होली का वास्तविक स्वरूप

March 1960

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(डॉ. चमनलाल गौतम)

त्यौहारों की महत्ता को सभी स्वीकार करते हैं। मनुष्य जब निरन्तर एक काम करता रहता है, चाहे वह उसके लिए कितना ही रुचिपूर्ण क्यों न हो, वह उससे ऊब जाता है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष उसमें सजीवता लाने के लिए काम में परिवर्तन कर लेते हैं, कुछ समय के लिए कुछ और काम करने के पश्चात् वह पहिले वाला काम करने लगते हैं। इस परिवर्तन अथवा पहिले के काम में कुछ विश्राम होने से वह कार्य पूर्ववत् होने लगता है। इसी तथ्य के आधार पर हिन्दू धर्म में त्यौहारों की व्यवस्था की गई है। इन त्यौहारों में इस उद्देश्य की पूर्ति के साथ-साथ अन्य महत्वपूर्ण रहस्य भी छिपे हुए हैं। नौकरी, व्यापार आदि के व्यस्त कार्यक्रम से अवकाश प्राप्त करके स्वादिष्ट भोजन, सुन्दर वस्त्र, व अन्य मनोरंजन के साधन तो रहते ही हैं जिससे मुर्दा मन में भी नव जीवन का संचार हो जाता है। वह कुछ समय के लिए अपने नित्य के चलने वाले कार्य को भूल जाता है और जिस प्रकार से मुरझाई हुई फल की कली खिल जाती है, उसी प्रकार से उसका मन खिल जाता है। उसके इस प्रफुल्लित मन से शारीरिक व मानसिक शक्तियों का विकास होता है। गृहस्थी व आजीविका के साधनों के द्वारा जो चिन्ताएं उसे खा रही थीं, उस क्षति की कुछ पूर्ति इन अवसरों पर हो जाती है।

त्यौहार केवल मनोविनोद के लिए मनाए जाते हों ऐसी बात नहीं है। यह जीवन को उज्ज्वल और महान बनाने का साधन भी बनते हैं। यह हमारे लिए नवीन सन्देश लाते हैं। यह जीवन को श्रेष्ठ व आदर्श बनाने वाले सिद्धान्तों के विचार ही हमारे सामने नहीं रखते वरन् उन विचारों को क्रियात्मक रूप में हमारे जीवन को व्यवहार में ला देते हैं। त्यौहारों की इस विशेषता के कारण इन्हें मनाने पर अधिक बल दिया जाता है।

हमारे मनीषी ऋषियों ने उन विचारों के विस्तार का माध्यम इन त्यौहारों को बनाया जिसमें उनको आशंका थी कि इनमें व्यक्तिगत पतन और सामाजिक अस्तव्यस्तता होना संभव हो सकती है। आज जाति पाँति के झगड़ों से हमारा सामाजिक ढांचा जर्जर होता जा रहा है। संगठन दिन-दिन शिथिल होता जा रहा है। गाँधीजी ने सबको एकता के सूत्र में बाँधने के लिए ही सबको गले लगाने का उपदेश दिया था। यह सामाजिक विकृति अब बढ़ती जा रही है। इस समस्या को सुलझाने का एक सुन्दर साधन है होली का त्यौहार जिसमें छोटे बड़े सभी अपनी सामाजिक ऊंच नीच, अमीरी गरीबी पद प्रतिष्ठा आदि को भूल जाते हैं एक दूसरे से गले मिलते हैं। गुलाल व रंग द्वारा अपने सम्बन्धों का प्रदर्शन करते हैं और एक दूसरे के साथ बेतकल्लुफी के साथ व्यवहार करते हैं। पिछले वर्ष में एक दूसरे के द्वारा हुए मनोमालिन्य को भूल जाते हैं। विरोधी भावों से जो फूट के बीज उत्पन्न हो रहे थे, वह समाप्त हो जाते हैं और उसके स्थान पर सामूहिकता और संगठन की नींव रखी जाती है। बिछड़े हुए फटे हुए हृदयों को यह त्यौहार मिला देता है। इससे एक नव उल्लास उत्पन्न होता है।

होली के उत्सव में एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें समानता के भाव आते हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सब एक साथ मनोरंजन करते हैं। इसमें वर्णाश्रम धर्म की कोई मर्यादा नहीं रहती। धर्म शास्त्रों की भी आज्ञा है कि ब्राह्मण इस दिन चाण्डाल को स्पर्श कर सकता है। इस दिन लोग अपने घरों की सफाई करते हैं, नालियों में से स्वयं कूड़ा-कचरा निकालते हैं। होली के शुभ अवसर पर जब समानता के भावों का प्रदर्शन होता है, सामूहिक सफाई व स्वच्छता के कार्यक्रम रखने चाहिए। सार्वजनिक स्थानों की सामूहिक सफाई करनी चाहिए ताकि इस कार्य को व्यवसाय के रूप में करने वाले लोगों के मन से यह हीन भाव निकल जाए कि झाड़ देना, नाली साफ करना आदि कार्य घृणित व नीच हैं, इन्हें बड़े-बड़े व्यक्ति भी करने में संकोच नहीं करते। इस हीन भाव के मन से निकल जाने से वे अपने व्यवसाय में अधिक रुचि लेंगे वरना वह अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद अलग खड़ी कर लेंगे और अपने को पृथक जाति घोषित कर देंगे। सामूहिक स्वच्छता के माध्यम से हम अपने जाति और देश के संगठन को बनाए रह सकते हैं। प्रेम भावों की वृद्धि से आपस में आकर्षण बढ़ता है। यह आकर्षण बढ़ता है। यह आकर्षण ही एकता का सूत्र है।

इस महान उद्देश्य की ओर ले जाने वाले महान त्यौहार में कुछ विकृतियाँ आ गई हैं। हास परिहास इतना विकृत हो जाता है कि वह अश्लीलता का रूप धारण कर लेता है। ग्रामों में लोग फगुआ, चौताल, और झूमर गाने लगते हैं और कुछ असभ्य लोग स्त्रियों को देखकर अश्लील गाने गाने लगते हैं। भाभियों से अश्लील पूर्ण हंसी मजाक करने की एक प्रथा समाज में घुस गई है। इस अवसर पर लोग गंदी गालियाँ देने से भी नहीं चूकते, काम वासना की तृप्ति का एक शुभ अवसर मानते हैं। कुछ लोग मनमाने ढंग से भाँग, शराब आदि का सेवन करते हैं। यह उल्लास व प्रसन्नता के माने जाने वाले साधन समाज के लिए घातक हैं। हंसी मजाक तो सभी करते हैं। इसके बिना तो जीवन नीरस हो जाएगा, यह शरीर रूपी पौधा सूख जायगा। सन्त महात्मा और महापुरुष भी मनोविनोद करते हैं परन्तु उसमें सभ्यता टपकती है। इस शुभ अवसर पर जब हमें अपने मनोभावों व चरित्र का विकास करना चाहिए हम सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करके सामाजिक पाप के भागी बनते हैं।

माना कि होली का उत्सव हर्ष और उल्लास के लिए आता है परन्तु इसमें अपने ऊपर नियन्त्रण रखना भी सीखना चाहिए। कूड़ा करकट और गंदगी फेंकने से किसी के मूल्यवान वस्त्र खराब हो जायेंगे इस पर विचार नहीं किया जाता। प्रायः ऐसा होता है कि होली के दिनों में यदि कोई व्यक्ति अच्छे कपड़े पहनकर जा रहा हो तो उस पर रंग आदि जानबूझ कर फेंका जाता है कि उसके वस्त्र खराब हो जायं। यह व्यवस्था बंद होनी चाहिए। हमें सभ्य पुरुषों की तरह व्यवहार करना चाहिए। हमें चाहिए कि भद्दे रंग और कीचड़ से होली खेलने के स्थान पर टेशू के रंग से होली खेलें। इससे एक लाभ यह भी होता है कि चेचक की बीमारी का शमन होता है। अश्लीलता का व्यवहार बंद कर जीवन को उज्ज्वल बनाने वाले भजन व गीत व उपदेशों के आयोजन करने चाहिए। अश्लीलता के विष वृक्ष को समाज से उखाड़ फेंकने के लिए अश्लीलता नाम की राक्षसी का कागज का पुतला बना कर, गाजे बाजे के साथ जुलूस निकाल कर उसके पूतले व अश्लील चित्रों व साहित्य की होली जलाई जानी चाहिए ताकि लोग यह समझें कि इस घातक प्रथा का बहिष्कार करना चाहिए। गंदे चित्रों को घरों से हटवाने के सामूहिक प्रयत्न होने चाहिए। टोली बना बनाकर घर-घर धर्मफेरी करनी चाहिए। और लोगों से कामुकता का प्रदर्शन करने वाले चित्रों को हटा कर शिक्षा-प्रद वेद वाक्यों को टाँगने की प्रार्थना करनी चाहिए। इस सामूहिक प्रयास के अतिरिक्त गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओं को यह संकल्प लेने चाहिए कि वह आगामी वर्ष में 24, 54 या 108 घरों से अश्लील चित्र हटवाकर वेद वाक्य लगावेंगे अथवा गाली देने की गंदी आदत, सिनेमा, काम वासना को भड़काने वाले साहित्य को पढ़ना छुड़वायेंगे।

वास्तव में होली जलाने का आधुनिक रूप यज्ञ का ही परिवर्तित रूप है। आज लोग केवल लकड़ी जलाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं। पूर्वकाल में यह सामूहिक यज्ञ का रूप था। यज्ञ की प्रथा का लोप होने से इसका शुद्ध रूप भी विकृत हो गया है। अब हमें इसका पुनरुत्थान करना है। यज्ञ हमारी भारतीय संस्कृति का पिता माना गया है। समय के फेर से जो विकृति इसमें आ गई है, उसका सुधार करना चाहिए। होली के शुभ अवसर पर गायत्री परिवार की प्रत्येक शाखा में सामूहिक यज्ञ होने चाहिए। यज्ञ के साथ-साथ प्रवचन आदि की भी व्यवस्था रहनी चाहिए ताकि जिन विचारों को पहिले व्यक्त किया गया है उनको कार्यान्वित करने की प्रेरणा दी जाए। इस समय पके अन्न की बालें, जौ आदि को सेंक कर उसका प्रसाद वितरण करना चाहिए।

आदर्श जाति के इन आदर्श त्यौहारों को हम आदर्श रूप से ही मनाएं ताकि उनमें छिपे जीवन नीति के उत्तम सिद्धान्तों को व्यवहारिक रूप देकर उन्नति के महान पथ पर अग्रसर हो सकें।


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