गायत्री से बढ़कर और कुछ नहीं

April 1976

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भारतीय धर्म के उपासना विज्ञान में गायत्री को सर्वोपरि माना गया है और सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि इस महामन्त्र के अक्षरों के बीज रूप में मानवी संस्कृति एवं आदर्शवादिता के सारे सिद्धान्त सन्निहित हैं। इसे विश्व का सबसे छोटा मात्र चौबीस अक्षरों का वह ग्रन्थ कह सकते हैं, जिसमें धर्म और अध्यात्म का समूचा तत्व ज्ञान सार रूप में समाविष्ट मिल सकता है। इन अक्षरों की व्याख्या करते हुए जो कुछ मानवी प्रगति एवं सुव्यवस्था के लिए आवश्यक है; यही प्रज्ञा का विवेकशीलता का मन्त्र है। कहना न होगा कि मनुष्य जीवन की समस्त समस्यायें दुर्बुद्धि के कारण उत्पन्न होती हैं। संसार पर आये दिन छाये रहने वाले संकट के बादल अशुभ चिन्तन के खारे समुद्र में ही उठते हैं। विवेक सर्वोपरि है। सद्बुद्धि से बढ़कर इस संसार में और कुछ नहीं है। यह तथ्य प्रज्ञा की देवी गायत्री को सर्वोपरि ठहराने में सन्निहित है।

समस्त विश्व को एकता के केन्द्र पर आज नहीं तो कल केन्द्रित होना ही पड़ेगा। भिन्नता के बीच एकता के सूत्र ढूंढ़ने पड़ेंगे अन्यथा लोग एक दूसरे से लड़ने में अपनी शक्ति नष्ट करते रहेंगे। सृजन के लिए जो लगना चाहिए वह यदि विवाद, भटकाव और संघर्ष में ही नष्ट होता रहे तो फिर शान्ति और समृद्धि को उपलब्ध करने के लिए जो आवश्यक है वह हाथ में रहेगा ही नहीं। भाषा, देश, आचार एवं तत्व दर्शन की ही तरह धर्म और अध्यात्म का भी केन्द्रीकरण होना चाहिए। उपासना के क्षेत्र में भी यही होना चाहिए। अनेकानेक धर्म सम्प्रदाय, मतमतान्तर एवं उपासना विधान भले ही कुछ समय तक अलग बने रहें, पर उनके बीच एकता का सूत्री तो जुड़ा ही रहना चाहिए और उसे सर्वजनीन श्रद्धा समर्थन मिलना चाहिए। मानवी एकता की सम्भावना ऐसे ही सर्वभौम सूत्रों को अपनाने से सम्भव हो सकती है। घर में अनेक सदस्य होते हैं। सभी का सम्मान एवं सहयोग मिलता है, पर गृहस्वामी का सब पर अनुशासन रहता है इसलिए वह सर्वोपरि है। विश्व में बिखरे हुए तत्व दर्शनों एवं साधना विधानों के परिवार में मूर्धन्य मन्त्र गायत्री मन्त्र को ठहराया जाए। यह भी एक कारण मनीषिओं का गायत्री मंत्र को सर्वोपरि ठहराने का रहा होगा।

शब्द विज्ञान, स्वर शास्त्र की सूक्ष्म धारायें गायत्री महामन्त्र में जिस उत्तमता के साथ मिली हुई है, वैसा संगम अन्य किसी मन्त्र में नहीं हुआ है। साधनारत योगियों और तपस्वियों ने अपने प्रयोग, परीक्षणों और अनुभवों के आधार पर जो तुलनात्मक उत्कृष्टता देखी है उसी से प्रभावित होकर उन्होंने इस महाशक्ति की सर्वोपरि स्थिति बतायी है। यह निष्कर्ष अभी भी जहाँ का तहाँ है। मात्र जप पूजन से तो नहीं, अभीष्ट साधन प्रक्रिया अपनाते हुए अभी भी कोई इस साधना को कर सके तो उसका निजी अनुभव शास्त्र प्रतिपादित इस सर्वश्रेष्ठता का समर्थन ही करेगा। इस सन्दर्भ में मिलने वाले शास्त्र वचनों में से कुछ इस प्रकार हैं-

गायत्री जप का मत समस्त शास्त्रों में पाया जाता है-

गायत्र्यां न परम् जप्यम् (पद्यपुराण सर्ग 53।58)

न गायत्र्याः परम जप्यम् (कूर्म पुराणउत्तरार्ध 14।58)

न गायत्र्याः परम् जाप्यम् (उशनः संहिता 3।54)

न गायत्र्याः समम् जाप्यम् (पद्मपुराण पाताल 94।50)

न गायत्री समो जपः (व्याघ्रपाद स्मृति 369)

गायत्री तु परम तत्वं गायत्री परमागतिः।

(पाराशर स्मृति 5।4)

अर्थात् ‘गायत्री ही परम तत्व और गायत्री ही परम गति है।”

गायत्र्या न परं मन्त्र न बीज प्रणवादिकम्।

गायत्र्या न परं जप्यं गायत्र्या न परं तपः। गायत्र्या न परं ध्यानं गायत्र्य न परं हुतम। हविष्यं घृत संयुक्तं गायत्री मंत्र पूर्वकम।

-विश्वामित्र कल्प

अर्थात्- गायत्री से बढ़कर अन्य कोई मंत्र, जप, ध्यान, तप कहीं नहीं है। गायत्री यज्ञ से बढ़कर और कोई यज्ञ नहीं है।

गायत्री परदेवतेति गहिता ब्रह्मैव चिद्रूपिणी।

-देव्युपनिषद।

अर्थात्- “गायत्री परादेवता कही गई है और वह चित स्वरूपा गायत्री साक्षात ब्रह्म ही है।”

‘महाभारत’ में भीष्म पितामह का वचन है कि “परां सिद्धिमवाप्नोति गायत्री मुत्तमां पठेत्”

जो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ गायत्री का जप करता है वह परम सिद्धि को पाता है।

अष्टादशसु विद्यासु मीमाँसाति गरीयसी। ततोऽपि तर्क शास्त्राणि पुराण तेम्य एव च।

ततोऽपि धर्म शास्त्राणि तेम्यो गर्वी श्रुतिर्द्विज। ततोऽप्युपनिषच्छेष्ट्रा गायत्री च तातेऽधिका। दुर्लभा सर्व मन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता।

-वृहत सन्ध्या भाष्य

अठारह प्रकार की विद्याओं में मीमाँसा (कर्मकाण्ड) श्रेष्ठ है। मीमाँसा से तर्क विवेक उत्तम है। न्याय से पुराणों की गरिमा अधिक है। पुराणों में धर्मशास्त्र और धर्मशास्त्रों में वेद की महिमा अधिक है। वेदों की व्याख्या करने वाली उपनिषदों की उपयोगिता और भी अधिक है। उपनिषदों से भी गायत्री श्रेष्ठ है समस्त मंत्रों में प्रणव युक्त गायत्री की महिमा सर्वोपरि है।

गायत्रीं यः परित्यज्य चान्यमन्त्र मुपासते। न साफल्यभवाप्नोति कल्प कोटिः शतैरपि।

-वृहत संध्या भाष्य

जो गायत्री त्याग कर अन्य मन्त्रों की उपासना करते हैं वे सौ कोटि कल्पों में भी अभीष्ट सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। गायत्री यः परित्यज्य चा्य मन्त्र मुपासते।

न साफल्य भवाप्नोति जन्म कोटिः शतैरपि।

-संध्या भाष्य

जो गायत्री मन्त्र को त्यागकर अन्य मंत्रों की उपासना करता है वह चिरकाल में भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।

जपतां जुह्यतां चैव नित्यं च प्रयतात्मनाम्। ऋषीणाँ परमं जप्यं गुह्य मेतन्नराधिप।

-महाभारत

नित्य जप करने के लिए-हवन करने के लिए ऋषियों का परम मंत्र गायत्री ही है।

गायत्री सर्व मन्त्राणां शिरोमणि तया स्थिता। विधानामपि तेनैतां साधयेत्सर्व सिद्धये। त्रिव्याहृति युतां देवीमोंकार युग सम्पुटाम्। उपास्य चतुरोवर्गान् साधयेद्यो न सोन्धकोः। देव्य द्विजत्व मासाद्य श्रेय सेव्य रतास्तुये। ते रत्नमभिवांच्छन्ति हित्वा चिन्तामणिं करात्।

-ब्रह्म वार्तिक

गायत्री सब मन्त्रों में तथा विद्याओं में शिरोमणि है। उससे सब इन्द्रियों की साधना होती है। जो व्यक्ति इस उपासना से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पदार्थों को प्राप्त नहीं करते वे अन्ध बुद्धि वाले है। जो गायत्री जैसे मन्त्र के होते हुए भी अन्य मन्त्रों की उपासनाएँ करते हैं वे ऐसे ही मूर्ख हैं जैसे हाथ आई चिन्तामणि को फेंक कर छोटे छोटे रत्न कर्णों को ढूंढ़ने वाले मूर्ख।

गायत्री वेद जननी गायत्री लोक पावनी। न गायत्र्या परं जप्यमेतद्विज्ञाय मुच्यते॥

-कूर्म पुराण

“वेद जननी गायत्री इस संसार में सर्वाधिक पवित्र करने वाली है। विद्वानों का कथन है कि गायत्री से बढ़कर अन्य कोई जप नहीं है।

सावित्र्यास्तु परं नास्ति शोधनम् सर्व कर्मंणाम्

-अन्नि वृद्धा चस्तम्बौ

सब कर्मों को शुद्ध करने के लिए गायत्री से बढ़कर और कुछ नहीं है।

अष्टादशसु र्विद्यासु मीमांसातिगरीयसी। ततोऽपि तर्कशास्त्राणि पुराणं तेभ्य एवच॥

ततोऽपि धर्मशास्त्राणि तेभ्यो गुर्वी श्रुतिर्द्विज। ततोऽप्युपनिषच्छेष्ट्रा गायत्री च ततो धिका॥

-स्कन्दपुराण काशीखण्ड 9।49।50

अष्टादश विद्याओं में मीमाँसा शास्त्र, मीमाँसा से तर्क शास्त्र, तर्कशास्त्र से पुराण शास्त्र, पुराण से धर्म शास्त्र, धर्म शास्त्र से वेद, वेद से उपनिषद् और उपनिषद् से गायत्री का अधिक महत्व है।

कुर्यादन्यन्नवा कुर्यादनुष्टानादिकम् तथा। गायत्री मात्र निष्ठस्तु कृत्य कृत्यो भवेद्विजः॥

-गायत्री तन्त्र

अन्य उपासना करें न करें गायत्री मन्त्र की उपासना करने वाला द्विज कृतकृत्य हो जाता है।

सप्त कोटि महा मन्त्रा गायत्री नायकाः स्मृताः। आदिदेवमुपासन्ते गायत्री वेदमातरम्॥

-गायत्री कल्प

“करोड़ों मन्त्रों में सर्व प्रमुख मन्त्र गायत्री है जिसकी उपासना ब्रह्मा आदि देव भी करते हैं। यह गायत्री ही वेदों का मूल है।

इत्युक्त्वा च महादेवी मूलप्रकृतिरीश्वरी॥ अन्तर्धानं गता सद्यो भक्त्या देवैरभिष्टुता॥ ततःसर्वे स्वगर्व तु विहाय पदपंकजम्॥

सम्यगाराधयामासुर्भगवत्याः परात्परम्॥ त्रिसंध्यं सर्वदा सर्वे गायत्रीजपतत्पराः॥ यज्ञभागादिभिः सर्वे देवीं नित्यं सिषेविरे॥

न विष्णुपासना नित्या वेदेनोक्ता तु कुत्रचित्॥ न विष्णुदीक्षां नित्यास्ति शिवस्यापि तथैव च॥ गायत्र्युपासना नित्या सर्ववेदैः समीरिता॥

यया बिना त्वधः पातो ब्राह्मणस्याऽस्ति सर्वथा॥ तावता कृतकृत्यत्वं नान्यापेक्षा द्विजस्य हि॥

गायत्री मात्र निष्णातो द्विजो मोक्षमवाप्नुयात॥ कुर्यादन्यं न वा कुर्यादिति प्राह मनुः स्वयम॥

-देवी भागवत 12।8।84। से 91

व्यास जी बोले अपना निर्देश लेकर भगवती अन्तर्धान हो गई। पीछे सब देवता अभिमान और अज्ञान छोड़कर उसी परम शक्ति की उपासना में लग गये।

सब त्रिकाल संध्याराधना पूर्वक गायत्री मंत्र के जप में तत्पर रहने लगे। यज्ञ भाग देने लगे। विष्णु अथवा शिव की उपासना नित्य नहीं है गायत्री उपासना को वेदों ने नित्य कहा है। इस गायत्री से रहित विप्र का अधः पतन हो जाता है। किसी भी अन्य उपासना का उतना सत्परिणाम नहीं, जितना गायत्री का। केवल गायत्री उपासना से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है भले ही कोई साधना न करें। मनु भगवान ने भी ऐसा ही कहा है।

अष्टादशसुविद्यासु मीमाँसातिगरीयसी। ततापितकशास्त्राणि पुराणे तेभ्य एव च॥ ततोपिधर्मशास्त्राणितेभ्यो गुर्वोश्रुतिर्द्विज॥ ततोप्युपनिषच्छेष्ट्रागायत्री चततोधिका॥ दुर्लभासर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता। न गायत्र्याधिकं किन्चित्त्रयीषु परिगीयते। न गायत्रीसमो मन्त्रोनकाशीसदृशी पुरी।

-स्कन्द पुराण

अठारह विद्याओं में मीमाँसा विद्या अत्यन्त बड़ी है। इससे भी अधिक गुरु तर्क शास्त्र है। उनसे भी अधिक पुराण हैं और उनसे भी अधिक धर्म शास्त्र होते हैं और इनसे अधिक गुरु श्रुति है। हे द्विज! श्रुतियों से भी अधिक गुरु उपनिषद् हैं और इनसे भी परम श्रेष्ठ गायत्री होती है। इससे अधिक कोई भी नहीं है। प्रणव से समन्वित गायत्री सभी मंत्रों में दुर्लभ है। त्रयी में अर्थात् वेद त्रयी में गायत्री से अधिक कुछ भी नहीं परिणीत किया जाता है, गायत्री के समान कोई अन्य मन्त्र नहीं है और काशी के समान अन्य कोई भी पुरी नहीं है।

गायत्री वेद जननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः। गातारं त्रायतेयस्माद्गायत्री ते न गीयते॥

वाच्यवाचकसम्बन्धोगायत्र्याः सवितुर्द्धयो। वच्योसौ सविता साक्षाद्गायत्री वाचिका परा।

प्रभावेणैवगायत्र्याः क्षत्त्रियः कौशिकोवशी। राजर्षित्वंपरित्यज्यब्रह्मर्षिपदमीयिवान्।

सामर्थ्यं प्राप चात्युच्चेरन्यदभुवनसर्जने। किं किं न दद्याद्गायत्री सम्यगेवमुपासिता।

यह गायत्री वेदों की जननी है। गायत्री ब्राह्मणों की प्रसूत करने वाली है। क्योंकि जो गायन (जाप) करता है उसकी यह सुरक्षा (त्राण) किया करती है इसीलिए इसको गायत्री कहा जाता है। गायत्री और सविता इन दोनों का वाच्य वाचक सम्बन्ध होता है वाच्य तो भगवान सविता देव है और गायत्री साक्षात परा इनकी वाचिका होती है। इस गायत्री के प्रभाव से ही क्षत्रिय वंशी कौशिक (विश्वामित्र) राजर्षित्व का त्याग करके ब्रह्मर्षि के पद को प्राप्त हो गये हैं। दूसरा बहुत ऊँचा भुवन निर्माण करने की भी उन्होंने सामर्थ्य प्राप्त कर ली थी। भली भाँति से उपासना भी की हुई गायत्री देवी मनुष्य को क्या-क्या नहीं दे दिया करती है?

अन्यान्य मन्त्रों की तुलना में गायत्री की श्रेष्ठता बताई गई है और यह भी कहा गया है कि इस एक ही बीज उपासना को अपनाने से वेदाध्ययन का लाभ मिल जाता है। अन्य मन्त्रों की तुलना में गायत्री की विशेषता से इनकार नहीं किया जा सकता। इस प्रसंग में कुछ प्रमाण इस प्रकार मिलते हैं-

सर्वेषा जप सूक्तानामृचाञ्य यजुषां तथा। साम्नां चैकाक्षरा दीनां गायत्री परमो जपः।

-वृद्ध पाराशर स्मृति 4।4

वेदों के अनेक मन्त्र, जप, सूक्त ओंकार आदि अनेक उपासनाएँ हैं। उन सब में गायत्री मन्त्र परम श्रेष्ठ है।

अष्टादशसु विद्यासु मीमाँसातिगरीयसी। ततोऽपि तर्क शास्त्राणि पुराणं तेभ्य एव च॥ ततोऽपि धर्म शास्त्राणि तेभ्यो गुर्वी श्रुतिर्द्विज। ततोऽप्युनिषच्छेष्ट्रा गायत्री च ततोऽधिका॥

(स्कन्द पुराण, काशी खण्ड 1।49-50)

अर्थात्- “अठारह विद्याओं में मीमाँसा बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। उससे अधिक तर्कशास्त्र तर्कशास्त्र से अधिक पुराण, पुराण से धर्मशास्त्र, धर्मशास्त्र से वेद वेद से उपनिषद् और उपनिषद् से गायत्री का महत्व अधिक है।

सर्वेंषां जप सूक्तानामृचान्च यजुषान्तथा। साम्नां चैकाक्षरादीनां गायत्री परमो जपः॥ तस्याश्चैव तु ओंकारों ब्रह्मणा या उपासितः। आभ्यान्तु परमं जप्यं त्रैलोक्येऽपि न विद्यते॥

(वृहत् पाराशर संहिता)

“सम्पूर्ण सूक्तों में ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद में तथा प्राणवादि जितने हैं उन सब में गायत्री सर्वश्रेष्ठ कहा है। जिस ओंकार की उपासना ब्रह्माजी ने की थी वह भी उसी का अंग है। इन दोनों से बढ़कर जपने योग्य तीनों लोकों में और कुछ नहीं है।”

पुराणं संहिताशास्त्रं स्मृतिशास्त्रं तथैव च। गायत्र्याः परमेशानि सदृर्थं ब्रह्मसम्मितम्॥

हे पदमेशात्रि! पुराण-संहिता शास्त्र तथा स्मृति शास्त्र और गायत्री का सत अर्थ यह सब ब्रह्मास्मि है। 105॥

सांगश्च चतुरोवेदानधीत्यापि सवांग ययात्। सावित्रीं यो न जानाति वृथा तस्य परिश्रमः॥

-योगी याज्ञवलक्य

समस्त अंग उप अंगों समेत वेदों को पढ़ लेने पर भी जो गायत्री नहीं जानता उसका परिश्रम व्यर्थ ही गया समझना चाहिए।

गायत्री चैव वेदांश्च तुलया समतोलयत। वेदा एकत्र सांगास्तु गायत्री चैकतः स्मृता॥

(वृहद् योगी याज्ञ0 4-80)

अर्थात् “जब ब्रह्माजी ने तराजू के एक पलड़े में चारों वेदों को और दूसरे में गायत्री को रखकर तोला तो गायत्री चारों वेदों की अपेक्षा भारी सिद्ध हुईं।”

यहाँ माता और पुत्रों की तुलना में माता की गरिमा अधिक भारी सिद्ध करने का तात्पर्य है।

इन्हीं सब विशेषताओं को देखते हुए गायत्री को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चारों फल प्रदान करने वाली पाप, ताप, शोक, संताप, निवारिणी कहा गया है। उसे सर्वोपरि साधना बताया गया है।

स्कन्द पुराण में महर्षि व्यास का कथन है-

गायत्र्येव तपो योगः साधनं ध्यान मुच्यते। सिद्धिनां सामता माता नातः किंचिद् वृहत्तरम्॥

-स्कन्द पुराण

गायत्री ही तप है, गायत्री ही योग है, गायत्री ही सबसे बड़ा ध्यान और साधन है। इससे बढ़कर सिद्धिदायक साधन और कोई नहीं है।

भगवान मनु भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हुए कहते हैं-

सावित्र्यास्तु परान्नास्ति। -मनु 2।83

गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।

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