प्रगति पथ पर अपने ही पैरों चलना पड़ेगा।

April 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रकृति ने प्राणी को अनेकानेक उपहार दिये हैं पर साथ ही उसकी निजी विवेक बुद्धि को परखने के लिए एक करारा व्यंग भी किया है कि उसकी ज्ञान चेतना प्रायः बहिर्मुखी रहती है। भीतर घुसकर अन्तः सत्ता को समझना और उसके सहारे प्रगति के उच्च स्तर पर जा पहुँचना बहुधा संभव ही नहीं हो पाता। आंखें बाहर के दृश्य देखती हैं पर उनकी निज की स्थिति क्या है यह जान ही नहीं पाती। जीभ बाहरी वस्तुओं के स्वाद चखती है पर उसके अपने जो बहुमूल्य स्राव हैं उनका रासायनिक परीक्षण कर सकना उसके लिए संभव नहीं होता। यही स्थिति कान, नाक, उपस्थ, त्वचा आदि इन्द्रियों की है वे बाह्य सम्पर्क से उत्पन्न अनुभूतियों का रसास्वादन करती हैं पर उन संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुँचाने वाले ज्ञान तन्तुओं में चलने वाली विद्युत धारा के बारे में तनिक भी जानकारी नहीं होती। काम क्रीड़ा में रस तो आता है पर शरीर के अन्य अंगों के स्पर्श घर्षण में जो अनुभूति नहीं होती वह मात्र उपस्थ इन्द्रिय से ही क्यों होती है। उस क्षेत्र की संरचना में विचित्र विशेषताओं का समावेश है उस का आधार, कारण क्या है यह कुछ भी समझ में नहीं आता। हमारी बुद्धि संसार की अनेकानेक जानकारियों से सुसज्जित बनती है। विभिन्न विषयों का लोगों को असीम ज्ञान होता है। किसी किसी की अध्ययनशीलता और ज्ञान सम्पदा को देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। फिर भी उन्हें अपनी आत्म सत्ता के बारे में-उसके स्तर के सम्बन्ध में-अपने लक्ष्य के सम्बन्ध में नहीं के बराबर ज्ञान होता है। यदि पुस्तकीय ज्ञान रहा भी तो उस पर निष्ठा तनिक भी नहीं होती। यदि रही होती तो वे जीवन सम्पदा की भी उसी तरह सुरक्षा नहीं करते जिस प्रकार समय अथवा धन के सम्बन्ध में बरतते हैं।

विवेक की उच्च स्थिति में पहुँचकर हम अनुभव करते हैं कि जो आँखों से देखा और इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है वह सब कुछ जड़ निर्जीव है। निर्जीव पदार्थों में न कोई चेतना होती है और न संवेदना। वे चेतन की इच्छानुसार भले या बुरे प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किये जा सकते हैं। उस प्रयोग में यदि कुछ सुख दुख होता है-प्रिय अप्रिय लगता है तो वह चेतन तत्व की अपनी निज की अनुभूति है। इसमें जड़ पदार्थों को न तो दुख के लिए दोष दिया जा सकता है और न सुख के लिए श्रेय। मान्यता का स्तर भिन्न हो तो वह अनुभूति भी बदल जायगी। जैसे हीरे के मूल्य से अपरिचित किसी आदिवासी को एक सेर गुड़ और हीरा सामने रखकर किसी एक को उठा लेने के लिए कहा जाय तो वह गुड़ उठा लेगा और हीरे की और मुँह करके भी न देखेगा। किसी छोटे बालक को हजार रुपये के नोट का बंडल अथवा खिलौने के पिटारे में से एक को लेने के लिए कहा जाय तो वह नोटों की उपेक्षा करके खिलौने चाव पूर्वक उठा लेगा। हीरे अथवा नोटों का मूल्य जिसे मालूम है वह उन्हें ही पसंद करेगा और गुड़ तथा खिलौनों को तुच्छ समझकर उपेक्षा करेगा। ठीक यही बात वहाँ लागू होती है जहाँ बाह्य जगत में बिखरे हुए धन सम्पत्ति समझे जाने वाले निर्जीव पदार्थों की तुलना आन्तरिक वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों से की जाती है। निस्संदेह वृत्तियाँ ही प्रधान हैं। उन्हीं के स्तर पर वस्तुओं व्यक्तियों और परिस्थितियों का मूल्याँकन किया जाता है और तदनुरूप ही प्रिय अप्रिय का- लाभ हानि का, सुख दुख का अनुमान लगाया जाता है। दृष्टिकोण का स्तर बदलते ही मान्यताओं और अनुभूतियों में जमीन, आसमान जैसा अन्तर आ जाता है। एक व्यक्ति जिन पदार्थों एवं परिस्थितियों के लिए लालायित फिरता है, दूसरा उन्हें निरर्थक एवं अनर्थकारी मानकर ठोकर लगाते हुए संकोच नहीं करता है। वस्तुएँ दोनों के लिए एक जैसी हैं। उनकी स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया पर एक ने उन्हें प्राण प्रिय माना दूसरे ने उन्हें घृणापूर्वक ठुकरा दिया यह अन्तःस्थिति की भिन्नता का ही चमत्कार है।

कितने ही लोग नशा, व्यभिचार, जुआ, व्यसन विनोद के प्रसंगों में अतीव आनन्द अनुभव करते हैं और उनके लिए जान देते हैं पर दूसरों के सामने इतने उपयोगी काम होते हैं कि इनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। यह भिन्नता आन्तरिक स्थिति के अन्तर पर निर्भर करती है। वस्तुतः सुख दुख के, उत्थान पतन के, समस्त आधार अपने भीतर ही निर्भर रहते हैं बाहर तो उनकी प्रतिक्रिया मात्र दृष्टिगोचर होती है। आँखों की पुतली का मूल्य सूर्य चन्द्रमा से-संसार के समस्त दृश्य पदार्थों से अधिक है। यदि पुतली का तिल खराब हो जाय तो समस्त संसार में अन्धकार हो जायगा। भगवान की दुनिया में दृश्य पदार्थ अपने स्थान पर बने रह सकते हैं पर मनुष्य की अपनी भी एक दुनिया है और उसके समस्त दृश्य आँख की पुतली पर आश्रित हैं। कान की झिल्ली खराब हो जाने पर संसार से समस्त स्वर शब्दों का अन्त हो जाता है। भगवान की दुनिया में शब्द स्वर बने रह सकते हैं पर इससे क्या। बहरापन छा जाने पर मनुष्य को अपनी दुनिया में तो निस्तब्धता ही हो जायगी। अपना दिमाग खराब हो जाने पर संसार में सर्वत्र अव्यवस्था दिखाई पड़ेगी। बुखार की जीभ को हर खाद्य पदार्थ कड़वा लगता है। पीलिया रोग में आँखें भी पीली हो जाती हैं और हर पदार्थ पीला दिखाई देने लगता है। इन तथ्यों से स्पष्ट है मनुष्य की भीतरी स्थिति ही प्रधान है उसी के आधार पर बाह्य जगत की सामान्य स्वाभाविक स्थिति हमें प्रिय अथवा अप्रिय लगती है और सुख दुख का अनुभव चक्र घूमता है। यदि ऐसा न होता तो धन कुबेर दिन रात चिन्ताओं की आग में जलते और निर्धन सन्त आनन्द का अनुदान बाँटते बखेरते सुख शान्ति के भण्डार से भरे पूरे दिखाई न पड़ते।

जितनी गंभीरतापूर्वक विचार किया जाता है उतना ही यह तथ्य स्पष्ट होता चला जाता है कि व्यक्तित्व की मौलिक विशेषताओं के बीज अन्तः जगत में दबे पड़े हैं; उनमें से जिन बीजों को विकसित होने का अवसर मिल जाता है वे सघन वृक्ष बनकर फूलते हैं और उन्हीं के अनुरूप बाह्य जीवन का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। दुष्प्रवृत्तियाँ उग कर खड़ी हो जायें तो कँटीले झाड़-झंखाड़ों से भरा हुआ उलझा और अनगढ़ कुरूप जीवन सामने आता है, अपने को त्रास देता है और दूसरों को सड़ी दुर्गन्ध जैसा घिनौना लगता है। यदि सत्प्रवृत्तियाँ पनप जायें तो सुसंस्कृत, समुन्नत और शोभा सौन्दर्य युक्त स्थिति बनती है। स्वर्णीय अनुभूतियों से अपना अन्तःकरण भरा रहता है और दूसरे जो भी सम्पर्क में आते हैं वे भी उस सुरम्य उद्यान का आनन्द लेते, मोद मनाते हैं।

जितना परिश्रम मनोयोग बाह्य जीवन से संबंधित व्यवसायों क्रियाकलापों में लगाया जाता है उससे सौवाँ हिस्सा भी यदि आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार आत्म निर्माण और विकास के चतुर्विधि आत्मोत्कर्ष की साधना में लगाया जाय तो अपने भीतर से ही एक ऐसे देव मानव का उद्भव हो सकता है जो सारे सम्पर्क क्षेत्र को दैवी विभूतियों से भरा पूरा बनादे। दुष्ट दुर्जन जहाँ रहते हैं वहाँ उत्पीड़न और आतंक का वातावरण उत्पन्न करते हैं। दीन, दुर्बल, अनाथ असहाय मूर्छित, अर्ध मृतक जहाँ रहते हैं वहाँ घिनौनी सड़न से, विकृतियों से दम घोंटने वाली गंदगी भरते हैं। इसके विपरीत देव मानव अपने उत्कृष्ट दृष्टिकोण से सुसंस्कृत व्यक्तित्व से-आदर्श क्रियाकलाप से ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं जिन पर स्वर्ण निछावर किया जा सकता है। वस्तुतः गुण, कर्म, स्वभाव की सम्पत्ति ही असली वैभव है उसी के सहारे आन्तरिक विभूतियाँ और भौतिक सम्पत्तियाँ उत्पन्न होतीं, बढ़ती और उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँचती हैं।

प्रगतिशीलता न तो लम्बी चौड़ी बकवास पर निर्भर करती है और न बड़े साधन जुटाने पर उसकी संभावना सुनिश्चित होती है। खरे व्यक्तित्व ही अपनी शालीनता, चरित्र निष्ठा, सूझ-बूझ और सुव्यवस्था के आधार पर बड़े कामों का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाते और उसे भली प्रकार पूरा करते हैं। दूसरे को अपनी मन मर्जी पर चलाना कठिन है। कोई अपना कहना न माने तो उसे विवश कैसे किया जा सकता है। शरीर पर तो बंधन लगा भी सकते हैं पर किसी के मन पर तो दूसरे का प्रतिबंध नहीं चल सकता। इसलिए व्यक्तियों के निर्माण का प्रयोग अपने आप से आरम्भ करना चाहिए। अपने शरीर और मन पर तो अपना नियंत्रण हो ही सकता है। कम से कम अपने को अवाँछनीय मार्ग से विरत करना और सन्मार्ग पर चलाना संभव हो ही सकता है। अपने दुर्गुणों पर यदि कड़ी दृष्टि रखी जाय और कड़ाई बरती जाये तो वे पराये घर में घुसे हुए चोर की तरह देर तक नहीं ठहर सकते, उन्हें भागना ही पड़ेगा। दुर्गुण विजातीय तत्व हैं। मानवी अन्तःकरण उनका अपना घर नहीं है। यह तो आत्मा की परमात्मा की देवभूमि है। यहाँ तो दैवी सत्प्रवृत्तियों का ही निवास हो सकता है। दुष्प्रवृत्तियां तो हमारी असावधानी का लाभ उठाकर अवैध कब्जा जमा लेती हैं। उन्हें दुत्कार दिया जाय तो पंखा झलते ही उड़ती दीखने वाली मक्खियों की तरह उन्हें पलायन करते हुए देखा जा सकता है।

दर्पण में दीखने वाली शक्ल अपने से पृथक दीखती है और उसकी गतिविधियाँ किसी अन्य की मालूम पड़ती हैं, पर वस्तुतः वह शक्ल और चेष्टा होती अपनी ही प्रतिच्छाया है। संसार एक दर्पण की तरह है इसमें अपनी ही शक्ल के सब लोग दीखते हैं। पुराने महल, मन्दिरों में कलात्मक ढंग से दर्पण के टुकड़े छत तथा सब दीवारों में जड़ने का रिवाज था। इस शीश महल कक्ष में प्रवेश करने वाले को अपनी ही शक्लें उन सभी टुकड़ों में दिखाई पड़ती थी। इससे यह कौतूहल होता था कि चारों ओर हजारों की संख्या में अपनी ही शक्लें दिखाई पड़ जा रही हैं। संसार को बड़ा काँच महल समझा जा सकता है उनमें अपनी ही प्रकृति के अनुरूप सब कुछ दिखाई पड़ता है। यदि अपनी प्रकृति बदल ली जाय तो बाह्य परिस्थितियों में आश्चर्यजनक रीति से परिवर्तन प्रस्तुत हुआ दिखाई पड़ेगा, हर व्यक्ति को सुधारना या इच्छानुकूल बनाना कठिन है- हर परिस्थिति हमारी मर्जी जैसी बनी रहे यह संभव नहीं। इस प्रकार के प्रयास करने में कितना ही श्रम कितना ही समय क्यों न लगाया जाय अपने को पूर्ण संतोष दे सकने जैसी स्थिति उत्पन्न न हो सकेगी। हाँ, अपने स्वभाव को, दृष्टिकोण को बदला जा सकता है। प्रस्तुत परिस्थितियाँ अनुकूल न होने पर भी उनके साथ तालमेल बिठाया जा सकता है। यही एक उपाय है जिसके आधार पर चैन से रहना और चैन से रहने देना संभव हो सकता है।

सूर्य अपने साथ सौरमंडल के ग्रह उपग्रहों को बाँधे रहता है और उन्हें साथ लेकर चलता है। मनुष्य एक सूर्य है जो अपने स्तर के अनुरूप वस्तु और व्यक्ति ही नहीं, परिस्थितियां भी बाँधे रहता है और साथ-साथ घसीट कर ले चलता है। अपने स्तर में परिवर्तन लाया जा सके तो कोई कारण नहीं कि परिस्थितियाँ बदलने न लगें।

आमतौर से लोग सुखद कल्पनाएँ करते रहते हैं- सुनहरे सपने देखते रहते हैं, इतने भर से कुछ काम नहीं चलता। सपने तो सपने ही हैं वे पूरे नहीं होते पर किसी बात के हर पक्ष पर विचार करने के उपरान्त अपनी स्थिति से तालमेल खाता हुआ यह सुनिश्चित संकल्प किया गया है और उसका मूल्य चुकाने के लिए साहस जुटाया है तो कोई कारण नहीं कि वह संकल्प अधूरा बना रहे। मनुष्य की आत्म शक्ति इतनी प्रचंड है कि यह मनुष्य उसे साथ लेकर-विवेक पूर्ण रीति-नीति अपनाकर अभीष्ट मार्ग पर चल पड़े और तनिक-तनिक सी कठिनाइयों को देखकर अधीर न हो तो उचित समय पर सफलता अवश्य ही मिलती है। अधीर; स्वल्प श्रम से बड़े लाभ पाने वाले, क्षमता से तालमेल न खाने वाली, योजनाएं बनाने वाले, श्रम से जी चुराने वाले और आवश्यक साधन जुटाने में उपेक्षा करने वाले प्रायः असफल रहते हैं। इन भूलों के प्रति आरंभ से ही सावधान रहा जाय, लक्ष्य के प्रति परिपूर्ण उत्साह और अथक परिश्रम जुटाये रखा जाय तो सामान्य मनुष्य भी असामान्य सफलताएँ प्राप्त करते हैं और उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचते हैं।

मनुष्य सर्वशक्तिमान परमात्मा का सामर्थ्यवान अंश है उसमें अपने पिता की समस्त क्षमताएँ सन्निहित हैं। उनको किस प्रकार जागृत, परिपक्व और प्रयुक्त किया जाय - इसी तत्वज्ञान का नाम अध्यात्म विज्ञान है। इस क्षेत्र में सदा एक ही प्रकाश संदेश विस्तृत होता है। अपने को जानो, अपनी क्षमता को विकसित करो- दृष्टिकोण और उपयुक्त क्रिया पद्धति अपनाओ, यदि इतना कर सके तो वे उपलब्धियाँ हाथ बाँधकर सामने खड़ी होंगी जो हर घड़ी अन्तःकरण को प्रसन्नता से ओतप्रोत रखे रहती हैं।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118