"उस समय सारा देश ही अज्ञान में डूब रहा था। मूर्ति- पूजा का बाह्य रूप ही उसकी नस- नस में घुस रहा था। लोग 'वेद' का नाम तो लेते थे, पर उसमें क्या है? यह किसी को मालूम न था। उपनिषदों से भी लोग अनजान थे। केवल दुर्गा देवी की पूजा में भैंसों- बकरों का बलिदान, श्रीकृष्ण और राधा बनाकर लड़कों को नचाना, सावन- भादों में झूले डालकर उत्सव करना, धूमधाम के साथ ठाकुर जी का रथ निकालना- ये हीहिंदुत्व के मुख्य चिह्न थे और इन्हीं को लोग शास्त्रों का बतलाया 'धर्म' समझने लगे थे। गंगा- स्नान करने से, साधु- ब्राह्मणों को दान देने से, तीर्थों में भ्रमण करने से, अन्न- जल छोड़कर व्रत करने से पाप दूर हो जायेंगे, यह लोगों का विश्वास था। इन्हीं बातों में पवित्रता और पुण्य माना जाता था। सबको इन्हीं बातों पर विश्वास था और इनके विरुद्ध कोई एक शब्द भी अपनी जुबान से नहीं निकाल सकता था।"
"छुआछूत का विचार धर्म का सबसे ऊँचा अंग माना जाता था।" यह भाव उस समय यहाँ तक बढा़हुआ था कि अंग्रेज सरकार के दफ्तरों में नौकरी करने वाले व्यक्ति दफ्तर से लौटने पर पहले 'म्लेच्छों' से छुएकपडे़ घर के बाहर उतार देते थे, फिर स्नान- पूजा करके जलपान कर सकते थे। अगर कभी कोई स्नान- पूजा न कर पाता तो वह पुरोहित को दंडस्वरूप कुछ भेंट करता था, जिससे उसका पाप धुल जाये। उस समय के पुरोहित, ब्राह्मण, जीते- जागते अखबार थे। स्नान करके तिलक छापा लगाकर ये लोग संसार भर कि बातें घर- घर जाकर सुनाया करते थे। इन समाचारों में देश भर के दानदाताओं की नामावली होती थी। किसने कितना धन लगाकर दुर्गा पूजा की अथवा श्राद्ध किया? इसका पूरा वर्णन रहता था। बहुत बार दानियों की प्रशंसा में श्लोक बनाकर भी सुनाये जाते थे। इसलिए बुराई के डर से और यश की इच्छा से लोग इन लंबी चोटी वाले 'पंडितों' को खूब दान देते थे। ये लोग छोटी जाति वालों के गुरु बनकर, उनको अपना 'चरणामृत' पिलाकर भी खूब धन पैदा करते थे। ये लोग रात- दिन धर्म का शोर मचाते रहते थे, किंतु वेदशास्त्र का एक अक्षर भी न जानते थे। यहाँ तक कि बहुत से तो नित्यप्रति संध्या करते हुए उसका अर्थ तक नहीं समझते थे।"
ऐसी दशा में राममोहन जैसे सर्वप्रथम समाज- सुधारक को अगर लोगों का विरोध सहन करना पडे़ तथा हर तरह के अनुचित आक्षेपों को सुनना पडे़ तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? उनकी मूर्ति- पूजा विरोधी बातों को सुनकर लोग चौंक पडे़ और ऊटपटाँग बातें बकने लगे। बडे़ लोगों की बैठकों में, पंडितों की पाठशालाओं में, गाँवों के मंदिरों में राममोहन राय की चर्चा सुनाई पड़ने लगी। स्त्रियाँ तक मूर्ति- पूजा और श्राद्ध के विषय में इन नई बातों को लेकर कानाफूसी करने लगीं। एक प्रकार से बंगाल की समस्त हिंदू- जाति ही उनकी विरोधी बन गई।
पर राममोहन इन बातों से घबडा़ने वाले न थे। वे जानते थे कि जो व्यक्ति किसी भी समय में प्रचलित हानिकर और अंधविश्वासपूर्ण रीति- रस्मों का निराकरण करने को खडा़ होता है, उसे स्वार्थीजनों तथा अज्ञानग्रस्त जनता का ऐसा ही विरोध सहन करना पड़ता है। इसलिए वे अपने विरोधियों पर किसी तरह का गुस्सा अथवा आक्षेप न करके बडे़ प्रेम और नम्रता से अपनी बातें बार- बार समझाते ही रहते थे। सत्य पर उन्हेंबडा़ विश्वास था, ईश्वर पर उनकी दृढ़ श्रद्धा थी, पुनर्जन्म पर उनको पूरी आस्था थी। इन गुणों के कारण वे अनेक समझदार लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेते थे