ब्राह्मण की कामधेनु गौ-गायत्री

March 1960

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(पं .श्रीराम शर्मा आचार्य)

यों तो गायत्री मन्त्र मानव मात्र के लिए उपास्य एवं कल्याण कारक है, उसकी शरण में जाने पर सभी का कल्याण होता है, पर जो लोग ब्रह्म परायण हैं, जिन्होंने अपनी सात्विक प्रवृत्तियों को जागृत करके ब्राह्मणत्व प्राप्त किया है, उनके लिए गायत्री परम कल्याण कारिणी है। एक उत्तम औषधि सभी को लाभदायक होती है पर जिनका पेट साफ होता है उन्हें वह तत्काल गुण दिखाती है। अपच के कारण जिनका पेट खराब है, उन्हें वही दवा कम लाभ पहुँचावेगी, देर में असर करेगी। गुणकारी इंजेक्शन भी जिनका खून खराब है, उन्हें इतना लाभ नहीं पहुँचाते जितना शुद्ध रक्त वालों को। इसमें दवा का कोई पक्षपात नहीं है और न इस बात का निषेध है कि जिन्हें अपच हो या खून खराब हो वे दवा या इंजेक्शन लें ही नहीं। ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। पर स्पष्ट बात यह है कि जिनकी आत्मा में सतोगुण की मात्रा अधिक है, उन्हें गायत्री उन लोगों की अपेक्षा बहुत अधिक, बहुत शीघ्र लाभ पहुँचाती है जिनमें दुर्गुण और कुविचार भरे हुए हैं।

सद्भावना युक्त व्यक्ति ब्राह्मण कहे जाते हैं, जिनमें ब्राह्मण मौजूद है उनके लिए गायत्री परम् जप है, परम साधन है, इस साधन का आश्रय लेकर वे अपना लोक परलोक बड़ी सरलता पूर्वक सुख शान्ति मय बना सकते हैं। उनके लिए यह गायत्री माता इतनी दयालु और दानी सिद्ध होती है जितनी शरीर को जन्म देने वाली परम करुणामयी माता भी नहीं हो सकती।

कहा भी है --

सर्व वेदमयी विद्या गायत्री पर देवता।

परस्य ब्रह्मणो माता सर्व वेदमयी सदा।

महाभाव मयी नित्या सच्चिदानन्द रूपिणी।

अर्थात्- गायत्री सर्व वेदमयी परा विद्या है। यही ब्राह्मण की माता है। यही नित्य सच्चिदानन्द स्वरूप तथा महा भावमयी भी है।

गायत्री वेद जननी गायत्री ब्राह्मणः प्रसूः।

गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन गीयते।

स्कंध पुराण - 9/51

गायत्री वेदों की माता है, गायत्री ब्राह्मण की माता है। यह गायन करने वाले का त्राण - उद्धार करती है इसलिए गायत्री कहते हैं।

किं ब्राह्म्णस्यपितरं किगु पृच्छसि मातरं।

श्रुतं चेदस्मिन् वेद्यंस पिता स पितामहः।

काठक संहिता 30।1

यह क्यों पूछते हो कि ब्राह्मण का बाप कौन है? माता कौन है? श्रुत (ब्रह्मज्ञान) ही उसका बाप और वही बाबा हैं।

ओंकार पितृ रूपेण गायत्री मातरं तथा।

पितरौ यो न जानाती स विप्रस्त्वन्यरेतसः।

ॐ कार को पिता और गायत्री को माता रूप में जो नहीं जानता, वह ब्राह्मण वर्ण शंकर है।

ब्राह्मण की माता गायत्री और पिता वेद है।

कहा भी है : -

मातात्वं च कुतः कस्य पिता कस्मात्समुद्भवः।

कुलात्कस्य समुत्वन्नं इदं ब्रह्मीति ब्राह्मणः।

गायत्री मन्तुमेवं तं पिता वेदोपि संभवः।

ब्रह्म कुल समुत्पन्नं इदं ब्रह्मीति ब्राहम्णाः॥

अर्थात् - मेरी माता कौन? पिता कौन? कुल कौन है? इसे जो जानता है वह ब्राह्मण है। गायत्री ही माता है, वेद ही पिता है, ब्रह्म ही कुल है, जो इस तत्व को जानता है, वही ब्राह्मण है।

ब्राह्मण के जीवन का लक्ष आत्मबल एवं ब्रह्मतेज को प्राप्त करना होता है। वह जानता है कि संसार में जो कुछ उत्तम है वह सभी आत्मबल और ब्रह्मतेज उपलब्ध करने पर प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए वह सम्पूर्ण आनन्दों के लिए वेद जननी गायत्री का ही आश्रय लेता है।

तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गायत्री,

तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्वी भवति।

- ऐतरेय ब्राह्मण

अर्थात्-गायत्री में जो तेज है वही ब्रह्मवर्चस है। इससे उपासक तेजस्वी और ब्रह्म वर्चस्वी हो जाता है।

जिसने ब्रह्म वर्चस प्राप्त किया उसके लिए गायत्री साक्षात् कामधेनु गौ के सामान है। उसे इसी महाशक्ति के द्वारा अपनी अभीष्ट कामना पूर्ण करने वाले वरदान मिल जाते हैं। इसलिए गायत्री को वरदात्री कहा गया है। उसे परमदेवी भी कहते है। यों सभी दैवी शक्तियाँ ‘देवी’ कहलाती हैं। पर अन्य दिव्य शक्तियों की सीमा थोड़ी-थोड़ी है। वे उपासना करने पर मनुष्य का सीमित कल्याण करती हैं। किन्तु गायत्री के लिए ऐसा कोई सीमा बन्ध नहीं है, उसके गर्भ में समस्त शक्तियाँ सन्निहित होने से परम देवी कही जाती है। सच्चे मन से उपासना करके यदि उसका थोड़ा सा भी अनुग्रह प्राप्त किया जा सके तो साधक उस परम गति को प्राप्त कर लेता है जिसके कारण लोक में सुख और परलोक में अभीष्ट शान्ति प्राप्त होती है। कहा भी है :--

वंदे ताँ पणाँम देवीं गायत्री वरदाँ शुभाम्।

यत्कृपालेशतो यान्ति द्विजा वै परमाँ गतिम्।

उस वरदात्री परम देवी गायत्री को नमस्कार है जिसकी लेश मात्र कृपा से द्विज परम गति को प्राप्त होते हैं।

ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व बहुत कुछ गायत्री उपासना पर निर्भर रहता है क्योंकि जो सद्गुण सामान्य लौकिक प्रयत्न करने पर बहुत कठिनाई से प्राप्त होते हैं वे इस उपासना के माध्यम से स्वयमेव विकसित होने लगते हैं और उन अन्तः स्फुरणाओं के जागरण से उसका ब्रह्मणत्व दिन-दिन सुदृढ़ होता जाता है। आत्मा में पवित्रता का अंश दिन-दिन बढ़ता जाता है।

जपनिष्ठो द्विज श्रेष्ठो ऽखिल यज्ञ फलं भवेत्।

सर्वेषामेव यज्ञानाँ जायते ऽसौ महाफलः॥

जपेन देवता नित्यं स्तूयमाना प्रसीदति।

प्रसन्ना विपुलान् कामान् दयान्मुक्तिंच शाश्वतीम।

यक्षरक्षः पिशाचाश्च ग्रहाः सर्पाश्च भीषणाः।

जपिनं नोयसर्पन्ति भयभीताः समन्ततः।

यावन्तः कर्मयज्ञाः स्युः प्रदिष्ठानि तपाँसि च।

सर्वे ते जप यज्ञस्य कलाँ नार्हति षोडशीम्।

- तंत्र सार

अर्थात्-जप निष्ठ द्विज सब यज्ञों के फल को प्राप्त करता है। उस पर देवता प्रसन्न होते हैं और उनकी प्रसन्नता से लोक में सुख तथा परलोक में मुक्ति प्राप्त होती है। आसुरी शक्तियाँ उसे भयभीत नहीं करतीं। अन्य सभी साधना कर्मों में जप यज्ञ अधिक फल दायक एवं श्रेष्ठ है।

जिस प्रकार जड़ को सींचने से पत्र, पल्लव, पुष्प, फल आदि सभी की प्राप्ति हो जाती है। उन सबके लिए अलग-अलग प्रयत्न नहीं करना पड़ता, उसी प्रकार गायत्री साधना में अन्य सभी साधनाओं द्वारा हो सकने वाले लाभ प्राप्त हो जाते हैं।

जप्यवेनैवतुसंसिद्धचेत् ब्राह्मणोनात्र संशयः।

कुर्यादन्यन्नवा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।

मनु 2। 97

अर्थात्- ब्राह्मण चाहे कोई अन्य उपासना करे या न करे वह केवल गायत्री मन्त्र से ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है।

गायत्री सामुपासीनो द्विजो भवति निर्भयः।

-शिव तत्व विवेक

गायत्री की भली प्रकार उपासना करने से द्विज निर्भय हो जाते हैं।

यों दैनिक “पंच यज्ञो” को लौकिक नियम धर्मों में आवश्यक नित्यकर्म माना गया है और प्रतिदिन ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, भूत यज्ञ, अतिथि यज्ञ, इन पाँच यज्ञों का करना सभी के लिए विधान है। पर आध्यात्मिक दृष्टि में अकेले गायत्री जप में पाँच यज्ञों का समावेश है। गायत्री के पाँच अंग भी पाँच ब्रह्म यज्ञ कहे गये हैं। नित्य इस उपासना के करने से पाँचों दैनिक यज्ञों का फल प्राप्त होता है।

प्रणवो व्याहृतयः सावित्रि चेत्यैत पंच ब्रह्मयज्ञ।

अहरह ब्राह्मिणं किल्विषात्मा वयन्ती।

वोधायनस्मृति

एक प्रणव, तीन व्याहृति और गायत्री मन्त्र यही पाँच ब्रह्म यज्ञ हैं। इनकी निरन्तर उपासना करने वाला ब्राह्मण पवित्र हो जाता है।

प्राचीन काल में अनेक साधकों ने इसी उपासना के द्वारा मानव जीवन की सफलता का सर्वोच्च प्रतीक ‘ब्रह्मर्षि’ पद पाया। इतना ही नहीं देवताओं ने भी इसी महामन्त्र की शक्ति से असुरों को परास्त कर अपना देवत्व स्थिर रखा।

वृद्धैः काश्यप गौतम प्रभृतिभि भृर्ग्वंगिरोत्र्यादिभिः शुक्रागस्त्य बृहस्पति प्रभृतिभिर्ब्रह्मर्षिभिः सेवितम्॥

भारद्वाजयतं ऋषीक तनयेः प्राप्तं वशिष्ठात पुनः।

सावित्री मधि गम्य शक्र वसुभिः कृत्स्ना जिता दानवाः।

अर्थात्- इस गायत्री की उपासना करके वृद्ध काश्यप्, गौतम, भृगु, अंगिरा, अत्रि भारद्वाज बृहस्पति, शुक्राचार्य, अगस्त, वशिष्ठ आदि ने ब्रह्मर्षि पद पाया और इन्द्र, वसु आदि देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त की।

इत्येवं संधिचार्याथ गायत्री प्रजपेत्सुधीः

आदि देवीं च त्रिपदा ब्राह्मणत्वादिदामजाम्।

शि. कै. 13-57

इन बातों पर विचार कर ब्राह्मण को चाहिए कि ब्राह्मणत्व प्रदान करने वाली गायत्री का जप किया करें।

बहुनाकिम होक्तेन यथावत् साधु साधिता।

द्विजन्मनामियं विद्या सिद्धि काम दुधा मता।

- शारदायाँ

अर्थात्- अधिक कहने की क्या आवश्यकता है। भली प्रकार साधना की हुई यह गायत्री विद्या द्विजों के लिए कामधेनु के समान सब सिद्धियों को देने वाली है।

इस कामधेनु का दूध ही इस जगती तल का ‘परम् रस’ कहलाता है। इसी को ब्रह्मानन्द कहते हैं। इससे मधुर आनन्द दायक और उल्लास भरी मादक वस्तु और कोई इस संसार में नहीं है। जिसे इस कामधेनु का दूध पीने को मिल गया, उसके सभी अभाव दूर हो जाते हैं, कोई वस्तु ऐसी नहीं रहती जो उसके कर-तल-गत न हो। ऐसा ब्रह्म सिद्धि प्राप्त गायत्री उपासक अपने आपको सर्व संतुष्ट, सर्व सुखी अनुभव करता है। उसके आन्तरिक आनन्द एवं उल्लास का ठिकाना नहीं रहता।

ब्रह्मानंद रसं पीत्वा ये उन्मत्त योगिनः।

इन्द्रोऽपि रंक बद्भा का कथा नृप कीटकः।

ब्रह्मानन्द रूपी परम रस को पीकर योगी जन आनंद मग्न उन्मत्त हो जाते हैं। उनके सामने इन्द्र रंक प्रतीत होता है फिर साधारण राजा अमीर जैसे कीड़े-मकोड़ों की तो बात ही क्या है।


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