दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ

जीवन पृथ्वी तक ही सीमित नहीं

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घटना 23 नवम्बर 1953 की है। मिशिगन (अमेरिका) के कैनरास एअरवेज (हवाई अड्डे) पर रैडार यन्त्र सक्रिय था। वह प्रशिक्षण चालकों की उड़ान का अवलोकन और नियन्त्रण कर रहा था। रैडार एक ऐसा यन्त्र है जिससे दूर उड़ रहे विमानों की दिशा, दूरी, स्थिति आदि का अध्ययन किया जाता है। अभी उड़ान प्रारम्भ ही हुई थी कि रैडार पर बैठा आपरेटर एकाएक चौंक पड़ा, स्क्रीन (दृश्य पटल) पर एक ऐसी वस्तु उभर आई थी जिसे आज तक कभी भी आकाश में न तो देखा गया था न कल्पना की गई थी, अत्यधिक तेज चमक वाली यह गोलाकार वस्तु हवाई जहाज की गति से भी अधिक तीव्र गति से हवाई अड्डे की ओर उन्मुख उड़ती चली आ रही थी। एक क्षण तो आपरेटर हक्का-बक्का हो गये। दूसरे क्षण उच्च अधिकारियों को सूचना दी गई, जो बात नई हो उसके बारे में अधिकारी ही क्यों न हो अनभिज्ञ ही होता है सो वह भी कुछ समझ न पाये यह वस्तु है क्या? उसका लक्ष्य क्या है तथा प्रस्तुत परिस्थिति से कैसे निबटा जाये?

ऐसी अजनबी परिस्थितियों में फौजी निर्णयों से काम नहीं चलता, उसके लिये विचार मन्थन के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचना आवश्यक होता है, पर यहां अवसर होता तब न? उस समय फ्लाइट लेफ्टिनेन्ट आर विल्सन अपने एफ-86 जेट हवाई जहाज के साथ प्रशिक्षण उड़ान पर थे। उन्हें बेतार के तार (वायरलेस) से इस अजनबी वस्तु का पीछा करने और वह है क्या? इसकी खोज खबर लेने का निर्देश दिया गया। अब तक वस्तु (आब्जेक्ट) पश्चिमोत्तर दिशा में मुड़ चुका था आर. विल्सन ने उसका तेज गति से पीछा किया और 160 मील तक पीछे लगे रहे। इस बीच उनने जो सन्देश दिये वह इस प्रकार हैं— 1-यह कोई गोलाकार यान लगता है पर वह किस धातु से बना हो सकता है कुछ समझ में नहीं आता? 2-उसके भीतर कोई दिखाई नहीं दे रहा पर उसकी गति, मुड़ना, दिशा नियन्त्रण इस बात के प्रतीक हैं कि अन्दर या बाहर कोई अत्यन्त कुशल बुद्धि उसका नियन्त्रण कर रही है।

अभी यह शब्द पूरी तरह समाप्त भी नहीं हो पाये थे कि ऐसा लगा वह वस्तु और आर. विल्सन का जेट दोनों परस्पर मिल गये और एक-दूसरे में आत्म-सात हो गये। कन्ट्रोलर बहुतेरा हलो विल्सन! हलो विल्सन!! चिल्लाते रहे; पर कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। वह वस्तु और भी तेज गति से अन्तरिक्ष पार क्षितिज के पेट में जा समाई। हवाई अड्डे का खोजी दल वाहनों में भागा, फायर ब्रिगेड सक्रिय हुई, दूसरे जहाज उड़ाये गये, जिस स्थान पर इस घटना का रैडार ने संकेत दिया था वहां से बीसियों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का चप्पा-चप्पा छान मारा गया किन्तु विल्सन तो दूर जहाज का रत्ती भर टुकड़ा तक कहीं नहीं मिला। इस खोज का क्रम कई दिनों तक चला। अन्त में विशेषज्ञ समिति ने ‘‘आज. विल्सन कहां गये यह एक रहस्य भरी पहेली बन गया है।’’ कह कर अपनी असमर्थता और हार स्वीकार कर ली।

इस दुर्घटना के बाद से कई ऐसे रहस्य उभरते हैं जिनका आज तक कोई समाधान नहीं निकल सका। क्या यह अन्तरिक्ष के विकिरण का कोई ‘‘बगुला’’ या ‘‘भंवर’’ था जिसने विलसन को आकाश के गहरे विकिरण सागर में डुबो दिया या फिर किसी अन्य ग्रह से आया कोई यान था जो पृथ्वी वासियों के रहस्यों का पता लगाने के लिये योजना बद्ध ढंग से भेजा गया हो? दोनों ही तरह से पाठक सोच सकते हैं और जी में आये वह निष्कर्ष निकाल सकते हैं क्योंकि तथ्य किसी को ज्ञात नहीं। यदि कोई एक बात तथ्य रूप में सामने आती है तो वह मात्र यह कि इस ब्रह्माण्ड में जितने सितारे चमक रहे हैं रहस्य उससे भी अनेक गुने अधिक हैं। क्या मनुष्य उनमें से कुछ जान सकता है? इतनी दूर की क्यों मनुष्य शरीर ही विलक्षण शक्ति केन्द्रों की, सामर्थ्यों की चलती-फिरती रहस्यमय मशीन है यदि वह इसी को भली प्रकार जान ले सो ही बहुत है।

तब से देश-विदेश में ऐसी अनेक घटनायें घट रही हैं—रहस्य नित्य प्रति गहरा रहा है पर समझ में कुछ नहीं आ रहा। 3 मई 1964 को आस्ट्रेलिया की राजधानी कैनबरा में कुछ लोगों ने ऐसी ही किसी रहस्यमय वस्तु की सूचना दी। सूचना देने वालों में 3 ऋतु विशेषज्ञ भी थे जो उस समय अपने रैडार यन्त्रों पर मौसम का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने बताया यह अत्यन्त चमकदार और तश्तरी की सी बनावट की वस्तु में से कंगारू के पेट से बाहर आये बच्चे की तरह एक वैसी ही लघु आकृति भी बाहर आई। उसके रंग में पूर्ववर्ती के रंग में कुछ अन्तर था। थोड़ी देर में छोटा बड़े की ओर लपका दोनों एक हो गये और न जाने कहां अन्तरिक्ष में विलीन हो गये।

नासा अधिकारी अभी इस बात की छानबीन में ही थे कि 29 जनवरी 1965 में स्वयं अमेरिका में ही इस तरह की एक और घटना घटी जबकि मेरीलैण्ड समुद्री हवाई अड्डे के दो आपरेटरों ने वैसी ही सूचना दी। यह वस्तु हवाई अड्डे के 30 मील पास तक चली आई। खतरे की घंटियां तो बजाई गईं पर पहले का सबक साथ था। अतएव इस बार उसका पीछा करने का साहस किसी ने नहीं किया।

6 नवम्बर 1967 जर्मन में ‘‘टेलीविजन न. 2 पर आकाश-युद्ध पर ट्रान्स मिशन चल रहा था। लुप्तहंसा एअर क्रैफ्ट के एक कैप्टन ने अपने चार साथियों के साथ बताया कि 15 फरवरी 1967 को उनका जहाज सन फ्रांसिस्को हवाई अड्डे की ओर बढ़ रहा था उस समय एक तेज चमकदार मशीन ने 15 मिनट तक हमारा पीछा किया। वह 33 फुट व्यास की वस्तु थी, इस घटना से एक ओर घबराहट हुई दूसरी ओर आश्चर्य भी कि यह हैं क्या? 15 मिनट के पश्चात् उसने स्वतः पीछा छोड़ दिया और वह दूसरी ओर मुड़ कर भाग गई।

बी.टी.ए. न्यूज एजेन्सी की 23 नवम्बर 1967 की एक खबर में बताया गया है उससे 3 दिन पूर्व बलगारिया की राजधानी सोफिया में ऐसी वस्तु देखी गई जिसे अब तक कभी पहचाना नहीं गया। (इसे अपने इसी गुण के कारण वैज्ञानिक नाम यू.एफ.ओ.—अन आईडेन्टी फाइड आब्जेक्ट नाम दिया गया है। सामान्य लोग उड़न तश्तरी कहते हैं) उससे शक्तिशाली किरणें निकलने की भी सूचना थी जिसे वहां के हाइड्रोलाजी (जल शक्ति विज्ञान) तथा मेट्रोलाजी (मौसम विज्ञान) के अधिकारियों ने भी देखा और बताया कि उड़ती वस्तु अपनी शक्ति से चालित थी तथा पृथ्वी से 18 मील ऊपर उड़ रही थी।

अमेरिका, फिलीपीन, रूस, प. जर्मनी, मैक्सिको आदि अनेकों देशों में यह उड़न तश्तरियां देखी गई हैं; यदि यह मान लिया जाये कि 98 प्रतिशत व्यक्तियों को यह भ्रम बाल लाइटनिंग, मौसम विभाग द्वारा छोड़े गये गुब्बारे देखकर अजब तरह के बादल और उन पर पड़ी किरणें देखकर धुंधलके में प्रकाश व छाया से बने दृश्य या किसी नये तरह के हवाई जहाज को देखकर हुआ होगा तो भी 2 प्रतिशत लोग तो ऐसे हैं ही जिनके कथन असत्य नहीं कहे जा सकते उनकी जानकारियां प्रामाणिक होनी चाहिये इन लोगों में एअर क्रैफ्ट (हवाई जहाज के लोग) मौसम विज्ञान के लोग आते हैं। दूसरा भूल कर सकता है पर अनुभवी पायलट जो उड़ान के समय शराब नहीं पीते व्यर्थ बात नहीं करते ऐसा करें तो उन्हें सर्विस से हाथ धोना पड़े—झूठ क्यों बोलेंगे। तब फिर इन रहस्यों का कोई समाधान हो सकता है क्या? उसके लिये तब तक प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं जब तक सारे ब्रह्माण्ड के स्वरूप और स्थिति की जानकारी नहीं मिल जाती।

जीवन तत्वों का अध्ययन

पोलिश खगोलवेत्ता जान गाडोमिस्की ने अपने अनुसंधानों का विस्तृत विवरण ‘मेनुअल आनस्टेलर एकोस्फियर्स’ नामक ग्रन्थ में प्रकाशित कराया है। उन्होंने अनेक प्रमाण प्रस्तुत करते हुए यह सिद्ध किया है कि 10 या 11 प्रकाश वर्ष दूरी पर स्थित कम से कम तीन ग्रह ऐसे अवश्य हैं जिनमें विकसित स्तर का जीवन विद्यमान है। अमेरिकी ज्योलाजीकलसर्वे के माक्रोवायोलोजिस्ट डा. सिसलर ने पृथ्वी पर गिरी एक उल्का का अध्ययन करके यह बताया कि इसमें अमीनो, नाइट्राइड, एवं हाइड्रोकार्बन जैसे पदार्थों के मूलक उनमें मौजूद हैं। इसी उल्का खण्ड पर कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डा. कान्बिन ने नये सिरे से शोध की उन्होंने और अधिक जोरदार शब्दों में कहा कि जिस ग्रह से यह उल्का खण्ड आया है वहां जीवन का अस्तित्व होना ही चाहिए।

अब प्रयत्न यह किया जा रहा है कि पचास मील ऊंचा उड़ सकने वाला एक राकेट बनाया जाय तो अन्तरिक्ष में उड़ती हुई उल्काओं को पकड़ कर धरती पर जीती जागती स्थिति में ला सके ताकि उन उल्काओं के साथ जुड़े हुये जीवन तत्वों का अध्ययन करके यह जाना जा सके कि इस सौरमण्डल में कौन उससे बाहर जीवन किस स्तर का और कहां है? होता यह है कि जब कोई उल्का पृथ्वी के वायु मण्डल में प्रवेश करती है तो तीव्र घर्षण की आग में जल कर भस्म हो जाती है। जो पूरी तरह जलती नहीं उसकी भी बाहरी परत बेतरह झुलस जाती हैं और मध्य भाग में असाधारण रूप में परिवर्तित हो जाती है। ऐसी दशा में इस योग्य नहीं रहती कि अपने उद्गम सम्बन्धी उपयुक्त जानकारियां दे सके। उपरोक्त जीवित उल्काश्य का ऊपर उल्लेख किया गया है वैसे खण्ड तो यदा-कदा ही मिलते हैं। इस कठिनाई को हल करने के लिए ही ऐसे जाल राकेट के निर्माण की तैयारियां हो रही हैं जो अन्तरिक्ष सागर में तैरती हुई उल्का मछलियों को जीवित पकड़ कर धरती पर लाने में सफल हो सकें।

पोले आकाश में विविध रसायनों के धूल कण ही नहीं प्रचुर परिमाण में जीवाणु भी उड़ते जाते हैं। उनमें से कुछ तो धरातल से वायु द्वारा ऊपर उड़ाये जाते हैं और कुछ अन्तरिक्ष से विविध ग्रह नक्षत्रों से उतरते बरसते रहते हैं। इन जीवाणुओं की जीवन चर्या विचित्र है। अन्तरिक्ष में विद्यमान उड़नशील अदृश्य पदार्थों को ही वे अपनी चुम्बकीय शक्ति से उपलब्ध करके आहार का प्रयोजन पूरा करते रहते हैं और बिना युग्म संयोग के एकाकी नर-नारी की उभय पक्षी आवश्यकता पूरी करते हुए द्रुतगति से वंश वृद्धि करते रहते हैं।

शिकागो विश्वविद्यालय के एनरिको इन्स्टीट्यूट आफ न्यूक्लियर स्टडीज के शोध प्राध्यापक जान. एच. वार्कर ने अपना निष्कर्ष व्यक्त करते हुए कहा है कि अन्य ग्रह नक्षत्रों द्वारा हमारी पृथ्वी पर लगभग एक टन अन्तरिक्ष धूलि बरसाई जाती है जिसमें बहुमूल्य खनिज, रसायन ही नहीं ऐसे जीवाणु भी होते हैं जिन्हें धरती पर उत्पन्न हुए नहीं कहा जा सकता। वार्कर महोदय का कथन यह भी है कि स्वभावतः अपनी धरती भी अन्य ग्रहपिण्डों तक अपनी धूलि बखेरती होगी और इस धुलेड़ी में धुलि बखेरने के पारस्परिक हुड़दंग में वह पीछे नहीं रहती होगी।

ग्रह पिण्डों की दुनिया का यह धूलिमार प्रमोद ही महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालता है। पहला यह कि ग्रह नक्षत्रों के बीच जड़ और चेतन स्तर का आदान-प्रदान अनन्त काल से चला आ रहा है इस प्रकार वे एक दूसरे की भली बुरी उपलब्धियों को परस्पर मिल बांट कर उपयोग करने की रीति-नीति का अनुसरण कर रहे हैं। दूसरा निष्कर्ष यह है कि जीवन अकेली पृथ्वी की ही बपौती नहीं है। जिस प्रकार के जीवधारी धरती पर रहते हैं वैसी आकृति प्रकृति के न सही, किसी न किसी आकार प्रकार के प्राणी इस विशाल ब्रह्माण्ड में अन्यत्र भी रहते हैं। यदि ऐसा न होता तो अन्तरिक्ष धूलि के साथ बरसने वाले ऐसे जीवाणुओं का अस्तित्व कहां से होता जो धरती के जीवन से भिन्न प्रकार के हैं।

जीव शास्त्रियों का कथन यह भी है कि अन्तरिक्ष में उड़ते पाये जाने वाले जीवाणु भ्रमण शील आदि वासी हैं जो कहीं एक जगह नहीं टिकते। एक ग्रह पर ठहरने में इन्हें चैन नहीं पड़ता। यहां से वहां इनका अहेतुकी पर्यटन चालू रहता है और ग्रहों की दुनिया में चलते रहने वाले आकर्षण विकर्षण की तरंगों पर सवार होकर वे करोड़ों मील की द्रुतगामी यात्राएं मुफ्त में और सहज में पूरी किया करते हैं।

इसी संदर्भ में यह भी बताया गया है कि 35 करोड़ वर्ष पूर्व जब धरती बनी थी तो जीवन का उद्भव उसने अपने भीतर से नहीं किया वरन् यहां की अनुकूल परिस्थितियों में अन्तरिक्षीय जीवाणु आकर बस गये और उनके विविध वंशजों ने क्रमशः इस समस्त लोक पर कब्जा कर लिया।

ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, प्रोटीन प्रभृति रसायनों के सहारे ये जीवाणु तेजी से विकसित होते हैं और परिस्थितियों के अनुरूप आकृति प्रकृति के शरीर उत्पन्न करते हैं परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि जीवन अमुक रसायनों की अथवा तापमानों की स्थिति तक ही सीमित हो। वह धरती से भिन्न प्रकार की परिस्थितियों में भी स्थिर रह सकता है और विकसित हो सकता है। अपने सौर मण्डल के वृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेपच्यून ग्रहों के धरातल का तापमान शून्य से भी 140 से लेकर 200 डिग्री सेन्टीग्रेड तक नीचे चला जाता है। उनमें मैथन एवं अमोनिया गैस आधिक्य है। मोटे तौर पर इन परिस्थितियों में जीवन के अस्तित्व की कल्पना हम जीवधारी नहीं कर सकते पर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अन्य ग्रहों के जीवाणु ऐसे भी हो सकते हैं जो भिन्न-भिन्न प्रकार की परिस्थितियों में जीवित रह सकने के अभ्यस्त हो गये हों। इतनी बड़ी मात्रा में उपरोक्त ग्रहों में मैथन और अमोनिया गैसें क्यों कर उत्पन्न हो गईं? इसका उत्तर देते हुए वैज्ञानिक एक ही बात कहते हैं कि इन गैसों का उद्भव जीवधारियों की हलचलों के बिना नहीं हो सकता। अस्तु वहां जीवन भले ही किसी भी स्तर का क्यों न हो, होगा अवश्य।

प्लेटो ग्रह में हाइड्रोजन, हिलियम और निओन गैस की प्रधानता है तथा तापमान शून्य से नीचे 400 डिग्री फारेन हाइट है। शुक्र ग्रह का धरातल कार्बन डाइऑक्साइड से भरा है और तापमान 100 डिग्री सेन्टी ग्रेड से ऊपर है। अमरीकी खगोल वेत्ता ह्वियल और मेंजेल की खोज के अनुसार इस स्थिति में भी वहां जीवन के लक्षण विद्यमान हैं।

चन्द्र यात्री और व्यक्ति जो सूचनाएं लेकर आये हैं उनसे पता चला है कि दिन में वहां का तापमान 134 डिग्री सेन्टी ग्रेड और रात को 153 सेन्टी ग्रेड रहता है। पृथ्वी पर 173 डिग्री सेन्टीग्रेड नीचे तापमान तक में जीवाणु जीवित रह सकते हैं ऐसी दशा में कोई कारण नहीं कि चन्द्रमा अथवा वैसे ही ग्रहों पर जीवाणुओं का अस्तित्व सम्भव न हो।

अधिक शीत या अधिक गर्मी में भी जीवन तत्व का अस्तित्व हो सकता है। प्राण धारी किसी भी जटिल परिस्थिति में निर्वाह कर सकने में समर्थ हैं यह तथ्य अब वैज्ञानिक खोज के लिए नया आधार मिला है और यह समझा जा रहा है कि प्रकृति के हर अवरोध को सहन कर सकने में जीवन सत्ता समर्थ है तो कोई कारण नहीं कि अति शीतल और अति उष्ण समझे जाने वाले ग्रह तारकों में जीवधारियों का निवास न हो।

जीवन एक समर्थ अस्तित्व

जीवन अपने आप में इतना समर्थ है कि मृत्यु को चुनौती देते हुए वह अनादिकाल से लेकर अद्यावधि अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं और सर्वभक्षी विभीषिकाओं से जूझते हुए, वह यही उद्घोष कर रहा है कि अनन्त काल तक उसी प्रकार बना रहेगा जैसा कि अब है।

परिस्थितियां आती है और चली जाती हैं। विपन्नताएं त्रास दिखाती हैं और धमकी देती है कि वे पलट कर या कुचल कर रख देंगी। इतने पर भी जीवन-जीवन ही है। वह अपनी गरिमा सिद्ध करते हुए सदा से यही कहता रहा है कि मरण उसका स्वभाव नहीं। कपड़ा बदलने से भी शरीर तथावत् बना रहा है। परिस्थितियों की विषमता मात्र कलेवर में उलट-पुलट कर सकती है। उससे जीवन की मूल सत्ता पर कोई आंच नहीं आती। मृत्यु और जीवन के युद्ध का परिणाम इतना ही निकलता रहता है कि मौत ने कलेवर की कुछ धज्जियां उखेड़ली जीवन खीजा तो, पर नंगा होने का अवसर नहीं आया। उसने पुराना छिनने के साथ ही नया आवरण ओढ़ लिया।

यह विचार सही नहीं है कि सुविधाजनक परिस्थितियों में निर्वाह होता है। असुविधाएं और प्रतिकूलताएं आघात कितना ही बढ़ा क्यों न लगा दें, पर वह नष्ट करने में कभी सक्षम नहीं हो सकती, मौत जीवन को हरा नहीं सकती। मरण के बाद जन्म का सत्य सुनिश्चित है। जन्मने के उपरान्त मरना पड़ता है, यह तो परिवर्तन चक्र का घुमाव अथवा मोड़ मात्र है।

जीवन मात्र मनुष्य आकृति में ही नहीं, अन्य छोटे बड़े प्राणधारियों के रूप में भी विद्यमान है और उसकी सत्ता उन अदृश्य सूक्ष्म जीवियों में भी विद्यमान है, जो नेत्रों अथवा अन्य इन्द्रियों से पहचाने नहीं जाते, फिर भी सामर्थ्य और सक्रियता की दृष्टि से इतने बलिष्ठ हैं कि उनकी तुलना अपने कलेवर के अनुरूप सिंह और हाथी भी नहीं कर सकते हैं। प्रतिकूलताओं से जूझने को अपना अस्तित्व हर स्थिति में बनाये रहने की उनमें अद्भुत शक्ति है जब कि बड़े आकार वाले प्राणी तनिक-सी दुर्घटनाओं के कुचक्र में फंसकर ही चीं बोल जाते हैं।

जीवन न केवल अपनी धरती पर ही है वरन् वह ब्रह्माण्ड के असंख्य ग्रह-पिण्डों पर विभिन्न आकृति और प्रकृति अपनाये हुए विद्यमान है। स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप उसने अपने निर्वाह का संतुलन बिठा लिया है।

हार्वर्ड विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान के प्राध्यापक डा. जार्ज वाल्ड के अनुसार यद्यपि मंगल पहला ग्रह है, जहां जीवन की खोज पृथ्वी के वैज्ञानिक कर रहे हैं, तथापि ऐसे एक अरब ग्रह हैं, जहां जीवन होने की संभावना है।

हमारी आकाश गंगा में एक अरब ग्रह हैं। इससे परे एक अरब अन्य आकाशगंगाएं हैं, जिनमें से प्रत्येक में एक अरब ग्रह हैं। वैज्ञानिकों का वर्तमान अनुमान यह है कि इन सभी ग्रहों में से एक से पांच प्रतिशत तक ग्रहों में जीवन अवश्य विद्यमान है। क्योंकि इतने प्रतिशत तक ग्रह हमारी पृथ्वी के समान है।

पृथ्वी से पृथक ग्रहों में जीवन की खोज मनुष्य द्वारा जारी है। अमेरिका के मेरीलैण्ड विश्वविद्यालय के रासायनिक विकास संस्थान के निर्देशक डा. सिरिल पोन्नेमपेरुमा ने पिछले दिनों भारतीय विज्ञान कांग्रेस में बताया था कि ब्रह्माण्ड से सन्देश प्राप्त करने का प्रयास निरन्तर चल रहा है। अनेक वैज्ञानिकों की मान्यता है कि सिर्फ हमारे ही नभ-मण्डल में 10 लाख सभ्यताएं अस्तित्व में हैं। इन उन्नत सभ्यताओं का पता लगाने के लिए भारी संख्या में विशाल टेलिस्कोप लगाये गये हैं।

ग्रीन बैंक, वेस्ट वर्जीनिया में ‘ओस्मा’ नामक योजना के अन्तर्गत सुदूर नक्षत्र लोकों की सभ्यताओं रेडियो तरंगों द्वारा सम्पर्क स्थापित करने का कार्यक्रम चलाया गया। वैज्ञानिकों का कहना है कि चार बार इस सम्पर्क का कोई उत्तर प्राप्त हुआ है। यद्यपि अभी तक उसका अर्थ समझा नहीं जा सका है। इस प्रयास से यह आशा बंधी है कि अन्य ग्रह-नक्षत्रों के प्राणी निकट भविष्य में न केवल पृथ्वी के मनुष्यों से वरन् अन्य लोकों के निवासी जीवधारियों के साथ सम्पर्क बनाने और मेल-जोल बढ़ाने में समर्थ हो सकेंगे।

अनुकूलताओं में ही जीवन रह सकता है, यह बात तो कही जाती है, पर वह अनुकूलता क्या हो सकती है इसकी परिभाषा कर सकना सम्भव नहीं हो पा रहा। अत्यधिक गर्मी से अथवा अत्यधिक ठण्ड से जीवन का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है, यह कहा जाता है, पर अनुभव ने यह बताया है कि बात ऐसी नहीं है। गर्मी और ठण्डक को अतिशय सीमा में भी जीवन की सत्ता बनी रह सकती है।

वैज्ञानिक इस सम्भावना को देखकर अन्य ग्रहों पर जीवन हो सकने की आशा से भर उठे हैं, कि जीवन अत्यन्त विषम परिस्थितियों में भी पनप सकता है। खौलते हुए पानी से भी अधिक तापमान पर और जमी हुई बर्फ से बहुत अधिक ठण्डक में, जीवन-क्रम सहज सम्भव है।

33 वर्ष की आयु में नोबेल-पुरस्कार से सम्मानित जीव वैज्ञानिक डा. जोशुआ लेडरवर्ग ने कहा है कि अन्य ग्रहों में भी जीवन की विद्यमानता की खोज के पूर्व हमें यह जान लेने का प्रयास करना आवश्यक है कि पृथ्वी पर जिस प्रकार जीवन का विकास हुआ है, उससे भिन्न भी कोई क्रम जीवन-विकास का सम्भव है या नहीं? यदि सम्भव है तो वह कौन-सा क्रम है?

वनस्पतियां कहां उग सकती है, कहां नहीं? अब इस प्रश्न पर कोई विराम चिन्ह नहीं लगा सकता है। उत्तरी ध्रुव जैसे शून्य तापमान से भी नीचे के क्षेत्र में शाक-भाजी उगाने में सफलता प्राप्त कर ली गई है। तथा खाद्य पदार्थों का उत्पादन ऐसी परिस्थितियों में भी सम्भव हुआ है, जहां के सम्बन्ध में अब तक जीवन शास्त्री यही कहते रहे हैं कि उनमें उत्पादन नहीं हो सकता।

यूनियन कार्बाइड रिसर्च इन्स्टीट्यूट, न्यूयार्क में वैज्ञानिकों ने मंगल ग्रह जैसा वातावरण कृत्रिम रूप से उत्पन्न करने का प्रयोग किया। उस वातावरण में 98 प्रतिशत आर्गन गैस और 2 प्रतिशत ऑक्सीजन रखी गयी। तापमान शून्य से दस डिग्री सेन्टीग्रेड नीचे रखा गया। इस कृत्रिम वातावरण में कुकरबिटेसी कुल के खीरे, ककड़ी जैसे तीस प्रकार के पौधों के बीज सफलतापूर्वक उगाये गये। यद्यपि ऑक्सीजन नाम मात्र को थी, तो भी ये बीज यहां पनपे। एक अन्य प्रयोग में कांच के एक बर्तन में मिट्टी के कई नमूने लेकर उनमें कुछ जीवाणु रखे गये। बर्तन के भीतर के वातावरण में कार्बन-डाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन और आर्गन गैस रखी गयी, ऑक्सीजन नहीं रखी गयी। पानी अत्यल्प मात्रा में रखा गया। इन बर्तनों को 16 घण्टे तक शून्य से 25 डिग्री सेण्टीग्रेड नीचे के तापमान पर रखा गया। फिर आठ घण्टे तक शून्य से 25 डिग्री ऊपर रखा गया। महीनों बाद भिन्न-भिन्न अवधियों में इन नमूनों की जांच की गयी। पाया गया कि कुछ किस्म के जीवाणु इस स्थिति में भी जा लेते हैं और कुछ तो प्रजनन द्वारा अपनी आबादी भी बढ़ा लेते हैं। शैवाल और फफूंदी के मिले-जुले रूप वाली लाइकेन नामक वनस्पति भी इस वातावरण में खूब पनपी।

एक अन्य प्रयोग में एरोबैक्टर, एरोजीन्स तथा कुछ अन्य जीवाणु कार्बन-डाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन तथा थोड़ा-सा पोषक माध्यम डालकर सील बन्द कर दिये गये। प्रतिदिन साढ़े उन्नीस घण्टे तक इनको शून्य से 75 डिग्री नीचे के तापक्रम पर रखा जाता, फिर साढ़े चार घण्टे सामान्य तापमान पर। कई दिनों तक यही क्रम चला। प्रयोग के बाद इन सूक्ष्म-जीवियों की संख्या पूर्वापेक्षा चार हजार गुनी हो गयी।

पानी को जीवन का आधार माना जाता है, पर अब ऐसी सम्भावनाएं सामने आई हैं कि पानी के स्थान पर दूसरे विकल्प भी हो सकते हैं, जिनके सहारे जीवन निर्वाह सम्भव हो सके।

वैज्ञानिकों का एक अनुमान यह है कि मंगल एवं अन्य ग्रहों पर पानी का स्थान अमोनिया ले सकता है। वैज्ञानिक ए.जे.मी. के अनुसार अमोनिया में जल से अधिक तरलता होती है और वह अधिक अच्छा विलायक है। जलीय रसायन (एक्वाकेमिस्ट्री) की तरह अमोनिया रसायन (अमोना-केमिस्ट्री) के अन्तर्गत जल के तुल्य समस्त अभिक्रियाएं सम्पन्न होती देखी गई हैं। जल ओर अमोनिया में बहुत से गुण समानान्तर पाए गये हैं। प्रोफेसर बर्नाल, एक्सेल इत्यादि का मत है कि सम्भव है, अन्य ग्रहों पर जीवन का आधार अमोनिया हो। क्योंकि वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी जब अपनी शैशवावस्था में थी, तब इसके वातावरण में हाइड्रोजन, अमोनिया और मीधेन का ही आधिक्य था। जल एवं अमोनिया के गुण-साम्य के आधार पर वैज्ञानिक इस सम्भावना पर विचार कर रहे हैं कि मंगल आदि के मानव-स्नान, पान आदि के लिए जल के स्थान पर अमोनिया का ही प्रयोग करते होंगे।

इन तथ्यों पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि जीवन निश्चित रूप से अमर है। उस अविनाशी को न तो कोई प्रतिकूलता नष्ट कर सकती है और न मृत्यु के लिए ही उसकी सत्ता मिटा सकना सम्भव है।
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