दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ

शक्ति का स्रोत पदार्थ से परे है

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ब्रह्मांड की रचना और विकास सम्बन्धी डा. हापल की खोजों का आज सारे संसार में तहलका मचा हुआ है, किन्तु हापल ही नहीं दूसरे वैज्ञानिकों का भी मत है कि संसार केवल भौतिक पदार्थों या प्रकृति की ही रचना है। उसके मूल में कोई ऐसी चेतन या विचारशील सत्ता नहीं है, जिसे हम ईश्वर, जीव या आत्मा कहें।

भारतीय तत्वदर्शन में इन शब्दों को वैज्ञानिक भी बनाकर रखा गया है, इसलिये चेतना की कल्पना असंदिग्ध नहीं है। कठोपनिषद् के पदार्थ से भी सूक्ष्म सत्ता का ज्ञान कराते हुए उपनिषद्कार लिखता है—

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ।। महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः । पुरुंपात् न परं किंचित् सा काष्ठा सा परागति ।। —1। 3। 41, 44

अर्थात् इन्द्रियों से सूक्ष्म उनके विषय और इन्द्रियों के अर्थ से भी मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि और बुद्धि से भी आत्मा सूक्ष्म है, अव्यक्त अचिन्त्य आत्मा से भी परे अर्थात् सूक्ष्म पुरुष है पुरुष से परे कुछ भी नहीं है। वही अन्तिम स्थान और परे से भी परे की गति है।

पैगिरहस्य ब्राह्मण में, शंकर ब्रह्मसूत्र, मानव धर्मशास्त्र तथा गीता में उसे अज और क्षेत्रज्ञ दो नामों से पुकारा है। वास्तव में ईश्वर की व्याख्या के लिये यही दो शब्द सर्वाधिक वैज्ञानिक हैं। प्रकृति का कार्य है ब्रह्मांड की रचना, यदि आत्म चेतना को प्रकृति का ही गुण मान लिया जाये तो फिर वैज्ञानिक प्रत्येक तारा में जीवन क्यों नहीं मानते? फिर तो किसी भी रूप में प्रत्येक पिंड में जीवन होना चाहिए, पर ऐसा अभी वैज्ञानिक उपकरणों के ज्ञान में नहीं आया है। यद्यपि वह प्रकृति के कण-कण में समाविष्ट है पर वह दृश्य नहीं, क्षेत्रज्ञ है अर्थात् प्रत्येक क्षेत्र को अच्छी प्रकार जानने वाला है। ‘‘आनन्दीवातं स्वधया तदेकम्’’ (ऋग्वेद 10। 129। 2)—वह बिना प्राण-वायु के जीवित, प्रकृति से संयुक्त किन्तु अद्वितीय है।

उपनिषद्कारों की यह मान्यतायें कपोल कल्पित कर दी गई होतीं, वेद के ज्ञान को सचमुच ठुकरा दिया गया होता यदि विज्ञान उस सूक्ष्मता के अध्ययन की ओर अग्रसर नहीं होता।

संसार के सभी पदार्थ मूलभूत दो प्रकार के कणों से बने हैं—1. नाभिक कण (न्यूक्लियस)—इसमें अब तक जो जानकारियां मिली हैं वे प्रोट्रॉन जिसमें धन विद्युत आवेश होता है और दूसरा कण न्यूट्रॉन है जिसमें कोई चार्ज नहीं होता। इससे अधिक नाभिक की कोई जानकारी नहीं थी। यह उल्लेखनीय है कि प्रयोग के समय गणितीय निष्कर्ष सत्य निकलते हुए भी यह केवल परिकल्पनायें हैं, इन्हें आज तक किसी ने देखा नहीं। दूसरे नम्बर के कणों को इलेक्ट्रान कहते हैं जो ऋण विद्युत के कण होते हैं और नाभिक के किनारे-किनारे चक्कर लगाते हैं।

सन् 1930 के एक दिन फ्रेंच वैज्ञानिक डा. पाल एन्द्रियेन मारिस डीराक के मस्तिष्क में एक विचार आया कि क्या ऐसा भी हो सकता है कि नाभिक [न्यूक्लियस] में पाये जाने वाले धनावेश द्रव्य के साथ ही ऋणावेश द्रव्य भी हो और इलेक्ट्रान के साथ कोई ऐसा भी इलेक्ट्रान हो जो ऋण विद्युत आवेश न होकर धनावेश हो।

वास्तव में यह कल्पना नितान्त गप्प लगती थी, इसलिए इस वैज्ञानिक ने अपना विचार किसी पर प्रकट नहीं किया फिर भी उसके मस्तिष्क में उतनी वह काल्पनिक ध्वनि चुप न रह सकी। वह निरन्तर विचार करता रहा तो एक दिन वही कल्पना सिद्ध हो गई और 1933 में ही एक नया कण ‘पाजिट्रान’ सामने आ गया जो था तो इलेक्ट्रान, पर उसमें ऋण विद्युत आवेश न होकर धन विद्युत आवेश था, इसी पर मारिस डीराक को ‘नोबुल पुरस्कार’ भी मिला।

उसके बार भी खोजें चलती रहीं। 1955 में ओबेन चैम्बरलेन तथा एमोलियो जे. सेग्रे ने ‘प्रति-प्रोट्रॉन’ की भी खोज कर ली। यह प्रति-प्रोट्रॉन है तो प्रोट्रॉन ही पर उसका उल्टा अर्थात् ऋणावेश कण है। इस खोज के साथ ही प्रकृति के साथ एक नये तत्व की खोज का क्रम चलता है, उसे प्रति-पदार्थ या एण्टी-इलेमेन्ट कहते हैं। यह प्रति-पदार्थ कोई स्थूल द्रव्य न होकर वास्तव में वैसा दर्शन या अनुभूति मात्र है, जिसमें समय, गति और पदार्थ समासीन दिखाई देता है। वास्तव में यदि इस नये निष्कर्ष को क्षेत्रज्ञ के साथ तुलना करें तो स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी निराकार सत्ता की स्थिति अकाट्य है, जो स्वयं पदार्थ में होकर भी पदार्थ से परे-अद्वितीय है। इसे जीव, आत्मा, विचार, ज्ञान, अनुभूति, मन बुद्धि इस तरह की कोई संज्ञा कह सकते हैं।

इससे भी महत् कल्पना तो प्रति ब्रह्मांड की है। अब वैज्ञानिक यह विश्वास करने लगे हैं कि ब्रह्मांड के निर्माण में, जिससे हम परिचित हैं, केवल वही द्रव्य या पदार्थ काम नहीं कर रहा वरन् एक उसी के गुणों वाला किन्तु उससे ठीक विपरीत एक और भी तत्व होना चाहिए, उसका नामकरण अभी से कर दिया है पर उसकी जानकारी और खोज अभी तक अधूरी है। इसका मूल कारण परमाणुओं में प्रति परमाणु की उपस्थिति है। ऋण और धन आवेश आस-पास आते ही एक-दूसरे को रद्द कर देते हैं। उसी प्रकार यह दोनों प्रकार के तत्व होकर भी एक दूसरे से विपरीत पड़ने के कारण परस्पर इस प्रकार आलिंगनबद्ध हो जाते हैं कि उन्हें अलग करना कठिन हो जाता है।

तुलसीदास ने भी यही लिखा है—

गिरा अरथ जल-बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न । बन्दौ सीताराम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न ।।

जो केवल दुःखियों के दुःख दूर करने में निरन्तर रत हैं उन प्रकृति और परमेश्वर को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। वे वाणी में भाव और जल में तरंग की भांति इस तरह गुंथे हैं कि उन्हें अलग अलग कदापि नहीं किया जा सकता।

जो वस्तु है, पर दिखाई नहीं देती, उसके अस्तित्व को कैसे स्वीकार किया जाये, किस प्रकार उसे देखा और उसकी अनुभूति की जाये—यह एक जटिल समस्या है। भारतीय तत्वदर्शन के आधार पर ऐसी योग पद्धतियां विकसित की गई हैं जिनके अभ्यास से इन सूक्ष्म तत्वों की अनुभूति की जा सकती है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार, धारणा, ध्यान समाधि आदि साधन ऐसे ही हैं, जिनसे आत्मचेतना के विभिन्न स्तरों का क्रमिक विकास होता है और अन्न या पदार्थों की क्रमशः सूक्ष्म होती अवस्था—रस, रक्त, मांस, अस्थि, वीर्य, मन, बुद्धि चित्त, अहंकार आदि का तात्विक ज्ञान होता चला जाता है पर यह ऐसी कष्ट साध्य, समय साध्य तथा श्रद्धा और विश्वासभूत प्रक्रियायें हैं, जिन पर आज का बुद्धिमान् या पढ़ा-लिखा व्यक्ति सहज आस्था प्रकट नहीं कर सकता। तर्क की कसौटी पर यह मान्यतायें सही नहीं उतरतीं। आज की प्रत्येक बात विज्ञान के तरीके से स्वीकार की जाती है। यद्यपि उपरोक्त तरीके आत्म-विकास के वैज्ञानिक प्रयोग ही हैं, पर उनका वैज्ञानिक विश्लेषण न हो पाने से ही तथाकथित तार्किक व्यक्ति सन्तुष्ट नहीं हो पाते, उन्हें ईश्वरीय उपस्थिति और आत्म कल्याण के सूत्र वैज्ञानिक ढंग से ही समझाये जा सकते हैं। अब विज्ञान इस स्थिति में आ गया है जब भारतीय तत्व दर्शन को हल्का बनाकर उन्हें भी इन सत्यों से परिचित कराया जा सके।

न्यूटन बगीचे में बैठा था। ऊपर पेड़ से एक सेब गिरा तो न्यूटन चकित हो गया। सामान्य व्यक्ति के लिये इसमें क्या आश्चर्य हो सकता था, पर न्यूटन के मस्तिष्क में उसी बात ने एक भिन्न दिशा पकड़ी। उसने सोचा—यह सेब नीचे ही क्यों आया, आकाश में क्यों नहीं चला गया? इस तर्क ने गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत को जन्म दिया, जो आज तक विज्ञान-जगत का एक विशिष्ट सिद्धांत माना जाता रहा है।

अब उसे सार्वभौमिक नियम बनाने में कठिनाई हो रही है। फ्रांस के वैज्ञानिक पाल काउडर्क ने अपनी पुस्तक ‘ब्रह्मांड विस्तार’ पेज 196 (एक्सपैंशन आफ दि यूनिवर्स) में लिखा है कि—तारा मंडल (गैलेक्सीज) का का दूरगमन न्यूटन के सिद्धांत को तोड़ता है। गुरुत्वाकर्षण के अनुसार तो पदार्थ को सीमित होना चाहिए, वह फैलता क्यों है? आइन्स्टीन का भी मत है कि ‘न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण कोई शक्ति नहीं, वरन् पार्थिव आकर्षण मात्र है।’ वस्तुतः न्यूटन को श्रेय मिला वह तो हमारे भीष्म पितामह को मिलना चाहिए जो आइन्स्टीन से अधिक समीप हैं। भूत पदार्थों के गुणों का वर्णन करते हुए उन्होंने युधिष्ठिर से कहा—

भूमैः स्थैर्य गुरुत्वं च काठिन्यं प्रसवात्मता । गन्धो भारश्च शक्तिश्च संचातः स्थापना घृतिः ।।
—महाभारत शा. प. 261

हे युधिष्ठिर! स्थिरता, गुरुत्वाकर्षण, कठोरता, उत्पादकता, गन्ध, भार, शक्ति, संघात, स्थापना आदि भूमि के गुण हैं।

यह गुण भूमि में ही नहीं, संसार के सभी पदार्थों में है कि वे अपनी तरह के पदार्थों को आकर्षित और प्रभावित करते हैं, भले ही वह दूरी कितनी ही क्यों न हो। इसका सबसे अच्छा विश्लेषण कई हजार वर्ष पूर्व महामुनि पतंजलि ने ‘सादृश्य और आन्तर्य’ सिद्धांत से कर दिया था। गुरुत्वाकर्षण सादृश्य का ही उपखंड है। समान गुणों वाली वस्तुएं परस्पर आकर्षित होती हैं। उससे आन्तर्व पैदा होता है अर्थात् एक स्थान की वस्तुएं दूसरे स्थानों की ओर गमन करती रहती हैं। इसी से सृष्टि-विकास की प्रक्रिया निरन्तर चल रही है—

‘अचेतनेष्वपि, तद् यथा-लोष्ठ क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यग गच्छति नोर्ध्वमारोहति पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्छति-आन्तर्यतः । तथा या एता आन्तरिक्ष्यः सूक्ष्मा आपस्तासां विकारो धूमः । स आकाश देशे निवाते नैव तिर्यग् गच्छति नावागवरोहति । अब्विकारो ऽप एव गच्छतिआन्तर्यतः । तथा ज्योतिषो विकारो अर्चिराकाशदेशो निवाते सुप्रज्वलितो नैव तिर्यग् गच्छति, नावागवरोहति । ज्योतिषो विकारो ज्योतिरेव गच्छति आन्तर्यतः ।’
—2। 1। 50

‘चेतन-अचेतन सबमें आन्तर्य सिद्धान्त काम करता है। मिट्टी का ढेला आकाश में जितनी बाजुओं का ताकत से फेंका जाता है, वह उतना ऊपर चला जाता है, फिर न तो ऊपर जाता है नहीं तिरछा जाता है वह तो पृथ्वी का विकार होने के कारण पृथ्वी में ही आ गिरता है। इसी का नाम आन्तर्य है। इसी प्रकार अन्तरिक्ष में सूक्ष्म आपः (हाइड्रोजन) की तरह का सूक्ष्म जल तत्व ही उसका विकार घूम है। यदि पृथ्वी में घूम होता है तो वह पृथ्वी में क्यों नहीं आता? वह आकाश में जहां हवा का प्रभाव नहीं, वहां चला जाता है—न तिरछे जाता है, न नीचे आता है। इसी प्रकार ज्योति का विकार ‘‘अर्चि’’ है, वह भी न नीचे आता है, न तिरछा जाता है। फिर वह कहां जाता है? ज्योति का विकार ज्योति को ही जाता है।’

इस आन्तर्य के सिद्धान्त से शरीर के स्थूल और सूक्ष्म सभी तत्वों का विश्लेषण कर सकते हैं। इनमें सभी स्थूल द्रव्य आदि अपने-अपने क्षेत्र को चले जाते हैं पर प्रत्येक क्षेत्र का अनुभव कराने वाला अर्चि कहां जाता है? उसे भी आन्तर्य के सिद्धान्त से कहीं जाना चाहिए। उसका भी कोई ब्रह्मांड और ठिकाना होना चाहिए जहां वह ठहर सके। जब इस प्रकार का ध्यान किया जाता है तब एक ऐसी उपस्थिति का बोध होता है जो समय, ब्रह्मांड और गति से भी परे होता है। वह कारण चेतना ही ब्रह्म है। योग का उद्देश्य शरीरस्थ क्षेत्रज्ञ को उस कारण सत्ता में मिला देने का है। आन्तर्य सिद्धान्त ध्यान की इसी स्थिति को सिद्ध करता है। इसीलिये उसे प्रति गुरुत्वाकर्षण कहा जा सकता है अर्थात् मन को अन्य सभी विकारों का परित्याग कर केवल चेतना को चेतना से ही, प्रकाश को प्रकाश से ही मिलाने का अभ्यास करना चाहिए। इसी से पदार्थ से परे, राग-द्वेष आदि पार्थिव विकारों से परे उस शुद्ध बुद्ध, निरंजन आत्मा और परमात्मा की अनुभूति की जा सकती है।

बात किसी भी ढंग से कही जाय, वैज्ञानिक ढंग से अथवा श्रद्धा विश्वास और आस्तिक आस्था के रूप में दोनों अन्ततः एक ही स्थान पर पहुंचते हैं। वेदान्त कहता है कि परमात्मा प्रकृति से भिन्न गुणों वाला है और वैज्ञानिक कहते हैं कि सक्रिय और सूक्ष्म परमाणुओं का एक अलग ब्रह्मांड है। जहां पदार्थ नहीं अपदार्थ शक्ति ही भरी है। इंसान सर्वशक्तिमान की संतान

इस अपदार्थ शक्ति के कारण ही विभिन्न तत्वों में विभिन्न गुण और विशेषतायें हैं। बहुत कम एक दूसरे से सामंजस्य रखते हैं। जिनमें एक ही प्रकार के गुण हों ऐसे तत्वों की कुल संख्या अब तक मुश्किल से 101 तक पहुंची है। किन्तु विभिन्न परिमाण, ताप और वायु-दबाव आदि के साथ भिन्न-भिन्न तत्वों के मिश्रण से अब तक लगभग आठ लाख यौगिकों के निर्माण की पुष्टि हो चुकी है। यह विचित्र बात है कि तत्व परस्पर मिलकर एक ऐसी विलक्षण तीसरी रचना उत्पन्न कर देते हैं जिनमें न मां के गुण हों न बाप के फिर भी मां-बाप विद्यमान दोनों ही रहते हैं।

उदाहरण के लिये हाइड्रोजन व ऑक्सीजन दोनों ही गैसें हैं। दोनों ही ज्वलनशील हैं, किन्तु जब यही दोनों मिलकर एक हो जाते हैं तो न केवल वे गैस से तरल स्थिति में आ जाते हैं अपितु जलाने की अपेक्षा उसका गुण बुझाने का हो जाता है। इस स्थिति में ज्वलनशीलता नष्ट नहीं होती अपितु वह भीतर रहकर पोषण और शक्ति का आधार बन जाती है।

मनुष्य भी इसी तरह परमात्मा व प्रकृति, विचार सत्ता तथा पदार्थ सत्ता दोनों की समन्वित सत्ता है। देखने में उसमें न परमात्मा का-सा उच्च प्रकाश है। न गति ऊर्जा, सक्रियता और सम्वेदनशीलता न ही पूरी तरह जड़ता के गुण- इसी कारण उसे त्रैत् संज्ञा अर्थात् जीव नाम से सम्बोधित किया जाता है। दोनों ही शक्तियां हमारे अन्दर हैं, हम चाहें तो परमात्मा तत्व को जागृत कर महापुरुषों की श्रेणी में पहुंचने का सम्मान प्राप्त कर लें या भौतिक गुरुता विकसित कर आर्थिक, औद्योगिक, स्वास्थ्य, खेलकूद, शिक्षा आदि किसी भी क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति कर अपना भौतिक जीवन और भी सुखी समुन्नत बनालें। दोनों को सन्तुलित रखकर भी क्रमशः आत्मोन्नति की सीढ़ियां पार की जा सकती हैं। एक दिशा यह भी है कि अपनी तामसिक प्रवृत्तियों में ही पड़े रहकर कृमि-कीटकों का सा परवर्ती और पीड़ित जीवन जियें। यह सब मनुष्य के अपने वश की बात है, वह कंचन बने या कांच।

प्रख्यात वैज्ञानिक सर जे.जे टामसन ने हिसाब लगाकर बताया है कि यदि किसी एक परमाणु के भीतर जो शक्ति संगठित है, वह बिखर जाय, तो क्षणांश में ही लन्दन जैसे घने बसे तीन बड़े शहर राख हो जाएं। यह विद्युदणुओं की शक्ति पर आधारित गणना थी। अब पता चला है कि इन विद्यदणुओं की मूल इकाई अति सूक्ष्म प्रकाशाणु है। उनकी शक्ति अनेक गुना अधिक है।

इन तथ्यों से पता चलता है कि हम मानसिक दुश्चिन्ताओं से, भौतिक आकांक्षाओं-लालसाओं से जितने हलके रहते हैं उतने ही शक्तिशाली और श्रेष्ठ बनते हैं। हमारे भीतर एक शक्ति सम्पन्न राक्षस भी बैठा है—वह है अपना अहं—जब यह उग्र हो उठता है तो व्यक्तिगत जीवन में भयंकर कुण्ठायें, असम्मान तथा अमर्यादा के कारण घोर संघर्ष आ घेरता है, सामाजिक जीवन में वही अशान्ति, अव्यवस्था उत्पन्न करता है। तथा ऐसे उपद्रव खड़े करता है जिससे विनाशकारी दृश्य उपस्थित होते देखे जाते हैं, पर यदि प्रकाश की तरह हलके हों तो हमारा दृष्टिकोण प्रकाश की तरह व्यापक, निर्मल तथा गतिशील होता है हमारा चिन्तन अपने तक ही सीमित न रहकर प्राणि मात्र के हित की बात सोचने लगता है। यह स्थिति अपने आप में ही एक ऐसी आन्तरिक स्फुरणा प्रदान करती है, जिसमें शान्ति, शीतलता, सन्तोष और प्रसन्नता की निर्झरणी अपने भीतर ही फूटती प्रतीत होती है।

आइन्स्टीन के ‘‘शक्ति सिद्धान्त’’ के अनुसार एक परमाणु भार को यदि शक्ति में बदला जा सके तो उससे प्रकाश की गति×प्रकाश की गति अर्थात्-186000×186000 प्रतिसैकिण्ड=34596000000 कैलोरी ताप उत्पन्न होगी। एक कैलोरी का अर्थ एक ग्राम पानी को एक सेन्टीग्रेड ताप देने के बराबर होता है। उपरोक्त ताप का अर्थ हुआ कि एक परमाणु के भौतिक द्रव्य में ही इतनी गर्मी होती है कि उससे 3459 कुन्टल 60 किलो पानी को 100 सेन्टीग्रेड तक खौलाया जा सकता है। 1 पौण्ड पदार्थ की शक्ति उतनी होगी जितनी 14 लाख टन कोयला जलाने से होगी। अभी तक वैज्ञानिक इस तरह का कोई संसाधन प्राप्त नहीं कर सके जिससे पदार्थ को पूर्णतः शक्ति में बदला जा सके तथापि यदि यह सम्भव हो सके तो एक पौण्ड पदार्थ की सूक्ष्म शक्ति से सम्पूर्ण अमेरिका को 1 माह तक विद्युत सप्लाई मिल सकती है। मन शरीर के भौतिक द्रव्यमान की विद्युत इकाई या शक्ति प्रवाह है। जितने परिमाण में मन को एकाग्र किया जाता है। उतने ही परिमाण में शरीर के भौतिक तत्व इस विद्युत में बदलने लगते हैं। सम्पूर्ण एकाग्रता की शक्ति का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 120 पौण्ड वजन के शरीर से सारे अमेरिका को लगातार 10 वर्ष तक विद्युत सप्लाई जारी रखी जा सकती है।

हर व्यक्ति इस शक्ति का स्वामी है यह तब है जब कि अभी विज्ञान न तो पूरी तरह चेतन (परमात्मा) न प्रकृति को ही भली प्रकार समझ सका है पूर्णता का तो अनुमान करना ही कठिन है। कल तक यह कहा जाता था-तत्व कुल 92 हैं आज उनकी संख्या 103 तक पहुंच गई है। कल तक अणु के अन्दर थोड़े से परमाणुओं की खोज की जा सकी थी किन्तु आज यह संख्या 200 से अधिक हो गई है। अब इन कणों के भी प्रति कण, प्रति द्रव्य, प्रति पदार्थ निकलते चले जा रहे हैं। तत्व सारिणी में अब तक यूरेनियम धातु सबसे भारी अर्थात् 92 आणविक संख्या की पाई जाती थी किन्तु अब फ्लोरिडा अमेरिका के वैज्ञानिक डा. टी.ए. कैहिल तथा उनके सन्निकट सहयोगी डा. आर.वी. जैटरी ने उसे भी भारी तीन नये तत्वों की खोज कर ली है इनके नामकरण तो नहीं हुए पर इनकी आणविक संख्या के आधार पर इनका नाम 116,124 तथा 128 रख दिया गया है। यह तत्व अनुमानतः 1 अरब वर्ष आयु के हैं।

इस तरह अत्यन्त भार वाले तत्व भी, भले ही देर से ज्ञात हों—शक्ति के पुंज हैं और सृष्टि के आविर्भाव से ही विद्यमान सूक्ष्म तत्व भी। दोनों तत्व परस्पर गुम्फित होने से जड़-पदार्थ तो दृश्य हो जाता है, चेतन अदृश्य रहता है। कारण यह है कि अत्यान्तिक वेग के कारण भार रहित पदार्थ भी भारयुक्त हो जाता है। सूर्य से आने वाली किरणें सूक्ष्म हैं किन्तु आकार की तुलना में उनका भार बहुत अधिक है। सूर्य से धरती पर बरसती रहने वाली प्रकाश किरणों का भार यदि लिया जाये तो प्रतिदिन हजारों टन तथा वर्ष भर में लाखों टन उनका भार निकले। प्रोफेसर ने तो उस भार का हिसाब भी लगाया है कि जो कण जितने ही सूक्ष्म हैं उनका वेग उतना ही अधिक है जिनका वेग जितना अधिक है उनके आधार की तुलना में उनका भार उतना ही अधिक होगा।

न तो यह गति ही आधुनिकतम यन्त्रों से नापी जा सकती है न भार, क्योंकि इन उपकरणों की एक सीमा है, जब कि यह तत्व असीम और अनन्त हैं। इस रूप, इस श्रेणी में मन, भावानुभूतियां तथा संकल्प ही आते हैं। इसी बात को यह कह सकते हैं कि परमात्मा ही अनादि, अनन्त, अद्भुत, सर्वव्यापी और प्रकृति में घुला हुआ एक मात्र चेतन तत्व है हमें उसे समझने का भी प्रयत्न करना चाहिए, मात्र दृश्य व भौतिक पदार्थों की जड़ता में ही नहीं पड़े रहना चाहिये। प्रकाश में भार की तरह भौतिक शक्तियां तो उस तत्व की अनिवार्य उपलब्धि हैं। खेती गेहूं की होती है भूसा तो अपने आप मिलता है। हम अपनी आध्यात्मिकता सार्थक कर सकें तो भौतिक अभाव आज जो कष्ट देते हैं, वे कल अनुचर अनुगामी बन कर भी पीछे-पीछे चल सकते हैं। दोषी न तो परमात्मा है न प्रकृति। दोनों तत्व हमारी रचना, पोषण और विकास में लगे हैं, पर अपनी दृष्टि में ही कुछ ऐसे दोष हैं कि हम स्वयं उस करुणा को हृदयंगम करने से वंचित रह जाते हैं। ऐसे समर्थ माता-पिता का पुत्र होकर मनुष्य दीन-हीन जीवन जिये यह खराब बात है। उसका मूल कारण अज्ञान ही है यह अज्ञानता ही मिटाई जानी चाहिये।

हम देख सकें ऐसे प्रकाश-कणों की सघनता की एक सीमा है। जहां से फोटोन बहुत सघन रूप में हों तथा प्रचुर परिमाण में हों, वहां वे हमारे लिए अगोचर हो जाएंगे, अतः प्रचण्ड प्रकाश की स्थिति वहां होने पर भी मानवीय दृष्टि से वहां घोर अन्धकार ही होगा। उस प्रचण्ड प्रकाश की तुलना में सूर्य का प्रकाश बहुत अधिक स्थूल है। ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’—हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ‘‘तेजो वै तेजो में देहि’’ दिव्य प्रकाश रूप परमेश्वर हमें प्रकाश दें—इन प्रार्थनाओं में परमात्मा को उसी तरह के सूक्ष्म और सर्वव्यापी प्रकाश के रूप में अस्तित्व में सिद्ध किया है। वैज्ञानिक और वेदान्त दोनों का एक ही निष्कर्ष है कि हमें दिखाई देने वाला प्रकाश तो स्थूल है। सूक्ष्म तत्व स्थूल आंखों से दर्शनीय न होने पर भी हमें चारों ओर से आच्छादित किये रहते हैं। उन्हें अनुभव करने के लिए ज्ञान की आत्म-ज्योति जागृत करने वाली साधनाओं की आवश्यकता होती है। अतएव उपासना और स्वाध्याय हमारे जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण अपेक्षायें हैं, इनके बिना विवेक जागृत ही नहीं होता। स्थूल पदार्थों को ही देखते और उन्हीं में उलझे रहते हैं, सूक्ष्म तत्वों की अनुभूति के लिए हमारी उस तरह की तैयारी भी होनी चाहिए। हमारी पहुंच मन को नियन्त्रित रखने और उसे यथार्थ लक्ष्य की ओर नियोजित रखने की स्थिरता भी चाहिए।

मन विचार और भावनाओं की सत्ता सर्व समर्थ है यह न तो काल्पनिक है न ही ऐसे कि उन तक पहुंच न हो महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन की मान्यता यह थी कि संसार में प्रकाश ही सर्वोपरि वेग वाला तत्व है किन्तु अमेरिका के ही एक अन्य वैज्ञानिक डा. गेरार्ड फीनबर्ग ने ऐसे द्रव्याणुओं की कल्पना का समर्थन किया है जिनकी गति प्रकाश के कणों से भी बहु अधिक है अमेरिका की टैक्सास यूनिवर्सिटी में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिक डा. ई.सी.जी. सुदर्शन ने तो यह बात और आधार भूत तथ्यों को व्यक्त करके सिद्ध कर दी है।

एक नये अस्तित्व का आभास

पिछले दिनों विज्ञान ने एक नयी और अद्भुत खोज की है। पदार्थ की सत्ता बहुत समय से ज्ञात है। उसी के उपयोग से मनुष्य साधन संपन्न और प्रगति शील बन सका है। अब प्रतिपदार्थ की सत्ता सामने आयी है और उसके बारे में कहा गया है कि वह पदार्थ की तुलना में कम शक्तिशाली नहीं है। यदि उसका उपयोग कर सकना भी मनुष्य की क्षमता के अंतर्गत आ जाय तो पदार्थ में हलचल पैदा करके जो शक्ति उत्पन्न की जाती है वह प्रकृति के स्वसंचालित प्रतिपक्ष के आधार पर सहज ही बिना श्रम के हस्तगत हो जायगी और तब मनुष्य को सर्वशक्तिमान कहला सकने का गौरव प्राप्त हो सकेगा। विश्व का आधार उपलब्ध कर सकेंगे। तब मानव से ठीक विरोधी दानव तत्व का अस्तित्व और भी अधिक स्पष्टता पूर्वक देखा समझा जा सकेगा।

उपलब्धियों की दिशा में बढ़ते हुए हमारे चरण अपने साथ यह उत्तरदायित्व भी जोड़े हुए हैं कि उपार्जन का उपयोग उच्छृंखल रूप से नहीं वरन् मर्यादित क्रम से किया जाय। ऐसा न हो सका तो विभूतियों का परिणाम विघातक ही होगा।

प्रति अणु, प्रति पदार्थ, प्रति विश्व और यहां तक कि प्रति मानव और प्रति भगवान के अस्तित्व को भविष्य में प्रत्यक्ष किया जा सकता है और करतलगत भी। इन उपलब्धियों से गर्वोन्नत और अनन्त सामर्थ्य सम्पन्न बना जा सकता है। पर मूल प्रश्न की जटिलता बढ़ती ही जाती है कि इन उपलब्धियों का सदुपयोग हो सकेगा या नहीं। यदि उद्धत उच्छृंखलता ही बरती जाती रही तो हम प्रति मानव—असुर के रूप में ही विकसित होंगे।

केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डिराक ने इंग्लैंड की रायल सोसाइटी के सामने एक शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया कि भौतिक जगत में पदार्थ की ही भांति प्रति पदार्थ का भी अस्तित्व मौजूद है। डिराक ने आइन्स्टाइन की सापेक्षता और क्वांटम की भौतिकी का हवाला देते हुए सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि क्रिया की प्रतिक्रिया जिस तरह होती है उसी तरह पदार्थ का प्रतिद्वन्दी प्रतिपदार्थ भी होता है।

उस समय उस प्रतिपादन को आश्चर्यचकित करने वाला मात्र कहा गया था पर पीछे उस सन्दर्भ में शोध कार्य निरन्तर चलता रहा तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ा कि वस्तुतः इस प्रकार की शक्ति इस जगत में मौजूद है और क्षमता की सम्भावना अब तक के उपलब्ध शक्ति स्रोतों की तुलना में कम नहीं वरन् अधिक है।

परमाणु के सम्बन्ध में कभी ऐसा माना जाता था कि वह विभक्त न हो सकने वाली इकाई है पर पीछे वह मान्यता गलत निकली और परमाणु के भीतर इलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रॉन, आदि सूक्ष्म कण पाये गये। इनसे भी सूक्ष्म मेसान, न्यूट्रिनो आदि विभाजनों का पता चल गया है। सौरमण्डल की तरह परमाणु की संरचना पाई गई है उसका मध्य केन्द्र नाभिक— न्यूक्लिअस—कहलाता है। वह प्रोटीन और न्यूट्रॉन से मिलकर बनता है। मेसान कण इन्हें नाभिक के साथ मजबूती से बांधे रहते हैं। इसके अतिरिक्त न्यूट्रिनों नामक एक मात्रा विहीन अत्यन्त रहस्यमय कण नाभिक में विद्यमान रहता है।

एक डिब्बे में गोलियां ठूंस-ठूंस कर खचाखच भर दी जायं तो उनके प्रथक अस्तित्व को देखना या गिनना हमारे लिये सम्भव न हो सकेगा। कुछ गोलियां उनमें से निकाल ली जायं तो बीच में थोड़ी पोल बन जाने के बाद ही उनकी संख्या तथा आकृति समझ सकना संभव होगा। परमाणु के अन्तःक्षेत्र में इसी प्रकार की पोल रहती है उसी के कारण उसके विविध अवयवों का अस्तित्व दृष्टिगोचर एवं गतिशील रहता है।

डिब्बे की गोलियों की पोल को सर्वथा शून्य नहीं माना गया है। परमाणु के भीतर की पोल भी कम क्षमता सम्पन्न नहीं होती। विज्ञान ने पदार्थ की तरह उसके इर्द-गिर्द रहने वाले शून्य भाग को कम शक्तिशाली नहीं माना है वरन् उसमें ऊर्जा का एक अतिरिक्त प्रवाह देखा है।

परमाणु के अन्तः मण्डल की पोल को डिराक ने छिद्र होला—शब्द से सम्बोधित किया है और न छिद्रों में विद्युत का धन आवेश भरा पाया है जब कि ठोस कणों में ऋण विद्युत आवेश रहा करता है। उसने इन छिद्रों में भरी शक्ति को एन्टी इलेक्ट्रोन अथवा पाजिट्रान का नाम दिया है। पाजिट्रान का अस्तित्व देर तक नहीं रहता। उस रिक्तता को भरने के लिए समीपवर्ती कण दौड़ पड़ते हैं। फलतः इलेक्ट्रान और पाजिट्रान के आपसी सम्मिश्रण की क्रिया सम्पन्न होती है। जिसे ध्वंस अथवा विलोपन कहते हैं। इसी विलोपन के कारण फोटान के रूप में अधिक शक्तिशाली ऊर्जा उत्पन्न होती है। इन फोटानों को विद्युत चुम्बकीय विकरण समझा जा सकता है।

पदार्थ की ‘‘प्रति’’ पक्ष की शोध अब बहुत आगे बढ़ गई है और प्रति इलेक्ट्रान, प्रति प्रोटान, प्रति न्यूट्रॉन का अस्तित्व प्रकाश में आया है। पदार्थ के प्रतिद्वन्दी प्रति पदार्थ की अब कोई कल्पना नहीं रही वरन् उसे सुनिश्चित तथ्य के रूप में स्वीकार किया गया है। अब ब्रह्माण्ड का प्रतिद्वन्दी प्रति ब्रह्माण्ड भी शोधकर्ताओं के लिये गम्भीर दिलचस्पी का विषय बन गया है। ऐन्टी और मैटर ऐण्टी पार्टीकल और ऐन्टी युनिवर्स के सम्बन्ध में जो कल्पनायें और सम्भावनायें सामने हैं उनसे प्रतीत होता है कि भगवान के समतुल्य शैतान की सत्ता भी अब सत्य एवं प्रत्यक्ष होने जा रही है।

ब्रह्माण्ड में प्रति पदार्थ का अस्तित्व है इतना ही नहीं वह अपने उग्र क्रिया कलाप में भी संलग्न है ऐसा आभास अन्तरिक्ष विज्ञानियों को मिला है। साइग्रेस और विर्गो नीहारिकाओं से जो सन्देश धरती पर आ रहे हैं उनसे प्रतीत होता है कि उस क्षेत्र में पदार्थ और प्रति पदार्थ के बीच देवासुर संग्राम जैसा अत्यन्त रोमांचकारी मल्ल युद्ध हो रहा है। प्रो. राटजेन द्वारा आविष्कृत एक्सरे, हेनरी बेकरल कृत प्राकृतिक रेडियो धर्मिता, जसर टामसन द्वारा प्रतिपादित इलेक्ट्रान तथ्य, अलबर्ट आइन्स्टाइन द्वारा शोधित सापेक्षिता, अर्नेस्ट रैदर फोर्ड द्वारा सौरमण्डल और परमाणु का समीकरण, नील्स बोर का हाइड्रोजन का हलकापन किसी समय बहुत आश्चर्य और चर्चा के विषय थे। इन दिनों प्रति पदार्थ की सत्ता के सम्बन्ध में उससे भी अधिक ऊहापोह किया जा रहा है।

प्रति पदार्थ में तथ्य, तथ्य और कारण पर्याप्त मात्रा में जुटते जा रहे हैं। यदि इलेक्ट्रान ऋण विद्युत के स्वतन्त्र आवेश हैं तो धन विद्युत के स्वतन्त्र आवेश ग्रस्त इलेक्ट्रान क्यों नहीं हो सकते? यदि पदार्थ की मूल इकाई न्यूट्रॉन एक धनावेश ग्रहण करके प्रोटान बन सकता है तो ऋणावेश ग्रहण करके ऋणावेशित प्रोटान क्यों नहीं बन सकता? इन तर्कों के आधार पर प्रति पदार्थ का अस्तित्व अब असंदिग्ध बनता जा रहा है।

ओवेन चेम्बरलेन और एमीलिओ जी सिग्नेने कुछ त्रुटिपूर्ण प्रति प्रोटान बनाकर दिखा भी दिये हैं। अन्तर इतना ही रहा है कि वे धनावेशित न होकर ऋणावेशित बन पाये। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सामान्य हाइड्रोजन से ठीक विपरीत ‘प्रति ड्यूटिकियम’ की खोज की है। उसका निर्माण प्रति प्रोटान और प्रति न्यूट्रॉन को मिला कर किया गया है। इस निर्माण के अग्रणी डा. सैम्युडालटिंग और डा. लियन एम. लेडर मैन का कथन है इस खोज से आगे एक कदम आगे बढ़ने की गुंजाइश है। प्रति हाइड्रोजन से परे प्रति द्रव्य भी सम्भावित है।

अब प्रति हीलियम से लेकर प्रति यूरेनियम तक की सम्भावना भी उज्ज्वल होती जा रही हैं और खोजे गये रासायनिक तत्वों से विपरीत प्रकार के तत्वों का अस्तित्व सामने आने के सम्बन्ध में भी विज्ञानी आशान्वित हैं। इस आधार पर प्रति द्रव्य ही नहीं प्रति ब्रह्माण्ड को भी किसी दिन मानव अपने करतलगत कर लेना ऐसा सोचना अब एक उत्साह मात्र न रहकर अधिक ठोस तथ्य बनता जा रहा है।

इस सन्दर्भ में एक बड़ी कठिनाई यह अड़ी हुई है कि यदि ये प्रतिस्पर्धी घटक साथ-साथ रखे जायं तो वे एक दूसरे को निरस्त कर देते हैं। इसलिए आशंका है कि दोनों किसी भी क्षेत्र में साथ-साथ नहीं रह सकेंगे। जहां एक रहेगा वहां से दूसरा मुख मोड़कर चल देगा। कणों के साथ प्रतिकणों का ताल-मेल न बैठ सका तो फिर पदार्थ के क्षेत्र में प्रति पदार्थ का अस्तित्व प्रयोगशालाओं तक सीमित रह जायेगा और दोनों की सत्ता से लाभान्वित हो सकना मनुष्य के लिए सम्भव न हो सकेगा।

इतना होते हुए भी अमेरिका की ब्रूक हेवेन प्रयोगशाला के अन्वेषी इस सम्भावना के प्रति बहुत ही उत्साही हैं कि पदार्थ का प्रतिपक्ष आधुनिक भौतिकी अत्यन्त क्रान्तिकारी सम्भावनायें प्रदान करेगा।

भगवान और शैतान की—देवता और असुर की—पुण्य और पाप की—बन्ध और मुक्ति की प्रति पक्षी सत्ताओं का परिचय प्रतिपादन चिरकाल से तत्वदर्शी मनीषियों द्वारा प्रस्तुत किया जाता रहा है। पदार्थ से प्रतिपक्षी प्रति पदार्थ का अस्तित्व भी कुछ अनहोनी या असम्भव बात नहीं है।

शक्ति के स्रोत जितने हाथ लग चुके हैं उससे यह आशा बंधी है कि अभी प्रकृति के अन्तराल में जा पाया जा चुका है उसकी तुलना में जो अविज्ञात एवं अनुपलब्ध है वह असंख्य गुना अधिक है। मानवी प्रयासों में वह सम्भावनाएं भी मौजूद हैं जिसके आधार पर जो प्राप्त करने को रह गया है उसे प्राप्त किया जा सकेगा। ऐसा ही भावी उपलब्धि सम्भावनाओं की कड़ी में प्रति पदार्थ को भी एक और चमत्कारी सिद्ध गिना जा सकता है। प्रति विश्व की खोजकर हम दृश्यमान संसार से ठीक विपरीत के एक नये प्रति विश्व की आग में उन सबको जलाकर खाक कर देंगे जो लाखों वर्षों के सौम्यक्रम को अपना कर प्राप्त किया जा सका है।

क्रिया की प्रतिक्रिया और ध्वनि की प्रतिध्वनि के उदाहरण हम पग-पग पर देखते हैं। दीवार पर फेंककर मारी गई गेंद फेंके गये स्थान की ओर वापिस लौटती है। गुम्बज में जोर से बोले हुए शब्द प्रतिध्वनि होकर गूंजते हैं। क्रोधकारी कटुता का उत्तर उसी स्तर के विरोध प्रतिशोध में मिलता है और सज्जनता लौटकर दूसरों के सद्व्यवहार के रूप में अपने पास ही वापिस लौट आती है। दिन के बाद रात—सर्दी के बाद गर्मी जैसे घटना क्रमों को जन्म के साथ मरण को—जुड़ा देखते हुए इस सहज निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि इस संसार में क्रिया की प्रतिक्रिया का क्रम बहुत ही सुव्यवस्थित रीति से चल रहा है। पैन्डुलम की तरह यहां सब कुछ दिशा और विदिशा के स्तर पर आगे पीछे चलकर सृष्टि संचालक की व्यवस्था में योगदान देने में संलग्न है। शरीर के अन्तर्गत श्वास प्रश्वास, आकुंचन प्रकुंचन रक्ताभिषरण, निद्रा-जागरण, ग्रहण—विसर्जन के रूप में यही सब हो रहा है। नर-नारी के विरोधी किन्तु पूरक अस्तित्व ने ही प्राणधारियों की वंश परम्परा को गतिशील रखा है।

आगे बढ़ने और बहुत कुछ प्राप्त करने की तत्परता और तन्मयता को जितना सराहा जाय—उतना ही कम है, पर उसका पूरक तत्व भी विस्तृत नहीं किया जाना चाहिए। शक्ति सम्पन्नता के साथ उत्तरदायित्व के निर्वाह को भी उतनी सावधानी के साथ सम्हाला जाना चाहिए अन्यथा अवांछनीय प्रयोग में लगी हुई समर्थता जड़मूल को ही नष्ट करती है। प्रतिमानव यदि उभय पड़ा तो फिर न व्यवस्था बनेगी और न शान्ति। हमें इस उद्धत प्रगति के साथ-साथ अपना और अपनी सभ्यता का ही अन्त करना पड़ेगा।
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