राजा राम मोहन राय

महामानव का महान् आत्म त्याग

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फिर भी राममोहन राय ने इन विध्नों की परवाह नहीं की। विरोध जितना अधिक बढा़ उतने ही जोर से वे भी अपना प्रचार कार्य करने लगे। यद्यपि ब्रह्म- समाज का भवन बनकर उसमें संस्था का कार्य नियमित रूप से आरंभ होने के साल भर पीछे ही उनको इंगलैंड जाना पडा़ और वहीं पर तीन वर्ष के भीतर उनका देहांत हो गया तो भी उन्होंने जो पौधा इतने त्याग और तपस्या से लगाया था, वह दिन पर दिन वृद्धि को ही प्राप्त होता गया। आगे चलकर यद्यपि उसमें भी वृक्ष की अनेक शाखाओं के समान 'आदि ब्रह्म समाज' और 'नूतन ब्रह्म समाज' आदि के नाम से विभाजन हो गया तो भी उन्होंने समाज- सुधार का जो कार्यक्रम उठाया था, वह देश के एक बडे़ भाग में फैल गया और उससे लाखों लोगों को समय के विपरीत प्राचीन रूढि़यों को त्यागने और समय के अनुकूल नियमों को अपनाने का साहस मिला। राममोहन राय की प्रेरणा से आगे चलकर अन्य प्रांतों में ऐसी ही विभिन्न समाज- सुधारक संस्थाओं का जन्म हुआ। बंबई प्रांत में तो 'ब्रह्म- समाज' का ही संर्पूणकार्यक्रम 'प्रार्थना- समाज' के नाम से अपना लिया गया।
 

राममोहन राय ने लोगों को यही शिक्षा दी थी कि रीति- रिवाज और सामाजिक प्रथाएँ समाज के संचालन और सुव्यवस्था के लिए बनाई जाती हैं। उनको समाज से ऊपर समझ लेना, अपरिवर्तनीय धर्म की तरह मान लेना भूल है। जब समय और परिस्थितियाँ बदल जायें तो पुराने रीति- रिवाजों की जगह समय के अनुकूल नये नियम बना लेने चाहिए। यह सिद्धांत बिल्कुल सरल और बुद्धिगम्य है, पर अंधविश्वासी व्यक्ति इसको भूल जाते हैं और जो कोई इस तथ्य को समझना चाहता है, उसे वे 'धर्म- विरोधी' 'नास्तिक' 'पापी' आदि कहने लगते हैं। 

राजा राममोहन राय सचमुच एक महामानव थे। अगर वे चाहते तो खूब धन, संपत्ति, सम्मान पाकर 
बडे़लोगों की तरह सुख का जीवन बिता सकते थे। पर उन्होंने अपनी शक्तियों को निजी सुख प्राप्त करने के बजाय हिंदू- समाज को अज्ञानांधकार और पतन के मार्ग से हटाकर कल्याणकारी मार्ग दिखलाने में लगा दिया। फल यह हुआ कि वे स्वयं तो धन- दौलत और सांसारिक वैभव से वंचित रह गये, पर उनके प्रयत्नों से लाखों व्यक्तियों के सामाजिक और मानसिक बंधन कट गये और वे नारकीय परिस्थितियों से बाहर निकलकर सुखी जीवन बिता सके। लाखों निर्दोष नारियों की प्राण- रक्षा भी उनके प्रयत्नों से हो सकी।
 

विलायत- यात्रा और अंतिम समय- 

 राममोहन राय सदैव कर्म में लगे रहने वाले पुरुष थे। उनकी आकांक्षा थी कि जो सुधार उन्होंने किए हैं, उनका परिचय 
इंगलैंड जाकर वहाँ के निवासियों को भी दिया जाये। भारत- शासन की बागडोर इंगलैंड के नेताओं और शासकों के ही हाथ में थी, इसलिए उनको अपना मंतव्य समझाकर इन नये सुधारों को सुदृढ़ बना देना भी उनके मन में था। पर वे इसलिए रुके हुए थे कि जो काम वे यहाँ शुरू कर चुके हैं, वह कहीं अधूरा ही न रह जाय। जब उन्हें भरोसा हो गया कि जो काम मैंने आरंभ किया है, वह मेरे पीछे भी चलता रहेगा, तब उन्होंने यात्रा का विचार पक्का कर लिया। 

जब उनके विलायत जाने का समाचार सब जगह फैला, तो फिर एक हलचल मच गई। एक ऊँचे कुल में पैदा हुआ ब्राह्मण '
गोमांस भक्षियों' के देश में जा रहा है, इस बात से पुराने ढर्रे के लोगों को बडी़ चिंता होने लगी। जो लोग अभी तक धार्मिक विषयों में केवल उनका विरोध ही करते रहते थे और उनको 'पापी' कहते- कहते नहीं अघाते थे। वे भी ऐसा 'नीच काम' न करने की सलाह देने लगे। वे फिर जाति का डर दिखाने लगे और लड़कों, बच्चों को भी पैतृक संपत्ति का हिस्सा न मिलने की बात कहने लगे। पर जो राममोहन राय अब तक इन अंधविश्वासों के सैकडो़ं अत्याचारों को वीरतापूर्वक सहन कर चुके थे, वे ऐसे झूठे भय से कब डरने वाले थे? 
पर असली प्रश्न धन का था। विलायत- यात्रा के लिए काफी धन की आवश्यकता थी जिसका उनके पास अभाव था। संयोग से उसी समय दिल्ली के 'पेंशनयाफ्ता बादशाह' को अपने एक मुकदमे की पैरवी इंगलैंड में करानी थी और उसने राममोहन राय की विद्या, बुद्धि और प्रभाव की बात सुनकर उनको इस काम के लिए चुना। उसने उनको अपने दरबार में नियुक्त करके तथा 'राजा' की पदवी देकर उपयुक्त सत्ता के साथ विलायत भेजने की व्यवस्था की। 

इंगलैंड पहुँचने पर अपने सार्वजनिक कार्यों और धर्म संबंधी उदार विचारों के कारण वहाँ उनका अभूतपूर्व स्वागत और सम्मान हुआ। वहाँ उन्होंने लगभग तीन वर्ष तक रहकर अनेक भारत हितकारी कार्यों को संपन्न किया और इंगलैंड की सरकार से इस देश में शिक्षा- प्रचार की उचित व्यवस्था करने का कानून बनवाया, जिससे इसकी शिघ्रतापूर्वक प्रगति हो सके। वहाँ भी उन्होंने इस कार्य में इतना परिश्रम किया कि अंत में उनकी जीवन शक्ति समाप्त हो गई। ११ सितंबर, १८३३ को इंगलैंड के अनेक विद्वानों के सम्मुख भारत की धर्मनीति, राजनीति और भविष्य के संबंध में तीन घंटे तक खडे़ रहकर वार्तालाप किया। दूसरे ही दिन उनमें थकावट के चिह्न दिखाई पड़ने लगे और वे ज्वरग्रस्त होकर शैयागत जो गये। वहाँ के डॉक्टरों ने उनकी पूरी चिकित्सा की और कुमारी कारपेंटर तथा कुमारी हेअर आदि ने बडी़ लगन के साथ दिन- रात उनकी सेवा- सुश्रूषा की। पर उनका ज्वर दूर न हो सका और निर्बलता बढ़ती गई, जिससे २७ सितंबर,१८३३ को वे परलोक को प्रयाण कर गये।
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