ईश्वर भक्ति और सेवा साधना की एकरूपता

April 1976

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इन दिनों लोग सेवा व भक्ति को भिन्न मानने लगे हैं। दरअसल भगवान के प्रति भक्ति और दूसरों के लिए सेवा का प्रयोग एक ही अर्थ में होना चाहिए। विद्वानों ने जन सेवा तथा परोपकार को ही भगवद्-भक्ति कहा है। इसका कारण यह है कि सभी के हृदय में निवास करने वाला प्रेम ही परमात्मा रूप है। इसके अलावा अपने यहाँ तो जड़−चेतनमय सारी सृष्टि को ही उसी एक का रूप मानते हैं। इस प्रकार हम जब सेवा करते हैं तो हाड़ माँस के बने किसी देह की नहीं अपितु उसकी आत्मा को तृप्त करते हैं और अपने भावमय परब्रह्म प्रेम को भी तृप्त करके परमात्मा की दुहरी उपासना द्वारा दुगुने पुण्य पाने की आनन्दानुभूति करते हैं।

सभी कर्म ऊपर उल्लिखित सेवा या भक्ति की कोटि में नहीं आ सकते। अतः सेवा के स्वरूप जानने का भी कम महत्व नहीं है। स्वामी या सरकार की सेवा अथवा अन्य लोभ लाभ आतंक दबाव आदि से सम्पन्न सेवा आदि को जिनसे अपना कोई निजी लौकिक स्वार्थ हो, वह सेवा नहीं मानी जा सकती, न ऐसा कर्म भगवान की भक्ति ही कहलायेगी। केवल हमारे वे निष्काम कर्म जो समाज को यथार्थतः आगे बढ़ाते हैं वही जनता जनार्दन की सेवा और परमात्मा की उपासना मूलक भगवद् भक्ति है। ऐसी समाज सेवा परमार्थ की दृष्टि से की जाती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि परमार्थवादी दृष्टिकोण ही समाज सेवा व भगवद् भक्ति के स्वरूप का सही मापदण्ड है अतः एकमात्र निःस्वार्थ निर्मोह, निष्कपट और अहेतुक सेवा ही भक्ति की कोटि की मानी जाती है।

ऐसी सेवा का तीन श्रेणियों में वर्गीकरण किया जाता है- (1) प्रथम श्रेणी की सेवा से स्थायी सुख मिलता है।(2) द्वितीय श्रेणी की सेवा द्वारा दीर्घकालीन दुःख दूर किया जाता है। (3) तृतीय श्रेणी की सेवा यह है कि जिससे किसी की मानसिक आवश्यकता पूरी हो या तात्कालिक आपत्ति टल जाये। कोई विद्यार्थी किसी छात्रावास में रहते हुए एक कालेज में पढ़ रहा है। घर से समय पर मनीआर्डर नहीं मिल सका। नाम उसका कटने ही वाला है। ऐसे मौके पर कोई उसे फीस भर रुपये दे दे तो तत्काल यह आपत्ति टल जाये। उस चिन्तातुर छात्र की सामयिक आवश्यकता को पूरा कर देने वाले ने जो सेवा की वह तीसरी श्रेणी की कही जाती है।

जब आप सहानुभूति एवं सहृदयता से किसी शोकाकुल को सान्त्वना देते हैं, निराश को उत्साहित करते हैं, बिगड़ती हुई स्थिति संभाल देते हैं, निरपराध को बचा देते हैं, आपसी शत्रुता व वैमनस्य दूर करते हैं, अनाथ विधवा आदि को आश्रय दे सहारा बनते हैं तो दीर्घकाल तक कष्ट पाने से छुटकारा दिलाकर द्वितीय श्रेणी की सेवा का पुण्य लाभ करते हैं।

इन दोनों ही से बढ़कर प्रथम श्रेणी की सेवा है- ज्ञान दान। उसमें भी अज्ञान रूपी अंधकार में भटकती मानवता को पथ प्रदर्शित करने में अपने प्राणों की आहुति डालते हुए मारने वाले को भी कल्याण की कामना करने वाले संत महात्माओं की गणना सर्वोपरि होती है।

अब प्रश्न उठता है कि ऐसी जन सेवा तथा परोपकार कौन कर सकता है? जिसने मानव जीवन का चरम उद्देश्य समष्टि के लिए व्यष्टि का समर्पण और परामर्श को अंगीकार कर लिया, उसका व्यावहारिक जीवन स्वतः त्याग तपस्यामय समाज सेवा का बन जायेगा। कारण परमार्थवादी अपने को समाज से पृथक नहीं मान सकता। उसमें उत्कृष्ट सेवाओं का मूलाधार दया सहानुभूति, सम्वेदना, सहयोग, सामाजिकता आदि सद्गुण जोर पकड़ते हैं। ऐसे व्यक्ति को तुच्छ स्वार्थों में फंसे रहने से चैन नहीं मिलता। उसकी तड़पती आत्मा विश्वात्मा से तादात्म्य स्थापित करने के लिए अपने प्रेम प्रवाह को विशाल जगत सागर तक पहुँचायें बिना शान्त नहीं रह पाती। वह अपने शक्ति साधनों को दिव्य अनुदान मानकर उसके वापसी दीन दुःखी और निर्बल प्राणियों के हित सदुपयोग द्वारा करने लगता है। ऐसा विशिष्ट व्यक्ति पद, प्रतिष्ठा, प्रशंसा, अहंकार की स्पृहा का परित्याग कर देता है। वह जानता है कि भगवान अहंकारी की पूजा पुण्य भी पाकर प्रसन्न नहीं होता। अतः स्वयं सबसे विनम्र बनकर समाज की सेवा के माध्यम से परम प्रभु की प्रत्यक्ष उपासना कर पारमार्थिक सुख व आत्मिक संतोष पाना चाहता है।

सेवा के साथ प्रशंसा प्रदर्शन की कतई संगति नहीं बैठती। तभी तो गाँधी जी को एक संन्यासी से स्पष्ट कहना पड़ा था कि जनता की सच्ची सेवा करनी है तो गेरुआ वस्त्र उतार दे। अन्यथा जनता उन्हीं की सेवा, सम्मान करने लगेगी। इससे स्पष्ट है कि जो व्यक्ति जितना ही विनयी, निरभिमान निःस्पृह, दयालु और सम्वेदनशील होगा, वह उतना ही बड़ा और सफल जन सेवी होगा।

ऐसे परमार्थवादी की उदात्त सेवा का परिणाम भी बहुमुखी व सार्वभौम होता है। ऐसे समाज सेवी का सोचने और काम करने का आधार अत्यन्त उच्च स्तरीय होता है। अतः वह अपनी शक्ति, योग्यता और क्षमता के प्रयोग में कृपणता नहीं करता। फलतः सच्चे हृदय से की गई भावयुक्त जन सेवा का प्रभाव भी अन्तःकरण पर गहरा और चिरस्थायी, साथ ही व्यापक होता है।

स्वार्थी चाहे जितना धनवान, शक्तिशाली या विद्वान और प्रतिष्ठित क्यों न हो वह मानवता के मर्म को उतना नहीं छू पाता जितना एक सच्चा, संवेदनशील व्यक्तित्व। इसका प्रत्यक्ष दर्शन हम भगवान बुद्ध तथा महात्मा गाँधी जैसे महामानवों के क्रियाकलापों व गतिविधियों का अध्ययन व विश्लेषण कर सहज ही पा सकते हैं। जहाँ सामूहिकता और सहयोग के महत्व को जानने व जीवन में उस पुण्य परमार्थ को चरितार्थ करने वाले जन सेवी रहते हैं, उनका चाहे जो भी जीवन दर्शन क्यों न हो, उस समाज की बराबर उन्नति होते जाना स्वाभाविक है।

जब हम समाज की प्रगति की बात कहते हैं तो वहाँ व्यक्ति की प्रगति भी अन्तर्हित है। यद्यपि हर व्यक्ति के अपने मात्र उत्थान कर लेने से भी समाज की उन्नति संभव है। किन्तु इससे मानव के स्वार्थपरायण हो जाने की आशंका बनी रहती है तभी समाज की प्रगति के माध्यम से ही व्यक्ति के उत्कर्ष को इष्ट, महत्वपूर्ण एवं उच्चकोटि का लाभ माना जाता है।

व्यक्ति जब समाज सेवा की भावना से हर काम करता है तो उसको भी उचित लाभ स्वतः ही मिल जात है। इस भावना से काम करने पर बड़ी तीव्रता से उसका मानसिक विकास होता चलता है। सामाजिक दायित्व बोध से वह अपना महत्व समझने लगता है। इस स्थिति में उसके आलस्य, प्रमाद, बेईमानी, हरामखोरी आदि दुर्गुण दूर भाग जाते हैं। कर्तव्य भार वहन करने में बड़ा आनन्द आता है। वह हर काम को अधिक उत्साह, सावधानी एवं निपुणता से सम्पन्न करता है। इससे सफलता भी परमार्थवादी को निश्चय मिलती है। सामाजिक व राष्ट्रीय सुरक्षा विकास और शान्ति व्यवस्था आदि कार्यों में स्वेच्छापूर्वक अनुशासित रह हाथ बंटाने में उसे बड़ा आत्मिक सुख एवं संतोष प्राप्त होता है।

इस प्रकार न केवल लोक कल्याण प्रत्युत आत्म कल्याण की भी सुनिश्चित संभावनायें रहती हैं। जनता जनार्दन की सेवा भगवद् भक्ति का सुफल सार्वभौमिक अभ्युदय व निःश्रेयस की सिद्धि से इहलोक परलोक का सुधार होता ही है।

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