कलि का निवास

April 1976

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महाभारत युद्ध के बाद पाँडवों ने वर्षों तक राज्य किया और बाद में यथावसर वानप्रस्थ को चले गये। इसके बाद युवराज परीक्षित राज सिंहासन के अधिकारी बने और वे धर्मपूर्वक शासन करने लगे। वे शौर्य, पराक्रम, बल और ऐश्वर्य में अपने पूर्वजों के समान थे। उन्हीं दिनों परीक्षित ने सुना कि उनके साम्राज्य में कलियुग का प्रवेश हो गया है। इससे वे क्षुब्ध तो हुए-क्योंकि उन्होंने महर्षियों से सुन रखा था कि कलि का प्रभाव मनुष्य को धर्म और नीति के मार्ग से पदच्युत कर अधःपतित बनाने वाला है। लेकिन तत्क्षण ही उन्हें आशा भी बँधी कि उन्हें अपने शौर्य पराक्रम परखने का अवसर मिला है।

तुरन्त परीक्षित हाथ में धनुष-बाण लेकर अपने चुने हुए सैन्याधिकारियों के साथ कलियुग को खोजने और उससे युद्ध कर, उसे परास्त करने के लिए निकल पड़े। जहाँ-जहाँ भी उन्होंने पदार्पण किया, वहाँ-वहाँ उन्हें अपने पूर्वजों का सुयश सुनने को मिला और भगवान श्रीकृष्ण का यशोगान श्रवण किया-जिन्होंने गर्भ में ही परीक्षित की, अश्वत्थामा द्वारा उन्हें मारने के लिए फेंके गये ब्रह्मास्त्र से रक्षा की थी।

इन सब लोक चर्चाओं को सुनकर महाराज परीक्षित का हृदय भगवान के प्रति श्रद्धा और उनकी अचिन्त्य कृपा के प्रति कृतज्ञता से अवनत हो उठता था।

परीक्षित कलि को खोजते हुए गाँव-गाँव नगर-नगर व वन प्रान्तर में घूमते फिरे परन्तु उन्हें कलियुग का प्रभाव कहीं नहीं दिखायी दिया। एक स्थान पर उन्होंने देखा गाय और बैल कुछ बातें कर रहे थे। शिविर लगा हुआ था। गाय बैल का वार्तालाप सुनकर वे शिविर से बाहर आये। बैल के चारों पैरों में केवल एक ही ठीक था। शेष तीन टूटे हुए थे। गाय बैल से पूछ रही थी-वृषभ देव! आपके तीन पाँवों को क्या हुआ?

बैल ने कहा-कल्याणि! अब कलियुग का आगमन हो गया है। उसने आते ही मेरे तीनों पैर तोड़ डाले और मुझे लगता है कि अब चौथा भी अधिक समय तक सकुशल नहीं रह पायेगा।

‘क्यों आर्य?’

‘आखिर कलि ही तो ठहरा’- बैल ने कहा- ‘और आप भी तो अब कृश हो गई है।’

इतने में ही परीक्षित ने पूछा- मातु और देव आप सामान्य तो नहीं दिखायी देते। कृपा कर अपना परिचय दीजिए।

परिचय प्राप्त कर परीक्षित ने जाना कि गाय तो पृथ्वी है और वृषभ धर्म। धर्म के चारों चरण सत्य, शौच, करुणा और सेवा में से तीन पैर विक्षत हो गये हैं। पृथ्वी भी कृश और क्षीण है। अतः उन्होंने कलियुग का वास स्थान पूछा।

धर्म ने बताया कि कलि मन में रहता है और वहीं से मनुष्य को भ्रान्त करता है जिससे उसे धारण करने वाले धर्म की यह दशा हुई। परीक्षित ने कलि को खोजा और जब वह शिशु के रूप में मिला तो उसे मारने के लिए उद्यत हुए।

‘क्षमा करें आर्य’-कलि ने चीत्कार कर कहा ‘मैं आपकी शरण हूँ।’

‘शरणागत दया के आदर्श से अभिप्रेरित परीक्षित के हाथ जहाँ के तहाँ रुक गये, परन्तु उन्होंने कहा भी- ‘‘मैं तुम्हें इसी शर्त पर क्षमा कर सकता हूँ कि पृथ्वी पर से चले जाओ।’’

“कहाँ चला जाऊँ?” नियति ने मुझे पृथ्वी पर ही रहने के लिए आदेश दिया है। हाँ इतना कर सकता हूँ कि आप जिस स्थान के लिए कहें वहीं रहने लगूं और वहाँ से रंचमात्र भी इधर-उधर न होऊ-कलि ने कहा।

तब राजा परीक्षित ने कहा- ‘ठीक है तुम्हारे रहने के लिए द्यूत (छल) मद्यपान (व्यसन), परस्त्री संग (व्यभिचार) हिंसा और सुवर्ण (लोभ) जहां हो तुम वहीं रहो।

और कहते हैं कि तभी से कलि इन पाँचों स्थानों पर निवास करने लगा।

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