अब उन्होंने व्यवस्थित रूप से अपने सिद्धांतों का प्रचार करना आरंभ किया। वे चार प्रकार से इस कार्य को करते थे- (१)बातचीत, व्याख्यान और शास्त्रार्थों से, (२) विद्यालय स्थापित करके। (३) पुस्तकें लिखकर, (४) सभाएँ और संस्थाएँ स्थापित करके। सबसे पहले उन्होंने वेदव्यास रचित 'वेदांत सूत्र' का भाष्य बंगला भाषा में लिखकर छपवाया। शंकराचार्य का लिखा इन सूत्रों का भाष्य, देश भर में प्रसिद्ध था ही पर राममोहन चाहते थे कि इस प्राचीन शास्त्र के द्वारा ही एक ब्रह्म की उपासना सिद्ध की जाये, जिससे धर्म व्यवसायी पंडितों को ज्यादा बोलने का मौका न रह जाये। इस ग्रंथ में उन्होंने जिन विशेष सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था, वे इस प्रकार हैं-
"(१) वेद एक निराकार, व्यापक परमात्मा की ही उपासना करने को कहता है। (२) रूप और आकार रहित परमात्मा की भी उपासना की जा सकती है। (३) ऊपरी दिखावटी बातों से परमार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती, मोक्ष केवल ज्ञान से ही होता है। (४) लोग कहते हैं कि ब्रह्मज्ञानी को अच्छे- बुरे सुगंध का ज्ञान नहीं रहता, यह अज्ञान की बातें हैं। (५) पुराणों और तंत्रों में जो साकार उपासना का उपदेश दिया गया है, वह बाल- बुद्धि वाले लोगों के लिए है, ज्ञानियों के लिए एक मात्र ब्रह्म की उपासना ही सत्य है।
स्वार्थी पंडितगण समझते थे कि इस प्रकार की बातों के फैलने से उनकी रोजी पर आघात लगेगा और फिर लोग बात- बात पर उनको दान- दक्षिणा नहीं देगें। इसलिए लोगों को इन बातों के विरुद्ध तरह- तरह से भड़काते रहते थे और उनको उलटे- सीधे सिद्धांत समझाकर राममोहन राय का विरोधी बनाने की चेष्टा करते थे। ऐसे लोग जब उनके पास आकर पंडितों की कही हुई बातों को सुनाते थे, तो वे सहज और सरल ढंग से उनका समाधान कर देते थे।