राजा राम मोहन राय

मूर्ति पूजा के विरोध पर गृह त्याग

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घर से निकलकर राममोहन भारतवर्ष के विभिन्न भागों में भ्रमण करने और भारतीय धर्म के संबंध में विशेष ज्ञान प्राप्त करने लगे। पंजाब में उन्होंने गुरुमुखी भाषा सीखकर सिक्खों के धर्म ग्रंथ पढे़, फिर हिंदी का अभ्यास करके दादू और कबीर के धर्म- सिद्धांतों का अध्ययन किया। अंत में उनकी इच्छा बौद्ध- धर्म का रहस्य जानने की हुई और वे हिमालय को पार करके तिब्बत जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने बौद्ध- धर्म ग्रंथों क अध्यय तो किया, पर अपनी प्रकृति के अनुसार वहाँ की जनता में प्रचलित अंधविश्वासों का विरोध भी करते रहे। वहाँ के अनेकधर्मांध पुरुष इस पर इनको मारने को तैयार हुए, पर कुछ स्त्रियों ने उनकी थोडी़ उम्र पर तरस खाकर रक्षा की। इस घटना के फलस्वरूप नारी जाति की सहृदयता का उन पर बडा़ प्रभाव पडा़ और वे आगे चलकर अपने लेखों तथा भाषणों में सदैव स्त्री- जाति के गुण गाते रहे। 
तिब्बत से लौटने पर इनके पिता ने इनको फिर रख लिया, पर इनका प्रचार कार्य बढ़ता ही गया। कुछ समय पश्चात् पिता का देहांत हो गया तो ये इस कार्य को और भी जोर से करने लगे। इससे उनके सभी पास- पडो़सीऔर अन्य अंधविश्वासी मनुष्य उनके विरोधी बन गये। वे मूर्ति- पूजा का खंडन करके ब्रह्म- ज्ञान का प्रचार करते थे, इससे चिढ़कर रामजय नामक व्यक्ति ने, जो पास ही के गाँव में रहता था, जो चार- पाँच हजार मनुष्यों का मुखिया था, इनको तंग करना आरंभ किया। वह रात में इनके घर के सामने ढेरों कूडा़- कचरा, मैला फिकवादेता था। बर्तनों में भरकर मल मूत्र, गाय की हडडियाँ आदि घर के भीतर फेंक दी जाती थीं। राममोहन तो ऐसी बातों की कुछ भी परवाह नहीं करते थे और इन मूर्खताओं पर हँसते रहते थे, पर उनके घर वाले बहुत तंग होते थे। ये घटनायें राममोहन के 'धर्म- विरोधी' विचारों के कारण होती हैं, इसलिए वे इनसे असंतुष्ट भी होते थे। जब मामला बहुत बढ़ गया, तो इनकी माता श्रीमती फूलठकुरानी ने, जो घर की समस्त जमींदारी का प्रबंध करती थीं, इनको घर से निकाल दिया। पर वे इससे भी नहीं घबडा़ये और गाँव से बाहर श्मशान के पास अपने लिए एक पृथक् मकान बनवा कर उसमें रहने लगे। उस पर उन्होंने अपने सिद्धांत को प्रकट करने के लिए वेदांत- शास्त्र का "ओ३म् ततसत् एकमेवाद्वितीयम् वाक्य मोटे अक्षरों में लिखवा दिया था। इतना सामाजिक अत्याचार सहकर भी वे अंधविश्वासों द्वारा पूजी जाने वाली अनगिनत मूर्तियों को 'परमात्मा' मानने को तैयार न हुए और "एक सर्वव्यापी ब्रह्म" का ही प्रचार करना उन्होंने अपने जीवन का व्रत बना लिया। 

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