राजा राम मोहन राय

राममोहन राय द्वारा शंका समाधान

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सबसे पहली शंका लोग यही करते थे कि यदि हम परमात्मा को बिना शकल- सूरत वाला मान लें, तो हम उसका ध्यान कैसे कर सकते हैं? इसके उत्तर में राम मोहनराय ने उनको समझाया कि अगर कोई बच्चा पैदा होते ही दुश्मनों के हाथ में पड़ जाये और उसे अपने पिता की शकल देखने का मौका न मिला हो तो वह अपने पिता का ध्यान कैसे करेगा? वह प्रार्थना करता हुआ यही कहेगा कि जिसने मुझे जन्म दिया है, मैं उनकी वंदना करता हूँ। इसी प्रकार मनुष्य निराकार परमात्मा की प्रार्थना कर सकता है। जो यह कहते हैं कि निराकार की उपासना हो ही नहीं सकती, वे संसार पर निगाह डालकर देखें। ईसाई और मुसलमान, जो संख्या में हमसे बहुत अधिक हैं, निराकार की ही उपासना करते हैं। उनके सामने दूसरा तर्क यह उपस्थित किया जाता था कि "हमारे सब भाई- बंधु एक ही तरह की उपासना करते हैं, यदि हम दूसरी तरह की करेंगे तो उनसे अलग हो जायेंगे, फिर जो रीति बाप- दादों से चली आई है उसका पालन करना ही चाहिए।" इसके उत्तर में राममोहन राय कहते थे कि एक- एक कुल न मालूम कितनी बार विष्णु का उपासक, कितनी बार शिव का उपासक, कितनी बार शक्ति (देवी) का उपासक बना है? वाममार्गी हिंदुओं को बुद्धदेव ने बौद्ध बना लिया था, फिर शंकराचार्य ने उनको ब्रह्म का उपासक बना डाला, फिर वे ही तरह- तरह के अन्य देवताओं के और अवतारों के उपासक बन गये। वास्तव में लोग जब अपनी भूल जान जाते हैं, तब पहले की बातें छोड़कर नई और उपयोगी बातें सदा से ग्रहण करते चले आये हैं। कुछ समय पहले लोग फारसी और अंग्रेजी भाषाओं को 'म्लेच्छ- भाषा' कहकर सीखना पाप समझते थे, पर बाद में उन्हें उपयोगी समझकर सीखने लगे। तब परलोक और इस लोक को सुधारने वाला रास्ता अपनाने में ही रीति- रिवाज का अड़ंगा क्यों लगाया जाये?

पंडित लोग फिर लोगों को बहकाते कि "जो 'ब्रह्मज्ञानी' होता है उसे सुगंध- दुर्गंध का ज्ञान नहीं रहता, आग- पानी में भेद नहीं दिखता, अपने- पराये की पहचान नहीं रहती।" राममोहन राय समझाते हैं कि- "भाई, वे लोग किस आधार पर ऐसा कहते हैं? पंडित लोग यह भी कहते हैं कि नारद, जनक शुकदेव, वशिष्ठ, व्यास, कपिल, जैमनी आदि ब्रह्मज्ञानी थे। पर ब्रह्मज्ञानी होते हुए भी वे आग को आग और पानी को पानी ही मानते थे। वे लोग गृहस्थ भी थे, राज्य भी करते थे और शिष्यों को योग्यतानुसार उपदेश भी करते थे। फिर कैसे मान लिया जाये कि एक ब्रह्म के उपासक को अच्छे- बुरे का ज्ञान ही नहीं होता?

पर पंडित लोगों का तो काम ही लोगों को बहकाकर पेट भरना था। वे कहते थे कि "जब पुराणों और तंत्रों में सूरत, शकल (आकार वाले) परमेश्वर की उपासना लिखी है, तब हम बिना सूरत- शकल वाले ब्रह्म की उपासना में हाथ ही क्यों डालें?" राममोहन राय कहते थे कि "जिन पुराणों और तंत्रों में परमात्मा की पृथक्- पृथक् शकलें मानकर उनकी पूजा करने की बातें लिखी हैं, उन्हीं पुराण व तंत्रों में जहाँ ज्ञान का विषय आया है, वहाँ साफ लिखा है कि उस परमात्मा का न कोई रूप है न रंग। वह बिना रूप- रंग और सूरत- शकल वाला अनादि, अनंत और सर्वव्यापक है। पुराणों में जहाँ कहीं किसी सूरत- शकल वाले ईश्वर का ध्यान करना लिखा है तो केवल इसलिए कि कमजोर दिल वाले मनुष्यों का चित्त इधर- उधर डाँवाडोल होने से बचकर वे स्थिर रहना सीखें। फिर भी जो मूर्तियों की पूजा और ध्यान करते हैं, उनसे पूछना चाहिए कि वे उन्हें साक्षात् ईश्वर समझते हैं या ईश्वर की शकल? मूर्तियों की उपासना करने वाले भी उनको साक्षात् ईश्वर कहने में संकोच करेंगे, क्योंकि वे आदमियों के हाथ की बनाई हुई होती हैं और एक दिन नष्ट भी हो जायेंगी। ऐसी चीज 'ईश्वर' कैसे हो सकती हैं? इसलिए मनुष्य को मूर्तियों की पूजा करने को ही धर्म अथवा ईश्वरोपासना का अंतिम लक्ष्य नहीं समझ लेना चाहिए, वरन् उपनिषदों और वेदांत- शास्त्र का अध्ययन करके सर्वव्यापक परमात्मा के ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।

इस तरह राममोहन राय उस समय अंधकार में पडी़ जनता का समाधान करके उसे समयोपयोगीमार्गदर्शन कराते थे, जिससे वे धर्म की दृष्टि से मनस्वी और बलिष्ठ बनकर विधर्मियों और विपक्षियों के बौद्धिक आक्रमण का मुकाबला कर सकें। उस समय लोग सब बातों में 'शास्त्र' की दुहाई देते थे और पंडित- पुजारी भी उनको 'शास्त्र' के नाम पर ही बहकाते थे। इसलिए वे भी अपनी बातों को शास्त्र द्वारा सिद्ध करने की ही कोशिश करते थे। उन्होंने धर्म का पेशा करने वाले 'पंडितों' की अपेक्षा शास्त्रों को बहुत ज्यादा पढा़ था और उनके गूढ़ आशय को भी समझा था, इसलिए अंत में पंडितों को ही निरुत्तर होना पड़ता था।

पंडितों के सिखाये हुए लोग उनके पास आकर यह शंका करते थे कि वेद का अनुवाद बंगाली भाषा में न होना चाहिए, क्योंकि इससे शुद्र भी उसे सुनने और समझने लगेंगे और पाप के भागी बनेंगे। राममोहन राय ने कहा- "पंडित लोग अपने शिष्यों को वेद, उपनिषद, स्मृति आदि पढा़ते समय उनका अर्थ बंगाली भाषा में क्यों समझाते हैं? यदि बंगाली भाषा में समझाना बुरा नहीं, तो उसी बात को बंगाली भाषा में लिखना कैसे बुरा माना जा सकता है?

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