जीवात्मा परमात्मा सत्ता का प्रतिनिधि

April 1976

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ईश्वर और जीव में लघुता और महानता की दृष्टि से अकल्पनीय अंतर है। इतने पर वे भी अंश और अंशी के नाते वे सभी विशेषताएं जीव में विद्यमान हैं जो उसके उद्गम स्रोत ईश्वर में होती हैं। प्रश्न केवल विकसित और अविकसित स्थिति का है। अविकसित जीव तुच्छ है इस पर भी उसमें वे सभी संभावनाएं मौजूद हैं जिनसे उसका विकास सहज ही विराट रूप धारण कर सकता है। आग की छोटी सी चिनगारी मूलतः ब्रह्माण्ड व्यापी अग्नि तत्व का एक घटक है जिसे अवसर मिले तो प्रचण्ड दावानल बनकर सुदूर क्षेत्रों को अपनी लपेट में ले सकती है। यह चाहे तो अपना चिनगारी स्वरूप समाप्त करके विश्व व्यापी अग्नि तत्व में विलीन हो सकती है। जीव जब तक चाहे अपनी छोटी स्थिति में रहे- संकल्प करे महान बन जाय और उसको उत्कण्ठा हो तो अपने उद्गम में विलीन होकर पूर्ण ब्रह्म भी बन सकता है। तुच्छता से महानता में विकसित होने में प्रधान बाधा उसकी संकल्प शक्ति की ही तो है। उसी की अभिवृद्धि के लिए साधना का मार्ग अपनाया जाता है।

विराट और लघु की परमात्मा और आत्मा की प्रत्यक्ष तुलना सूर्य और परमाणु से कर सकते हैं। सूर्य का विस्तार और शक्ति भण्डार असीम है पर नगण्य सा दीखने वाला परमाणु भी तुच्छ नहीं है अपनी छोटी स्थिति में उसकी शक्ति भी उतनी ही है जितनी कि विस्तृत स्थिति में विशालकाय सूर्य की। ब्रह्म और जीव का अनुपात भी इसी प्रकार है।

सूर्य का व्यास पृथ्वी से 106 गुना बड़ा है। व्यास 865380 मील, परिधि 2700000 मील और उसका क्षेत्र 3393000 अरब वर्ग मील है। यदि वह पृथ्वी से 93000000 मील की दूरी पर न होकर कुल 1000000 मील दूर होता तो हमें आकाश में एकमात्र सूर्य ही सूर्य दिखाई देता है।

सूर्य की शक्ति का कोई वारापार नहीं। उसकी सतह का तापक्रम 600 डिग्री सेन्टीग्रेड है तो अंदर का अनुमानित ताप 15000000 डिग्री सेन्टीग्रेड। 12 हजार अरब टन कोयला जलाने से जितनी गर्मी पैदा हो सकती है उतनी सूर्य एक सेकिण्ड में निकाल देता है। अनुमान है कि सूर्य का प्रत्येक वर्ग इंच क्षेत्र 60 अश्वों की शक्ति (हार्स पावर) के बराबर शक्ति उत्सर्जित करता है उसके सम्पूर्ण 3393000000000000 वर्ग मील क्षेत्र में शक्ति का अनुमान करना हो तो इन गुणनखण्ड को हल करना चाहिए। 3393000000000000 x 1760 x 3 x 12 इतने हार्स पावर की शक्ति न होती तो यह जो इतनी विशाल पृथ्वी और विराट सौरजगत आँखों के सम्मुख प्रस्तुत है वह अंधकार के गर्त में बिना किसी अस्तित्व के डूबा पड़ा होता।

सूर्य और पृथ्वी की तुलना नहीं हो सकती। किन्तु अपने स्थान पर पृथ्वी और उस पर रहने वाले प्राणियों की सामर्थ्य को देखकर भी दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है और सोचना पड़ता है कि विश्व की प्रत्येक इकाई अपने आप में एक परिपूर्ण सूर्य है।

पृथ्वी के लोग भी इस तरह का विकास किया करते हैं। प्रतिवर्ष मनुष्य जाति 9000000000000000000 फुट पौंड ऊर्जा आकाश में भेजती रहती है जबकि हमारे जीवन को अपने समस्त ब्रह्माण्ड को गतिशील रखने के लिए सूर्य प्रति सैकिण्ड चार सौ सेक्टीलियन अर्थात् दस अरब इक्कीस करोड़ किलोवाट शक्ति अपने सारे मण्डल को बखेरता और गतिशील रखता है। परमाणु की इस महाशक्ति की सूर्य की महाशक्ति से उसी प्रकार तुलना की जा सकती है जिस प्रकार परमाणु की रचना से सौरमंडल की रचना की तुलना की जाती है। वस्तुतः परमाणु सूर्य और समस्त ब्रह्माण्ड के समान त्रिक है। जो परमाणु में है वही सौर मंडल में है जिस प्रकार परमाणु अपने नाभिक के बिना रह नहीं सकता प्रकृति और ब्रह्म की एकता का रहस्य भी यही है।

हाइड्रोजन परमाणु का एक इलेक्ट्रॉन अपने केन्द्र के चारों ओर एक सैकिण्ड में 6000 अरब चक्कर काटता है। परमाणु की रचना सौरमंडल के सदृश है उनके भीतर विद्युत कण भयंकर गति से घूमते हैं फिर भी उसके पेट में बड़ा सा आकाश भरा रहता है परमाणुओं के गर्भ में चल रही भ्रमणशीलता के कारण ही इस संसार में विभिन्न हलचलें हो रही हैं। यदि वे सब रुक जायं तो आधा इंच धातु का वजन तीस लाख टन हो जायेगा और सर्वत्र अकल्पनीय भार जड़ता भरा दिखाई पड़ेगा।

हाइड्रोजन संसार का सबसे हल्का तत्व है और वह सारे विश्व में व्याप्त है। उसके एक अणु का विस्फोट कर दिया जाय तो उसकी शक्ति संसार के किसी तत्व की तुलना में अधिक होगी। जो जितना हलका वह उतना ही आग्नेय, शक्तिशाली, सामर्थ्यवान और विश्वव्यापी यह कुछ अटपटा सा लगता है पर है ऐसा ही।

किसी गुब्बारे में 300 पौंड हवा भरी जा सकती है तो हाइड्रोजन उतने स्थान के लिए 100 पौंड की पर्याप्त होगा, उसी प्रकार जितने स्थान में एक औंस पानी या 2/3 औंस हाइड्रोजन रहेगा उतने स्थान को मनुष्य के सूक्ष्म शरीर के प्रकाश अणुओं का 1224 वाँ भाग ही घेर लेगा। यदि प्रयत्न किया जाय तो इन अणुओं की सूक्ष्मतम अवस्था में पहुँचकर विराट विश्वव्यापी आत्म चेतना के रूप में अपने आपको विकसित और परिपूर्ण बनाया जा सकता है।

सर्गे सर्गे पृथगरुपं सन्ति सर्गान्तराण्यपि। तेष्वप्यन्तः स्थसर्गोधाः कदलीदल पीठवत्॥

-योगवशिष्ठ 4।18।16-17

आकाशे परमाण्वन्तर्द्रव्यादेरणुकेऽपि च। जीवाणुर्यत्र तत्रेदं जगद्वेत्ति निजं वपुः॥

-योगवशिष्ठ 3।44।34-35

अर्थात्- ‘‘जिस प्रकार केले के तने के अंदर एक के बाद एक परतें निकलती चली आती हैं उसी प्रकार प्रत्येक सृष्टि के भीतर नाना प्रकार के सृष्टि क्रम विद्यमान हैं। इस प्रकार एक के अंदर अनेक सृष्टियों का क्रम चलता है। संसार में व्याप्त चेतना के प्रत्येक परमाणु में जिस प्रकार स्वप्न लोक विद्यमान है उसी प्रकार जगत में अनन्त द्रव्य के अनन्त परमाणुओं के भीतर अनेक प्रकार के जीव और उनके जगत विद्यमान हैं।’’

हमारे लिए वर्ष 365/1/4 दिन का होता है पर सूर्य के लिए वह अपनी एक हजार किरणों के घूमने भर का समय, सूर्य का प्रकाश हर क्षण पृथ्वी के आधे भाग पर पड़ता है अर्थात् सूर्य का एक सैकिण्ड पृथ्वी के निवासी के लिए 12 घन्टे। कीट-पतंगों के लिए तो उसे कल्प ही कहना चाहिए। सूर्य अरबों वर्ष से जी रहा है और करोड़ों वर्ष तक जियेगा पर इतनी अवधि में तो मनुष्यों की लाखों पीढ़ियां मर खप चुकीं, यदि सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक जितने लोग जन्म ले चुके उन सबके नाम लिखना सम्भव हो तो उसके लिए पृथ्वी के भार से कम कागज की आवश्यकता न पड़ेगी। सूर्य का एक जन्म इतना बड़ा है कि मनुष्य उसकी तुलना में अरबवें हिस्से की भी जिन्दगी नहीं ले पाया। ठीक यही बात मनुष्य की तुलना में कीट पतंगों की है। वायुमण्डल में ऐसे जीव हैं तो इतने सूक्ष्म हैं कि उनको इलेक्ट्रानिक सूक्ष्मदर्शी यंत्र से ही देखना संभव है उनमें एक ही कोश (सेल) होता है। उसमें केन्द्रक सूर्य का ही एक कण होता है अन्य तत्वों में कोई भी खनिज लवण या प्रोटीन कार्बोहाइड्रेट मिलेंगे। अर्थात् जीव चेतना और प्रकृति का समन्वय ही दृश्य जगत है।

मनुष्य में गर्मी अधिक है। 100 वर्ष का जीवन उसे प्राप्त है पर कीड़े मकोड़े शक्ति के एक अणु और शरीर के एक कोश से ही मनुष्य जैसी आयु भोग लेते हैं। मनुष्य जितने दिन में एक आयु भोगता है उतने में कीट पतंगों के कई कल्प हो जाते हैं। प्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक एन॰ एस॰ श्चेरविनोवस्की एक कृषि-विशेषज्ञ थे, जिन्होंने 50 वर्ष तक कीट पतंगों के जीवन का सूक्ष्म अध्ययन किया और उससे कृषि नाशक कीटाणुओं के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण खोजें कीं। उन्हीं खोजों में भारतीय दर्शन को प्रमाणित करने वाले तथ्य भी प्रकाश में आये। वे लिखते हैं- टिड्डियों की सामूहिक वंशवृद्धि की अवधि सूर्य के एक चक्र अर्थात् 11 वर्ष से है अर्थात् 11 वर्ष में उनकी प्रलय और नई सृष्टि का एक क्रम पूरा हो जाता है। वीविल जो चुकन्दर कुतरने लगा कीड़ा होता है वह भी 11 वर्षीय चक्र से सम्बन्धित है, पर कुछ कीड़ों की सामूहिक वृद्धि 22 वर्ष, कुछ की 33 वर्ष है इस आधार पर उन्होंने लिखा है कि पृथ्वी का सारा जीवन ही सूर्य पर आधारित है। सिद्ध होता है कि नन्हें नन्हें जीवाणु (बैक्टीरिया) तथा विषाणु (वायरस) सभी का जीवन कोश (नाभिक या न्यूक्लियस) सूर्य का ही प्रकाश स्फुल्लिंग और चेतन परमाणु है, जबकि उसके कोशिका सार (साइटोप्लाज्म) में अन्य पार्थिव तत्व। जीवन चेतना सर्वत्र एक सी है, परिभ्रमण केवल मन की वासना के अनुसार चलता रहता है। नाभिक में भी नाभिक (न्यूक्लिओलस) होते हैं जिससे यह भी सिद्ध होता है कि जिस प्रकार कोशिका सार (साइटोप्लाज्म) का सूर्य नाभिक होता, नाभिक अग्नि तत्व होता है अग्नि या प्राण में ही मन होता है, उसी प्रकार मन की चेतना में ही विश्व चेतना या ईश्वरीय चेतना समासीन होनी चाहिए।

सूर्य की तुलना में परमाणु तुच्छ है किन्तु परमाणु के भीतर भी बड़ा संसार विद्यमान है जितना सूर्य के घेरे में उसका सौर परिवार। इस विश्व की सबसे छोटी इकाई क्या है? कुछ कहा नहीं जा सकता। परमाणु को कुछ समय पूर्व सबसे छोटी इकाई माना गया था, पर अब लगता है वह भी एक पूरा सौर परिवार है और उसके भीतर भी सूक्ष्मता की परतें एक के भीतर एक छिपी पड़ी हैं और वे भी इतनी भी अधिक हैं जितनी कि विराट की व्यापकता।

प्रसिद्ध डच व्यापारी एन्टानवान लीवेनहीक को जब भी अवकाश मिलता वह शीशों के कोने रगड़ रगड़ कर लेन्स बनाया करता उसने एक बार एक ऐसा लेन्स बनाया जो वस्तु को 270 गुना बड़ा करके दिखा सकता था। उसने पहली बार गंदे पानी और सड़े अन्न में हजारों जीवों की सृष्टि देखी। कौतूहलवश एक बार उसने वर्षा का शुद्ध जल एकत्र किया उसकी मंशा यह जानने की थी कि आया शुद्ध जल में भी कीटाणु होते हैं क्या? वह यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि उसमें भी जीवाणु उपस्थित थे। उसने अपनी पुत्री मारा को बुलाकर एक विलक्षण संसार दिखाया- यह जीवाणु जल में तैर ही नहीं रहे थे, वरन् तरह तरह की क्रीड़ाएं करते हुए दिखा रहे थे कि उनमें यह इच्छाएँ आकाँक्षाएँ मनुष्य के समान ही हैं भले ही मनुष्य जटिल कोश प्रणाली वाला जीव क्यों न हो पर चेतना के गुणों की दृष्टि से मनुष्य और उन छोटे जीवाणुओं में कोई अंतर नहीं था। यह जीवाणु हवा से पानी में आये थे।

इतना विशाल वट वृक्ष जिस बीज से अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित और बड़ा हुआ है वह आधे सेण्टीमीटर व्यास से भी छोटा घटक रहा होगा। उस बीज की चेतना ने जब विस्तार करना प्रारम्भ किया तब तना, तने से डालें, डालों से पत्ते, फूल फल जड़ें आदि बढ़ते चले गये।

मनुष्य शरीर की आकृति और विकास प्रक्रिया भी ठीक ऐसी ही है। वीर्य के एक छोटे से छोटे कोष (स्पर्म) को स्त्री के प्रजनन कोष ने धारण किया था। पीछे वही कोष जिसमें मनुष्य या स्त्री या पुरुष के शरीर की सारी संभावनाएं आकृति प्रकृति रंग रूप ऊँचाई नाक नक्शा आदि सब कुछ विद्यमान था उसने जब बढ़ना प्रारम्भ किया तो वह अन्तरिक्ष की अनन्त शक्तियों को खींच खींचकर शरीर रूप में विकसित होता चला गया। एक सेण्टीमीटर स्थान में कई अरब कोष आ सकते थे जो उसी सूक्ष्मतम कोष से 5 फुट 6 इंच का मोटा शरीर दिखाई देने लगता है।

गर्भ के भीतर रहने तक तो यह लघुता याद रहती है किन्तु बाहर की हवा लगते ही जीवन का मूल भूत आधार भूल जाता है और मनुष्य अपने आपको स्थूल पदार्थों का पिंड मात्र मानकर मनुष्य जीवन जैसी बहुमूल्य ईश्वरीय विरासत को गँवा बैठता है। हम यदि छोटे से छोटे अणु में भी जीवन की अनुभूति कर सकें तो जन चेतना के प्रति हमारा दृष्टिकोण आज की अपेक्षा कुछ भिन्न ही होता है।

धरती पर जीवनोपयोगी परिस्थितियों का आधार जिन रासायनिक हलचलों और आणविक गतिविधियों पर निर्भर है, वे अन्तरिक्ष से आने वाली रेडियो तरंगों पर अवलम्बित हैं। शक्ति के स्रोत उन्हीं में हैं। विविध विधि हलचलों की अधिष्ठात्री इन्हीं को कहना चाहिए। हमारा परिवार हमारा शरीर, हमारा अस्तित्व सब कुछ प्रकारान्तर से इन रेडियो तरंगों पर निर्भर है, जिन्हें हम आत्मा की तरह जानते भले ही नहीं, पर निश्चित रूप से अवलम्बित उन्हीं पर है। जीवन लगता भर अपना है पर उसमें समाविष्ट प्राण इसी अदृश्य सत्ता पर निर्भर है जिन्हें विज्ञान की भाषा में रेडियो तरंग पुँज कहते हैं।

यह तरंगें कहाँ से आती हैं? क्या यह धरती की अपनी सम्पत्ति या उपज हैं? इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान इस रूप से देता है कि धरती के पास जो जीवन सम्पदा है वह पूरी की पूरी उधार ली हुई है। सूर्य की ऊर्जा धरती पर एक सन्तुलित मात्रा में बिखरती है। रोशनी और गर्मी के रूप में उसे हम अनुभव करते हैं अप्रत्यक्ष रूप से उसमें जीवन तत्व भी सम्मिलित है। सूर्य यदि न हो, अधिक दूर या अधिक पास हो तो फिर पृथ्वी भी अन्य ग्रहों की तरह किसी प्राणधारी के निवास के लिए सर्वथा अनुपयुक्त बन जायगी। सूर्य की ऊर्जा को बहुत बड़ा श्रेय इस धरती को जीवन प्रदान करने का है।

लगता है सूर्य असीम शक्ति का भण्डार है पर वस्तुतः वह भी विराट ब्रह्माण्ड के महा संचालक ब्रह्म सूर्य का एक नगण्य सा घटक ही है। सूर्य अपनी शक्ति उसी प्रकार अपने सूत्र संचालक महा सूर्य से प्राप्त करता है जैसे कि अपनी पृथ्वी सौरमंडल के अधिष्ठाता अपने सूर्य से।

जीव और ईश्वर की दूरी ही उसकी शक्ति को दुर्बल बनाती है। यदि यह दूरी घटती जाय तो निश्चित रूप से सामर्थ्य बढ़ेगी और स्थिति यह न रहेगी जो आज कृमि कीटकों जैसी दिखाई पड़ रही है।

ध्यान-मन की एकाग्रता द्वारा अपनी प्राणमय चेतना (नाभिकीय चेतना) को सूर्य या किसी अन्य चेतना के साथ जोड़ देने से दो तत्वों का मिलन ऐसे ही हो जाता है जैसे दो दीपकों की लौ मिलकर एक हो जाती है। व्यक्ति अपनी अहंता भूलकर जब किसी अन्य अहंता से जोड़ लेता है तो उसकी अनुभूतियाँ और शक्तियाँ भी वैसी ही- इष्टदेव जैसी ही हो जाती हैं। ध्यान की परिपक्वता को एक प्रकार का संलग्न ही कहना चाहिए। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि वह शक्ति विस्फोट की शक्ति से भी अधिक प्रखर होती है। आत्म चेतना की ब्राह्मी चेतना से मिलकर ब्रह्म साक्षात्कार इसी सिद्धान्त पर होता है।

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