निर्बलता का पाप और प्रकृति का दण्ड

April 1976

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निर्बलता-चाहे किसी भी प्रकार की हो- शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या आत्मिक- के कारण प्रत्येक स्थिति और प्रयत्न का विपरीत परिणाम भी भोगना पड़ता है। निर्बल व्यक्ति अपने प्राकृतिक और जन्म सिद्ध अधिकारों से भी समुचित लाभ नहीं उठा सकता। प्रकृति की उस व्यवस्था का उस पर उलटा ही प्रभाव होता है और दुख तथा हानि ही उठानी पड़ती है। स्वास्थ्य खराब हो तो सामान्य आहार भी नहीं पचता, स्वादिष्ट व्यंजन भी अस्वस्थ व्यक्ति को अरुचिकर लगते हैं। ऐसे व्यक्ति के लिए मधुर गीतवाद्य, मनोरंजन, सुख-सुविधायें, धन दौलत सब कुछ व्यर्थ हैं। यहाँ तक कि वह चैन की नींद भी नहीं सो सकता। स्वास्थ्य खराब होने का कारण निर्बलता ही तो है। बलवान और पुष्ट शरीर में रोगाणु एक क्षण के लिए भी नहीं बचते। प्रविष्ट करते ही मनुष्य की जीवनी शक्ति उन्हें नष्ट कर डालती है।

संसार में जो भी श्रेष्ठ और सुन्दर है उसका रस साहित्य में संचित है। मधुरता, प्रेम और सौंदर्यानुभूति सब कुछ की प्रेरणा और बोध साहित्य के माध्यम से ही होता है। दुर्भाग्य से कोई व्यक्ति बौद्धिक निर्बलता का शिकार हो तो संसार के अतुल ज्ञान और आनंद के भण्डार का उसके लिए कोई मूल्य नहीं है। अन्धे व्यक्ति भी सुनकर और बहरे व्यक्ति भी पढ़कर साहित्य रस का आस्वादन कर लेते हैं परन्तु मन्दबुद्धि लोग तो समर्थ और स्वस्थ होते हुए भी उस रस-माधुरी से वंचित ही रह जाते हैं।

इसी प्रकार मानसिक निर्बलता के कारण व्यक्ति प्रकृति-ईश्वर द्वारा दिये गये उन अवसरों का कोई लाभ नहीं उठा पाते जो वस्तुतः उनके लाभ तथा आगे बढ़ने के लिए उपस्थित होते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों और कष्ट कठिनाइयों में मनोबल सम्पन्न व्यक्ति आगे बढ़ते हैं, ऊँचे उठते हैं। इसके विपरीत मानसिक रूप से निर्बल व्यक्ति उन परिस्थितियों में निराश और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं।

आध्यात्मिक क्षेत्र में आत्मिक दृष्टि से निर्बल व्यक्तियों की भी कोई प्रगति नहीं होती। उनके लिए वह आनंद और शान्ति दुर्लभ ही नहीं असाध्य और अप्राप्य भी है जो जिसे आत्मबल सम्पन्न लोग प्राप्त कर जीवन को सफल बना लेते हैं।

प्रकृति की सभी शक्तियाँ मनुष्य के हित में ही काम करती हैं। उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। आध्यात्मिक भाषा में इन्हीं शक्तियों को देवता कहा गया है। वेदों में वर्णित सूर्य, चन्द्र, वरुण, इन्द्रादि बहुत से देवताओं का उल्लेख है- जो वस्तुतः प्रकृति की ही विभिन्न शक्तियाँ हैं। जल, वायु, ऊष्मा, खुला आकाश जैसी देव-शक्तियाँ कभी किसी को हानि नहीं पहुँचाती। परन्तु निर्बलों के लिए वे भी असह्य और घातक बन जाती हैं। असावधानी, आलस्य या प्रमादवश लोग जीवन की सर्वोपरि अनिवार्य आवश्यकताओं की ओर कोई ध्यान नहीं देते। उनकी अपनी कमजोरियाँ ही पोषक शक्तियों का विपरीत प्रभाव ग्रहण करती हैं। कमजोर व्यक्ति के लिए दूध, मिश्री और भी अपच पैदा करते हैं। चाकू और सुई जैसे औजार मनुष्य के दैनिक जीवन में होने वाले कार्यों को सरल बनाने के लिए ही बने हैं। असावधानी या अन्य कारणों से किसी के हाथ पाँव छिद जाये तो उन औजारों का क्या दोष ? अपनी शक्ति और सामर्थ्य की उपेक्षा करने वाले निर्बल व्यक्ति भी इसी प्रकार की असावधानी के कारण प्राकृतिक शक्तियों से हानि उठाते हैं। इस हानि के लिए उन शक्तियों को कदापि दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

बलवानों के लिए सहायक सिद्ध होने वाले तत्व निर्बलों के लिए घातक बन जाते हैं। ऋतुओं का ही प्रभाव लें। सर्दी-शक्तिशाली के लिए स्वास्थ्य और बलवर्धक तथा सक्रियता बढ़ाने वाली होती है। नीरोग और स्वास्थ्य प्रेमी जन सर्दियों में तरह तरह से अपना आरोग्यवर्धन करते हैं। परन्तु कमजोरों के लिए तो यही सर्दी, जुकाम,ज्वर से लेकर निमोनिया और गठिया जैसे रोग उत्पन्न करने वाली बन जाती है। स्वस्थ व्यक्ति प्रातःकाल की सुहानी धूप में प्रकृति से जीवनी शक्ति कर्षित करता है परन्तु कमजोर को घर के भीतर बैठकर आग तापनी पड़ती है। धूप और हवा उसे अस्वस्थ बना देती है।

सम्मान और प्रतिष्ठा भी शक्तिशाली को ही मिलते हैं। कमजोर और क्षीण मना लोगों को हर कोई क्रूर दृष्टि से देखता है, शेर को उसके बल और स्फूर्ति के कारण ही जंगल का राजा कहा गया है। वन्य जन्तु तो उससे डरते ही हैं, मनुष्य भी सिंह का कम सम्मान नहीं करते। सामान्य व्यक्ति भी सिंह को पराक्रम और शक्ति का प्रतीक मानता है। राजा महाराजा तथा सरकार भी उसके चित्र को राज चिन्ह के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। इसके विपरीत ‘निर्बल’ बकरी और खरगोश को जंगली जानवरों से लेकर मनुष्य और देवता तक खा जाते हैं। उन्हें हर घड़ी अपने प्राण का भय बना ही रहता है। छोटे-छोटे पेड़ पौधे जो बारिश और सर्दी में उग आते हैं, बसंत के आते ही सूख कर नष्ट हो जाते हैं, जबकि उसी बसंत में बड़े वृक्ष लहलहाने लगते हैं, उनमें नयी कोपलें फूटने लगती हैं। अशक्त और निर्बल का अस्तित्व हर स्थान और स्थिति में असुरक्षित ही रहता है, उनके विकास में कोई भी सहयोगी नहीं बनता, ईश्वर तक भी उनकी घात लगाये बैठा रहता है। मृत्यु भी तो ऐसे ही तत्वों पर प्रथम अपना काल पाश फेंकती है।

उत्तम की रक्षा- प्रकृति के विकास का सिद्धान्त है। इसीलिए उसकी व्यवस्था में निर्बल और अशक्त लोगों को कदम कदम पर खतरे और हानियाँ उठानी पड़ती हैं। सफल, सुरक्षित और सुखी जीवन के लिए हमें बल-संवर्धन की आवश्यकता स्वीकार करनी ही पड़ेगी। इस आवश्यकता पूर्ति की ओर युवकों का ध्यान आकृष्ट कराते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक स्थान पर लिखा है- “सर्वप्रथम आपको बलवान बनना पड़ेगा। शक्ति संवर्धन ही उन्नति का एकमात्र मार्ग है। इसी प्रकार परमात्मा और आत्मा के अधिक निकट पहुँचा जा सकता है।”

कोई भी उद्देश्य हो -व्यक्तिगत या सार्वजनिक शक्ति और सामर्थ्य के द्वारा ही तो प्राप्त किया जा सकता है। किसी भी क्षेत्र में सफलता अचानक नहीं मिलती। उसके लिए निरन्तर प्रयत्न करते हुए अपनी शक्तियों को विकसित करना होता है। वस्तुतः सभी वस्तुएँ और उपलब्धियाँ प्राप्त है। उन्हें पाने के लिए पात्रत्व और सुरक्षा के लिए शक्ति का विकास ही चाहिए। इस पात्रता का विकास अनवरत श्रम साधना द्वारा ही किया जा सकता है। संसार में ज्ञान का अभाव नहीं है, अभाव है उस बौद्धिक सामर्थ्य का जिसके कारण हम उसे प्राप्त करने में अक्षम हैं। शिक्षा साधना द्वारा इसी सामर्थ्य और शक्ति का विकास करना होता है।

इसलिए सफलता के इच्छुक व्यक्तियों को इसी राजमार्ग का अवलम्बन लेकर अपनी पात्रता और सामर्थ्य का विकास करना चाहिए। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक निर्बलता को दूर कर अपने जन्मसिद्ध अधिकार को प्राप्त करने का प्रयास ही तो-शक्ति साधना है। इस साधना द्वारा अपनी कमजोरियों को दूर कर हमें अपने चतुर्दिक् फैली हुई आनन्द और सफलताओं के तत्वों का लाभ उठाना चाहिए।

निर्बलता- एक ऐसा अपराध है, पाप है- जो अन्य लोगों को भी पथभ्रष्ट करता है और विपत्तियों के गर्त में धकेल देता है। प्रकृति के विधान में निर्बलता का कठोर दण्ड लिखा है। समय रहते सावधान नहीं हुआ गया तो उसे भोगना ही पड़ेगा जिसके कारण हमारा अस्तित्व ही कुरूप और अस्त व्यस्त हो जायगा।


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