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April 1976

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तीर्थ यात्रा की धर्म परम्परा का पुनर्जीवन

तीर्थयात्रा भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग रहा है, बहुत ही दूरदर्शितापूर्ण तथ्यों को ध्यान में रखकर तत्वदर्शी ऋषियों ने इस प्रक्रिया का प्रचलन किया था।

धनवानों का कर्तव्य है कि वे अपनी उपार्जित कमाई का उपभोग अपने और अपने परिवार तक ही सीमित न रखें वरन् व्यापक पीड़ा और पतन के निवारण के लिए भी उसे दान रूप में नियोजित करें। धर्मकृत्यों में इसीलिए पग-पग पर दान-पुण्य का निर्देश है जो अपनी कमाई को आप ही खाता है उस स्वार्थी की पाप खाने वाला, चोर, कृपण आदि कटु शब्दों में भर्त्सना की गई है।

ठीक इसी प्रकार भावनाशील बुद्धिमान, प्रतिभा सम्पन्न लोगों के लिए भी यह आवश्यक माना गया है कि वे अपनी इस विभूति सम्पदा का लाभ शरीर और परिवार को ही देते रहने की कृपणता न बरतें वरन् मनुष्य जाति का पिछड़ापन दूर करने के लिए, उदारतापूर्वक इसके वितरण की योजना बनायें और उसे कार्यान्वित करें। धनदान से भी बढ़कर ज्ञानदान का, ब्रह्म दान का पुण्य माहात्म्य बताया गया है। यही कारण है कि धन दानियों की तुलना में ब्रह्म दानी, ज्ञान दानी, साधु ब्राह्मणों को कहीं अधिक सम्मान दिया जाता रहा है।

धन का महत्व सर्वविदित है वह प्रत्यक्ष और दृश्य है। इसलिए अभावग्रस्त लोग- धन दानी का पता लगा लेते हैं और स्वयं उसके घर पर जा पहुँचते हैं, किन्तु ज्ञान के बारे में ऐसी बात नहीं है। वह सूक्ष्म है उसकी आवश्यकता और उपयोगिता से कोई बिरले ही परिचित होते हैं। समझा जाता है कि धन कमा लेने से सुख-शान्ति मिलती है, किन्तु तथ्य यह है कि परिष्कृत व्यक्तित्व ही साधन उत्पन्न करके तथा उनका सदुपयोग करके समृद्धि और प्रगति का सच्चा एवं चिरस्थायी आनन्द ले सकता है। लोग धन कमाने और परिस्थितियाँ बदलने में तो उलझे रहते हैं पर पत्तों से ध्यान हटाकर जड़ सींचने पर ध्यान नहीं देते , जिससे कि जीवन-कल्पवृक्ष सहज ही हरित पल्लवों, सुगन्धित पुष्पों और मधुर फलों से लदा दीख पड़े। मनःस्थिति के आधार पर परिस्थितियाँ अवलम्बित रहती हैं। जो यह जानता है उसे सूर्य की तरह यह तथ्य स्पष्ट दीख पड़ता है कि व्यक्ति और समाज की असंख्यों उलझनों के समाधान का एक ही उपाय है, उसके दृष्टिकोण में समाया हुआ पिछड़ापन दूर करना। ज्ञानवान लोग सदा से यह तथ्य समझते रहे हैं कि जनमानस का परिष्कार करके ही सतयुगी वातावरण उत्पन्न किया जा सकता है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाने के लिए यदि मनुष्य को सहमत किया जा सके तो वह दयनीय दुर्दशा में से स्वयं भी उबर सकता है और स्वल्प साधनों में भी महामानव स्तर का देवोपम जीवन जी सकता है।

शरीर की आवश्यकताएँ साधनों से पूरी होती हैं पर आत्मा की भूख तो प्रखर व्यक्तित्व ही बुझा सकता है। इस तथ्य को दूरदर्शी विवेकवान ही समझते हैं। वे जानते हैं कि लोगों के चर्मचक्षु साधनों का मूल्य समझते हैं, विचार शक्ति का नहीं। अस्तु वे न ज्ञान की इच्छा रखेंगे और न उसे माँगने के लिए ज्ञानवानों के पास जायेंगे। चारपाई पकड़ लेने वाला रोगी चिकित्सक के घर नहीं जा पाता। चिकित्सक को ही रोगी के घर जाना पड़ता है। दुर्भिक्ष, भूकम्प आदि प्रकृति प्रकोप से पीड़ितों की सहायता करने धनवानों का धन दुखियों के पास पहुँचता है महामारी, बाढ़, दुर्घटना आदि के अवसरों पर स्वयं सेवक अपनी शारीरिक सेवाएँ देने घटनास्थलों पर ही पहुँचते हैं। ठीक इसी प्रकार ज्ञानवान, विवेकवान धर्मात्माओं को जन-मानस के परिष्कार का उद्देश्य लेकर घर-घर जाना पड़ता है। बादल भी खेतों को अपने घर बुलाने की प्रतीक्षा न करके स्वयं ही सूखे मरुस्थलों को सींचने के लिए जहाँ-तहाँ पहुँचते और अपनी श्रम सम्पदा को उदारतापूर्वक बिखरते हैं।

तीर्थयात्रा का यही उद्देश्य और यही शास्त्र सम्मत स्वरूप है, जिसका कि माहात्म्य अत्यधिक पुण्यफल के रूप में शास्त्रकारों ने गाया बताया है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार तीर्थयात्रा पैदल ही होती थी। कोई विशिष्ठ ज्ञानवान व्यक्ति अपने साथ छोटी धर्म प्रचार मण्डली लेते थे और गाँव-गाँव अलख जगाते, पड़ाव डालते, लम्बी यात्रा योजना बनाते थे। किस मार्ग से चलकर, कहाँ होते हुए, किधर से लौटा जाय, यात्रा का आरम्भ और अन्त कहाँ किया जाय, इसका निर्णय करते समय प्रेरणाप्रद ऐतिहासिक स्थान व प्रकृति के शोभा स्थलों का भी ध्यान रखा जाता था। महामानवों की कर्मभूमियाँ तीर्थ कहलाती थीं। वहाँ स्वभावतः स्मृतियों को सजीव रखने वाले देवालय, खण्डहर आदि रहते थे। प्राकृतिक शोभा स्थलों में नदी पर्वत होते हैं। देवालयों का दर्शन, नदियों का स्नान, पर्वतों का आरोहण, यह भी तीर्थयात्रा का आवरण कलेवर था, उसका प्राण तो ज्ञानार्जन और ज्ञान प्रचार में ही सन्निहित रहता था।

पर्यटन के अनेक अन्य लाभ भी हैं। इनमें स्वास्थ्य सुधार, अनुभवों की वृद्धि, परिचय क्षेत्र का विस्तार आदि प्रमुख हैं। व्यवसाय विस्तार की सम्भावनाएँ खोजने का अवसर भी पर्यटन में मिलता है। पर्यटन अपने आप में एक उद्योग है उससे यात्रा स्थलों के दुकानदारों को, श्रमिकों को प्रत्यक्ष रूप से और अनेक स्थानीय लोगों को परोक्ष रूप से आगन्तुकों की आवश्यकता पूरी करते हुए आजीविका मिलती है। यात्रियों को मनोरंजन, परिवर्तन अनुभव एवं स्वास्थ्य लाभ तो प्रत्यक्ष ही मिलता है। प्राचीनकाल में तीर्थस्थलों में ऐसे महापुरुषों के आश्रम थे जहाँ आगन्तुक सत्संग लाभ लेकर अपनी जीवन समस्याएँ सुलझाते और भविष्य के लिए उपयोगी समाधान लेकर वापिस लौटते थे। तीर्थ-यात्राओं का मार्ग-निर्धारण इसी दृष्टि से होता था।

चारों धाम की यात्रा, नर्मदा परिक्रमा, उत्तराखण्ड यात्रा आदि अनेक प्रचलन अभी भी विद्यमान हैं। ऐतिहासिक स्थलों की, नव निर्माण के दर्शनीय संस्थानों की यात्राएँ अभी भी निकलती हैं। तीर्थयात्रा ट्रेन-स्पेशल बसें रिआयती-रेल-टिकटें, छात्रों को भाड़ा-रिआयत आदि की सुविधा इसी दृष्टि से रहती हैं कि पर्यटन के साथ लोगों को ज्ञान वृद्धि का अवसर मिले।

प्राचीनकाल में धर्मनिष्ठ व्यक्ति अपनी धर्म मण्डलियों सहित पद यात्रा करते हुए तीर्थ यात्रा पर और भी ऊँचा उद्देश्य लेकर निकलते थे। उनका लक्ष्य था- जन साधारण से सम्पर्क स्थापित करके स्थानीय समस्याओं के अनुरूप उत्कृष्ट मार्गदर्शन किया जाय और पिछड़ेपन का अन्धकार जहाँ भी जिस कोने में भी छिपा पड़ा हो उसके भगाकर अभिनव आलोक का व्यापक विस्तार किया जाय।

उन दिनों ‘धर्म’ शब्द के अन्तर्गत ही व्यक्ति और समाज की समस्त उत्कृष्टताओं का समावेश था। आदर्शवादिता और सद्विचारणा का उनका विभाजन-विस्तार उन दिनों नहीं था। इसलिए उत्कृष्टता और प्रगतिशीलता का समावेश एक ‘धर्म’ शब्द में ही हो जाता था। धर्म के व्याख्याकारों ने उसकी परिभाषा भौतिक अभ्युदय और आत्मिक -निःश्रेयस’ कर सकने वाले चिन्तन एवं कर्तृत्व के रूप में की है। धर्म प्रयोजनों की मूर्धन्य प्रक्रिया -तीर्थ यात्रा को इतना पुण्य फलदायक इसी दृष्टि से बताया गया है कि उससे व्यक्ति एवं समाज की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता-परिष्कृत दृष्टिकोण के विकास विस्तार की पूर्ति भली प्रकार होती थी।

धर्म-प्रचार मण्डलियों, तीर्थयात्रा टोलियों के लिए ही धर्मशाला, अन्नक्षेत्र, सदावर्त आदि की व्यवस्था धनवान लोग किया करते थे। अतिथि सत्कार, भिक्षा दान आदि का पुण्यफल इसी दृष्टि से बताया गया है कि इन यात्रा टोलियों को स्थान-स्थान पर निर्वाह की सुविधा मिलती रहे। मन्दिरों में स्थान तथा निर्वाह साधनों की सुविधा प्रस्तुत करने में इन तीर्थयात्री टोलियों को सुविधा देना ही प्रधान लक्ष्य रहता है।

कुम्भ जैसे विशाल पर्व तथा क्षेत्रीय मेला सम्मेलन भी धर्म सम्मेलनों के रूप में होते थे। तीर्थयात्रा मण्डलियाँ क्षेत्र-क्षेत्र में पैदल चलकर वहाँ पहुँचती थीं। सामूहिक सम्मेलन में देश की सामयिक परिस्थितियों की समीक्षा होती थी और भविष्य के लिए नीति निर्धारित होती थी। इस महत्वपूर्ण चर्चा को सुनने और धर्म प्रचारकों से सम्पर्क बनाने की उपयोगिता समझकर जनता भी वहाँ पहुँचती थी। यही था प्राचीन काल के ‘पर्व समारोहों’ का स्वरूप।

आज तो सब कुछ गड़बड़ हो गया। तीर्थयात्रा द्रुतगामी वाहनों से होती है और यात्री लोग देवदर्शन करके नदी सरोवरों में डुबकी मारकर, ताबड़तोड़ वापिस लौटते हैं। इस भगदड़ में किसे क्या लाभ मिलता होगा यह समझ सकना कठिन है। धर्मशालाओं और सदावर्त का उपयोग किन लोगों द्वारा होता है, इस पर जब दृष्टि डाली जाती है तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि हमारी तीर्थयात्रा जैसी महान परम्परा मात्र लकीर पीटने तक ही रह गई है उस चिन्ह पूजा से वाहनों के स्वामी, तीर्थ स्थानों के व्यापारी तथा धर्म व्यवसायी भले ही लाभ उठाते हों, बेचारा भावुक यात्री तो जेब कटाकर खाली हाथ ही वापिस लौट जाता है।

जो हो, हमें अपनी महान साँस्कृतिक परम्परा को जीवन्त स्थिति में वापिस लाना चाहिए। आज इसकी प्राचीनकाल से भी अधिक आवश्यकता है। उन दिनों साधन तो स्वल्प थे, पर जीवन दर्शन स्वच्छ होने से समृद्धि और प्रगति का वातावरण बना हुआ था। आज तो चिंतन और क्रियाकलाप में बेहिसाब विकृतियाँ भर गई हैं, फलतः हर क्षेत्र में उलझनों, विपत्तियों और संकटों के पहाड़ जैसे अवरोध खड़े हो गये हैं। एक का हल निकल नहीं पाता कि दूसरा संकट सामने आ खड़ा होता है। साधन बढ़ाने के प्रयत्न चल रहे हैं, सो चलें। हमें धर्मपक्ष को इतना सबल बनाना चाहिए कि उपार्जित उपलब्धियों का सदुपयोग हो सके। प्रस्तुत समस्त समस्याओं का एक ही हल है, दृष्टिकोण का परिष्कार। इसी आधार पर व्यक्तित्वों में प्रखरता उत्पन्न होगी और उसी विकास से सर्वतोमुखी प्रगति एवं चिरस्थायी सुख शान्ति का लाभ लिया जा सकेगा। चरित्रनिष्ठ और उदात्त अन्तःकरण सम्पन्न मनुष्यों का समाज ही सुसंस्कृत और समुन्नत बन सकेगा। उज्ज्वल भविष्य का आधार यही हो सकता है। विश्वशान्ति का लक्ष्य इसी मार्ग पर चलने से सम्भव हो सकता है।

तीर्थयात्रा मण्डलियों का गठन और प्राचीन आधार पर उनका प्रचलन किया जा सके, तो जन जागरण की महती आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है। यदि सुयोग्य, सुसंस्कृत और भावनाशील व्यक्ति लोकमंगल की आवश्यकता को समझें और अपने ज्ञान के साथ-साथ समय, श्रम को उसके लिए नियोजित करने के लिए कटिबद्ध हो जायें तो साँस्कृतिक पुनरुत्थान की, धर्म जागरण की, भावनात्मक परिष्कार की महती आवश्यकता पूरी करने का मार्ग निकल सकता है। अपने देश में आज की स्थिति में नव जागरण का यही सर्वोत्तम उपाय है।

सर्व विदित है कि भारत में 70 प्रतिशत अशिक्षित हैं और 80 प्रतिशत आबादी छोटे देहातों में रहती है। यही है असली भारत का चित्र। अखबारों, संस्थानों, प्रचारकों, रेडियो, टेलीविजन जैसे साधनों की सीमा बड़े शहरों और मझोले कस्बों तक सीमित है। उन्हीं क्षेत्रों में शिक्षित भी अधिक हैं, और प्रचार साधनों का भी बाहुल्य है। अस्तु सुधार के, प्रगति के नाम पर जो कुछ होता रहता है उसका अधिकाँश भाग इसी क्षेत्र तक सीमित रह जाता है। देहात की अशिक्षा, दरिद्रता और यातायात की असुविधा सुधार-साधनों को वहाँ तक नहीं पहुँचने देती, फलतः प्रगति के ढोल बहुत छोटे क्षेत्र में पिटकर रह जाते हैं। देहात अभी भी नवयुग के प्रकाश से वंचित है। वहाँ तक पहुँचने में तीर्थयात्रियों की धर्मप्रचार टोलियाँ ही समर्थ हो सकती हैं।

तीर्थयात्रा के अभिनव प्रयोग समय-समय पर होते रहे हैं। कितने ही ऋषि-मुनि अपनी छात्र-मण्डली समेत पदयात्रा करते रहते थे और विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए उनके अनुभव की वृद्धि तथा लोकमानस के निर्माण का तीन गुना पुण्य प्रयोजन सिद्ध करते थे। दार्शनिक सुकरात समय-समय पर अपनी शिष्य मण्डली समेत लम्बी पद-यात्राओं पर निकलते थे। भगवान बुद्ध के स्थापित विहारों में तीर्थयात्रा की ही शिक्षा दी जाती थी। उसमें विश्वव्यापी धर्मप्रचार के उद्देश्य से ही भिक्षु और भिक्षुणी भर्ती किये जाते थे और जब वे चरित्र, ज्ञान की दृष्टि से प्रखर एवं जिस क्षेत्र में जाना है, वहाँ की भाषा, परिस्थिति से अवगत हो जाते थे तो फिर उन्हें सुदूर प्रदेशों में धर्म-प्रचार के लिए भेज दिया जाता था। इतिहास साक्षी है कि बौद्ध प्रचारक एशिया के कोने-कोने में छा गये थे। उन्होंने प्राणघातक रेगिस्तानों, हिमाच्छादित पर्वतों, दलदलों सघन वनों, उफनते नदी, तालाबों की, समुद्री अवरोधों की चिन्ता न की और अपने संकल्प एवं पुरुषार्थ के बल पर पिछड़े क्षेत्रों में डेरे डालकर प्रगतिशीलता का आलोक वहाँ फैलाया। भगवान बुद्ध स्वयं आजीवन पर्यटक बनकर रहे उनके विराम स्वल्पकालीन ही रहते थे। भगवान महावीर ने भी इसी परम्परा को निवाहा। मध्यकालीन सन्तों ने भी अपनी मण्डलियों समेत धर्म प्रचार की यात्राओं में ही जीवन का अधिक समय बिताया था, सन्त का अर्थ ही पर्यटक होता था। आश्रम व्यवस्था बनाकर रहने वाले तो ब्राह्मण कहलाते थे।

महात्मा गाँधी की डाँडी नमक यात्रा और नोआ खाली की शान्ति यात्रा सर्वविदित हैं। सन्त विनोबा की भूदान यात्रा के सत्परिणामों से कौन परिचित नहीं है। इन दूरगामी परिणामों को प्राचीनकाल में भली प्रकार समझा गया था और अपने धर्मकृत्यों में धर्मप्रचार की तीर्थ यात्रा को प्रमुख स्थान देने के लिए प्रत्येक धर्मप्रेमी से कहा गया था। जो असमर्थ रहते थे वे भी उच्च आदर्श का स्मरण करने के लिए प्रतीक रूप में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, देवालयों की परिक्रमा करके किसी प्रकार मन की साध पूरी करते थे। अभी भी पीपल की, आँवले की, तुलसी की परिक्रमा होती है। मथुरा, वृन्दावन में हर एकादशी को परिक्रमा में हजारों नर-नारी निकलते हैं। दो महीने की ब्रजयात्रा होती है। गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा लोग अति श्रद्धापूर्वक करते हैं। ऐसे ही प्रचलन अन्य क्षेत्रों में भी पाये जाते हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि उस धर्म परम्परा को पुनर्जीवित किया जाय और उसके लिए नये सिरे से नये आधार पर अभिनव गठन किया जाय। हर बसन्त पर उठने वाले नये कदमों को अपनी शृंखला के अन्तर्गत साधना स्वर्ण जयन्ती में दो बड़े कदम उठाने का प्रकाश प्राप्त हुआ है। एक का परिचय पहले दिया जा चुका है। एक लाख साधकों को आत्मोत्कर्ष की साधना में संलग्न करने और उनके जीवन दर्शन में उच्चस्तरीय प्रखरता का समावेश करने के लिए प्रयत्न चल रहे हैं। यह सामूहिक साधना प्रक्रिया का अभिनव प्रयोग है। एक साथ, एक समय पर, एक जैसी, एक रूप में सम्बद्ध साधना का यह महान धर्मानुष्ठान अब तक के साधना अभियानों में अपने ढंग का अद्भुत और अनुपम है। पृथक्-पृथक्, अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी रुचि और सुविधा से लाखों करोड़ों व्यक्ति भजन पूजन करते हैं पर समस्वरता और एकरूपता की शक्ति की प्रचण्ड क्षमता का परिचय किन्हीं विरलों को ही है। इस प्रयोग की अपनी विशेषता इसी केन्द्र बिन्दु पर आधारित है। 45 मिनट कुछ अधिक नहीं होते पर उतने समय पर एक लाख व्यक्तियों की अन्तःचेतना का एक बिन्दु पर केन्द्रित होना क्या परिणाम उपस्थित कर सकता है, इसका अनुमान तीन इंच परिधि के आतिशी शीशे पर पड़ने वाली सूर्य किरणों को एक केन्द्र पर एकत्रित करने से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रिया को देखकर सहज ही जाना जा सकता है। निश्चय ही इससे सूक्ष्म वातावरण के परिष्कार में सहायक, दूरगामी परिणाम उत्पन्न होंगे।

इसी बसन्त पर्व से आरम्भ हुई दूसरी प्रक्रिया है, तीर्थयात्रा का पुनर्जीवन। यों तो बाँस की खपच्चियों और रंगीन कागज के सहारे बनाये गये विशालकाय किन्तु निर्जीव हाथी की तरह वह अभी भी विद्यमान है पर प्राणों के अभाव में उसकी आकृति मात्र ही शेष है। प्रकृति का उसमें से पलायन हो जाये तो पुण्य फल की आशा किस आधार पर की जाय। जीवित तीर्थयात्रा ही भारतीय संस्कृति की आत्मा को गौरवान्वित कर सकती है और उन्हीं से व्यक्ति और समाज का सच्चा हित साधना हो सकता है। आज की सामयिक समस्याओं समाधान में तो वे और भी अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।

योजना यह है कि अपने विचार परिवार के कर्मठ कार्यकर्त्ताओं और वानप्रस्थों में से कुछ लोग तीर्थयात्रा के लिए अपना समय दें और टोलियाँ बनाकर योजनाबद्ध कार्यक्रम के अनुसार देश के कोने-कोने में नवयुग का संदेश सुनाने के लिए निकल पड़ें। वे क्या कहेंगे और क्या करेंगे इसकी सिद्धान्त पृष्ठभूमि वही है, जिस पर हम लोग मिशन का आरम्भ करने से लेकर अब तक चलते रहे हैं और जब तक जीवन है तब तक एकनिष्ठ भाव से चलते रहेंगे।

जन मानस का परिष्कार, मनुष्य में देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्गीय वातावरण का अवतरण, सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन यही है अपना लक्ष्य, जिसे आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के आधार पर जन-जन के अन्तःकरणों में प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न किया जाता रहा है और किया जाता रहेगा। राजतन्त्र और अर्थतन्त्र के क्षेत्र देश की सुरक्षा, व्यवस्था और समृद्धि को बढ़ाने में लगे हैं। वे अपने आप में उपयोगी कार्य हैं उन्हें अपने ढंग से अपना कार्य करने में लगे रहने देना चाहिए। भावना क्षेत्र को नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। यह कार्य धर्मतन्त्र का है क्योंकि अन्तःकरण की गहराई में प्रवेश करके आस्थाओं का स्पर्श कर सकना, जीवन दर्शन का बदलना, परिष्कृत दृष्टिकोण और आदर्शवादी क्रियाकलाप की आधारशिला रख सकना उसी के लिए सम्भव है।

यहाँ किसी को क्रान्ति शब्द से हिंसात्मक उपद्रव खड़ा करने की चेष्टा का अभिप्राय नहीं निकालना चाहिए। ऐसे हथकण्डे तो उथली राजनीति में उलझे हुए नेतृत्व के भूखे अवसरवादी लोग ही अपना सकते हैं। सन् 30 से 45 तक स्वतन्त्रता संग्राम में संलग्न सत्याग्रही स्वयं सेवक के रूप में, बार-बार जेल यातनाएँ सहने और विदेशी दमन चक्र में अनवरत रूप से पिसते रहने के कारण विकसित हमारी मनोभूमि से जो परिचित हैं, वे जानते हैं कि सामयिक राजनीति की धक्का-मुक्की का उलझन भरा क्षेत्र प्रारम्भ से ही हम दूसरों के लिए छोड़ चुके हैं और मानवतावादी आदर्शों की स्थापना मात्र में अपनी क्षमताओं को पूरी तरह नियोजित किये हुए हैं। ‘हम बदलें तो युग बदले’ की नीति पर अटूट विश्वास होने के कारण समस्याओं की जड़ काटने पर ही हमारा ध्यान केन्द्रित है।

परिजन अपनी कार्यपद्धति से परिचित हैं। पिछले लम्बे समय से जो किया जाता रहा है, कार्यक्रम में उसके अतिरिक्त और किसी नये तत्व का समावेश नहीं हो सकता, मात्र क्रियापद्धति में नये आधार जोड़े जा सकते हैं। साधना, उपासना के छुटपुट प्रयत्नों को इस वर्ष एक लाख साधकों की व्यवस्थित, सामूहिक साधना के अनुपम प्रयोग का रूप दिया गया है। तीर्थयात्रा की पुण्य प्रक्रिया को पुनर्जीवित करने के नये कदम भी इसी ढंग के हैं। जनमानस के परिष्कार के लिए जो छुटपुट चेष्टायें बहुत समय से की जाती रही हैं, जिसके लिए प्रयोग परीक्षण बहुत समय से होते रहे हैं उन्हें ही अब एकबारगी व्यापक सुनियोजित अभियान का रूप दिया जा रहा है।

तीर्थयात्रा पुनर्जीवन योजना के तीन चरण हैं (1) इह पुण्य प्रयोजन के लिए समयदान की माँग और उसके लिए सुयोग्य व्यक्तियों द्वारा दिये गये समय का पंजीकरण (2) इन धर्म प्रचारकों का समग्र प्रशिक्षण (3) टोलियों के क्षेत्र, कार्यक्रम एवं विधि व्यवस्था का निर्धारण। संक्षेप में इन तीनों चरणों को इस प्रकार समझा जा सकता है-

(1) समय दानियों का पंजीकरण :- इस प्रयोजन के लिए चरित्र निष्ठ, भावनाशील एवं शिक्षित व्यक्ति ही लिए जायेंगे। उनके लिए पिछले चरित्र और वर्तमान क्रिया-कलाप पर बारीकी से दृष्टि डालनी होगी। जो शिक्षा और योग्यता की दृष्टि से भले ही दुर्बल हों पर निष्ठा एवं प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे उतरें उन्हें ही इस योजना में स्थान दिये जाने की व्यवस्था है।

इसके बाद दूसरा स्थान है योग्यता और परिस्थिति का। इस प्रयोजन के लिये बहुत अधिक स्कूली शिक्षा की आवश्यकता नहीं है पर स्वास्थ्य, सत्संग, चिन्तन और मनन के आधार पर इतना मानसिक विकास तो होना ही चाहिये कि सामयिक समस्याओं के स्वरूप और समाधान के सम्बन्ध में अपनी कोई निजी उलझन न हो। टोली में प्रवक्ता तो एक ही रह सकते हैं पर दृष्टिकोण एवं स्तर सभी का ऐसा होना चाहिए जो प्रचार समाधान में सहायक सिद्ध हो सके।

जिनके ऊपर परिवार के लिए उपार्जन के उत्तरदायित्व हैं वे अपने अवकाश के दिन इस प्रयोजन के लिए दे सकते हैं। साप्ताहिक छुट्टी के दिन, त्यौहारों के दिन प्रायः उपार्जन का काम बन्द रहता है। किसानों, विद्यार्थियों, अध्यापकों के पास गर्मी के दिन छुट्टी के रहते हैं। वर्षा के दिनों में कई व्यापार रुक जाते हैं। ऐसे समय में तीर्थ यात्रा के लिए अपना कब, कितना समय, कहाँ दिया जा सकता है, इसका उल्लेख करते हुए-व्यस्त रहने वाले लोग भी शान्ति कुँज के तीर्थयात्री रजिस्टरों में अपना नाम नोट करा सकते हैं।

अधिक प्रयोजन तो उनसे सिद्ध होगा जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो चुके हैं। जिनके बाल बच्चे तो हैं नहीं या कमाने खाने योग्य बन चुके हैं। जिनके गुजारे के लिये जमीन आदि मौजूद है, वे भी परिवार आर्थिक प्रबन्ध करके अधिक समय तक लगातार इस पुण्य प्रयोजन में संलग्न रह सकते हैं। अविवाहितों की तरह निवृत्त व्यक्ति भी इस वानप्रस्थ परम्परा का अधिक सरलतापूर्वक निर्वाह कर सकते हैं।

तीर्थयात्रा टोलियों में जाने वालों के लिये भोजन, वस्त्र तथा निर्वाह की दूसरी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति तो मिशन द्वारा होती रह सकती है, किन्तु किसी के भी घर पारिवारिक गुजारे के लिये मनीआर्डर का प्रावधान नहीं रखा गया है। अवैतनिक लोग ही सच्चे अर्थों में धर्म प्रचारक की भूमिका निर्वाह कर सकते हैं। जिनकी स्थिति ऐसी हो वे पूरा समय देकर बौद्ध भिक्षुओं के स्तर पर जितना समय सम्भव हो उतना धर्मतत्व की सच्ची सेवा के लिये दे सकते हैं।

इन यात्रियों को शरीर से स्वस्थ, मन से सन्तुलित, वचन से मधुर, स्वभाव से सरल, संयमी और व्यवहार में निर्व्यसनी होना चाहिये। शरीर और मन से रुग्ण व्यक्ति इस प्रयोजन को पूरा न कर सकेंगे, इसलिये उन्हें इसके लिये आवेदन नहीं ही करना चाहिये।

2- प्रशिक्षण- जिस प्रकार बौद्ध विहारों में व्यक्तित्व को सद्गुण सम्पन्न बनाने की व्यक्ति परिवार और समाज में संव्याप्त समस्याओं और उनके समाधान की, जिन क्षेत्रों में काम करना है उसकी स्थिति की ओर तदनुसार कार्य पद्धति की शिक्षा दी जाती थी, उसी स्तर की शिक्षा का प्रबन्ध शान्ति कुँज में किया गया है। शिक्षार्थी जब कार्यक्षेत्र में जाने योग्य हो जायेगा तब उसे बाहर भेजा जायेगा। शिक्षार्थी की वर्तमान योग्यता के साथ मिलाकर अगला प्रशिक्षण चलाया जायेगा। इसलिये एक प्रकार से हर छात्र की स्वतंत्र शिक्षा पद्धति होगी। अधिक और स्वल्प योग्यता एवं जानकारी वालों का समान शिक्षण नहीं हो सकता। हर छात्र को अलग से प्रशिक्षण देना काफी कष्टसाध्य है, पर उसके अतिरिक्त और कोई चारा न देखकर प्रबन्ध वैसा ही किया गया है।

3- कार्य पद्धति - पाँच-पाँच धर्म प्रचारकों की मण्डलियाँ जायेंगी जो पैदल ही होंगी । पर निजी वस्त्र बिस्तर, दैनिक उपयोग की वस्तुयें, भोजन बनाने के साधन, प्रचार सामग्री आदि का वजन साथ रहने के कारण हर प्रचारक के पास एक-एक साईकिल रहेगी। उस पर व्यवस्था इस प्रकार बनाई जायेगी जिससे हर ऋतु के अनुरूप साधन भली प्रकार रखे जा सकें। देहातों में कच्चे रास्ते और पगडण्डी होने के कारण सवारी के काम तो ये साइकिलें प्रायः नहीं ही आयेंगी, पर इसके सहारे आवश्यक उपकरण आसानी से साथ जा सकेंगे। सभी यात्री पीत वस्त्र व कन्धों पर पीले थैले धारण किये होंगे।

प्रातः 9 बजे जलपान करके निकलना प्रायः 3-4 गाँवों का कार्यक्रम निर्धारित करना, सम्भव हो तो वहाँ के निवासियों को जत्थे के पूर्व आगमन की सूचना भिजवाना, रास्ते में आने वाले गाँव में प्रवेश करते ही शंख बजाकर उपस्थिति की सूचना देना, प्रेरक गीत गाते हुये गाँव के गली कूचों में होकर धर्मफेरी के रूप में निकलना, एकत्रित ग्रामवासियों को एक स्थान पर जमा करके उनके साथ नवयुग का सन्देश देने वाले प्रेरक सहगान गाना, संक्षिप्त प्रवचन के रूप में नव जागरण का स्वरूप और कर्तव्य समझाना, दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखना, और फिर आगे के गाँव के लिये चल देना। पड़ाव के स्थान पर रात्रि को उस गाँव वालों को आने के लिये निमंत्रण देना।

एक गाँव में दो-तीन घण्टे लग सकते हैं। इस प्रकार रास्ते में दो-तीन गाँव पूरा करते हुये रात्रि में अपेक्षाकृत किसी बड़े गाँव में पड़ाव रहेगा। उसमें भी शंख, ध्वनि धर्मफेरी, सहगान और प्रवचन का क्रम समय में संक्षिप्त रूप से वह कार्य पद्धति पूरी कर दी जायेगी, पड़ाव वाले गाँव में उसे बड़ा रूप दिया जायेगा और कार्यक्रम प्रायः तीन घण्टे का चलेगा। उसमें नवयुग के अनुरूप हर व्यक्ति के कर्तव्य क्या हैं यह समझने और नव निर्माण के लिये कुछ करने का प्रोत्साहन दिया जायेगा।

तीर्थयात्रा टोलियों से आशा की जाती है कि वे कुछ प्रत्यक्ष कार्यक्रमों के प्रति जनता में उत्साह भरें। इसके लिये नीचे कुछ क्रियापरक तथा कुछ विचारपरक कार्यक्रमों का उल्लेख किया जा रहा है। मिशन के पद यात्रियों को क्षेत्रों में इन्हें क्रियान्वित करने का प्रयास करना चाहिये।

क्रियापरक- (1) साक्षरता विकास के लिये प्रौढ़ पाठशालायें, रात्रि पाठशालायें (2) नारी शिक्षा के लिये तीसरे प्रहर की पाठशालायें (3) स्वास्थ्य संवर्धन के लिये व्यायामशालायें (4) वृक्षारोपण (5) शाक-वाटिकायें (6) स्वच्छता अभियान (7) गृह उद्योगों का प्रचलन (8) संगठित श्रमदान (9) परिवार नियोजन (10) सहकारिता के विकास के लिये प्रयास।

विचारपरक - (1) दीवारों पर सद्वाक्य लेखन (2) सद्साहित्य के पुस्तकालयों की स्थापना (3) बाल विवाह, अनमेल विवाह, विवाहों में अति व्यय और दहेज का विरोध (4) मृतक भोज एवं बड़े भोज, पर्दाप्रथा, भिक्षा व्यवसाय, छुआछूत जैसी कुप्रथाओं का परित्याग (5) भूत−पलीत, भाग्यवाद, मुहूर्त, शकुन विचार, टोने-टोटके जैसे अन्ध विश्वासों का निवारण (6) नशेबाजी, माँसाहार, जैसी आदतों का त्याग, (7) जुआ, चोरी, ठगी, रिश्वत, मुनाफाखोरी, कामचोरी, गुण्डागर्दी जैसी अवाँछनीयताओं का त्याग, असहयोग और विरोध (8) दैनिक जीवन में ईश्वर उपासना का स्थान (9) रात्रि में प्रेरक प्रसंग एवं गोष्ठियों का प्रचलन (10) पर्व त्योहारों के सामूहिक रूप की परम्परा स्थापित करके व्यक्ति परिवार और समाज के नव निर्माण की प्रेरणा संचार की व्यवस्था।

संक्षेप में यही युग निर्माण योजना का बीस सूत्रीय कार्यक्रम है। इसका परिचय तो सर्वत्र कराया जायेगा पर तात्कालिक स्थिति के अनुरूप किसी न किसी रूप में शुभारम्भ पड़ाव के दिन ही करा देने का प्रयास होगा और पीछे उस दिशा में कुछ न कुछ किया ही जाता रहे, ऐसा प्रयास इन धर्मं प्रचार टोलियों का रहेगा।

दूसरे दिन प्रातःकाल छोटे गायत्री यज्ञ का आयोजन किया जायेगा। विचारशील लोगों को उसमें पधारने का अनुरोध रात्रि की सभा में किया जायेगा। जत्था अपने साथ हवन की सामग्री तथा उपकरण लेकर चलेगा। हवन कृत्य तो टोली के सदस्य ही पूरा करेंगे पर उनके अन्य विधि विधानों में सभी लोग भाग लेंगे। हवन के अन्त में रात्रि को बताये कार्यों में से कौन क्या कर सकता है ? यह पूछा जायेगा और उसके लिये संकल्प कराये जायेंगे। इस प्रकार के संकल्पों को ‘देव दक्षिणा’ की संज्ञा दी जाती रही है। प्रचार का कितना प्रभाव पड़ा, इसका मूल्याँकन इस देव दक्षिणा के आधार पर ही किया जाता है।

जत्थे के पास अपने हाथों भोजन पकाने के सभी साधन रहेंगे। वह स्वयं पकाता खाता चलेगा। गाँववासी यदि स्वेच्छा से भोजन का आग्रह करेंगे तो ही मण्डली उसे स्वीकार करेगी। कोई दान दक्षिणा न ली जायेगी। इस प्रकार का उदार संग्रह करके स्थानीय रचनात्मक कार्यों के लिये लगाते रहने का अनुरोध ही पर्याप्त माना जायेगा।

तीर्थ यात्रा मण्डलियाँ शान्तिकुँज में प्रशिक्षित की जायेंगी। वहीं से साइकिलें, बिस्तर, कपड़ों तथा प्रचार उपकरणों का प्रबन्ध रहेगा, टोलियों की दैनिक आवश्यकता पूरा करने का उत्तरदायित्व भी शाँतिकुँज का रहेगा। पर यह टोलियां क्षेत्रीय युग निर्माण शाखाओं के नियंत्रण निर्देश, निमंत्रण में काम करेंगी। शाखाओं के आमन्त्रण पर ही उन्हें भेजा जायेगा और कार्य-संचालकों से कहा जायेगा कि वे ही अपने समीपवर्ती क्षेत्र में कार्यक्रम बनायें, स्थानों में सूचना दें, जत्थे में कुछ स्थानीय कार्यकर्ता भी सम्मिलित रहें तथा टोली के लिये अन्य आवश्यक साधन भी जुटाते रहें। एक शाखा जब अपनी आवश्यकता पूरी कर लेगी तो जत्था फिर आमन्त्रण देने वाली दूसरी शाखा में चला जायेगा और यह क्रम निरन्तर आगे-आगे बढ़ता रहेगा।

जत्थे नौ महीने कार्य करेंगे। वर्षा ऋतु में तीन महीने छुट्टी रहेगी। उसमें इन प्रचारकों का अग्रिम प्रशिक्षण शाँतिकुँज में चलेगा। नये निश्चय के अनुसार जुलाई, अगस्त, सितम्बर यह तीन महीने कार्यकर्ताओं के वार्षिक प्रशिक्षण के लिये रखे गये हैं। पिछले अनुभवों और नये प्रयोगों का समन्वय करके हर वर्ष की कार्यपद्धति में क्रमशः निखार लाते रहा जायेगा। इस त्रैमासिक प्रशिक्षण की आवश्यकता इसी दृष्टि से अनुभव की गई है। उनमें नये और पुराने सभी कार्यकर्ता भाग लेते रहेंगे।

भविष्य में शांतिकुंज में जो तीन महीने की कार्यकर्ता शिक्षण व्यवस्था चला करेगी उसमें (1) जुलाई- यज्ञ, संस्कार, पर्व, गोष्ठियाँ, आयोजन, सम्मेलन आदि बड़े समारोहों के विधि-विधान एवं कार्य संचालन की प्रक्रिया के लिये। (2) अगस्त-रामायण कथा (राम-चरित्र) के माध्यम से व्यक्ति और परिवार निर्माण की प्रगतिशील प्रक्रिया जन मानस में प्रवेश करने की बारीकियाँ समझने के लिये (3) सितम्बर-भागवत कथा (कृष्ण चरित्र) के माध्यम से समाज की प्रस्तुत समस्याओं का समाधान समझाने में, एक चिर प्राचीन और चिर नवीन के सम्मिश्रण-अभिनव प्रयोग का स्वरूप समझाने के लिये निर्धारित रहेगा।

आवश्यक नहीं कि हर कार्यकर्ता को पूरे तीन महीने ही ठहरना पड़े। एक या दो महीने अपने लिये आवश्यक विषय की शिक्षा प्राप्त करने के लिये भी उतने समय तक रहा जा सकता है। इस तीन महीने की अवधि में धर्म प्रचारकों के व्यक्तित्व, ज्ञान एवं अनुभव को बढ़ाने के लिये उसका दृष्टिकोण अधिक परिष्कृत एवं पुरुषार्थ अधिक प्रखर करने क


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