होता है परमार्थ-प्रयोजन में कितना बल, खेतों में लहराती इन फसलों से पूछो।
कितना ऊँचा कर देता बलिदान मनोबल, इन बलिदानी बलखाती फसलों से पूछो॥1॥
इनकी नस-नस में कैसा उत्साह भरा है। और रगों में जाने कैसा रक्त चढ़ा है।
इनके अन्दर मचल रही भरपूर जवानी, सिर से कफन बाँधकर साहस तना-खड़ा है।
जनहिताय जीने की एक अजब मस्ती है। मरने वाली मस्ताती फसलों से पूछो॥2॥
कल ही तो इन सबके सिर कटने वाले हैं, तन भी बोटी-बोटी में बंटने वाले हैं।
मगर हौसले झूम रहे हैं इन फसलों के, बढ़े हौसले, क्या पीछे हटने वाले हैं।
जन-जन को जीवन देने के लिए मृत्यु से। हँसकर हाथ मिलाती इन फसलों से पूछो॥3॥
क्या हम? फसलों से भी हुये गये-बीते हैं, क्या हम? केवल ढाँचे है बिल्कुल रीते हैं।
मानव होकर भी भावों से शून्य हुये क्या, क्या अपने ही लिये सिर्फ पशुवत् जीते हैं।
पेट और प्रजनन ही है क्या धर्म मनुज का। ऋषि-दधीचि की उन हड्डी-पसली से पूछो॥4॥
जनहिताय जीने, का शिव-संकल्प करें हम, जन-जीवन को जीवन देने जियें-मरें हम।
सधता जाये प्रतिपल ही परमार्थ-प्रयोजन, ऐसे ही पावन-पथ पर निज चरण धरें हम॥
वरना! महाकाल तो सबको चट कर जाता। उसके मुँह में जाती पशु-नसलों से पूछो॥5॥
-मंगल विजय
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*समाप्त*