विद्या का आध्यात्मिक प्रयोग सफलता तक पहुँचा पाना संभव हो पाता है।

दही मंथन में ‘रई’ को रस्सी के दो छोरों से पकड़कर उल्टा सीधा घुमाया जाता है। रई घूमती है और उससे दूध में घुला-नवनीत -घी बाहर आ जाता है। बाँए-दाएँ नासिका स्वरों से चलने वाले इड़ा-पिंगला विद्युत प्रवाहों का विभिन्न विधियों से मंथन करने पर दूध बिलोने जैसी हलचलें उत्पन्न होती हैं व उससे काया चेतना में भरा हुआ ओजस उभर कर आता है। इसको विधिवत् उत्पन्न किया और धारण किया जा सके तो साधक को मनस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी बनने का अवसर मिलता है। यह उपलब्धि


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118