हमारा जीवन और उसका सनातन रहस्य

March 1960

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(श्री भगवान सहाय जी वशिष्ठ)

युगों-युगों से मानव बुद्धि जीवन के वास्तविक रहस्य की जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रही है। ऋषियों मुनियों, पीर पैगम्बरों ने जीवन को खोजा। फलस्वरूप उन्होंने जो कुछ पाया उससे मानव समाज का मार्ग दर्शन किया। कितनों ने जीवन के रहस्य को समझा, आत्मसात किया ? किन्तु मानव समाज के लिए आज भी यह प्रश्न उतना ही जटिल और रहस्यमय बना हुआ है। “जीवन क्या है? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए प्रचुर साहित्य दर्शन शास्त्र भरे पड़े हैं। जिन्होंने इसका उत्तर प्राप्त किया वे आज भी अपने अनुभव सिद्ध तथ्यों में इस प्रश्न का समाधान कर रहें है किन्तु जन साधारण के लिए यह प्रश्न उतना ही टेढ़ा और रहस्य मय प्रतीत हो रहा है।

जीवन की एक कठिनतम ग्रन्थि है किन्तु जितनी कठिन है उतनी ही यह सरल भी है। सूर्य का प्रकाश कृत्रिम साधनों द्वारा ठीक असली रूप में प्राप्त करना असम्भव है किन्तु वही सूर्य का प्रकाश प्रातः काल होते ही सहज सरलता पूर्वक प्राप्त हो जाता है। ठीक इसी प्रकार जीवन के रहस्य का पता सैकड़ों ग्रन्थों का अध्ययन करके भी समझ में नहीं आता। पर वस्तुतः दो वाक्यों से भी उसका रहस्य जाना जा सकता है। यही इस जीवन का सौंदर्य है, महानता है।

उपनिषद् में एक स्थान पर कहा गया है-

“यमैवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा

“विवृणुते तनूँ स्वाम” अर्थात् जिसे वह धारण करले, वरण करले, उसी को वह वह प्राप्त हो जाता है। वह ब्रह्म उसी के समझ अपने आपको निरावृत करता है। ठीक यही बात जीवन के संबन्ध में लागू होती है। जो व्यक्ति स्वयं जीवन को प्रेम करते हैं, उसका जीवन स्वयं वरण करते हैं, उनके समक्ष इसके रहस्य मय पर्त उतनी ही सरलता से खुल जाते हैं। जैसे प्रातःकाल के समय सूर्य उदय हो जाता है।

जीवन का एक और महान रहस्य है। वह यह कि इसे जिस-जिस दृष्टिकोण से देखा जाय यह उसी रूप में प्रकट हो जाता है। जिसका जैसा दृष्टिकोण रहा उसके लिए जीवन वैसा ही दिखाई दिया। उदाहरणार्थ किसी ने इसे मिथ्या नश्वर एवं भोग काल समझा और कहा “ब्रह्मसत्यं जगत मिथ्या”। दार्शनिकों ने देखा जीवन प्रज्ञा स्वरूप है। भक्तों ने जीवन के अनन्त आनन्द सागर में सराबोर कर दिया किसी ने इसे बड़ी-2 ऋद्धियों सिद्धियों का खजाना समझा। किसी ने इसे वसुधा पर सुख, आनन्द, मौज ऐश्वर्य भोग, शालीनता उपभोग का साधन माना। कइयों ने अपनी समन्वय बुद्धि से इसमें उक्त में से कई बातों का समन्वय भी किया।

प्राचीन तथा आधुनिक तथ्यों का अध्ययन एवं सम्मिश्रण करने पर एक नवीन तथ्य का सूत्रपात होता है उसके अनुसार जीवन को किसी विशेष अर्थ की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता और न ही उसका अर्थ केवल मात्र एक ही पहलू से किया जा सकता। जीवन एक स्वतंत्र इकाई नहीं वरन् विश्व की प्राण धारा का एक अंग है। जिसका उद्देश्य है निरन्तर की गतिशीलता, सतत प्रवाह इस अनन्त गतिशील प्राणधारा का कभी क्षय नहीं हो पाता। इसका स्वभाव है प्राणवान रहना, आगे बढ़ना।

किसी को पदार्थ तत्व आदि की गति शीलता प्रवाह धारा को कायम रखने के लिए आवश्यक है कि एक स्थान पर अपने आपको दूसरे स्थान के लिए उत्सर्ग किया जाय साधारण शब्दों में अपने अस्तित्व के अंश को खोकर दूसरे से मिला जाय अपने स्थान का दूसरे स्थान के लिए छोड़ कर आगे बढ़ा जाय। इसी से प्रवाह स्थिर रह सकता है। यदि नदी में बहने वाले पानी का कोई अंश अपने स्थान को छोड़कर आगे नहीं बढ़े और पीछे आने वाले के लिए स्थान न दे तो गति अवरुद्ध हो जायगी प्रवाह बन्द हो जायगा। अतः प्रवाह को जारी रखने के लिए आवश्यक है कि खुद को दूसरे के लिए मिटाया जाय। अपने स्थान को दूसरे के लिए छोड़ा जाय।

तात्पर्य है कि अपने आपको उत्सर्ग करने पर ही गतिशीलता कायम रह सकती है अर्थात् गतिमय होने के लिए अपने आपको देने के लिए तैयार करना आवश्यक है।

गति ही इस सृष्टि की प्राणधारा का मूल उद्देश्य है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर पता चलेगा सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ गतिशील है। और दूसरे के लिए अपने आपको उत्सर्ग कर उसे अपना स्थान देता है। बीज अपना अस्तित्व मिटा कर वृक्ष बनता है। वृक्ष बन कर अपना सौंदर्य फल फूल दूसरों को उत्सर्ग करता है। अन्त में अपनी प्राणशक्ति अनेकों बीजों को प्रदान कर अपने आपको मिटा देता है।

प्रकृति का ठीक यही सिद्धान्त जीवन पर लागू होता है। जिस जीवन में यह परम्परा पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित है वही विश्वात्मा है। अनन्त प्राण परम्परा का अंग है। जो इसके विपरीत है वही असत् है। जो अलग-अलग रूप में है जो संकीर्ण है जो क्षण भंगुर है जो विनाश शील है जो अस्तित्व रहित है। वही मिथ्या है।

किन्तु आश्चर्य है कि विश्वात्मा का अंश मनुष्य अहं से ग्रस्त होकर अपनी स्वतन्त्र इकाई समझता है और मूक प्रकृति के उक्त सिद्धान्त के विरुद्ध अपने अस्तित्व को अमिट बनाने का प्रयत्न करता है मनुष्य प्रकृति से जो मिलता है उसे ग्रहण तो कर लेता है किन्तु अपने अहं की स्वतन्त्र इकाई के आधार पर वह उसे आगे प्रवाहित करने में कृपणता करता है यही जीवन का अभिशाप है यही सारे दुःखों का मूल कारण है यह कृपणता अपने लिए केवल ग्रहण ही करते रहने की भावना प्रकृति तथा सृष्टि के उक्त विधान के विपरीत है। विश्व की प्राण परम्परा के प्रतिकूल है और इसका प्रमुख कारण आगे के लिए अविश्वास, विश्व की अनन्त अखण्ड प्राण धारा के प्रति अनास्था ही है जिसके कारण जीवन की वास्तविक सिद्धि से मनुष्य लाभ नहीं उठा पाता और अभाव, अशक्ति, दुःख नारकीय यातनाओं का वरण करता है।

अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि आखिर इस रहस्य को कैसे हृदयंगम किया जाय? कैसे आत्मसात् किया जाय? जिसके दिव्य आलोक से सुखद एवं अमृत किरणों से जीवन अनन्त आनन्द के सागर में लहरा उठे। और यह भी निश्चय है कि जब उक्त प्रवाहधारा, गतिशीलता का अर्थ समझ में नहीं आयेगा तब तक जीवन का सही उद्देश्य कभी प्राप्त होने वाला नहीं है।

यह प्रवाह इतना स्पष्ट और सरल है कि साधारण व्यक्ति भी इसे जान सकता है। नेत्र हीन भी देख सकता है। और संसार के सारे ग्रन्थों को पढ़कर भी विशाल शास्त्र बुद्धि से यह समझ में नहीं आता। इसके लिए एक मात्र आस्था, निष्ठा की आवश्यकता है। दृढ़ आस्था और निष्ठा भी तब पैदा होती है जब मनुष्य में उसके प्रति विश्वास की गहरी जड़ जम जाती है। और विश्वास के लिए आवश्यक है कि उसका कोई न कोई आधार अवश्य मिले। इसके लिए जैसा कि पहले व्यक्त किया जा चुका है मूक प्रकृति से इसका उत्तर प्राप्त किया जा सकता है। ग्रह नक्षत्र की गति शीलता नदी का सतत प्रवाह ऋतुओं का क्रमश बदलना पेड़ पौधों का पैदा होना फलना फूलना अपनी प्राण शक्ति को दूसरे बीजों में प्रतिष्ठापित करके अपने को उत्सर्ग करना आदि से इसकी जानकारी की जा सकती है।

प्रकृति की प्रत्येक वस्तु अपने को दूसरों के लिए उत्सर्ग कर रही है। इस प्रकार इस संदेश को सुनकर विश्व की उस गतिशील अनन्त अखण्ड प्राण परम्परा के प्रति दृढ़ आस्था पैदा करनी अनिवार्य है। आस्थावान व्यक्ति जीवन के रहस्य को अवश्य समझ जायेगा और क्रियात्मक क्षेत्र में उसको आत्म के सात करेगा। आस्थावान व्यक्ति के समक्ष जीवन स्वतः अपने रहस्य को ठीक उसी तरह प्रकट कर देता है, अपने परदे अपने आप खोल देता है जैसे प्रातःकाल होते ही सूर्य अपने उज्ज्वल, धवल, प्रकाश से विश्व को आलोकित कर देता है। मनुष्य भी इसी प्रकार अपने में स्थिति अमृत भण्डार से अपनी प्यास बुझाता है।

अपने विराट स्वरूप की अनुभूति और उस अखण्ड प्राण परम्परा से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने जीवन को विश्व जीवन की एक इकाई, अपने व्यक्तित्व को विश्व मानव के एक अभिच्छन्द रूप में अनुभव करें।

किन्तु यह अनुभूति किसी बाह्य साधन से प्राप्त होना असम्भव है। बाह्य ज्ञान उपकरणों की सीमा है। सीमित वस्तु से अनन्त की अनुभूति नहीं हो सकती। उक्त अनुभूति तर्क वितर्क अथवा शास्त्रों का भार लाद लेने पर भी नहीं हो सकती। इसका आधार जीवन अपने व्यवहार से अपने अनुभव से ही अपने स्वरूप को प्राप्त होता है।

सृष्टि के उक्त रहस्य को प्रकृति के मूल सन्देश को ध्यान में रखते हुए अपना दृष्टिकोण बदल दीजिये। आपका जीवन अखण्ड विश्व प्राण परम्परा से बंधा हुआ अनुभव कीजिए। आपके पास आज जो कुछ भी है वह कितने मनुष्यों की देन है। क्या आप एक नहीं अनेकों जीवन में भी यह सब कुछ दे सकते हैं जो अब तक आपने प्राप्त कर लिया है। शास्त्र का उपदेश है- अखण्ड ही ब्रह्माण्ड की इकाई है। फिर विश्व में लेते ही लेते रहने से काम नहीं चलेगा। देने का क्रम भी जारी रखना आवश्यक है। जो जीवन आपको प्राप्त हुआ है वह लेकर रख लेने के लिए नहीं वरन् उसे अनेकों गुना बढ़ाकर देते रहने के लिए है। दूसरे दीपों को यह ज्योति सौंपने के लिए ही वह तुम्हारे पास व अखण्ड रूप में जलती रहनी चाहिए।

धन्य हैं वे जो जीवन को प्राप्त कर उसका समर्पण दूसरों को करते हैं। उत्सर्ग करने वाला ही वास्तव में जीवन को चाहता है। उसके समक्ष जीवन अपने रहस्य स्वतः प्रकट करता है। इसलिए पूर्ण समर्पण करना ही जीवन का वास्तविक रहस्य है। हमारे पूर्वज ऋषियों ने इस रहस्य को समझ कर ही जीवन को यज्ञैवे पुरुष की उक्ति प्रदान की थी। इसमें कोई सन्देह नहीं “जीवन” विश्व यज्ञ की एक विनम्र आहुति मात्र ही है।


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