दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ

ये रहस्य क्यों नहीं सुलझते

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होनोलूलू से 75 मील की दूरी पर कबाई टापू है यह पश्चिमी आइलैण्ड के हवाइयां ग्रुप में आता है। नहिली के किनारे एक 60 फुट ऊंची और आधा मील लम्बी एक पहाड़ी है। इस में बालू कोरल, शेल्स तथा लावा के कण पाये जाते हैं जो अपने आप में एक आश्चर्य हैं उससे भी आश्चर्य यह है कि इस टीले से प्रायः कुत्ते के भौंकने की आवाज आया करती है। रात के अन्धकार और प्राकृतिक प्रकोप जैसे अवसरों पर यह ध्वनि बहुतायत से सुनने को मिलती है। बच्चों के लिये यह क्षेत्र निषिद्ध है क्योंकि यह बोली सुनकर बच्चे डर जाते हैं। आज तक कोई भी विशेषज्ञ कोई भी वैज्ञानिक उस कारण की खोज नहीं कर पाया कि इस टीले से यह भौंकने की आवाज क्यों आती है। ऐसा भी नहीं है कि पास के किसी गांव से कोई कुत्ते भौंकते हों और उनकी प्रतिध्वनि आती हो। इतिहास में फ्रेड पैटजेल जिसे ‘‘हाग कालर चैम्पियन’’ के नाम से जाना जाता है वह तो उदाहरण है जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि वह इतना ऊंचा बोलता था कि उसकी आवाज 3 मील दूर तक मजे से सुनी जा सकती थी किन्तु इस टापू में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं, कोई भी जन्तु नहीं जिसकी आवाज इतनी दूर तक पहुंच सकती हो। रहस्य ज्यों का त्यों रहस्य बना हुआ है और अपने विश्लेषण की एक लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहा है।

प्रकृति के कुछ रहस्य तो ऐसे हैं, जिन्हें देखकर दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। गाने वाली बालू से भरे रेगिस्तान अभी भी अपने रहस्य बताने के लिए मानवी-बुद्धि को चुनौती दे रहे हैं।

गाने वाली बालू संसार के विभिन्न भागों में पाई जाती है। बारहवीं शताब्दी की बात है—मध्य-एशिया के दुर्गम रेगिस्तान टकला माकान को मार्कोपोलो अपने दल सहित पार कर रहा था। एक शाम खेमा गाढ़ते समय उस दल ने सीटी जैसी सुरीली आवाज लगातार बजते सुनी। इसका कोई कारण समझ में नहीं आया तो दल के कुली भाग खड़े हुए। उन्होंने उसे स्पष्टतः भूत का आतंक माना।

प्रायः सभी कुली भाग खड़े हुए थे, पर तीन को उसने बड़ी मुश्किल से रोका। भूत के आतंक से वे बद-हवास हो रहे थे इस सुनसान में लगातार इतनी मीठी बंशी रातभर आखिर भूत के अतिरिक्त और कौन बजा सकता है। वे निरन्तर भागने की आतुरता व्यक्त करते रहे। मार्कोपोलो ने बड़ी चतुरता से उन्हें रोक पाने में सफलता पाई। उसने बचे हुए तीन कुलियों को अपने पास एक जादू का ताबीज दिखाया और कहा—यह भूतों से रक्षा करने में पूरी तरह समर्थ है। कल जो कुली भागे थे, उन्हें सीटी बजाने वाले भूत ने सामने वाले टीले के पीछे पकड़ कर चबा डाला है और उनकी चमड़ी की डुग्गी बनाकर बजाता फिर रहा है। तुम भागना चाहो तो भले ही चले जाओ, पर तुम्हारी भी वही दुर्गति होगी। हां, मेरे पास रहोगे तो यह ताबीज मेरी ही नहीं, तुम्हारी भी रक्षा कर लेगा। इस आश्वासन से कुली रुक गये और उस रेगिस्तान को पार कर सकना सम्भव हो गया। मार्कोपोलो ने उस सुनसान के संगीत का पता लगाने में बहुत अक्ल लड़ाई, पर कुछ नतीजा नहीं निकला। भूत पर वे विश्वास नहीं करते थे, पर इस नीरव-निनाद का अन्य कोई कारण भी तो समझ में नहीं आता था।

उस रहस्य पर से पर्दा इस शताब्दी के आरम्भ में उठा है। सर आरेल स्टइन ने गोबी मरुस्थल का सर्वे करते हुए यह विवरण प्रकाशित किया कि ‘टकला माकान’ क्षेत्र में बिखरी बालू ध्वनि मुखर है। उससे वाद्य-यन्त्रों की तरह क्रमबद्ध ध्वनि-प्रवाह निकलता है। गोवी मरुस्थल प्रायः आठ लाख वर्गमील में बिखरा पड़ा है। इसके कितने ही क्षेत्र ऐसे हैं, जहां बालू गाती है। इनकी आवाजें अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरह की हैं। टकला-माकान क्षेत्र के पश्चिमी-अंचल ‘अदांस-पादश’ के सारे क्षेत्र की बालू ध्वनि-मुखर है। वहां अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग तरह के संगीत बजते, गूंजते सुने जा सकते हैं।

स्पेन के एक यात्री एन्टेनियो डी. अल्लोआ जब अपने दल के साथ ऐंड्रीज-पर्वत श्रेणी पार कर रहा था तो पंचामार्क नोटी के समीप वायु-मण्डल में गूंजता हुआ संगीत सुना। उसे सुनकर सारा दल भाग खड़ा हुआ। भगोड़ों ने यहां तक बताया कि उन्होंने अत्यन्त विशाल-काय दैत्य की डरावनी छाया भी उस क्षेत्र में भागती-दौड़ती अपनी आंखों से देखी थी।

प्रकृति के कतिपय अद्भुत रहस्यों का पता लगाने में अपने जीवन का महत्वपूर्ण भाग खर्च करने वाले अन्वेषी लेवरी ने दक्षिणी-अमेरिका के दुर्गम अंचलों की खोज-बीन की। उसने स्कूइवो नदी के रेतीले-मैदान में मुखरित होने वाले ध्वनि-संगीत का वर्णन किया है। इसका विवरण सर आर्थर कानन डायल की लास्टवर्ल्ड में विस्तारपूर्वक दिया गया है। इसी प्रकार नील नदी के उस पार कारनक के खंडहरों में दो पत्थर की घूरती हुई प्रतिमायें हैं। दोनों एक दूसरे की ओर मुंह किये एक मील के फासले पर जमी हैं, इनमें से एक प्रतिमा तो पत्थर की तरह चुप खड़ी रहती हैं, पर दूसरी से अक्सर कुछ बोलने की आवाज आया करती है। पत्थर की मूर्ति क्यों और कैसे बोलती है उसका पता लगाने की हर संभव कोशिश की गयी किन्तु अभी तक तो कुछ ज्ञात नहीं हो पाया। मूर्ति में कोई रेडियो यंत्र भी नहीं लगे जिससे अनुमान किया जाये कि संभव है वह अदृश्य शब्द प्रवाहों को पकड़ लेते हों और वह हर्वान में परिवर्तित हो जाते हैं।

चैकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग के दो नवयुवकों के बारे में एक बड़ी विचित्र बात सुनने को आई। यह कि जब दोनों जोर-जोर से सांस लेते हैं तो उनके शरीर के अन्दर से विचित्र प्रकार की ध्वनियां और संगीत आने लगता है, जो किसी समीपवर्ती रेडियो स्टेशन का ब्रॉडकास्ट प्रोग्राम भी हो सकता है। दोनों युवक जोर-जोर से सांस लेते समय किसी लाउड-स्पीकर के सिरे का स्पर्श करते थे तो आवाज इतनी ऊंची हो जाती थी कि सुनने वालों को ऐसा लगता था, जैसे कोई रेडियो पूरा खोल दिया गया हो। दोनों युवक एक फैक्टरी में काम करते थे। डाक्टरों ने उनकी पूरी शरीर परीक्षा की पर कोई कारण न बता सके। अनेक पत्रकारों ने विस्तृत छानबीन की पर निराशा ही हाथ लगी। युवकों के शरीर से संगीत ध्वनियों के प्रसारण का कोई कारण नहीं जाना जा सका।

विश्व विख्यात पर्यटक बर्ट्रेण्ड टामस ने एक बार अरब रेगिस्तान की यात्रा की तो उन्हें कुछ ऐसे बालू के टीले मिले जो गाते थे और उनके गाने की ध्वनियां इतनी स्पष्ट और ऊंची होती थीं कि काफी दूर बैठ कर भी उन्हें मजे से सुना जा सकता था। यात्रा-संस्मरण में टामस ने लिखा है कि यह मधुर-संगीत कई तर के वाद्ययन्त्रों से संयुक्त होता था। कभी ढोलक की आवाज आती थी, कभी वीणा की सी झंकार।

सहारा के रोने वाले टीलों की कथा भी कुछ ऐसी ही है। कैलीफोर्निया में भी बालू के कुछ ऐसे टीले हैं, जो गाते हैं। हवाई द्वीप का एक टीला कुत्ते की सी आवाज में भौंकता है। दक्षिण अफ्रीका में कुछ ऐसी रहस्यमय भीतें हैं, वह अट्टहास तक करती सुनी गई हैं। योरोप में कुछ ऐसे समुद्र तट हैं, जहां यात्री मधुर संगीत ध्वनियों का रसास्वादन करते हैं। लंकाशयर के सेण्ट एनी के समुद्रीतट की बालू को एक विशेष प्रकार से दबाया गया तो उससे विचित्र तरह की ध्वनियां प्रसारित हुईं। वैज्ञानिकों ने इन सब रहस्यों का पता लगाने की चेष्टा की पर अभी तक वे इतना ही जान पाये हैं कि प्रकृति में बालू की तरह के कुछ ऐसे कण हैं, जो परस्पर संघात में प्राकृतिक ध्वनियां निकालते हैं। एक बार कैलीफोर्निया की एक स्त्री भोजन पकाने जा रही थी, अभी वह उसकी तैयारी कर ही रही थी, कि चूल्हें से विचित्र प्रकार के गाने की ध्वनि निकलने लगी। गाना पूरा हो गया, उसने साथ ही ध्वनि आनी भी बन्द हो गई। न्यूयार्क में एक बार बहुत से लोग रेडियो प्रोग्राम सुन रहे थे, एकाएक संगीत ध्वनि तो बन्द हो गई और दो महिलाओं की ऊंची-ऊंची आवाज में बातें आने लगीं। रेडियो स्टेशन से पूछा गया तो पता चला कि वहां से केवल नियम-बद्ध संगीत ही प्रसारित हुआ है। बीच की आवाज कहां से आई यह किसी को पता नहीं है।

अहमदनगर जिले में प्रवरा नदी के तट हर सतराता सोनगांव में बने एक शिव-मन्दिर से आने वाली संस्कृत आवाज को बहुत से लोगों ने जा-जाकर सुना। यह संगीतमय ध्वनि शिवलिंग पर डाले जाने वाले जब की निकासी के लिये बनाई गई नाली से आती थी। पूना के 80 वर्षीय इतिहासज्ञ श्री डी.पी. पोद्दार ने भी इस विचित्र ध्वनि की पुष्टि की थी और आगे अन्वेषण कराये जाने का सुझाव दिया था।

जैसलमेर में भी कुछ बालू के टीले पाये जाते हैं, जहां से कराहने आदि की कई तरह की ध्वनियां सुनी गई हैं। वहां के निवासियों का कहना है कि यह आवाजें इन टीलों में दबी प्रेतात्माओं की आवाजें हैं।

कुछ वैज्ञानिकों ने इन रहस्यपूर्ण संगीत ध्वनियों का कारण रेडियो के शार्टवेव ट्रान्समीटरों को बताया है। उनका विश्वास है कि इस तरह के रहस्य भविष्य में और भी बढ़ सकते हैं। शिकागो में एक महिला ने पुलिस को रिपोर्ट दी है कि वह जैसे ही अपने रसोई घर का दरवाजा खोलती है, उसके विद्युत चालित चूल्हे से एक विशेष प्रकार की संगीत ध्वनि आने लगती है। दरवाजा बन्द करते ही संगीत भी बन्द हो जाता है। इसकी इंजीनियरों ने जांच की तो पाया कि न तो पास में कोई शार्टवेव ट्रान्समीटर्स है और न ही बगल के किसी रेडियो से ध्वनि पकड़ी जा रही है, क्योंकि जांच करते समय पास-पड़ोस के तमाम सेट बन्द करा दिये गये थे।

बिजली के यन्त्रों से इस तरह की ध्वनियां अधिक आती हैं, इसलिये यह रहस्य तात्विक है, ऐसा तो समझा जा रहा है पर अभी यथार्थ तथ्य पकड़ में नहीं आ रहे। सेण्ट लुईस में एक बार एक रात्रि भोज का आयोजन किया गया। जैसे ही संगीतकारों ने वाद्य-यन्त्र उठाये कि उनसे ताजा खबरें प्रसारित होने लगीं। इससे आयोजन के सारे कार्यक्रम ही फेल हो गये। नाइरियाल की एक स्त्री ने बताया कि उसके स्नान करने के टब से गाने की ध्वनियां आती हैं। एलबर्टा के एक किसान का कहना है कि जब वह अपने कुएं के ऊपर पड़ी हुई लोहे की चादर को हटाता है तो कुएं के तल से संगीत सुनाई देने लगता है। पुलिस को सन्देह हुआ कि किसान ने कहीं रेडियो छुपाया होगा। इसलिये इन्च-इन्च जमीन की जांच कर ली। पड़ोसियों के रेडियो भी बरामद कर लिये पर जैसे ही उस लोहे की चादर को हटाया गया, आवाज बार-बार सुनाई दी। और अन्ततः उस समस्या का कोई हल निकाला नहीं जा सकता।

कुओं, बालू के टीलों, समुद्र तट, बिजली के पंखों, चूल्हों और वाद्य-यन्त्रों से संगीत क्यों और कहां से फूट पड़ता है? यह जब तक भी वैज्ञानिकों के लिये एक पहेली बना हुआ है। अब तक इस सम्बन्ध में जितनी जांच और पड़तालें हुई, वह सब की सब अधूरी रह गईं। किसी एक मत पर नहीं पहुंचा जा सका कि इस तरह की संगीत ध्वनियों का अमुक कारण है।

विज्ञान की अधुनातन प्रगति और चन्द्रमा तथा मंगल पर विजय जैसे अभियान-निस्संदेह, यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ और बुद्धिशील प्राणी है। यह बात सदा से स्वीकार भी की जाती रही है, परन्तु इसी कारण वह सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता सामर्थ्यवान इकाई नहीं हो जाता। फिर भी मनुष्य का स्वभाव, प्रकृति, आचार-विचार और संस्कृति पर दिनों-दिन यह दम्भ छाता जा रहा है कि उसकी बराबरी दूसरा कोई प्राणी तो क्या प्रकृति भी नहीं कर सकती। इस दम्भ के कारण ही उसमें स्वार्थ, अनुदारता, अहंकार, अनास्था और अश्रद्धा के बीज दिनों-दिन विकसित होते जा रहे हैं। उदाहरण के लिये यही विचार आम होते जा रहे हैं कि मनुष्य से बड़ा कोई, नहीं है और वह दिनों-दिन और अधिक समर्थ सशक्त होता जायेगा।

इसे दम्भ नहीं तो और क्या कहा जायगा कि विपुला प्रकृति के थोड़े से रहस्य हाथ लग जाने पर मनुष्य अपने आपको प्रकृति और ईश्वर से भी बड़ा समझने लगे यह दम्भ ठीक उसी स्तर का है जैसे अनपढ़ लोगों के गांव में कोई साधारण पढ़ा लिखा व्यक्ति पहुंच जाय और यह दावा करने लगे कि मैं दुनिया का सबसे बड़ा विद्वान हूं। यह दावा दूसरे लोगों की दृष्टि में नितान्त हास्यास्पद ही होगा। कोई व्यक्ति उसके सामने एक जटिल सवाल कर दे और वह उस सवाल को हल न करने के कारण खिसिया उठे, उसी तरह की स्थिति मनुष्य की तब हो जाती है जब प्रकृति उसके सामने ऐसे सवाल कर देती है, जिन्हें वह सुलझा न सके। उस दशा में मनुष्य की अपनी क्षुद्रता और अल्प सामर्थ्य का आभास होता है।

प्रकृति के ऐसे ही रहस्यपूर्ण सवाल जहां तहां बिखरे पड़े हैं और उनका हल आज तक कोई भी वैज्ञानिक या बुद्धिशील मेधावी नहीं कर सका। एक ऐसा ही सवाल प्रकृति ने ब्रिटेन के कुछ क्षेत्रों में किया है, ‘पत्थर’ शब्द का उच्चारण करते ही मन में कठोरता, अनभ्यता और अडिगता की कल्पना उभरती है। कठोर, संवेदनहीन और किसी को कष्ट कठिनाई में देखकर भी प्रभावित न होने वाले व्यक्ति को पाषाण हृदय भी कहा जाता है। परन्तु कुछ पत्थर ऐसे भी होते हैं जो कठोर होते हुए भी मुलायम और नभ्य होते हैं। ब्रिटेन के कुछ क्षेत्रों के अलावा ये पत्थर भारत के हरियाणा के चरखी दादरी क्षेत्र में पाये जाते हैं।

इन पत्थरों की नभ्यता और लचकीलेपन को देख कर लोगों ने इन्हें ‘दिलदार पत्थर’ नाम दिया है। दिल शब्द का उच्चारण करते ही लोचपन और संवेदन शीलता की कल्पना उभरती है। इस तरह का लचीलापन और कोमलता उन दिलदार पत्थरों में पायी जाती है। इन पत्थरों का कोई रंग नहीं होता और ये सामान्य पत्थरों की तरह अपारदर्शी भी होते हैं परन्तु लचक होने के कारण इनका उपयोग किन्हीं निर्माण कार्यों में नहीं होता।

इन पत्थरों का गठन लाखों कोशों के संघटन से होता है और ये कठोर होते हुए भी हवा पानी के प्रभाव से छलनी की तरह छिद्रदार बन जाते हैं। इनमें हवा पानी के आने जाने के लिए पर्याप्त स्थान भी होता हैं। दोनों सिरों को पकड़ कर इन्हें हिलाया जाय तो ये रबड़ की तरह लहराने भी लगते हैं किन्तु फिर भी ये ठोस होते हैं। इस प्रकार के लोचदार और ठोस पत्थर कैसे बनते हैं, विज्ञान अभी इसको नहीं समझ पाया है।

अज्ञात सृष्टा का अद्भुत सृजन

न केवल गाने वाले संगीतकार पत्थर और रेत इस प्रकृति के आश्चर्य हैं अपितु और भी कई विस्मय विमुग्ध कर देने वाली घटनायें आये दिनों देखने पढ़ने में आती है। श्रीनगर से 87 मील दूर अमरनाथ की यात्रा और वहां अपने आप बनने वाले शिवलिंग को देखने के लिए तो भारत के ही नहीं संसार के हजारों लोग जाते हैं। हिन्दू जन अपनी श्रद्धा के सुमन भगवान् आशुतोष के चरणों में समर्पित करने के लिये और दूसरे विदेशी लोग प्रकृति का वह चमत्कार देखने के लिये जिसका कोई वैज्ञानिक विश्लेषण आज तक नहीं किया जा सका।

चन्द्रमा पृथ्वी की एक ऐसी दिशा में अवस्थित है कि वह पृथ्वी वासियों को 30 दिन में—एक पक्ष में क्रमशः बढ़ता हुआ पूर्णमासी के दिन पूर्ण दर्शन देने की स्थिति में आ जाता है तो दूसरी बार क्रमशः घटता हुआ अमावस्या के दिन बिल्कुल छुप जाता है। यहां विज्ञान का कार्य-कारण सिद्धान्त समझ में आता है। कोई क्रिया विशेष कारणों की उपस्थिति में ही सम्भव है, पर जब कोई कार्य कारण बिना सम्भव हो तब? विज्ञान के पास उसका कोई दबाव नहीं। वह ऐसी क्रियायें नहीं मानता पर सृष्टि में यह भी होता है तब मानना पड़ता है कि सृष्टि में सब कुछ स्थूल पदार्थों का ही अस्तित्व नहीं स्थूलोत्तर चेतन अस्तित्व भी हैं और स्थूल से कहीं अधिक सशक्त हैं। अमरनाथ इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। अमावस्या के दिन उस बिन्दु पर कुछ भी नहीं होता जहां उसके दूसरे ही दिन से चन्द्रकला की दशा के ही अनुसार एक हिम शिवलिंग का विकास प्रारम्भ हो जाता है और बढ़ते-बढ़ते यही पूर्णमासी के दिन पूर्ण शिवलिंग का रूप ले लेता है। अमरनाथ अत्यधिक शीत प्रदेश है। वहां साल भर बर्फ जमी रहती है श्रावण के महीने वहां की बर्फ कम होती है मौसम भी कुछ अनुकूल हो जाता है तब हजारों दर्शनार्थी वहां जाकर इस अद्भुत शिवलिंग के दर्शन करते हैं। शिवलिंग के पास ही और भी मूर्तियां जमती हैं उनको पार्वती जी, गणेशजी और कार्तिकेय जी मानकर पूजन किया जाता है। अमरनाथ के इस विचित्र रहस्य के कारण की खोज आज तक कोई भी नहीं कर सका। जो भी उसे देखता है ईश्वर की महिमा कहकर सिर झुका लेता है।

अमरीका के केण्टकी राज्य में मैमथ नामक प्राकृतिक गुफा है इसे मनुष्यों ने नहीं बनाया प्रकृति ने अपने आप बनाया है उसकी कारीगरी देखते ही बनती है। डिजाइनदार खंभे और कमरे कोई 200 मील लम्बे क्षेत्र में फैले हुये हैं। इसी में कई तालाब और नाले भी हैं जिसमें जल विहार भी किया जा सकता है। घनघोर अन्धकार वाली इस गुफा का आश्चर्य उसकी दीवारें हैं अनुमानतः कई दीवारें तो इसमें पांच मंजिल की इमारत जितनी ऊंची हैं। जो कार्य किसी इंजीनियर से हो सकता है वह प्रकृति ने अन्तःप्रेरणा से करके यह दिखा दिया कि उसमें किसी भी योग्यतम इंजीनियर से बढ़कर ही बुद्धि और शक्ति है।

कांगड़ा जिले के डाडा सीखा गांव की एक खण्ड को खोदने पर एक पत्थर मिला। पत्थर किसी इमारत या पुरातत्व विभाग का दबा हुआ न होकर विशुद्ध खनिज था पर जब उसे बाहर निकाला गया तो लोग आश्चर्यचकित रह गये कि उस पत्थर में एक चिड़िया का हूबहू चित्रांकित है। चोंच, पूंछ, पंजे सारे अवयव ठीक किसी चित्रकार जैसे ही हैं उसे देखने के लिये हजारों की भीड़ जमा रहती है लोग समझ नहीं पा रहे जहां हवा पहुंचती नहीं जहां खाने-पीने के नाम पर मिट्टी ही मिट्टी है उस अन्तराल में दबी यह प्रकृति आखिर किस तरह चित्र बनाती रही। कारण कुछ भी हो प्रकृति ने इस उदाहरण से सिद्ध कर दिया कि वह इंजीनियर ही नहीं कुशल चित्रकार भी है।

अमेरिका के पश्चिमी भाग में स्थित ‘‘येलोस्टोन नेशनल पार्क’’ जाने का अवसर मिले तो वहां का ‘‘ओल्ड फेथफुल’’ गोजर अवश्य देखना चाहिये। पृथ्वी के भीतर से प्राकृतिक तौर पर निकलने वाले फोवारों को ‘‘गोजर’’ कहते हैं भूगर्भ शास्त्रियों का कथन है कि पृथ्वी के गर्भ में जल राशि की छिपी तहें हैं। जो तहें ज्वालामुखी पहाड़ों के पास हैं वह कभी-कभी ज्वालामुखी अग्नि ताप के सम्पर्क में आ जाती हैं। यह तापमान उस पानी को उबालने लगता है। आप मिश्रित होने के कारण वह धरती को फोड़कर निकल पड़ता है और पृथ्वी से बाहर गर्म फोवारे के रूप में फूट पड़ता है।

ज्वालामुखी की आग हो अथवा धरती के भीतर का पानी सब प्रकृति के ही विभाग हैं इसलिये इस सकारण दृश्य को भी प्रकृति का ही खेल कहा जा सकता है पर जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह गोजर अपने आप में विचित्रता लिये हुए है वह यह है कि यह लगभग एक घंटे के अन्तर से बराबर छूटता रहता है और इस तरह वह सिद्ध करता है कि प्रकृति को समय और नियमितता का भी ज्ञान है।

आयरलैण्ड के कार्क नगर में पाये जाने वाले ब्लार्नी पत्थरों के चमत्कारिक गुण की चर्चा करना अनुपयुक्त न होगा। ‘‘ब्लार्नी’’ शब्द का अर्थ है वाक्पटुता और जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस पत्थर के बारे में कहा जाता है कि इसे जो भी चूम लेता है उसमें बोलने की सामर्थ्य का चमत्कारिक विकास होता है। यह पत्थर बैनकबर्न की लड़ाई के अवसर पर, जब कि जनरल मैकार्थी ने राबर्ट ब्रूस की सहायतार्थ पांच हजार सैनिक दिये थे, राबर्ट ब्रूस ने ये उपहार स्वरूप मैकार्थी को दिया था मैकार्थी ने उसे अपने किले की बुर्ज पर जड़वा दिया था। आज भी हजारों पर्यटक प्रतिवर्ष कार्क शहर केवल इस पत्थर को चूमने और प्रकृति के अद्भुत प्रभाव से लाभान्वित होने के लिये जाते हैं।

हजारों वर्ष की आयु वाले पेड़

एलोविले—नारमैंडी (फ्रांस) में एक ओक का वृक्ष है जिसकी आयु लगभग 1 हजार वर्ष हो चली। वृक्ष की विशालता और उसके तने की राक्षसी मोटाई देखकर एक अंग्रेज के मन में उसको एक जगह खोखला करके गिरजा घर बनाने की बात आई। उसने अपने विचार को क्रियान्वित भी किया। एक दो मंजिला गिरजा घर इस विशाल वृक्ष के तने में बनाया गया जो 1696 से लेकर अब तक ज्यों का त्यों बना हुआ है एक और गिरजाघर में बैठकर पूजा उपासनायें चलती रहती हैं दूसरी ओर वृक्ष भी ऋतु के अनुसार फलता फूलता रहता है तने के भीतर बना गिरजाघर आश्चर्य हो गया पर उस वृक्ष के नियन्ता को किसी ने भी आश्चर्य से नहीं देखा यह ऐसा ही है जैसे कि लोग विराट् ब्रह्माण्ड में समुद्र की एक बूंद के समान पृथ्वी को ही सब कुछ मानते हैं पर विराट् जगत की कल्पना उन्हें कभी नये ढंग से सोचने की प्रेरणा ही नहीं देती।

बारजक विवारेस में पियरे डिफोरनेल नामक एक ऐसा व्यक्ति हुआ जिसको तीन शताब्दियों का पिता माना गया है। 129 वर्ष जीकर मरने वाले इस किसान ने तीन विवाह किये तीनों पत्नियों से उसे तीन पुत्र हुए पहला पुत्र हुआ 1699 में अर्थात् 17वीं शताब्दी में, दूसरा 1738 अर्थात् 18वीं शताब्दी में तीसरा बेटा जन्मा तब उसकी आयु 120 वर्ष की थी यह सन् 1801 की बात है अर्थात् 19वीं शताब्दी की। इस बच्चे के 9 वर्ष बाद भी वह स्वस्थ जीवन जिया और अपने आपको ‘‘वान्डर बुक आफ स्ट्रेन्ज फैक्टस्’’ (अजनबी सच्चाइयों की आश्चर्यजनक पुस्तक) में उल्लेख होने का पात्र बनाया। किन्तु इस वृक्ष की जो हजार वर्ष से खड़ा है इस बेचारे मनुष्य से क्या तुलना फिर क्यों न यह माना जाय कि प्रकृति का मस्तिष्क मानवीय मस्तिष्क से कहीं अधिक सक्षम और विशाल है।

प्रकृति के रहस्य अगम हैं और उससे भी अगम्य रहस्यपूर्ण हैं चेतन संसार। प्रकृति जब तब मनुष्यों के सामने इस प्रकार की चुनौती भरे प्रश्न खड़े करती रहती है। जिन्हें लाख प्रयत्न करने पर भी बुझा नहीं जा सकता। यह नहीं कहा जा रहा है कि इन रहस्यों को कभी सुलझाया ही न जा सकेगा। सम्भव है आगे चलकर दिलदार पत्थर और संगीतकार रेत का रहस्य सुलझा लिया जाय परन्तु फिर भी ऐसी कितनी ही विचित्रतायें हैं जिन्हें पूरी उम्र तो क्या एक पूरा युग कल्प लगाकर भी नहीं समझा जा सकता। अभी तो यही ठीक से जान पाना सम्भव नहीं हुआ है कि प्रकृति में क्या-क्या है? उसके सम्पूर्ण रहस्यों को समझ पाना तो दूर की बात रही।

जब प्रकृति ही इतनी रहस्यपूर्ण और विचित्र है तो सूक्ष्म चेतना कितनी रहस्यमय होगी? चेतन तत्व कितना गूढ़ होगा? आत्मसत्ता और परमात्मसत्ता के रहस्यों का क्या अनुमान लगाया जा सकता है? और मनुष्य अपनी छोटी-सी बुद्धि से उसे समझने तथा उसकी सत्ता को कपोल कल्पना सिद्ध, करने का दावा किस आधार पर कर सकता है?
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