(श्री योगेश कुमार जोशी मण्ड्रेला)
सुधोपम तुलसी के व्याख्यान को सुनकर महर्षि नारद ने भगवान विष्णु से नम्रता पूर्वक पूछा “भगवन्! वेद जननी गायत्री की उपासना पहले किस-2 ने की थी।”
ब्रह्मणा वेद जननी पूजिता प्रथमे मुने।
द्वितीये च देव गणोस्तत्पश्चाद्विदुषाँ गणौ।
तथा चाश्वपतिः पूर्व पूजयामास भारते॥
भगवान विष्णु ने नारद जी से कहा “हे मुने वेद जननी पहले ब्रह्मा से, दूसरे देव गणों से, तत्पश्चात् विद्वत् गणों से पूजित हुई। तदनन्तर भारत में अश्वपति ने इसकी आराधना की।
“अश्वपति कौन था?” नारद ने निज जिज्ञासा नारायण से निवेदित की। उसने सबके द्वारा पूजनीया सावित्री की विशिष्ट आराधना कैसे और क्यों की। प्रभो! कृपया मेरी जिज्ञासाओं का समुचित उत्तर देकर मुझे अनुग्रहीत करें।”
नारायण ने कहा “नारद! शत्रुओं को निस्तेज और उनकी शक्ति का परिमर्दन करने वाला नरवरेन्द्र अश्वपति भद्र देश का राजा था। उसके राज्य में धन धान्य, सुख-समृद्धि, कला-कौशल, ज्ञान -विज्ञान सभी यथेष्ट मात्रा में थे। गौ ब्राह्मण साधु महात्माओं की सेवा करके वह अपना इह और परलोक सुधार रहा था। न्याय-शीला सम्पन्न उस राजा की महिषी निज धर्म परायण, सती साध्वी मालती सन्तान प्राप्ति के लिए वशिष्ठ जी के आदेश से गायत्री की आराधना में अपना समय लगाकर कृतार्थ होती थी।”
साच राज्ञी महासाध्वी वशिष्ठ स्योपदे शतः।
चकारा राघने भक्तया सावित्र्या श्वैव नारद॥
भगवान विष्णु ने नारद से कहा “महामुने! राजा और रानी को सावित्री की आराधना करते हुए जब कुछ दिन व्यतीत हो गये तो एक दिन आकाशवाणी हुई कि तुम दश लक्ष गायत्री का जप करो।”
“शुश्रावा काशवाणीञ्च नृपेन्द्रश्चा शरीरिणीम।
गायत्री दशलक्षञ्च जपं कुर्विति नारद॥”
उन्होंने अशरीरिणी आकाशवाणी को सुना। (एवं उसके अनुसार) 10 लक्ष जप का अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया। प्रातः काल ब्रह्म बेला में शैय्या त्याग करके शौच स्नानादि से निवृत्त होकर सपत्नीक राजा संध्या करता था। तत्पश्चात् वेद जननी गायत्री माता के विग्रह का षोडशोपचार पूजन करते थे। प्रातः कालीन जपादि कर्त्तव्यों से निवृत्त होकर अपनी धर्मपत्नी के सहित अश्वपति मध्याह्न की पूजा किया करते थे। रात्री में, नीराजन, स्तोत्रादि पाठ के पश्चात, सन्निकट रहने वाले गायत्री उपासक परस्पर गायत्री विषयक ज्ञान विज्ञान पर विचार-विमर्श किया करते थे। एक दिन महर्षि पराशर भी उस विचार गोष्ठी में उपस्थित हुए। महर्षि ने उपस्थित समुदाय की उपदेश श्रवण की लालसा को पूर्ण करते हुए सुधा प्रवर्षिणी वाणी में सदुपदेश दिया। गायत्री जप के महत्व का दिग्दर्शन कराते हुए, पराशर ने कहा -
“सकृज्जपश्च गायत्र्या पावं दिन कृतं हेरत्।
दशघा प्रजपान्नृणा दिवारात्र्यघ मेवच ॥”
अर्थात् गायत्री के एक बार के जप से दिन में किए हुए पाप, तथा दश बार गायत्री मन्त्र का उच्चारण करने से अहोरात्र में किए हुए पापों का विनाश हो जाता है।
“शतघा च जपाच्चैवं पापं मासार्जितं परम्।
सहस्रधा जपाच्चैव कल्मषंवत्सरार्जितम्॥
लक्ष जन्म कृतं पापं दशलक्षं त्रि जन्मनः।
सर्व जन्म कृतं पापं शतलक्षो विनश्यति॥”
“एक सौ जप से एक मास के अर्जित पाप, एक सहस्र जप करने से एक वर्ष के अर्जित पाप, एक लक्ष जप से एक जन्म के पाप, दश लक्ष जप करने करने से तीन जन्म के तथा शतलक्ष (एक कोटि) गायत्री जप करने से सकल जन्म जन्मान्तरों के पापों का विनाश हो जाता है।”
“करोति मुक्तिं विप्राणाँ जपोदश गुण स्ततः।
करं सर्प फणाकारं कृत्वातु ऊद्ध्व मुद्रितम्॥”
महर्षि पराशर कहते हैं कि पूर्वाभिमुख होकर, हाथ को सर्प फणाकृति की उर्ध्व मुद्रा से रखकर किए हुए जप का दश गुणित फल होता है। इस प्रकार के जप के लिए श्वेत कमल के बीजों की अथवा संस्कृत स्फटिकादि की माला प्रशस्त कही गई है।” इसके करने से क्या? इसका फल महर्षि मद्रदेश के सम्राट अश्वपति से कहते हैं।
“एवं क्रमेण राजर्षे दश लक्षं जपं कुरु।
साक्षात् द्रक्ष्यसि सावित्रीं त्रिजन्म पातकक्षयात्॥”
हे राजर्षे! इस क्रम से दश लक्ष जप करो। एतत् फलस्वरूप तीन जन्म के पापों का क्षय हो जावेगा, इसलिए तुम साक्षात् सावित्री के दर्शन करोगे।”
भगवान विष्णु देवर्षि नारदजी से कहते है :--
“दत्वा सर्वं नृपेन्द्राय प्रययौ स्वालयं मुनीः।
राजा सम्पूज्य सावित्री ददर्श वरमाप च॥”
इस प्रकार मुनि राजा के लिए सर्वस्व देकर अपने आश्रम को चले गए और सावित्री को पूजकर राजा ने दर्शन और वरदान को प्राप्त किया।”
लोक कल्याण की भावना से अभिप्रेरित होकर नारदजी ने भगवान विष्णु से पूछा --
“नृपः केन विधानेन संपूज्य श्रुति मातरम्।
वरञ्च किं वा संप्राप वद सोऽश्वपतिनृपः॥”
नरेन्द्र अश्वपति ने किस विधान से वेद माता को पूजकर, क्या वरदान प्राप्त किया?”
“जानामि ते महाराज यत्ते मनसि वर्तते।
वाञ्धितं तव पत्न्याश्च सर्वं दाग्यामिनिश्चितम्।
साध्वी कन्याभिलाषञ्च करोतितव कामिनी।
त्वं प्रार्थयसि पुत्रंच भष्यति क्रमेणते॥”
हे नरवरेन्द्र! मैं तेरी और तेरी पत्नी की अभिलाषा को जानती हूँ। मैं तुम दोनों की कामनाओं को पूर्ण करूंगी। तेरी साध्वी धर्मपत्नी कन्या की अभिलाषा करती है, और तुम पुत्र की अभिलाषा रखते हो। तुम दोनों की मनोकामना क्रमेण पूर्ण होगी।” यह वरदान देकर वेदमाता ब्रह्मलोक को चली गई। राज राजेश्वर अश्वपति की अपेक्षा सावित्री देवी ने अपने पुत्री मालती देवी की इच्छा पूर्ति को प्राथमिकता देकर नारी की महत्ता का उदाहरण विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया।
“आराधनाच्च सावित्र्य बभूव कमला कला।
सावित्रीति च तन्नाम चकाराश्वपति नृपः॥”
आदिशक्ति सावित्री आराधना से नृप दंपत्ति को प्रथम कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। यह कन्या सावित्री की आराधना से प्राप्त हुई थी इसलिए अश्वपति ने उस बालिका का नाम भी सावित्री रखा।
यह “ब्रह्मदैवर्त्त पुराण के 23 वें अध्याय को सावित्री-उपाख्यान” से तीन उद्देश्यों का प्रतिपादन करता है--
“सा च राज्ञीमहासाध्वीवशिष्ठस्योपदेशतः।
चकाराराधनं भक्त या सावित्र्याश्चैव नारद॥”
इस श्लोक से स्पष्ट है कि स्त्रियों को गायत्री अधिकार है।
दूसरे वह सदा से ऋषि- मुनियों द्वारा समर्थित रहा है। वशिष्ठ जी जैसे महर्षि ने स्वयं, अश्वपति की रानी मालती को उपदेश दिया था कि तुम सावित्री की आराधना करो। यदि स्त्रियों को वेदाधिकार नहीं होता तो वशिष्ठ जी उसे प्रोत्साहित नहीं करते किन्तु उसका विरोध ही करते। और यदि राज भय से विरोध नहीं करते तो कम से कम तटस्थ अवश्य रहते। किन्तु इस उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि स्त्रियों को गायत्री अधिकार सदा से है और वह श्रुति-स्मृति विहित है।
(2) साध्वी कन्याभि लाषञ्य करोति तव कामिनी।
त्वं प्रार्थयसि पुत्रंच भविष्यति क्रमेण ते ॥
वेद जननी ने कहा “तेरी पत्नी कन्या चाहती है और तुम पुत्र चाहते हो। अभिलाषा तो दोनों की पूर्ण होगी पर क्रम से अर्थात् पहले तो स्त्री की अभिलाषा से कन्या रत्न की उत्पत्ति होगी।”
यदि राजा और रानी की एक ही अभिलाषा होती तो यह निर्णय करना कठिन था कि सावित्री अधिक प्रसन्न किसकी आराधना से हुई। अर्थात् पुरुष की आराधना से या स्त्री की आराधना से किन्तु हमारा सौभाग्य है कि उनकी कामना भिन्न भिन्न थी। जगजननी सावित्री ने पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक श्रेष्ठ है इसका निर्णय स्पष्ट शब्दों में ही कर दिया कि पहले तुम्हारी स्त्री की अभिलाषा पूर्ण होगी। इससे यह सिद्ध होता है कि गायत्री पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों पर शीघ्र प्रसन्न होती है।
(3)”आराधनाच्च सावित्र्या बभूव कमलाकला।”
अर्थात् सावित्री की आराधना कभी भी निष्फल नहीं होती। अश्वपति दंपत्ति ने सुसंतति की प्राप्ति के लिए आराधना की थी उनकी कामना को वेदमाता ने पूर्ण किया।