दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ

प्रकृति उपयोग्य ही नहीं उपास्य भी

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सन् 1857 भारतवर्ष में प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम (गदर) के नाम से विख्यात है यही वर्ष कैलीफोर्निया की नापाकाउन्टी स्टेट में एक ऐसे आश्चर्य के लिए विख्यात है जिसने देववाद की यथार्थता का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत कर लाखों लोगों को विस्मित कर दिया।

27 अगस्त। कई दिन से बादल घुमड़ रहे थे पर वर्षा नहीं हो रही थी और तब एकाएक बूंदें गिरनी प्रारम्भ हुईं। वर्षा से बचाव के लिए लोग जल्दी जल्दी घरों में छिपने लगे। तो भी कुछ लोग बाहर जंगल में काम कर रहे थे वे जल्दी ही घर नहीं पहुंच सके घर तो पहुंचे पर देर से भीगते हुए पहुंचे।

बरसात का पानी सिर से पांव तक बह रहा था कुछ बूंदें एक चरवाहे के ओठों पर लगीं पानी क्या था पूरा शर्बत अब उसने अपनी हथेली आगे कर दी और पूरा चुल्लू पानी इकट्ठा कर पिया-तो वह आश्चर्य में डूब गया क्यों कि वह पानी नहीं वास्तव में शर्बत था। ठीक वैसा ही जैसा कि चीनी घोल कर शर्बत बनाया जाता है। एक चरवाहे को ही नहीं, कई किसानों, कुछ अध्यापकों और शहर के अनेक लोगों को भी एक साथ ही अनुभव हुआ कि आज जो पानी बरस रहा है वह सामान्य वर्षा से बिल्कुल भिन्न है अर्थात् पूरे नापाकाउन्टी क्षेत्र में बरसे जल में भरी पूरी मिठास थी ऐसा नहीं कोई हलका मीठा पन रहा हो।

बात की बात में चर्चा सारे क्षेत्र में फैल गई। जो यहां था उसने वहीं वर्षा का जल पीया और पाया कि उस दिन की बरसात में मिश्री घोली हुई थी।

पुराणों में ऐसी कथाएं बहुतायत से पढ़ने को मिलती हैं जिनमें यह बताया गया होता कि किसी देवता ने किसी भूखे प्यासे व्यक्ति को आकाश से भोजन भेजा, सवारी भेजी, वाहन भेजे, सहायताएं प्रस्तुत कीं। भूखे प्यासे उत्तेजक को देवराज इन्द्र ने अन्न-जल दिया था। अश्विनी कुमार आकाश मार्ग से देव औषधि लेकर च्यवन ऋषि के पास आये थे और उन्हें अच्छा किया था। ग्राह से गज की रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र भगवान की अदृश्य सहायता के रूप में उतरा था, भगवान राम को ‘विरथ’ देख इन्द्र ने अपना रथ भेजा था, द्रोपदी की सहायतार्थ कृष्ण भगवान ने उनकी साड़ी को योजनों लम्बा कर दिया था। बाईबल में ऐसे वर्णन आते हैं जब महाप्रभु ईसा को देवताओं ने देव भोग भेजे थे। इन कथाओं में बहुत सा अंध विश्वास भी हो सकता है पर विज्ञान और तथ्य भी कम नहीं हो सकता। प्रस्तुत घटना इस बात का प्रमाण है कि विशाल ब्रह्माण्ड में ऐसी शक्तियों का अस्तित्व असंभव नहीं जो पदार्थ के परमाणुओं को अदृश्य सहायता के रूप में प्रकट कर देने की क्षमता न रखती हों। योग सिद्धियों का मूल-सिद्धांत भी यही है कि जो कुछ व्यक्ति है, दृश्य है वह सब सूक्ष्म अव्यक्त से एक क्रम व्यवस्था द्वारा उभर रहा है संकल्प सत्ता में वह शक्ति है जो उस क्रमिक नियम को भी बदल सकती है और उसके स्थान पर आश्चर्य-अजूबे प्रस्तुत कर सकती है।

यह घटना उसी का प्रमाण थी। कई दिन लोगों ने बरसात के स्टोर किये जल का शर्बत के रूप में प्रयोग किया। नापाकाउन्टी के वैज्ञानिकों ने उस जल के परीक्षण किये। कई लोगों ने घरों में जल को सुखाया और उसमें घुली हुई मिश्री को अलग किया। बरसात के साथ घुली हुई इस मिश्री की जब स्टोरों में जमा मिश्री के साथ रासायनिक तुलना की गई तो पाया गया कि दोनों के कण एक ही तरह के हैं, मिठास, एक ही तरह का है।

बरसात में यह मिश्री कहां से आई वैज्ञानिक इस बात का आज तक कोई उत्तर नहीं दे सके जब कि वे इस बात को मानते हैं कि गन्ने के रूप में खेतों से मिलने वाली शक्कर के कण मिट्टी में नहीं आकाश में ही है।

कुछ समय पूर्व फ्रांस के क्लरमान्ट में भी ऐसी वर्षा हुई जिसे आज भी लोग लाल वर्षा या रक्त वर्षा के नाम से याद करते हैं। इस वर्षा में जो जल बरसा वह लाल रक्त के समान था। वैज्ञानिक आज तक उसका रहस्योद्घाटन नहीं कर पाये कि उसका कारण क्या था, किसी-किसी का कहना था सहारा रेगिस्तान में लाल पत्थरों के महीन कण हवा से उड़ते हैं वह कण ही भाप के साथ मिल गये होंगे उसी से वर्षा हुई। इस निष्कर्ष से लोग संतुष्ट नहीं हुए तथापि पदार्थ विज्ञान के अनुसार कोई न कोई दूरवर्ती कारण तो है कि जिसके कारण यह घटना घटी।

प्रकृति की जबर्दस्त सामर्थ्य

जाने वह कौन सी अभिशाषिक घड़ी थी जब मनुष्य की बुद्धि ने यह मान लिया कि प्रकृति जड़ है, उसे चाहे जब जिलाने और चाहे जब सर्वनाश कर डालने का अधिकार है। सेवा, सद्भावना, परिपोषण के रूप में प्रकृति को दिये गये अनुदान किस तरह प्रतिफलित होते हैं यह किसी को देखना हो तो बानमुड़ा के राल्फ सेन्डर का इतिहास पढ़ कर देख लें। जिसने केवल मात्र पौधों के प्रति असीम प्यार दुनिया भर के फल−फूल एकत्र करने रोपने की कठिन साधना से भौतिक समृद्धि का शिखर पार कर लिया पर यदि उसके साथ दुर्भावना व्यक्त की जाये तो प्रकृति में इतनी जबर्दस्त सामर्थ्य है कि मनुष्य को परास्त करके ही छोड़ देती है फिर उसे अपने आप में चाहे जितना शक्तिशाली और सामर्थ्य होने का ही अभिमान क्यों न हो?

बात अमेरिका के एक छोटे से नगर की है। कोरेफोर्ड नामक व्यक्ति के घर के साथ लगा हुआ एक सुन्दर बगीचा था। बगीचे की देख रेख के लिए उनके पिता ने टोनी नामक एक माली नियुक्त रखा। टोनी उस बगीचे की पूरी तरह देखभाल नहीं करता था तो भी चीकू, अमरूद, आम, नासपातियां सभी फल देते थे, तब आज की तरह रासायनिक खादों का प्रचलन नहीं हुआ था, गोबर की साधारण खाद और थोड़े बहुत पानी से ही बाग में लगाई जाने वाली सब्जियां उतनी सब्जी देती थीं जिससे पूरा परिवार भरपेट सब्जी खाता था, फल फूल मित्रों और सम्बन्धियों में भी बांटते थे। सब ओर बड़ी प्रसन्नता बिखेर रखी थी, थोड़ी-सी मिट्टी के इन थोड़े से पौधों ने।

दरवाजे के सहन पर उन्हीं दिनों एक पौधा उग आया। यह पौधा मिश्र जाति का था उससे घर की शोभा निखर उठती थी, दरवाजे पर सघन छाया के अतिरिक्त उसमें नन्हें नन्हें पक्षी बैठ कर प्रातः सायं चह-चाहते तो वहां प्राकृतिक संगीत का आनन्द प्रवाहित होने लगता। बसंत ऋतु में उसमें फूल लद जाते तो उसके आकर्षण से मधुमक्खियां, तितलियां दूर दूर से दौड़े चली आयीं।

विजातीय था तो क्या हुआ? अपनी संतान न थी तो क्या हुआ? आखिरकार था तो वह भी प्रकृति का ही एक नन्हा शिशु-छोटा सा घटक। घर वालों ने उस पौधे को निरर्थक त्रास देना प्रारम्भ कर दिया। यह कैसी विडम्बना है कि लोग अपनों से जिनसे फल की आशा हो उनके साथ अत्यधिक मोह दर्शायें और वीरानों से वे समाज शरीर का ही अंग और अंश होते हुये भी, उपेक्षा अनादर और अविश्वास बरतें? कोरेफोर्ड ने रीडर्स डाइजेस्ट के 1960 के एक अंक में अपनी भूल स्वीकारते हुए लिखा है कि हम लोग पहले तो उसकी छाल छीलकर अपने नाम लिखा करते, पीछे उनमें सैकड़ों कीलें ठोक दीं। उसकी डालों में बांधकर पटाखे छुड़ाए पर उस पौधे की मस्ती में रत्ती भर अन्तर नहीं आया वह अपनी स्वाभाविक गति से वैसे ही विकसित होता चला गया जिस तरह मनस्वी व्यक्ति कठिनाई बाधाओं प्रतिरोधों की भी परवाह न करते हुए प्रगति पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं।

अन्याय की सीमा यहीं तक नहीं रही इन लोगों ने उसके नीचे आग जलाना, खाना पकाना, भी प्रारम्भ कर दिया जिससे परीक्षण वहां से भाग गये। आत्मीयता की भावना से ओत प्रोत वृक्ष ने अपनी डालें बढ़ा कर उनके आंगन में भी छाया कर दी तो उन लोगों ने न केवल डालें ही छांट दी अपितु उसे जड़ से सुखा डालने की गरज से उसकी तमाम सारी जड़ी भी काट डाली। जिस तरह संत और सज्जन गाली देने वाले के प्रति भी विनम्र हितैषी और मृदुभाषी बने रहते हैं उसी तरह उस वृक्ष ने इतनी व्यथा सहकर भी अपने प्रवृत्ति रोगी थीं। उसे न जाने किस शक्ति का बल था जो निरंतर बढ़ता ही रहा।

इस बीच विलक्षण दुर्घटना घटी, अब तक जो वृक्ष वनस्पति पेड़ पौधे इस परिवार के प्रति आत्मीयता उदारता और सहयोग का भाव रखते थे अपने एक सजातीय के प्रति दुर्व्यवहार देखकर क्रुद्ध हो उठे। अर्थात् उन सब ने असहयोग प्रारम्भ कर दिया। चीकू के पौधे कुम्हला का सूख गये, अंगूर की बेलों ने फल देना बंद कर दिया, अमरूदों में कीड़े पड़ने लगे और सब्जियों तक ने फल देने से इन्कार कर दिया। लान में लगी दूब ने अपने भाइयों का साथ दिया वह भी पीली पड़ गई।

फोर्ड परिवार को बड़ी चिन्ता हुई उसने समझा कि पोषक तत्वों के अभाव में ऐसा हो रहा होगा अतएव मिट्टी की जांच कराई गई, बोतलों में से नया प्लाज्मा तत्व संग्रहीत किया गया, कीटनाशक छिड़के गये, अच्छी बढ़िया खाद दी गई तो भी परिणाम शून्य रहा। न केवल वनस्पति शास्त्री अपितु रसायनज्ञों फिजिशियनों तक की सहायता ली गई, उनने जो भी उपाय सुझाये सब प्रयोग में लाये गये किन्तु समस्या अपने स्थ्ज्ञान से टस से मस नहीं हुई।

कोरेफोर्ड ने उस समय की अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए लिखा है—उस समय मैं बगीचे में जाता तो मुझे हर पौधा नाराज और बीमार प्रतीत होता, यहां तक कि झाड़ियां जो मेरे लिए निरर्थक थीं वह तक अप्रसन्न दीखतीं। शायद यह किसी विषाणु (वायरस) के कारण हो, उसकी भी जांच कराई गई पर रोग शरीर में नहीं प्रकृति के मन में ही लगता था अन्यथा वैज्ञानिकों के इतने प्रयत्नों का कोई तो प्रतिफल निकलता। प्रकृति के सम्मुख पराजय का इतना बड़ा दृश्य अन्यत्र देखने में नहीं आया यह बात सम्पर्क में आये प्रत्येक वैज्ञानिक ने स्वीकार की। जो पौधे ठीक वैसी ही मिट्टी में अन्यत्र फलते फूलते उन्हें नर्सरी से लाते ही यह मनोव्यथा लग जाती और पौधा दो दिन में ही कुम्हला कर अपने भाइयों के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में सम्मिलित हो जाता। ‘‘प्रकृति में इतना घनिष्ठ सहयोग’’ यदि कहीं सर जान स्टुअर्ट मिल को देखने को मिल गया होता तो वे ‘‘प्रकृति में उपयोगिता वाद’’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन न करते। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है यह लिखने की अपेक्षा वह छोटे छोटे लोगों में भी सहयोग की प्रकृति है यह प्रतिपादित करते।

इस बीच पूर्व जन्म के किसी भयंकर अपराध के प्रतिशोध की तरह उस बड़े वृक्ष की जड़ों ने भीतर ऐसा विकास किया कि दरवाजे के खंभों को ही फाड़ दिया। उससे मकान की चूलें चरमरा गईं। प्रकृति के इस भयंकर प्रतिशोध के कारण फोर्ड परिवार बुरी तरह भयभीत हो उठा। उन लोगों ने अन्यत्र मकान ले लिया और वह घर ही छोड़ कर चले गये। उन्होंने देखा कल तक जो पेड़ पौधे कुम्हलाए पड़े थे उन सबमें हर्ष की लहर थी, सब में नूतन चेतनता थी, पौधे बढ़ने लगे फूलने फलने लगे, पक्षी फिर लौट आये, गिलहरियां फिर कुतुर कुतुर करने लगी, प्रातः सायं पुनः कलख गान होने लगा।

कुछ धार्मिक व्यक्तियों ने कहा फोर्ड! लगता है तुम पिछले जन्मों में कोई पूंजीपति थे और श्रमिकों का शोषण करते थे या कि मिलावट का, कम तौल का, घटिया माल बेचने वाले दुकानदार थे यह इसका प्रतिफल है, कुछ ने इसे बड़े वृक्ष का शाप बताया, जो भी हो प्रकृति ने यह दिखा दिया कि मनुष्य के लिए वह अपनी इच्छा से ही उपभोग्य हो सकी है उसकी बर्बरता से नहीं वह इतनी समर्थ है कि मनुष्य उसे जीत नहीं सकता उसकी उपासना से चाहे जितने लाभ ले लें।

प्रकृति परमात्मा की व्यवस्थापिका शक्ति है। यह भूल नहीं करनी चाहिए कि परमात्मा नहीं देखता तो कुछ भी किया जा सकता है। प्रकृति का प्रत्येक तिनका उसका प्रतिनिधि उसकी सहायक शक्ति है यह मानकर कहीं भी कुछ भी पाप करने से डर कर ही रहना चाहिए उसकी उपासना के तो और भी सात्विक परिणाम उपलब्ध किये जा सकते हैं।

परमात्मा के इस तात्विक रूप का साक्षात्कार तो मंत्रदृष्टा ऋषि, उपनिषद्कार, सन्त और साधक ही कर सके हैं, योग-मार्ग और योग-साधनाओं का अभ्यास करने से उसके विज्ञानमय स्वरूप की झांकी होती है किन्तु नहीं है मनोबल इतना सशक्त जिनका कि वे कठिन साधनायें कर सकें उनके लिये शास्त्रकार कहता है—‘‘विष्णोरद्भुत कर्मणाः’’ वह अत्यन्त अद्भुत कर्म करता है—उसकी सत्ता को उसकी विलक्षण रचना द्वारा जानो और उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करो।

सूडान के फूजी अजी प्रांत में कुछ ऐसे पौधे पाये जाते हैं जो अक्सर सीटी बजाया करते हैं कई बार इनकी सीटियां तीव्र बजती हैं वैज्ञानिकों ने खोज प्रारम्भ की तो पता चला कि इन पेड़ों के नीचे कुछ कीड़े होते हैं जो तने को भीतर खोखला कर देते हैं और एक इन्च या उससे भी बड़ा सूराख बना देते हैं। कई बार यह सूराख डालियों तक जाकर फूटते हैं पेड़ वंशी बन जाता है जब हवा चलती और इन छेदों से गुजरती है तो सीटी बजे की सी तेज ध्वनियां उच्चरित होती हैं।

दक्षिणी के वेलाविस्यिया नामक स्थान में एक विचित्र पेड़ पाया जाता है जो ऊंचाई में कुछ 1 फुट का होता है किन्तु उसके तने की मोटाई 15 फीट होती है 100 वर्ष तक की आयु के इस वृक्ष में कुल 3 पत्तियां ही होती हैं जो जन्म से होती हैं और सैकड़ों पतझर हो जाने पर भी पौधे का साथ नहीं छोड़तीं।

यह आश्चर्य प्राकृतिक है प्रकृति की चेतनता ही इस तरह के विलक्षण आश्चर्यों का कारण होती है और इस तीसरे आश्चर्य की तरह कई बार वे इतने विलक्षण भी होते हैं कि प्रकृति अर्थात् जड़ परमाणुओं में भी एक विधिवत मस्तिष्क की मान्यता अमान्य नहीं करते बनती। तो भी इन पर विज्ञान हस्तक्षेप कर सकता है विश्लेषण कर सकता है इसलिये ऐसे आश्चर्य किसी अव्यक्त सत्ता का बोध कराने के लिये नाकाफी माने जाते हैं।

प्रकृति की पाठशाला में

अव्यक्त सत्ता का व्यक्त स्वरूप, प्रकृति के जड़ घटक तो कई बार अपनी विचित्रताओं के द्वारा मनुष्य को प्रेरणा भरी शिक्षायें भी देते हैं। यह बात और है कि मनुष्य उन शिक्षाओं से लाभ उठाता है अथवा नहीं उदाहरण के लिए प्रकृति को ही लें, वह अपने चारों ओर हवा का बना एक ऐसा कवच धारण किये हुए रहती है जिससे उसकी समृद्धि सुरक्षित बनी रहे। यह कवच न होता तो आकाश में घूमने वाली उल्काओं के प्रहार से उसकी वैसी ही दुर्गति हुई होती जैसी चन्द्रमा की हुई है। चन्द्रमा पर हवा का आवरण नहीं है। इसलिए अन्तरिक्ष में उड़ने फिरने वाले उल्कापिण्ड उससे जा टकराते हैं और सैकड़ों मील लम्बे-चौड़े गहरे भयंकर गर्त प्रस्तुत कर देते हैं। चन्द्रमा का तल ऐसे ही खड्डों से भरा ऊबड़-खाबड़ है। वायु रहित अनन्त शून्य अन्तरिक्ष से पृथ्वी की सत्ता को पृथक एवं सुरक्षित रखने का श्रेय इस वायु आवरण को ही है।

हमारे वायुमण्डल में कई प्रकार की गैसों का सम्मिश्रण है। 21 प्रतिशत ऑक्सीजन, 17 प्रतिशत नाइट्रोजन, 1 प्रतिशत कार्बनडाइ-ऑक्साइड तथा थोड़ी-थोड़ी मात्रा में भाप, नियेन, हीलियम, क्रिप्टन, ऐनोन आदि गैसें हैं। यह सम्मिश्रण पृथ्वी की सतह पर सबसे अधिक होता है फिर ऊपर जितने चढ़ते जायं उतनी ही हवा गैसों से रहित पतली होती जायगी। अधिक ऊंचाई पर हवा रहती तो है पर वह इतनी पतली होती है कि उसमें प्राणी जीवित नहीं रह सकते। दस हजार फुट ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ते ही ऑक्सीजन की कमी अनुभव होने लगती है और सांस लेने में कठिनाई पड़ती है। बीस हजार फुट ऊंचे पर्वत शिखर पर तो बिना ऑक्सीजन की पेटी साथ लिए सांस ले सकना और जीवित रह सकना ही सम्भव न रहेगा।

पृथ्वी का वायुमण्डल कई परतों में बांटा जा सकता है। पहली परत समुद्र तल से लेकर 8 मील (42 हजार फुट) ऊंचाई का है, पृथ्वी का मौसम इसी में विनिर्मित होता है। इसे ट्रोपोस्फीयर कहते हैं।

इस पहली परत में जितनी अधिक सामर्थ्य और सम्पदा भरी पड़ी है, ऊपर की परत में—उसकी तुलना में नगण्य जितना वैभव है, यद्यपि उनका क्षेत्र विस्तार अत्यधिक है। निचली परत में ही जीवधारी सांस लेते हैं, पेड़-पौधे जीवन प्राप्त करते हैं, वर्षा-बादलों की विशेषता उसी में है। महत्वपूर्ण गैस सम्पदा इसी क्षेत्र में है। रेडियो संचार दूर-दर्शन, विद्युत-प्रवाह एवं अन्यान्य अति महत्वपूर्ण अन्तरिक्षीय शक्तियों का बाहुल्य इसी में है। वह प्राणियों के साथ घुली रहने वाली यह परत इस संसार में जीवन संचार करती है और समस्त प्रकार की समृद्धि, सुन्दरता का अभिवर्धन करती है। हर दृष्टि से पृथ्वी के लिए उस पर निवास करने वालों के लिए यह निचली परत इतनी अधिक उपयोगी है जितनी और परतें एक साथ मिलकर भी उतनी नहीं बैठतीं।

हवा की दूसरी परत 8 मील ऊंचाई से लेकर 60 मील ऊंचाई तक फैली हुई है। इसमें 12 से 21 मील की परिधि में ओजोन गैस की प्रचुर मात्रा है। पृथ्वी की निचली परत पर पाई जाने वाली ऑक्सीजन और सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों के टकराव से ओजोन बनती है। यह ओजोन सूर्य का प्रचण्ड ताप को अपने में सोख लेती है और धरती पर उतनी ही मात्रा आने देती है जितनी कि आवश्यक है। यदि यह ओजोन आवरण हमारे इर्द-गिर्द न होता तो सूर्य की सीधी किरणें धरती की समस्त जीवन सम्पदा को कब का भूलकर रख देती। यह गर्मी जब घटती-बढ़ती है तो उनका प्रभाव पृथ्वी के मौसम पर भी पड़ता है। स्ट्रेटोस्फीयर आवरण में नीचे और ऊपर के हिस्से में तापमान की दृष्टि से असाधारण अन्तर पाया जाता है। ओजोन परत की निचली तह शून्य से 67 डिग्री फारेनहाइट नीचे रहती है जबकि उसकी ऊपरी परत शून्य से 170 डिग्री फारेनहाइट ऊपर तक चली जाती है। इस परत में चलने वाली हवाएं प्रायः 200 मील प्रति घण्टे की चाल से चलती हैं। कभी-कभी वे 50 मील नीचे के क्षेत्र में भी उतर आती हैं।

60 मील से लेकर 120 मील तक ऊपर का क्षेत्र आइनोस्फीयर कहलाता है। इस आवरण में जब सूर्य किरणें प्रवेश करती हैं तो ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन के परमाणु उनके प्रहार से टूट-टूटकर बिखरने लगते हैं और विद्युत शक्ति सम्पन्न अणुओं का रूप धारण कर लेते हैं। इन्हें ‘चार्ज्ड एटम अथवा मोलेक्यूल’ कहते हैं। यों यह प्रक्रिया 30 मील ऊंचाई से भी किसी कदर आरम्भ हो जाती है पर अन्त उसका 120 मील पर ही जाकर होता है। यह परत रेडियो संचार की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। रेडियो ध्वनि तरंगें जब अनन्त आकाश में फैलती हैं तो यह ‘चार्ज्ड एलम्स’ ही उन्हें रोक देते हैं और डरा धमका कर वापिस लौटा देते हैं। यही कारण है कि हमारे रेडियो सन्देश पृथ्वी की निचली परत में घूमते रहते हैं और हम उन्हें सुन सकते हैं। यदि यह पहरेदार परत न होती तो हमारे प्रसारण अनन्त अन्तरिक्ष में खोजते और हम उन्हें पकड़ या सुन न सकते। आइनोस्फीयर परत के ऊपर भी यों कहने भर को हवा मौजूद है पर उसका कोई उपयोग नहीं। उसमें अणु-परमाणु यहां वहां उड़ते फिरते हैं। इसे एक्सोफेयर कहते हैं। अनन्त अन्तरिक्ष यहीं से आरम्भ होता है।

इन ऊपर की परतों के लिए हम उनके विस्तार के कारण कृतज्ञ नहीं हैं वरन् इसलिए हैं कि वे छतरी की छाया करके सूर्य की प्रचण्ड ऊर्जा से हमारी पृथ्वी को बचाती हैं और आक्रमणकारी उल्काओं को जलाकर भस्म कर देती है। रचनात्मक प्रत्यक्ष अनुदान न सही—संरक्षण एवं सुरक्षात्मक सही कुछ तो उपकार वे ऊपरी परतें करती ही हैं। उस सीमा तक भूतल के निवासियों को उनका भी आभारी रहना पड़ता है। यदि यह दो विशेषताएं भी न होतीं तो उन अत्यधिक ठण्डे अत्यधिक गरम और मांस लेने में अयोग्य सुविस्तृत क्षेत्र की ओर अपना ध्यान भी नहीं जाता और उनकी चर्चा करने की भी किसी को फुरसत न होती भले ही वे परतें अपनी ऊंचाई, क्षेत्र विस्तृतता पर गर्व करती हुई अपने घर में दबी बैठी रहतीं।

जन-जीवन से दूर रहने वाले—अपने को असाधारणता के वैभव से सुसज्जित करने वाले कौतूहल के पात्र चमत्कारी समझे जा सकते हैं पर इन्हें लोकश्रद्धा से सदा वंचित ही रहना पड़ता इसके बिना इनका बड़प्पन नितांत निरर्थक एवं भारभूत बनकर ही रह जाता है। हवा की निचली परत की तरह हम लोकोपयोगी जीवन जियें—जन-सम्पर्क एवं जनसेवा की नीति अपनायें तो हम सम्मानास्पद भी हो सकते हैं और महामानव भी। खजूर की तरह निरुपयोगी ऊंचाई किस काम की—हवा की ऊंची परतें सेवा और सहयोग के आधार पर मिल सकने वाले गौरव को कहां प्राप्त कर पाती हैं।

जन साधारण के साथ रहने को—उनके साथ मिल-जुलकर चलने को प्रकृति यों ‘सामान्य’ स्तर की मानी जाती है और उसमें बड़प्पन का आभास नहीं होता। तो भी वह अपने लिए और दूसरों के लिए अत्यधिक उपयोगी होती है। इसके विपरीत वह सम्पन्नता जो व्यक्ति विशेष को असाधारण सिद्ध करते हुए जन सम्पर्क से दूर रखती है—सौभाग्य का चिन्ह समझी जाने पर भी वस्तुतः खोखली और नीरस ही होती है।

कितने ही व्यक्ति अपने अहंकार की पूर्ति के लिए सर्व साधारण की अपेक्षा कहीं अधिक ऊंचे एवं भिन्न बनने के प्रयत्नशील रहते हैं और सोचते हैं इससे उनका मान-गौरव बढ़ेगा। विशिष्ठ व्यक्ति समझा जायगा और लोग चकित होकर अपनी तुलना में कहीं अधिक ऊंचा उठा हुआ समझेंगे—तदनुरूप उस बड़प्पन का लोहा मानेंगे। यह मान्यता अत्यन्त भ्रामक है। सर्व साधारण की अपेक्षा अपनी आन्तरिक महानता अधिक हो—गण, कर्म, स्वभाव की उच्चस्तरीय विभूतियां जुड़ी हों, यह ठीक है पर बाह्य जीवन में सबसे मिलकर—सबके साथ रहकर ही आनन्द, उल्लास का उपयोग किया जा सकेगा। बड़प्पन की हविस में जो असाधारण बनने का उद्धत प्रयास करेगा वह अचम्भे—अजूबे जैसा भले ही प्रतीत हो वस्तुतः वह उपेक्षा एवं अवमानना का ही पात्र बनेगा।

उसी प्रकार देखा जा सकता है कि सर्दी-गर्मी का सन्तुलन जब कभी बिगड़ता है तो उसे सुधारने-संभालने के लिए आंधी-तूफान उठते हैं। सीधी चाल से उल्टी स्थिति को सीधा नहीं किया जा सकता, इसलिए प्रकृति उसे सुधारने के लिए आंधी-तूफान खड़े करती है।

समाज की व्यवस्था और भावना का सन्तुलन जब तक बना रहता है, तब तक जन-जीवन सामान्य रीति से चलता रहता है पर जब विकृतियां स्थिति को गड़बड़ा देती हैं और अवांछनीयता असहनीय हो जाती हैं तो ऐसे आन्दोलन अभियान फूट पड़ते हैं, जिसे सामयिक क्रान्ति कह सकते हैं।

समय-समय पर यही होता रहा है और यही होता रहेगा। भगवान का देवदूतों का महामानवों का अवतरण इसीलिए होता है। युग-पुरुष विकृतियों को निरस्त करने के लिए जन्म लेते हैं और अपने साथ आंधी-तूफान लेकर आते हैं। धर्म की ग्लानि, अधर्म का अभ्युत्थान जब असह्य हो जाता है और साधुता का परित्राण, दुष्कृत्यों का विनाश करने के बिना और कोई रास्ता शेष नहीं रह जाता तो फिर युग-परिवर्तन जैसे तूफान अभियान खड़े होते हैं।

आंधी और तूफान जब आते हैं तो जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर देते हैं और धन-जन की भारी क्षति करके रख देते हैं। ये किसी के रोके रुकते भी नहीं। साइक्लोन, टाइफोन, हीकेनन स्तर के आंधी-तूफानों का इतिहास ऐसी विडम्बनाओं से भरा हुआ है, जिसे देखने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे मनुष्य के भयंकर-तम शत्रुओं में गिने जाने योग्य हैं।

साइक्लोन वर्ग के अन्धड़ के साथ तेज वर्षा भी होती है। इसकी ध्वंसात्मक शक्ति अत्यन्त तीव्र रहती है। जब साइक्लोन की गति 75 मील प्रति घण्टा से ऊपर चली जाती है, तब उसे झंझावात या हरीकेन कहते हैं। इनकी औसत क्षमता दस हजार करोड़ अश्व-शक्ति जितनी मानी जाती है। जब गति और भी आगे बढ़कर 200 मील प्रति घण्टा हो जाती है तो उसे ‘बवण्डर’ या ‘टोर्नाडो’ कहते हैं। इस स्थिति में समुद्र और बादल परस्पर मिले हुए दिखाई देते हैं। रेगिस्तानी क्षेत्र में इसी आधार पर बालुका-स्तंभों की सृष्टि होती है।

वायु-विशेषज्ञ सरफ्रांसिस वोफार्ट ने वायु के विभिन्न स्वरूपों और स्तरों के अनुरूप उसे 12 भागों में विभाजित किया है। उनके अनुसार प्रथम वर्ग की शुद्ध हवा (कामऐयर) प्रति घण्टा एक मील की चाल से चलती है। दूसरी हलकी हवा (लाइट-एयर) की गति एक से तीन मील की गति से चलती है। लाइट-ब्रिज की चाल चार से सात मील होती है। इसका स्पर्श त्वचा पर अनुभव होता है और पेड़ों के पत्ते हिलते हैं। जेन्टल-ब्रिज की चाल तेरह से अठारह मील होती है, यह धूलि उड़ाने की क्षमता रखती है। फ्रेश-ब्रिज छोटे पेड़ों को हिला डालती है, पानी में हिलोरें उठती हैं, भंवर पड़ते हैं। यह 19 से 24 मील की चाल से चलती है। 75 मील की चाल से आगे वाले बवण्डर या तूफान जो भी कर गुजरें वह कम है।

गर्मी और सर्दी का असन्तुलन, हवा का घनत्व और चाप घटाता बढ़ाता है। जलीय वाष्प हवा से हल्का होने के कारण वायु के सन्तुलन में गड़बड़ी उत्पन्न करता है। फलस्वरूप विभिन्न स्तर के आंधी-तूफान उठ खड़े होते हैं।

जिस क्षेत्र में सन्तुलन बिगड़ेगा उसी में आंधी उठेगी। जहां जितना अवरोध खड़ा होगा, वहां उसी अनुपात से तूफान उठेगा। सामान्य सुधार क्रम जब कारगर नहीं होते। तब ढीठता और उच्छृंखलता का बढ़ता हुआ उपद्रव—उसी स्तर के क्रांति-अभियानों से दबता है, इस तथ्य को आंधियां आये दिन हमें बताती-जताती रहती हैं।

प्रकृति को यदि जीवित सचेतन मान कर चला जाय तो उससे न केवल व्यक्तिगत जीवन में उत्थान की प्रेरणा दिशा प्राप्त होती है अपितु मानवीय समस्याओं को हल करने का मार्ग भी सुझाती है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रकृति की इन शिक्षाओं को सुना पढ़ा जाय और उनसे लाभ उठाया जाय।
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