कृपया बेईमानी मत कीजिये।

March 1960

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(श्री दौलतराम कटरहा दमोह)

शिवपुराण में एक कथा आई है कि एक बार विष्णु और ब्रह्मा में बड़ाई छोटाई का झगड़ा उठा। फल-स्वरूप दोनों युद्ध - भूमि में उतर आए। शिवजी ने ऊपर नीचे अपरिमित विस्तार वाले अग्नि-स्तम्भ के रूप में अवतीर्ण होकर मध्यस्थता की। अग्नि-स्कंध का पता लगाने विष्णु नीचे की ओर और ब्रह्मा ऊपर की ओर चले। ऊपर जाते हुए ब्रह्मा को मार्ग में केतकी - पुष्प मिला। उसने ब्रह्मा से कहा कि वह स्वयं स्तम्भ के बीच से गिरकर स्तम्भ के अंत का पता लगाने वर्षों से नीचे की ओर गिरता चला जा रहा है परंतु अंत का पता नहीं लगता। तब ब्रह्मा ने केतकी पुष्प से कहा कि तू मेरे साथ चलकर साक्षी भर देना कि हमने स्तम्भ के ऊपरी सिरे का पता लगा लिया है। इधर विष्णु नीचे की ओर स्तम्भ के अन्त का पता न पाकर वैसे ही लौट आए। जब विष्णु और ब्रह्मा वापस लौटने पर पुनः मिले तो ब्रह्मा ने ऊपरी सिरे का पता पा लेने की बात कही और केतकी ने साक्षी दी। विष्णु ने सरल हृदय होने के कारण ब्रह्मा के कथन पर कोई आपत्ति नहीं उठाई और ब्रह्मा का वाक्य सत्य मानकर उनका अभिनन्दन किया। पर शिवजी को ब्रह्मा की कुटिलता अच्छी नहीं लगी। जहाँ वे विष्णु के हृदय की ऋजुता (आर्जव, सरलता) से अत्यन्त प्रसन्न हुए वहाँ उन्होंने ब्रह्मा की खूब भर्त्सना भी की और उन्हें दण्डित भी किया। उन्होंने साकार रूप धारण कर विष्णु से कहा कि तुम ईश्वरत्व चाहते हुए भी सत्य पालक हो अतएव जगत में तुम्हारी मूर्ति प्रतिष्ठित होगी और तुम्हारी उपासना प्रचलित होगी।

पौराणिक कथा साहित्य को कपोल कल्पित मानने वालों से भी मैं उपर्युक्त कथा के अंतिम अंश से सार ग्रहण करने के लिए निवेदन करूंगा। विष्णु विजय और ईश्वरत्व चाहते हुए भी सत्य पालक थे। शिव ने भी उनकी सराहना की। विजय और ईश्वरत्व चाहते हुए भी हम सत्य-पालन को विशेष माने, उसे ही प्राथमिकता दें, कथा के इस संदेश मात्र को हम यहाँ से स्वीकार करें।

मनुष्य जब कोई कार्य करने के लिए अग्रसर होता है तब उसे अनेक प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है। उसके अंतर्हृदय में ही एक द्वन्द्व उठ खड़ा होता है कि आखिर मैं किस पक्ष का वरण करूं। ऐश्वर्य चाहने वाले को असत्य का अवलम्बन करने का प्रलोभन होता है किन्तु जब ऐश्वर्य की कामना उसे सत्य से विचलित नहीं कर पाती, जब वह सत्य पर दृढ़ या अडिग रहता है तब उसके हृदय का देवत्व उसके हृदय में घुसे हुए असुरत्व पर विजयी होता है और वह व्यक्ति महान बन जाता है। दानत्व पर देवत्व की विजय ही महान बनने की प्रक्रिया है। विष्णु ने भी विजय और ईश्वरत्व के प्रलोभन पर विजय पाई अतः वे त्रैलोक्य में पूज्य बने।

जो भी व्यक्ति संसार में महान बनता है वह प्रलोभनों पर विजय पाने के अनन्तर ही महान बनता है। प्रलोभनों पर जितनी ही बड़ी उसकी विजय होती है उतना ही अधिक वह महान भी होता है। वस्तुतः प्रलोभनों पर विजय ही मनुष्य ही महानता की कसौटी है। महापुरुषों के जीवन की उपलब्धियों का हमें इसी कसौटी पर कसकर आँकना चाहिए। हम यहाँ प्रातः स्मरणीय मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के लोकोत्तर चरित को इस कसौटी पर कस कर देखें और उनके चरित्र से अनुपम शिक्षा ग्रहण करें।

पिता दशरथ राम को राज्य देने का प्रस्ताव करते हैं किंतु माता कैकेयी इस प्रस्ताव का जोरदार विरोध करती हैं। अब राम के सामने राज्य का प्रलोभन है, माता कौशल्या को सुखी देखने का प्रलोभन है, पिता की जीवन - रक्षा का प्रलोभन है और अन्य स्वजनों को वियोग - जन्य दुख से दूर रखने का प्रलोभन है किंतु वे नर - श्रेष्ठ इन प्रलोभनों पर सहज ही विजय प्राप्त कर लेते हैं और लक्ष्मण से दृढ़ता पूर्वक कहते हैं --

यस्याः मदभिषेकार्थे मानसं परितप्यति

माता नः सा यथा न स्यात्सविशंका तथा कुरु॥

तस्याः शंकामयं दुःखं मुहूर्तमपि नोत्सहे

मनसि प्रति संजातं सौमित्रऽहमुपेक्षितुम्॥

वाल्मीकीये 2-22-67

“मेरे अभिषेक से जिसके मन में कष्ट हो रहा है वह हमारी माता कैकेयी जिस प्रकार शंकित न हों वैसा करो। उसके मन में शंका से भी उत्पन्न दुःख की उपेक्षा एक क्षण के लिए भी मैं नहीं कर सकता।” रामचन्द्र तो सत्य पर इतने दृढ़ हैं, राज्य के प्रलोभन पर इस तरह विजय पाए हुए हैं कि उस के लिए भाई भरत का तनिक भी विरोध नहीं करना चाहते। वे भाई भरत पर हाथ उठाने की कौन कहे संसार के किसी भी प्राणी पर अन्याय पूर्वक हाथ नहीं उठाना चाहते। वे अपना व्यक्तिगत अधिकार विसर्जित करने को सदैव तैयार हैं पर किसी अन्य के अधिकार का अपहरण भी नहीं करना चाहते। वे चाहते तो वनवास के कष्टों को न भोगकर, किसी भी राजा का राज्य हड़प कर अथवा कोई प्रिय कार्य कर सहज ही राज्य सुख भोगते किन्तु इन्द्रिय-गत सुखों के प्रलोभन पर उनकी विजय इतनी महान थी कि उनके सरल हृदय ने इस बात की कभी कल्पना तक न की। एक अन्य प्रसंग पर उन्होंने लक्ष्मण से कहा-

नेयं मम मही सौभ्य दुर्लभा सागराम्बरा।

नहीच्छयम धर्म्मेण शक्रत्वमपि लक्ष्मण॥

वाल्मीकीये 2- 97-7

“समुद्र से घिरी हुई यह पृथ्वी मेरे लिए दुर्लभ नहीं है पर अधर्म के द्वारा तो इन्द्र का भी पद मैं नहीं चाहता।” राम अधर्म के प्रलोभन से इस प्रकार दूर खिंचे हुए हैं कि वे ब्राह्मण श्रेष्ठ जाबालि को उत्तर देते हुए कहते हैं -

नैव लोभान्न मोहाद्वा न चाज्ञानात्तमोन्वितः।

सेतुँ सत्यस्य भेत्स्यामि गुरोः सत्य प्रतिश्रवः॥

वाल्मीकीये 2।106।17

“लोग मोह या अज्ञान- रूप तुम्हारे द्वारा प्रेरित होने पर भी सेतु के समान पिता के सत्य का मैं त्याग नहीं करूंगा क्योंकि मैं सत्य प्रतिज्ञ हूँ”। इस प्रकार हम देखते हैं कि राम किसी भी प्रलोभन में आकर न्याय मार्ग से विचलित होना नहीं जानते। संपूर्ण प्रलोभनों पर उनकी विजय पूर्ण है। वे कदाचित असद् ग्राही नहीं है अर्थात् बुरे उपायों से किसी भी वस्तु का संग्रह करने वाले नहीं हैं। उनमें हम विष्णु के समान ही प्रलोभनों पर विजय पाने की क्षमता पाते हैं अतएव हम इस दृष्टि से उन्हें विष्णु का अवतार कह सकते हैं। उनका पुण्य चरित्र हमें यह सीख देता है कि किसी भी प्रलोभन में आकर हमें असौम्य मार्ग का अवलम्बन नहीं करना चाहिए।

मनुष्य के सौम्य आचरण का प्रभाव उन सभी व्यक्तियों पर पड़ता है जो उससे संपर्क रखते हैं। उसका विशेष प्रभाव तो उन बंधु-बाँधवों व मित्रों पर पड़ता है जो उसके निकट संपर्क में रहते हैं। फिर उसके निकटतम संपर्क में रहने वाले पुत्र पुत्रियों पर उसकी जीवन-चर्चा के प्रभाव का क्या कहना। अज्ञात-रूप से वे अनायास ही अपने माता-पिता की जीवन-चर्या को और उनके चरित्र-गत उत्तम संस्कारों को आत्मसात् कर लेते हैं, अपने स्वभाव व चरित्र में उतार लेते हैं और इस तरह उत्तम संस्कारों का उत्तराधिकारी होने से उनका जीवन भी अधिकाधिक समृद्ध और उज्ज्वल होता है। इस तरह उत्तम आचरण करने वाले सदाचारशील व्यक्ति को उत्तम संतान के रूप में अपने त्याग और तपस्या का सुफल मिलता है। यदि महापुरुषों के माता- पिता और पूर्व पुरुषों के जीवन पर एक दृष्टि डाली जाय तो पता चलेगा कि उनके माता पिता अथवा पूर्वजों को वे उनकी तपस्या के परिणाम स्वरूप ही प्राप्त हुए। दूसरे शब्दों में हम कदाचित यह भी कह सकते हैं कि महापुरुषों का उत्कर्ष उनके माता पिता अथवा पूर्वजों की तपस्या और आत्म-त्याग के कारण ही हुआ। कहा भी है --

“बाढ़ै पूत पिता के धर्मा,

खेती उपजै अपने कर्मा”।

हमारी यह धारणा तब और भी अधिक दृढ़ हो जाती है जब हम गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार करते हैं कि किसी भी चरित -हीन या कुसंस्कारी व्यक्ति की संतान तेजस्वी नहीं बनी और किसी भी तेजस्वी पुरुष के पूर्व पुरुषों में उत्तम संस्कारों का अभाव नहीं रहा।

आज के युग को भौतिक वाद का युग कहा जाता है। लोग अज्ञान वश कहते हैं कि बेईमानी खूब फलती फूलती है और ईमानदारी की रोटियों के लाले पड़ते हैं। दुर्भाग्यवश जनता बिलकुल भूली हुई है कि बेईमानी का उन पर तथा उनकी संतान पर कैसा घातक प्रभाव पड़ता है। इस संबंध में मैं अपनी ओर से कुछ न कह कर अमेरिका के आदरणीय विलियम डेविट हाहड डी.डी. के विचार उनकी “प्रेक्टिकल इथिक्स” से उद्धृत कर देना अधिक उपयुक्त समझता हूँ। “बेईमानी की प्रवृत्ति मनुष्य की नैतिक चेतना को इतनी अधिकता से हजम कर जाती है कि उसके कारण व्यक्ति की संतान में भी मानसिक और नैतिक दुर्बलता आ जाती है। अनुवाँशिकता का वैज्ञानिक अध्ययन यह बताता है कि बेईमानी की प्रवृत्ति से व्यक्ति का जो पतन एवं ह्रास होता है वह अनेक प्रकार की विकृतियों के परिणामों की अपेक्षा कहीं अधिक घातक एवं गंभीर होता है। एक बेईमान व नीच प्रकृति के व्यक्ति के पुत्र अथवा पुत्री के विकास में पिता - माता के संस्कारों द्वारा प्राप्त उनकी पाप - प्रवणता एवं असामाजिक प्रवृत्ति सतत् बाधक सिद्ध होती है और इसका मुआवज़ा (परिहार) पिता द्वारा विरासत में दी गई किसी भी धन राशि से नहीं हो सकता”। एक अन्य लेखक माडस्ली का आदरणीय हाइड महोदया उद्धरण देते हैं जिसमें वह लिखता है कि “यदि मैं इस संबंध में अपने निरीक्षण के परिणामों पर विश्वास करूं तो मैं ऐसे किसी अन्य व्यक्ति को नहीं जानता जिसके द्वारा अपनी संतान में पागलपन पैदा किए जाने की उतनी संभावना है जितनी कि उस व्यक्ति के द्वारा जो अपने व्यवहार में अत्यन्त संकीर्ण स्वार्थी, संशयालु कपटी, दूसरों को धोखा देने वाला है और जो कभी अपने अन्तःकरण तथा अपने साथियों के साथ एकात्मता, ईमानदारी और सच्चाई के संबंध स्थापित नहीं कर पाता। ऐसी प्रवृत्ति के माता-पिताओं में अन्य विकारों से वस्तुतः माता पिताओं की अपेक्षा अपनी संतान से पागलपन उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है क्योंकि ऐसे माता-पिताओं की संपूर्ण नैतिक चेतना रुग्ण एवं दूषित हो जाती है और वह उनके स्वभाव में बहुत भीतर उतर कर किसी विशेष विकृति की अपेक्षा अधिक घातक सिद्ध होती है।”

हमारे दीर्घ-दर्शी ऋषियों ने शायद इसी से सचाई, सरल स्वभाव और निष्कपट आचरण पर बहुत जोर दिया है। पिप्पलाद ऋषि (प्रश्नोपनिषद् में) सरलता और निष्कपटता की महिमा बखानते हुए कहते हैं “तेषामसौ विरजो ब्रह्मलोको न येषु जिह्ममनृतं न माया चेति” (अध्याय 1- मंत्र 16) “अर्थात्” जिनमें कुटिलता, अनृत मायाचार (कपट) नहीं हैं उन्हें ही यह विशुद्ध ब्रह्मलोक प्राप्त होता है” सत्य की प्रशंसा से ऋषि ने कहा है। “तेषामसौ ब्रह्म लोको येषाँ तपो ब्रह्मचर्य्यं, येषु सत्य प्रतिष्ठितम्” (अध्याय 1-मंत्र 15) अर्थात् “जिनमें कि तप और ब्रह्मचर्य है तथा जिनमें सत्य स्थित है उन्हीं को यह ब्रह्म लोक प्राप्त होता है”।

धन के लिए कुटिल व असत्यपूर्ण साधनों का अवलम्बन मनुष्य को लेते देख सहज ही प्रश्न उठ सकता है कि आखिर मनुष्य किस प्रेरणा से ऐसा करता है? मैं सोचता हूँ कि मनुष्य अपने व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से ऐसा बहुत कम करता है। मनुष्य अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए या संतान के सुख के विचार से ही अधिकतर ऐसा अपयशकर उपाय अपना कर पैसा कमाता है। किंतु मनुष्य यह भूल जाता है कि न्याय पूर्ण साधनों से हट कर कमाया हुआ धन तो उस हीरे की कनी के समान है जिसके साथ खेलते-खेलते कोई बालक उसे अपने मुँह में रख लेता है। और मृत्यु की गोद में सो जाता है। अन्याय से धन अर्जित करने वाले की भी प्रायः आध्यात्मिक मृत्यु हो जाती है और उस धन से जो भी लोग पलते हैं उन सबका भी उस कृत्य का समर्थन व अनुमोदन करने से प्रायः आध्यात्मिक अंत हो जाता है, जो भी व्यक्ति चाहता हो मेरी संतान वीर्यवान तेजस्वी, आयुष्मान्, यशस्वी, विद्वान् बलवान्, धनवान एवं भाग्यवान बने उसे चाहिए कि वह अन्यायोपार्जित धन को चौथ के चन्द्रमा के समान ही त्याग दे। संतान को अन्याय की कमाई खिला खिला कर हम कभी महान् नहीं बना सकते। प्रत्युत साधारण परिस्थिति के दंपत्ति भी यदि न्याय पर आरुढ़ रहें अथवा अन्य किसी चरित्र वर्द्धक व्रत का अनुष्ठान करें तो वे भी असाधारण संतान को जन्म दे सकते हैं। यज्ञ व तप से श्रेष्ठ संतति प्राप्त होती है यह बात अनुभव - सिद्ध है। अत्यन्त साधारण स्थिति के माता - पिता ने ही तो अपने स्वभाव को ऋजुता के कारण महादेव गोविन्द रानाडे और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे नर-रत्नों को अपने पुत्र- रूप में पाया था। किंतु जिन लोगों को यह विश्वास रहा कि “धन तो बड़ा बने रहेंगे” वे सच्चे अर्थों में न कभी स्वयं बड़े बने और न उनकी संतान ही बड़ी बनती देखी गई। ऐसे लोग सचमुच सदा जीते रहे अर्थात् जीवित भी रहे और विजयी भी बने रहे।


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