दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ

अद्भुत जगत का अद्भुत रहस्य

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कई बार दृश्य के अदृश्य में और अदृश्य के दृश्य में परिणत होने की घटनाएं घटित होती रहती हैं और वे इतनी विचित्र होती हैं कि उन्हें भूत-प्रेत, देवी-देवता की करतूत, सिद्धि, चमत्कार अथवा अतीन्द्रिय चेतना की अनुभूति आदि कहकर मन समझाना पड़ता है। वास्तविकता क्या है इसका सही पता लगा सकना और उन अद्भुत घटनाओं का समाधान करण विश्लेषण कर सकना प्रायः सम्भव नहीं ही हो पाता।

इस सन्दर्भ में आये दिन जहां-तहां घटित होने वाली घटनाओं में से दो इस प्रकार हैं—

मनीला की यू.पी.आई. नामक प्रामाणिक समाचार एजेन्सी ने पूरी खोज-बीन के पश्चात् एक समाचार प्रकाशित कराया था कि—कार्नेलियो क्लोजा नामक एक बाहर वर्षीय छात्र जब तक अनायास ही अदृश्य हो जाता है। स्कूल के क्लास से गायब हो जाना और दो-दो दिन बाद वापिस लौटना आरम्भ में लड़के की चकमेबाजी समझा गया किंतु पीछे उसके दिये गये ब्यौरे पर ध्यान देना पड़ा। वह कहता था कोई समवयस्क परी जैसी लड़की उसे खेलने के लिए पास बुलाती है और वह रुई की तरह हलका होकर उसके साथ खेलने, उड़ने लगता है।

पुलिस ने बहुत खोजबीन की, उस पर विशेष पहरा बिठाया गया। यहां तक कि उसके पिता ने कमरे में बन्द रखा तो भी उसका गायब होना नहीं रुका। पीछे किसी पादरी के मन्त्रोच्चार से वह संकट दूर हुआ।

इसी तरह की एक घटना का फ्रांसीसी वैज्ञानिक सेतारियन ने भी उल्लेख किया है। उनकी विश्वसनीयता पर किसी को उंगली उठाने का साहस नहीं हो सकता। उसने एक घटना का उल्लेख किया है—पैरिस की एक प्राचीन प्रतिमा की जब वैज्ञानिकों का एक दल परीक्षा कर रहा था तो वह मूर्ति देखते-देखते अदृश्य हो गई और उसके स्थान पर एक दूसरी विशालकाय मूर्ति आ विराजी जो पहली की तुलना में कहीं बड़ी थी।

यह घटना अभी बहुत पुरानी नहीं हुई है, जिसमें टेनेसी राज्य के गालटिन नगर के एक धनी किसान डेविड लेंग के अचानक गायब हो जाने के समाचार ने दूर-दूर तक आतंक पैदा कर दिया था और उस सम्बन्ध में भारी जांच-पड़ताल हुई थी। वह किसी जरूरी काम से घर से बाहर जा रहा था कि देखते-देखते आंखों के सामने से अदृश्य हो गया और फिर कभी नहीं लौटा। कोई ऐसी वजह भी नहीं थी जिससे वह जान-बूझकर भाग जाता। हंसता-हंसाता यह कहकर घर से निकला था कि ‘‘अभी दस मिनट में आता हूं।’’ जिस स्थान से वह गायब हुआ था उसके आस-पास पन्द्रह फुट के घेरे की घास बुरी तरह झुलस गई थी। पुलिस तथा दूसरे खोजी सिर तोड़ प्रयत्न करने पर भी उसका कुछ पता न लगा सके।

ऐसी घटनाओं की विवेचना करते हुए वैज्ञानिक क्षेत्रों में कई प्रकार से चर्चा होती रहती है। अब विज्ञान इस निश्चय पर पहुंच चुका है कि मनुष्य की इन्द्रिय चेतना के आधार पर विकसित बुद्धि जितना जान पाती है, दुनिया वस्तुतः उससे कहीं अधिक है। उसे न बुद्धि समझ पाती है और न मानव निर्मित यन्त्र ही उसे पूरी तरह पकड़ पाते हैं। फिर भी कुछ विशेष सूक्ष्म सम्वेदना वाले यन्त्र थोड़ी बहुत जानकारी कभी-कभी देते रहते हैं और यह सिद्ध करते हैं कि प्रत्यक्ष दर्शन न केवल अधूरा वरन् भ्रामक भी है। हम नित्य ही सूर्य की ‘धूप’ को देखते हैं। पर सचाई यह है कि धूप कभी भी नहीं देखी जा सकती। उसके प्रभाव से प्रभावित पदार्थ विशेष स्तर पर चमकने लगते हैं, यह पदार्थों की चमक है। सूर्य की किरणें जो इस चमक का प्रधान कारण है हमारी दृश्य शक्ति से सर्वथा परे हैं। अन्तरिक्ष में प्रायः पूरे सौर मण्डल को प्रकाशित एवं प्रभावित करने वाली धूप वस्तुतः सोलर स्पेक्ट्रमा—सौरमण्डलीय वर्ण क्रम है। उसे ऊर्जा की तरंगों एवं स्फुरणाओं की एक सुविस्तृत पट्टी कह सकते हैं। इस पट्टी में प्रायः 10 अरब प्रकार के रंग हैं। पर उनमें से हमारी आंखें लाल से लेकर बैंगनी तक एक-एक रंग सप्तक की तथा उसके सम्मिश्रणों को ही देख पाती हैं। बाकी सारे रंग हमारे लिए सर्वथा अदृश्य अपरिचित और अकल्पनीय हैं।

अब हम कुछेक सूक्ष्म किरणों को किन्हीं विशेष यन्त्रों की सहायता से देख समझ सकने में थोड़ा-थोड़ा समर्थ होते जाते हैं। जैसे धूप में ‘‘इन्फ्रारेड’’ तरंगें देखी तो नहीं जातीं पर जलन के रूप में अनुभव होती हैं। इन किरणों का फोटोग्राफी में प्रयोग करके दुनिया का वास्तविक रंग विचित्र पाया गया है घास-पात, पेड़-पौधे वस्तुतः बिल्कुल सफेद हैं, आसमान समुद्र बिल्कुल काले। जबकि पत्तियां हरी और आसमान तथा समुद्र नीले दीखते हैं। इन किरणों की सहायता से अमेरिका ने क्यूबा में लगे रूसी प्रक्षेपणास्त्रों के फोटो हवाई जहाज में खींचे थे। आश्चर्य यह कि उसमें वे उन जलती सिगरेटों के फोटो भी आ गये जो 24 घण्टे पहले वहां के कर्मचारियों ने जलाई थीं और वे तभी बुझ भी गई थीं। दृश्य जगत में पदार्थ समाप्त हो जाने पर भी वह अन्तरिक्ष में अपनी स्थिति बनाये रह सकता है यह अजूबा हमें भूत और वर्तमान के बीच खिंची हुई लक्ष्मण रेखा से आगे बढ़ा ले जाता है। जो वस्तु अपने अनुभव के अनुसार समाप्त हो गई वह भी अन्तरिक्ष में ‘वर्तमान’ की तरह यथावत् मौजूद है, यह कैसी विचित्रता है।

ट्रेवर जेम्स ने इन्फ्रारेड मूवी फिल्म के लिए प्रयुक्त होने वाले एक विशेष कैमरे आई.आर. 135 का उपयोग करके मोजावे रेगिस्तान के अन्तरिक्ष की स्थिति चित्रित की है। फिल्म में ऐसे पक्षी दिखाई पड़ते हैं जो अपनी आंखों से कभी भी दिखाई नहीं पड़ते।

जीवाणुओं की अपनी अनोखी दुनिया है; वे मिट्टी, घास-पात, पानी और प्राणियों के शरीरों में निवास करते और अपने ढर्रे की मजेदार जिन्दगी जीते हैं। पर हम उनमें से कुछ को ही सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से देख पाते हैं। बाकी तो इतने सूक्ष्म हैं कि किसी भी यंत्र की पकड़ में नहीं आते किन्तु अपने क्रिया-कलाप बड़ी शान के साथ जारी रखते हैं। शास्त्रकार ने उसे ‘‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’’ कहा है। परमाणु से भी गहरी—उसकी संचालनकर्त्री सूक्ष्मता को देखा और जाना तो नहीं जा सका पर उसका आभास पा लिया गया है। महतो महीयान् की बात भी ऐसी ही है। विशालकाय ग्रहपिण्ड और निहारिका समुच्चय अत्यन्त विशाल है इतना विशाल जिसकी तुलना में अपना सौरमण्डल बाल बराबर भी नहीं है। फिर भी वह सब, कुछ अधिक दूरी होने के कारण दीखता नहीं। रेडियो, दूरबीनें जिन आकाशीय पिण्डों का परिचय देती है वह आंखों से देखे जा सकने वाले सितारों की तुलना में अत्यधिक विस्तृत हैं। आश्चर्य यह है कि यह रेडियो, दूरबीनें भी पूरी धोखेबाज है वे अब से हजारों लाखों वर्ष पुरानी उस स्थिति का दर्शन करती हैं जो सम्भवतः अब आमूलचूल ही बदल गई होंगी सम्भव है वे तारे बूढ़े होकर मर भी गये हों जो हमारी रेडियो, दूरबीनों पर जगमगाते दीखते हैं।

अल्ट्रा वायलेट फोटोग्राफी से ऐसे प्राणियों के अस्तित्व का पता चलता है जो हमारी समझ, परख और प्रामाणिकता के लिए काम में लाई जाने वाली सभी कसौटियों से ऊपर हैं। इन प्राणियों को ‘प्रेत मानव’ अथवा ‘प्रेत प्राणी’ कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। अब हमारे परिवार में यह अदृश्य प्राणधारी भी सम्मिलित होने आ रहे हैं। सूक्ष्म जीवाणु की तरह उनकी हरकतें और हलचलें भी अपने अनुभव की सीमा में आ जायगी।

हर्वर्ट गोल्डस्टीन ने अपने शोध निबन्ध ‘‘प्रापगेशन आफ शार्ट रेडियो वेव्स’’ में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि वायुमण्डल में संव्याप्त अपवतनाव प्रवणता के पर्दे से पीछे अदृश्य प्राणियों की दुनिया है। वह दुनिया हमारे साथ जुड़ी हुई है और दृश्यमान सहचरों से कम प्रभावित नहीं करती। वर्तमान सूक्ष्मदर्शी साधन अपर्याप्त है तो भी हमें निराश न होकर ऐसे साधन विकसित करने चाहिए जो इस अति महत्वपूर्ण अदृश्य संसार के साथ हमारी अनुभव चेतना का सम्बन्ध जोड़ सकें।

साधारणतया हमारी जानकारी पदार्थ के तीन आयामों तक सीमित है—लम्बाई-चौड़ाई और ऊंचाई। अब इसमें ‘‘काल’’ को चौथे आयाम के रूप में सम्मिलित कर लिया गया है। आइन्स्टीन ने अपने सापेक्षवाद सिद्धान्त की विवेचना करते हुए यह समझाने का प्रयत्न किया है कि यह भौतिक संसार वस्तुतः ‘‘संयुक्त, चतुर्विस्तारीय दिक् काल जगत्’’ है। वे देश और काल की वर्तमान मान्यताओं को एक प्रकार से सापेक्ष और दूसरे प्रकार से अपूर्ण अवास्तविक मानते हैं।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डा. राबर्ट सिरगी अपने दल के साथ ऐसे उपकरण बनाने में संलग्न हैं जिनसे पदार्थ के चौथे आयाम को समझ सकना सम्भव हो सके। वे कहते हैं जो हम जानते और देखते हैं उनसे आगे की गतियां और दिशाएं मौजूद हैं, हम केवल तीन आयामों की परिधि में आने वाले पदार्थों का ही अनुभव कर पाते हैं जब कि इससे आगे भी एक विचित्र दुनिया मौजूद है। उस विचित्रता को समझे बिना हमारी वर्तमान जानकारियां बाल बुद्धि स्तर की ही बनी रहेंगी।

दृश्य का अदृश्य बन जाना और अदृश्य का दिखाई देने लगना मोटी बुद्धि से बुद्धि भ्रम अथवा कोई दैवी चमत्कार ही कहा जा सकता है। इतना होते हुए भी एक ऐसे सूक्ष्म जगत का अस्तित्व मौजूद है जो अपने इस ज्ञात जगत् की तुलना में न केवल अधिक विस्तृत वरन् अधिक शक्तिशाली भी है। भूतकाल में उसे सूक्ष्म जगत एवं दिव्य-लोक कहा जाता रहा है। उसमें पदार्थों का ही नहीं प्राणियों का भी अस्तित्व मौजूद है। वे प्राणी मनुष्य की तुलना में बहुत छोटे भी हो सकते हैं और बहुत बड़े भी। आवश्यकता एवं परिस्थितियां उनकी भी हो सकती है और जिस प्रकार हम उस सूक्ष्म जगत के साथ सम्बन्ध जोड़ने को उत्सुक हैं उसी प्रकार वे भी हमारे सहचरत्व के लिए इच्छुक हो सकते हैं प्राणियों और पदार्थ का लुप्त एवं प्रकट होते रहना इन स्थूल और सूक्ष्म जगत के बीच होते रहने वाले आदान-प्रदान का एक प्रमाण हो सकता है। सुप्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक एच.जी. वेल्स ने अपनी एक पुस्तक ‘‘दि इन विजिविल मौन’’ अदृश्य मानव में उन सम्भावनाओं पर प्रकाश डाला है, जिनके अनुसार कोई दृश्य पदार्थ या प्राणी अदृश्य हो सकता है और अदृश्य वस्तुएं दृष्टिगोचर होने लग सकती हैं। इस विज्ञान की उन्होंने अपर्वतनांक—रिफ्रैक्टिव इण्डिसेन्स—नाम देकर उसके स्वरूप एवं क्षेत्र का विस्तृत वर्णन किया है।

हम ज्ञात को ही पर्याप्त न मानें। प्रत्यक्ष को ही सब कुछ न कहें। प्रस्तुत मस्तिष्कीय और यान्त्रिक साधनों को सीमित मानकर न चलें और जो अविज्ञात हैं उसकी शोध में बिना किसी पूर्वाग्रह के लगे रहें तो इस अणोरणीयान महतो महीयान् जगत के वे रहस्य जानने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं जो अभी तक नहीं जाने जा सके। कोई भी अकेला नहीं

कई बार ऐसी घटनायें देखने को मिलती हैं कि उनके कारणों को लेकर बुद्धि चकरा जाती है। ‘भूमध्य सागर’ में स्थित 45 मील लम्बा और बीस मील चौड़ा एक द्वीप है मार्टीनिक, यह द्वीप ऊंचे पर्वतों और सघन वनों से घिरा हुआ है। उनमें से एक सबसे ऊंचे पर्वत शिखर माउण्ट पेली के उत्तरी सिरे पर एक ज्वालामुखी—ला मांतेन बहुत दिनों में अपना अस्तित्व बनाये हुए है। इस द्वीप का प्रमुख नगर है—सेंट पियरे।

यह ज्वालामुखी अठारहवीं सदी में प्रकट हुआ था। सन् 1851 के छोटे विस्फोट की भी लोगों को याद थी। उसमें गर्जन तर्जन ही दिखाया था, कभी कोई बड़ी हानि नहीं पहुंचाई थी। पर सत्तर वर्ष पूर्व सन् 1902 में तो वह ऐसा मचला कि एक प्रकार से उस क्षेत्र के लिए प्रलय ही उपस्थित कर दी।

23 अप्रैल को अचानक ला मांतेल सक्रिय हुआ। माउण्ट पेली के पश्चिमी और दक्षिणी ढलान पर राख, और अंगारे बरसने शुरू हुए। भूकम्प जैसे झटके लगे। दो दिन बाद ज्वालामुखी उग्र हो उठा। चट्टानें लाल पड़ गईं। आग का भयंकर गुब्बारा फूट पड़ा। राख की दूर-दूर तक वर्षा होने लगी। सेन्ट पियरे नगर के निवासी गर्मी से अकुलाने लगे। पर वे सोचते यही रहे कि यह कोई सामयिक घटना है। दो चार दिन में सब कुछ अपने आप ठीक हो जायगा।

दो सप्ताह तक ऐसी ही गड़बड़ चलती रही। 7 मई को प्रभात होने भी न पाया था कि—माउण्ट पेली ने भयंकर रूप से गर्जन आरंभ कर दिया और ज्वालामुखी से रंग-बिरंगी ज्योति किरणें चमकने लगीं। समुद्र में भारी तूफान आया। चट्टानें और मिट्टी उछल-उछल कर चारों ओर बिखर गये। समुद्र तट पर हजारों टन मछलियों की लाशें जमा हो गईं।

इस स्थिति में नागरिक चिन्तित तो थे पर यह किसी को आशा न थी कि स्थिति कुछ असाधारण या अप्रत्याशित हो उठेगी। देहात से ग्रामीण जनता भाग कर शहर को आ रही थी, उसका ख्याल था कि शहर अधिक सुरक्षित होते हैं। स्थिति बिगड़ती देखकर तत्कालीन गवर्नर मौट्टेत ने स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक समिति नियुक्त की उसने भी यह निष्कर्ष निकाला कि बड़े खतरे जैसी कोई बात नहीं है।

सवेरे के आठ बजे। ज्वालामुखी का मुंह फटा। घनी काली भाप तोप जैसी कर्ण भेधी ध्वनि के साथ निकली और आकाश में दूर-दूर तक छा गई। काली छतरी की तरह घोर अन्धकार उत्पन्न करती हुई वह गिलगिली भाप तेजी से उठी और उसने एक प्रकार से अपनी चादर में सारा ही क्षेत्र ढक लिया। लोग हक्का-बक्का हो गये। क्या हो रहा है, क्या होने वाला है, क्या किया जाय, किसी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था।

उबलती हुई भाप ने जल प्रलय जैसा रूप बनाया और वह इस तरह दौड़ी मानो नगर को निगल जाना ही उसका लक्ष्य हो। आगे आगे धूल उड़ रही थी, पीछे धुंआ उमड़ रहा था। उससे आग की लपटें और रंग-बिरंगी बिजली जैसी चमक उठ रही थी। उसके पीछे भाप का तूफान लहराता चला आ रहा था। देखते देखते उसने सारे नगर को अपनी कुण्डली में कस लिया। भट्टी में पड़े हुए लकड़ी के टुकड़े की तरह सारा नगर अपनी शोभा सुषमा को खोकर अग्निमय हो गया।

तूफान की भयानकता रोमांचकारी थी। बन्दरगाह पर खड़े जहाज उलट कर डूब गये। जो डूबने से बच गये उनने अपने लंगर खोल दिये और लड़खड़ाते हुए खुले समुद्र में किसी भी ओर भागे। जो तट से दूर थे उन्होंने अपने कदम पीछे मोड़ लिये।

विस्फोट इतना तीव्र और इतना अकिस्मक था कि उस द्वीप के निवासी कई घण्टों तक यह समझ ही न सके कि कहां क्या हो रहा है? गवर्नर ने गश्ती जहाज को स्थिति का पता लगाने भेजा तो जलते हुए सेन्ट पियरे तक पहुंच सकना उसके लिए भी सम्भव न हो सका। शक्तिशाली दूरबीनों से सिर्फ इतना देखा, जाना जा सका कि नगर एक चिता की तरह जल कर बुझने की स्थिति में मुरझाता जा रहा था। राडडम जहाज का कप्तान अपने जहाज को भगाकर पड़ौस के द्वीप सेन्ट लूशिया के कैस्त्रीज बन्दरगाह के लिए ले जाने लगा तो गर्मी से उसके हाथों का मांस लटक पड़ा। बाईस नाविक तो डेर पर ही झुलस कर मर गये।

तूफान में जब हलकापन आया और स्थिति का लेखा-जोखा लिया गया तो पता चला कि तीस हजार की आबादी में तीन व्यक्ति जले-भुने सिसकते मिले जो कुछ ही घण्टे बाद मर गये।

इस समस्त नगर में एक ही व्यक्ति जीवित बचा। वह था जेल में कैद पच्चीस वर्षीय आगस्त सिल्वेयरिस। उसे यातना पूर्ण कैद की सजा मिली थी और जमीन के नीचे एक कोठरी में बन्द करके रखा गया था। इस कोठरी में हवा के लिए एक छोटा सा छेद दरवाजे के पास था। तीन दिन बाद जब नगर की खोज खबर लेना सम्भव हुआ तो जेलखाने के खण्डहरों में से किसी के कराहने की आवाज आई। मलबा खोद कर निकाला गया तो आगस्त जीवित बचा हुआ पाया गया।

विस्फोट ने सेन्ट पियरे नगर को पूरी तरह निगल लिया। इसके आगे वाला क्षेत्र में भी जीवित प्राणि कोई नहीं बचा पर वहां तक प्रवाह हलका हो जाने से सम्पत्ति की हानि उतनी नहीं हुई। इसके बाद में वृक्ष वनस्पति जल गये पर मनुष्यों ने भाग कर अपनी जान बचाली। मृत्यु का प्रवाह कुछ ऐसा विचित्र बहा कि जहां एक सीसा रेखा का सब कुछ नष्ट हो गया वहां उसके पास की सीमा रेखा में किसी का कुछ भी नहीं बिगड़ा। अनुमान किया जाता है कि उस विस्फोट में कम से कम 2000 डिग्री फारेनहाइट गर्मी थी। भाप और धुंए के साथ उतने घातक और विषैले पदार्थ भरे थे कि उनकी चपेट में जो भी आया बच न सका। विस्फोट की गैस ने उस क्षेत्र के अधिकांश लोगों के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डाला और वे बहुत दिनों तक बीमारियों के ग्रास बने कराहते रहे।

आगस्त की जीवन रक्षा हगज संयोग भी कहा जाता है। परंतु तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य अकेला नहीं, उसके साथ उसका भगवान भी है, जिसे वह बचाता है उसे इस तरह बचा लेता है जैसे इस प्रलयंकारी तूफान में समस्त नगर जल जाने पर भी सेंट पियरे का वह जमींदोज कैदी बच गया। मनुष्य ने तो उसे मारने में कोई कमी नहीं रखी थी। जिस स्थिति में उसे कैद कर रखा गया था, उसमें वह बहुत दिन तक जीवित नहीं रह सकता था पर जब, भगवान को बचाना हुआ तो इस तरह बच गया जिसे देख कर भौतिक नियमों को ही सब कुछ मानने वालों को चकित रह जाना पड़ता है।

प्रहलाद का जीवन क्रम ऐसा ही है। उसका पिता हिरण्यकश्यपु, उसकी बुआ होलिका उसे मार डालने के लिये हर चन्द प्रयत्न करते रहे पर बचाने वाले ने बताया कि मनुष्य से भगवान की शक्ति अधिक है। मारने वाला ही सब कुछ नहीं—बचाने वाला भी ‘कुछ’ है। कुम्हार के धधकते हुए अवे में से जब बिल्ली के बच्चे जीवित निकले तो प्रहलाद को विश्वास हो गया कि भौतिक नियमों से ऊपर भी कोई दिव्य नियम व्यवस्था मौजूद है और यदि यह सहायक हो तो बड़ी से बड़ी आपत्तियों का शमन हो सकता है। सन्त कबीर ने इस सत्य को अधिक गहराई के साथ जाना था, और उनने हर किसी से कहा था—संसार के विरोध अवरोध की चिन्ता न करके उस परम शक्तिशाली को पकड़ा जाय, जिसके अनुकूल रहने पर संसार की समस्त प्रतिकूलतायें निरस्त हो जाती हैं। कबीर का एक दोहा—याद रखने ही योग्य है—

जाको राखै साइयां, मार न सकता कोय । बाल न बांका कर सके जो जग बैरी होय ।।

सेन्ट पियरे की उस रोमांचकारी दुर्घटना में सब कुछ दुःखदायक दुर्घटना भरा चित्रण ही है वहां एक प्रकाश की किरण भी विद्यमान है कि कोई समर्थ सत्ता ऐसी भी है जो यदि चाहे तो घोर विभीषिकाओं के प्रस्तुत रहते—किसी को उबार सकती है।

हम ऐसी महान् सत्ता का मजबूती से पल्ला पकड़ें तो उसमें अपना ही हित साधन है। वैसे भी कठिनाइयों से डर कर यदि हिम्मत हार बैठा जाय तो बात दूसरी है अन्यथा प्राणधारी की अदभ्य जीवनेच्छा इतनी प्रबल है कि वह बुरी से बुरी परिस्थितियों में जीवित ही नहीं फलता फूलता भी रह सकता है।

जीवन सभी परिस्थितियों में संभव

उत्तरी ध्रुव पर ‘एस्किमो’ नामक मनुष्य जाति चिर काल से रहती है। वहां घोर शीत है। सदा बर्फ जमी रहती है। कृषि तथा वनस्पतियों की कोई सम्भावना नहीं। सामान्य मनुष्यों को उपलब्ध होने वाले साधनों में से कोई नहीं फिर भी वे जीवित हैं। जीवित ही नहीं परिपुष्ट भी हैं। परिपुष्ट ही नहीं सुखी भी हैं। हम अपने को जितना सुखी मानते हैं वे उससे कम नहीं कुछ अधिक ही सुखी मानते हैं और सन्तोष पूर्वक जीवन यापन करते हैं। जरा सी ठण्ड हमें परेशान कर देती है पर एस्किमो घोर शीत में आजीवन रहकर भी शीत से प्रभावित नहीं होते।

जीवनेच्छा जब तितीक्षा के रूप में विकसित होती है और कष्ट साध्य समझी जाने वाली परिस्थितियों से भी जूझने के लिए खड़ी हो जाती है तो मानसिक ढांचे के साथ-साथ शारीरिक क्षमता भी बदल जाती है और प्रकृति में ऐसा हेर-फेर हो जाता है कि कठिन समझी जाने वाली परिस्थितियां सरल प्रतीत होने लगें। वन्य प्रदेशों के निवासी—सभ्य शहरी लोगों की तुलना में जितने अभाव ग्रस्त हैं उतने ही सुदृढ़ भी रहते हैं। परिस्थिति को अनुकूल बनाने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए पर परिस्थिति के अनुकूल अपने को ढालने की मनस्विता एवं तितीक्षा के लिए भी तत्पर रहना चाहिए।

जीव जगत में यह प्रक्रिया जहां भी अपनाई गई है वहां दृढ़ता बढ़ी है। पौधों में भी ऐसे साहसी मौजूद हैं जिन्होंने घोर विपरीतता से जूझ कर न केवल अपना अस्तित्व कायम रखा है वरन् शोभा, सौन्दर्य की सम्पदा का स्थान भी पाया है।

घोर विपरीत परिस्थितियों में स्वावलम्बी जीवन जीने वाले पौधे पैदा होते हैं जहां पानी का अभाव रहता है। उनकी आत्म निर्भरता यह सिद्ध करती है कि जीवन यदि अपनी पर उतर आये—तन कर खड़ा हो जाये तो विपरीत परिस्थितियों के आगे भी उसे पराजित नहीं होना पड़ता।

अमेरिका के मरुस्थल में और दक्षिणी अफ्रीका में पाये जाने वाले कैक्टस इसी प्रकार के हैं। वे जल के अभाव में जीवित रहते हैं। रेतीली जमीन में हरे-भरे रहते हैं और सब को सुखा जला डालने वाली गर्मी के साथ अठखेलियां करते हुए अपनी हरियाली बनाये रहते हैं।

विकट परिस्थितियों के बीच रहने के कारण कुरूप भी नहीं होते वरन् बाग उद्यानों में रहने वाले शोभा गुल्मों की अपेक्षा कुछ अधिक ही सुन्दर लगते हैं। रेशम जैसे मुलायम, ऊन के गोले जैसे दर्शनीय, गेंद, मुद्गर, सर्प, स्तम्भ, ऊंट, कछुआ, साही, तीतर, खरगोश, अखरोट, कुकुरमुत्ते से मिलती-जुलती उनकी कितनी ही जातियां ऐसी हैं जिन्हें वनस्पति प्रेमी अपने यहां आरोपित करने में गर्व अनुभव करते हैं। पत्तियां इनमें नहीं के बराबर होती हैं, प्रायः तने ही बढ़ते हैं पर उनकी ऊपरी नोंक पर ऐसे सुन्दर फूल आते हैं कि प्रकृति के इस अनुदान पर आश्चर्य होता है जो उसने इस उपेक्षित वनस्पति को प्रदान किया है।

पथरीली और रेतीली भूमि में—असह्य सूर्य ताप के बीच, पानी का घोर अभाव सहते हुए यह पौधे जीवित रहते और हरे-भरे बने रहते हैं। इन्हें रेगिस्तान का राजा कहा जाता है। पथरीली भूमि में दूसरे पौधे जीवित नहीं रह पाते क्योंकि वहां मिट्टी तो होती नहीं। पौधों के लिए आवश्यक पानी कैसे ठहरे? पानी के बिना पौधे कैसे जियें? कैक्टस पौधों की सचेतना ऐसी है कि वे पानी के लिए जमीन पर निर्भर नहीं रहते। जब वर्षा होती है तब सीधे इन्द्र भगवान से अपनी आवश्यकता भर का पानी मांग लेते हैं और अपनी कोशिकाओं में भर लेते हैं। प्रधानतया तो यह जल भण्डार तने में ही रहता है पर यदि उस जाति में पत्ते निकले तो उसमें भी उसी तरह की जल संग्राहक कोशिकाएं रहेंगी। यह तने पत्तियों की आवश्यकता भी स्वयं ही पूरी कर लेते हैं। सूर्य नारायण से आवश्यक प्रकाश प्राप्त करते रहने की क्षमता भी अपने में बनाये रहते हैं। तने में भरा हुआ जल भण्डार इतना प्रचुर होता है कि यदि लगातार छह वर्षों तक पानी न बरसे, इन्द्र देव रूठे रहें तो भी उनका एक तिहाई पानी ही मुश्किल से चुक पाता है।

सूर्य का ताप उनकी तरलता को भाप बना कर उड़ा न ले जाय इसके लिए उनका सुरक्षा आवरण बहुत मजबूत होता है। तनों का बाह्यावरण मोटा ही नहीं मजबूत भी होता है और उसमें ऐसे एक मार्गी छेद होते हैं जो सूर्य से प्रकाश तो ग्रहण करते हैं पर अपनी तरलता बाहर नहीं निकलने देते।

कैक्टस जानते हैं कि अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध आप किये बिना गुजारा नहीं। इस दुनिया में उनकी कमी नहीं जो दूसरों का उन्मूलन करके ही अपना काम चलाते हैं। इनके सामने नम्र सरल बनकर रहा जाय तो वे उस सज्जनता को मूर्खता ही कहेंगे और अनुचित लाभ उठायेंगे। भोले कहे जाने वालों का शोषण इसी प्रकार होता रहा है। वे इस तथ्य से अवगत प्रतीत होते हैं। तभी तो अपनी सुरक्षा के लिए—आक्रमणकारियों के दांत खट्टे करने के लिए उनने उचित व्यवस्था की हुई है। दूसरों पर आक्रमण भले ही न किया जाय पर अपनी सुरक्षा का इंतजाम रखने और आक्रमणकारियों को बैरिंग वापिस लौटाने की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए। कैक्टस यह प्रबन्ध कर सकने के कारण ही इस दुरंगी दुनिया के बीच जीवित है।

कैक्टस के तनों पर नुकीले कांटे होते हैं। वनस्पति चर जाने के लालची पशु उनकी हरियाली देखकर दौड़े आते हैं पर जब कांटों की किलेबन्दी देखते हैं तो चुपचाप वापिस लौट जाते हैं।

इन पौधों की रंग-बिरंगी विभिन्न प्रकृति की अनेक जातियां पाई जाती हैं। इनमें से फिना मैरी गोल्ड, मिल्क वीड, ओपाईन, पर्सलेन, स्पर्ज, जिकेनियम, डंजी मुख्य हैं। इनमें से कितने ही ऐसे होते हैं जिनकी आकृति सुन्दर प्रस्तर खण्डों जैसी लगती है।

यह पौधे अब सब जगह शोभा सज्जा के काम आते हैं। राजकीय उद्यानों में, श्रीमन्तों के राजमहलों में, कला प्रेमियों में इनका बहुत मान है। इन्हें लगाये बिना कोई वनस्पति उद्यान अधूरा ही माना जाता है। सर्वसाधारण में भी इनकी लोक प्रियता बढ़ी है और हर जगह उन्हें मंगाया सजाया जा रहा है।

सम्भवतः यह इनका दृढ़ता, कठोरता, स्वावलंबिता और तितीक्षा जैसी विशेषताओं का ही सम्मान है।

मनुष्य जितना नाजुक बनता जायगा उतना ही दुर्बल बनेगा और परिस्थितियां उस पर हावी होंगी। किन्तु यदि दृढ़ता, तितीक्षा, कष्ट सहिष्णुता और साहसिकता अपनाये रहे तो न केवल शरीर वरन् मन भी इतना सुदृढ़ होगा जिसके सहारे हर विपन्नता का सामना किया जा सके।
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