दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ

देवलोक और असुर लोक देखना हो तो

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
मनुष्य की सम्भावनाएं असीम होते हुए भी उसे ससीमता अपने बन्धन में जकड़े रहती है और प्रकृति के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आतुर होते हुए भी वह विशाल समुद्र में से कुछ सीपियां और घोंघे ही ढूंढ़ पाता है।

पिछले दो सौ वर्षों में विज्ञान के क्षेत्र में हम बहुत आगे बढ़े हैं। अन्तरिक्षीय खोजें अपने समय की विशेष उपलब्धियां हैं। इससे पूर्व अणु विस्फोट भी चकित कर चुका है। अब हम अद्यावधि प्राप्त जानकारियों से भी कहीं अधिक जिस विस्मयजनक उपलब्धियों के क्षेत्र में प्रवेश करने जा रहे हैं—वह है प्रति पदार्थ से बनी हमारे साथ-साथ रह रही एक समानान्तर दुनिया। इसका ज्ञान प्राप्त करके हम जानेंगे कि काया और छाया की तरह दो संसार न जाने कब से साथ-साथ जुड़े हुए हैं और एक दूसरे पर निर्भर रह रहे हैं।

अपनी परिचित अणु सत्ता से इस अपने विश्व में दीख पड़ने वाले पदार्थ बने हैं। उन्हीं के उपयोग से अपना काम चलता है। अब के यह पता चला है कि अणु का प्रतिद्वन्दी एक और प्रति अणु है। पदार्थ के प्रतिद्वन्दी प्रति पदार्थ का भी अस्तित्व मौजूद है। इतना ही नहीं इनसे बनी हुई एक अनोखी प्रतिद्वन्दी दुनिया भी मौजूद है। अब तक हम इस सबसे परिचित नहीं रहे यह ठीक है, पर उससे क्या—स्थिति तो हमारी जानकारी होने न होने की परवा किये बिना यथावत् बनी ही हुई है।

एण्टीमैटर—एन्टीयुनिवर्स की चर्चा अब कोई कल्पना या सम्भावना नहीं रही वरन् एक ऐसी यथार्थता बन गई है जिस पर तेजी से खोज की जा रही है और यह पता लगाया जा रहा है कि इन दोनों प्रतिद्वन्दी संसारों के बीच आदान-प्रदान का दरवाजा किस तरह खुल सकता है।

इस दिशा में यदि थोड़ी और सफलता मिल गई तो पौराणिक उपाख्यानों में वर्णित देवलोक और असुर लोक की गाथाओं को हम साकार देखेंगे और अनुभव करेंगे कि भगवान और शैतान की तरह चिरन्तन काल से दो प्रतिद्वन्दी संसार आपस में गुंथे हुए चले आ रहे हैं। उनके सामान्य सहकार को बढ़ाना सम्भव हो सके तो अपनी दुनिया इतनी बड़ी सामर्थ्य करतलगत कर लेगी जिसके सहारे मात्र पृथ्वी तो क्या ब्रह्माण्ड के विशाल क्षेत्र पर अधिकार लेना और बिखरी सम्पदाओं से लाभ उठा सकना उसके लिए सम्भव हो जायगा। फिर मनुष्य विश्व का मुकुटमणि नहीं—ब्रह्माण्ड का अधिनायक बनकर रहेगा।

इस सुखद सम्भावना के साथ-साथ यह विभीषिका भी मौजूद है कि प्रति पदार्थ की सत्ता डायनामाइट बारूद और अणु विस्फोट से निकलने वाली ऊर्जा से भी अधिक खतरनाक है। इस क्षेत्र में एक भी चिनगारी गलत-सलत ढंग से पड़ गई तो फिर किसी की खैर नहीं। न पृथ्वी की—न सौरमण्डल की और न समूचे ब्रह्माण्ड की। उस विस्फोट से पूरे ब्रह्माण्ड का आधार ही बदल सकता है और प्रस्तुत जड़-चेतन की स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन हो सकता है। यदि विभीषिका सचमुच कभी साकार हुई तो उस महाक्रान्ति के बाद की स्थिति कल्पनातीत होगी। तब प्राणधारी भी अब की अपेक्षा सर्वथा भिन्न प्रकार के होंगे और उनकी आकृति एवं प्रकृति की हम लोगों के साथ कोई समानता न होगी। तब ज्ञान-विज्ञान के आधार भी उलट जायेंगे। अभी तो उस महाप्रलय का स्वरूप समझना ही कठिन पड़ रहा है फिर महाक्रान्ति के बाद होने वाले अभिनव सृजन और उसमें प्राणियों की स्थिति का स्वरूप किस प्रकार सोचा जा सकता है।

प्रति पदार्थ की खोज बड़ी सावधानी किन्तु तत्परता के साथ हो रही है। अन्तरिक्ष पर अधिकार करने के लोभ का संवरण न किया जा सका तो फिर ‘प्रति विश्व’ की सत्ता को जानने और उसके साथ ताल-मेल बिठाकर और भी बहुत कुछ पाने की सम्भावना को आंख से ओझल किया ही कैसे जा सकता है। ‘प्रति पदार्थ’ ‘प्रति विश्व’ आज के विज्ञान जगत का सर्वोपरि आकर्षण है। उसकी खोज में अत्यन्त गम्भीर प्रयास सावधानी के साथ किये जा रहे हैं।

पदार्थ के प्रति पक्षी ‘‘प्रति पदार्थ’’ की कल्पना तो सन् 1928 में ही सापेक्षतावादी क्वान्टम सिद्धान्त के अन्तर्गत ही करली गई थी, पर तब उस सम्बन्ध में वैसे प्रत्यक्ष प्रयोग सम्भव न थे जैसे कि आज हो गये हैं। जिस प्रकार क्रिया की प्रतिक्रिया और ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है उसी प्रकार ‘पदार्थ’ के साथ-साथ ‘प्रति पदार्थ’ भी काम करता है। इन उभयपक्षीय अस्तित्वों से ही विश्व में विविध प्रकार की गतिविधियां सम्भव हो रही हैं। यदि किसी डिब्बे में गोलियां खचाखच भर दी जायं तो फिर उनका हिलना-डुलना भी सम्भव न हो सकेगा; इसी प्रकार यदि संसार में सर्वत्र परमाणु ही ठसे पड़े हों तो फिर उनका हिलना-डुलना ही बन्द हो जायगा और सर्वत्र निस्तब्ध नीरवता एवं स्थिरता दिखाई पड़ेगी। यह प्रति पदार्थ ही है जो अणुओं को अपनी हलचलें जारी रखने का अवसर दे रहा है।

रूस और अमेरिका के वैज्ञानिक इस प्रति पदार्थ को प्राप्त करने का जी तोड़ प्रयत्न कर रहे हैं। नाभिकीय कणों को तीन हजार करोड़ इलेक्ट्रान वाट की गर्मी देकर एक नया प्रति कण प्राप्त क्रिया गया है—‘ड्यूट्रान’ हाइड्रोजन और हीलियम के प्रतिकण प्राप्त करने की आशा अब बलवती होती जा रही है। पर अभी इस कठिनाई का हल नहीं निकला है कि उन्हें सुरक्षित कैसे रखा जाय। इनकी एक बुरी आदत यह है कि वे अकेले अपना अस्तित्व बनाये रहने में असमर्थ होते हैं। उत्पन्न होते ही अन्य कणों के साथ घुलते हैं और अपना अस्तित्व खो बैठते हैं। यदि इसे सुरक्षित रखा जा सकना सम्भव हो गया तो पदार्थ और प्रतिपदार्थ का घर्षण सम्भव हो जायगा और उस प्रक्रिया से इतनी अधिक ऊर्जा प्राप्त की जा सकेगी कि संसार भर में सस्ती बिजली की कमी कहीं भी अनुभव न की जाय। तब छोटे-छोटे सूर्य उगाये जा सकेंगे और उनसे आवश्यक ऊर्जा इच्छानुसार और सुविधानुसार ग्रहण करते रह सकना सम्भव हो जायगा।

अन्तरिक्ष से प्राप्त रेडियो तरंगें बताती हैं कि किसी क्षेत्र में प्रति द्रव्य बड़े परिमाण में उत्पन्न हो रहा है। यह उत्पत्ति कहां हो रही है इसके सम्बन्ध में विज्ञानी आल्फवेन का कथन है कि वह ‘साइग्लेस’ और ‘विर्गो’ नीहारिकाओं में उबल रहा है और उससे नये-नये ऐसे ग्रह-नक्षत्रों का सृजन हो रहा है जो इस प्रति पदार्थ से ही बने हैं। वे उसका नाम चतुर्थ आयाम स्तर का प्लाज्मा बताते हैं और कहते हैं उसकी सामर्थ्य अपने लोक में पाये जाने वाली आणविक ऊर्जा से कहीं अधिक सशक्त है।

कैलीफोर्निया विश्व-विद्यालय में सन् 1970 में सबसे पहले ‘‘प्रतिकण’’ के अस्तित्व को कल्पना क्षेत्र से आगे बढ़ाकर प्रामाणिक स्तर पर खड़ा किया था। न्यूक्लियर इंटर एक्शन के दौरान ‘प्रतिकण’ का फोटो खींचा गया था। इसके लिए एक सैकिण्ड के पन्द्रह अरबवें भाग में फोटो खींच सकने वाला यन्त्र विशेष रूप से बनाया गया था और उस प्रमाणित प्रतिकण का नाम ‘सेन्टी ओमेगा माइनस’ दिया गया था। तब से अब तक इन पांच वर्षों में और भी कई प्रतिकण खोजे जा चुके हैं।

यह खोज तीन सिद्धान्तों के आधार पर सम्भव हुई है। (1) सापेक्षिता सिद्धान्त द्वारा शक्ति के निगेटिव होने का प्रमाण प्रस्तुत करने से (2) क्वान्टम मिकैनिक्स के समीकरण का हल प्रस्तुत करने से (3) वेवमिकैनिक्स के इलेक्ट्रान के गुणों की अभिनव विवेचना करने से।

सन् 1928 में जब डिराक ने क्वान्टम मिकैनिक्स के समीकरण का हल करते हुए एनर्जी के निगेटिव रूप की व्याख्या की और प्रति इलेक्ट्रोन, पाजिट्रान के अस्तित्व का प्रतिपादन किया तो तत्कालीन मूर्धन्य विज्ञानवेत्ताओं ने उनका उपहास उड़ाया पर पीछे खोज जारी रही सन् 1932 में जब प्रति इलेक्ट्रोन के फोटो खिंचकर सामने आये तो वह बात प्रामाणिक ठहरा दी गई। सर्वविदित है कि ट्रांजिस्टर का आविष्कार ‘होल’ और ‘इलेक्ट्रान’ प्रक्रिया के सहारे ही सम्भव हुआ है। इसमें ‘होम’ वस्तुतः प्रति इलेक्ट्रान का ही एक रूप है।

प्रति इलेक्ट्रान के सम्बन्ध में एक सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि उसका जीवन काल अत्यन्त स्वल्प है। वह जन्म लेते ही इलेक्ट्रान के साथ संयुक्त हो जाता है और उस विलय से ‘गामा विकरण’ उत्पन्न होता है।

प्रति पदार्थ एवं प्रति विश्व की खोज के आरम्भिक दिनों में केवल इलेक्ट्रान का प्रतिद्वन्दी, प्रति इलेक्ट्रान ही खोजा जा सकता था, पर यह सम्भावना तो ध्यान में बनी ही रही कि इसी प्रकार अन्य कणों के थी प्रति पक्षी, प्रतिद्वन्दी, प्रतिकण हो सकते हैं। सन् 1955 में इसका भी समाधान मिल गया। ‘वेवाट्रान’ नामक सूक्ष्मदर्शी यन्त्र की सहायता से न्यूट्रोन और प्रोटान के प्रतिपक्षी भी खोज लिए गये हैं। इससे सिद्धान्ततः प्रति पदार्थ और प्रतिविश्व के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया है और यह आशा बंध गई है कि कभी न कभी मनुष्य इस महादैत्य को अपना वशवर्ती बनाकर न केवल अपनी पृथ्वी का वरन् लोक-लोकान्तरों का अधिपति बन सकने का स्वप्न साकार कर सकेगा।

अभी तक पदार्थ के सम्बन्ध में हमारा अनुभव बहुत स्वल्प है। अभी अपने हाथ केवल खण्डन क्रिया फिशन—हाथ लगी है। यह कितनी कठिन और कितनी जटिल है इसे वे लोग जानते हैं जो परमाणु विस्फोट के साधन जुटाते हैं उस कार्य में अत्यधिक ऊर्जा प्रयुक्त करनी पड़ती है। खण्डन से अधिक कठिन संश्लेषण-फ्यूजन है। इससे खण्डन की तुलना में कहीं अधिक शक्ति को प्रयोग के लिए जुटाना पड़ेगा। इससे भी बड़ी कठिनाई यह है कि संश्लेषण के लिए प्रयुक्त ऊर्जा और क्रिया से उत्पन्न प्रति ऊर्जा और प्रतिक्रिया इतनी सशक्त होगी जिसे नियन्त्रित रख सकना कम से कम आज की स्थिति में तो किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। प्रति परमाणु के संश्लेषण में अनुमानतः दस लाख डिग्री ताप उत्पन्न होगा। यह कितना भयंकर होगा इसका अनुमान इस बात से लग सकता है कि पानी केवल 100 डिग्री गर्मी से ही उबलने और भाप बनकर उड़ने लगता है।

प्रति अणु की शक्ति अपने जाने-माने अणु की तुलना में सहस्रों गुनी अधिक होगी। यदि वह हाथ लग जाय तो केवल हीलियम गैस से भी हम नया सूर्य बना सकेंगे और उसका मनचाहा उपयोग कर सकेंगे।

प्रति पदार्थ में एक और बुरी आदत है कि वह जन्म लेते ही ‘पदार्थ’ में घुस पड़ता है और उसी में विलीन हो जाता है। यदि ‘प्रति परमाणु’ बन गया तो उसे वर्तमान परमाणु में घुस पड़ने से कैसे रोका जा सकेगा? यह एक और भी बड़ा सिरदर्द है। संयोग से नई चीज की उत्पत्ति का सिद्धान्त सर्वविदित है। प्रस्तुत परमाणुओं के साथ सम्भावित प्रति परमाणु जब संयुक्त होंगे तो न जाने किस नई शक्ति का उदय हो जाय। यदि वह सृजनात्मक न होकर ध्वंसात्मक हुई तो फिर अपनी पृथ्वी तो उससे माचिस की तीली की तरह खाक हो ही जायगी। पूरे सौरमण्डल और अपनी सम्पूर्ण आकाश गंगा का ही नक्शा बदल सकता है। तब जो कुछ आज दिखाई पड़ रहा है उससे सर्वथा भिन्न प्रकार के दृश्य सामने आ खड़े हो सकते हैं।

प्रति पदार्थ का अस्तित्व अब असंदिग्ध रूप से जान और मान लिया गया है और इस बात पर वैज्ञानिक जगत में पूर्ण सहमति हो गई है कि इस ब्रह्मांड के अनेक क्षेत्र प्रति पदार्थ से बने हुए हैं और उनकी भौतिक स्थिति अपनी पृथ्वी की परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न—लगभग उलटी है। जिस प्रकार अपनी दुनिया है ‘प्रति पदार्थ’ तनिक-सी झांकी देकर लुप्त हो जाता है ठीक उसी प्रकार उन प्रति पदार्थ से बने लोकों में अपने क्षेत्र का पदार्थ हलकी-सी झलक दिखाकर वहां की संरचना में घुलता ओर समाप्त होता रहता होगा।

तन्त्र साधना में ‘छाया पुरुष’ साधना का विस्तृत विवरण मिलता है। यह छाया पुरुष क्या है? जीवित मनुष्य का एक सशक्त प्रतिबिम्ब। जिसे साधन प्रयोगों द्वारा अपने वशवर्ती बनाया जाता है और वह किसी भिन्न सत्ता वाले अदृश्य व्यक्ति की तरह आज्ञानुसार काम करता है। इसकी क्षमता साधनकर्त्ता की अपेक्षा कहीं अधिक होती है। छाया पुरुष का अस्तित्व भले ही संदिग्ध हो, पर छाया विश्च और छाया पदार्थ की सिद्धि अब वैज्ञानिक जगत में मान्यता प्राप्त कर चुकी है और उसे पकड़ने, वशवर्ती करने के लिए प्रबल चेष्टा हो रही है।

दर्पण के सामने खड़े होने पर एक अपने ही जैसा मनुष्य दीखता है, पर वह होता है उलटा। जिधर हमारा दाहिना हाथ होता है उधर उसका बांया हाथ। अन्य अंग भी उलटे होते हैं। फोटोग्राफी की प्लेट पर भी यही होता है। अपने काले बाल सफेद होते हैं और सफेद दांत काले। इसे नेगेटिव प्लेट कहते हैं। इसे उलट कर फिर फोटो खींचा जाता है तब कहीं सीधी तस्वीर आती है। बिम्ब का प्रतिबिम्ब उलटा होता है। इसे मिराइमेज कहते हैं—काया और छाया का—छाया और प्रतिच्छाया का यही क्रम चलता है। विपरीतता के लिए अंग्रेजी में ‘एन्टी’ शब्द प्रयोग होता है।

पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु है। इस परमाणु के भी कई अंग-प्रत्यंग हैं। इस परमाणु परिवार को ही पदार्थ का सूक्ष्मतम अंग माना जाता था, पर अब इसके साथ एक सहोदर भाई और जुड़ गया है वह है ‘प्रति पदार्थ’। पार्टिकल्स अब अकेले नहीं हैं उनके साथ—‘एन्टी पार्टिकल्स’ की चर्चा भी जोरों पर है।

परमाणु कितना बड़ा होता है? इसका मोटा अनुमान इस प्रकार लगा सकते हैं कि चीनी के एक दाने में लगभग एक हजार शंख परमाणु होंगे, जो ठोस नहीं हैं। उनके भीतर मध्य भाग में नाभिक होता है, नाभिक न्यूक्लियस—को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर पार्टिकल्स उसी प्रकार चक्कर लगाते हैं जिस प्रकार सूर्य के इर्द-गिर्द उसके ग्रह-उपग्रह। नाभिक का निर्माण प्रोटान और न्यूट्रॉन कणों के संयोग से बना होता है उसके चारों ओर चक्कर लगाने वाले कण इलेक्ट्रोन कहलाते हैं। इलेक्ट्रानों में विद्युत का ऋण आवेश और प्रोटानों में धन आवेश होता है। न्यूट्रानों पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता। अब कुछ और कण भी खोज निकाले गये हैं और उन्हें मेसान, न्यूट्रीनो फोटान, सिगमा प्लस, सिगमामाइनस, सिगमाजीरो आदि नाम दिये गये हैं।

मोटे तौर से सभी परमाणु एक जैसे होते हैं, पर उनकी भीतरी रचना में प्रोटान, इलेक्ट्रान आदि की संख्या का जो अन्तर रहता है उसी आधार पर उनकी भिन्नता रहती है और भिन्न स्तर के परमाणुओं का समूह विभिन्न प्रकार के पदार्थों के अस्तित्व रूप से सामने आता है।

छाया पुरुष की साधना तान्त्रिक उपासना के क्षेत्र में बहुत समय से प्रचलित है। छाया लोक की चर्चा बहुत समय से कही सुनी जाती रही है अब यह सम्भावना प्रामाणिक स्तर पर स्वीकार की जा रही है कि एक दिव्यलोक हमारे साथ-साथ ही रह रहा है; उसमें न केवल पदार्थ ही भरा है वरन् प्राणी भी निवास कर रहे हैं। वे प्राणी देव दानवों की कल्पना से मिलते-जुलते हो सकते हैं और जीवाणुओं विषाणुओं जैसे भी। हम मनुष्यों से वे समर्थ अपरिचित उदासीन भी हो सकते हैं और सम्बद्ध सहचर बनकर हमारी परिस्थितियों के निर्माण में भारी योगदान करते हुए भी पाये जा सकते हैं। कहा नहीं जा सकता कि इस अविज्ञात संसार में भरा हुआ जड़ चेतन हमारे लिए सम्पर्क बढ़ाने योग्य है या अयोग्य। इन रहस्यों का उद्घाटन भविष्य में होगा। आज तो उसका स्वरूप समझने का प्रारम्भिक कदम ही उठाया जा सकना सम्भव है सा ही उठ भी रहा है। प्रकृति के रहस्यों के पर्त जैसे-जैसे खुल रहे हैं वैसे-वैसे मानव बुद्धि अधिकाधिक हतप्रभ होती जा रही है और अपनी असीमता की गर्वोक्ति पर पुनर्विचार कर रही है। खोज किसी भी सीमा तक बढ़ जाय—हाथ कुछ भी लग जाय तब भी विराट विश्व और मानव प्राणी की तुलनात्मक स्थिति देखते हुए ‘नेति-नेति’ की उक्ति ही दुहराई जाती रहेगी।

देव तत्व और असुरतत्व

इस विश्व में देव तत्व और असुर तत्व दोनों का अस्तित्व है। देवत्व का पोषण अभिवर्धन, और सम्मान किया जाना चाहिए साथ ही असुरता की दुरभिसन्धियों तथा आक्रमणों से अपना बचाव भी करना चाहिए।

सज्जनों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वे अपने आदर्श और व्यवहार पर स्थिर रहते हैं। सज्जनता की रीति-नीति भी नहीं। परस्पर टकराते भी नहीं। कोई उनसे टकराये तो टूटते भी नहीं। अपनी दिव्य सत्ता को अक्षुण्ण रखते हैं और किसी अनात्म तत्व के सामने आत्म-समर्पण नहीं करते। अपना स्वाभिमान और स्वावलम्बन हर भली-बुरी स्थिति में अक्षुण्य बनाये रहते हैं।

देव तत्वों की तरह—सज्जनों की तरह परमाणु की मूल सत्ता होती है। यह अपनी शाश्वत और सनातन विशेषता को नष्ट नहीं होने देती।

यह परमाणु सृजन के काम में ही लगे रहते हैं। वे इकट्ठे होते हैं, जुड़ते हैं मिल-जुलकर रहते हैं। उनकी यह संगठन और सृजन की भावना ही विभिन्न पदार्थों का निर्माण करती है। नींव के पत्थरों की तरह, अदृश्य और अविदित रहकर वे सृजन के कार्य में अथक रूप से संलग्न है। इस सुन्दर विश्व में जो विशालता दीख पड़ती है वह इन छोटे परमाणुओं के पारमार्थिक क्रिया-कलाप का परिणाम ही है। इन्हें इस धरती के—सृजन कर्त्ता, पोषक और परिवर्तनकारी—ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

छोटे परमाणु एकाकी नहीं हैं। उनके भीतर और भी छोटा परिवार है। इसमें भले और बुरे दोनों तत्वों का निर्वाह होता है।

इलेक्ट्रोन एवं प्रोटोन के मूल कणों को विभक्त नहीं किया जा सकता। उनकी परस्पर टक्कर या सम्मिश्रण का परिणाम इतना भर हो सकता है कि वे परस्पर मिलकर अन्तःक्रिया या मिश्रित क्रिया द्वारा नवीन कणों या नवीन नाभिकों में परिणत हो जाय।

परमाणु विद्या के अन्वेषणों के अनुसार अब तक मूल कण लगभग 20 की संख्या में खोजे जा चुके हैं। फोटोन, इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रॉन, पॉजीट्रान, म्यूट्रिनो, मेसान, न्यृ मेसान, पाई मेसान, के. मेसान, हाइपरान, ड्यूट्रान, जैसे कणों से ही यह सारा विश्व विनिर्मित हुआ है। इन्हें विश्व भवन की ईंटें ही कहना चाहिए। इसी दैवी अणु शक्ति में एक प्रतिरोधी असुर तत्व भी मौजूद है। समय-समय पर यही रंग बदलता है, टूटता-फूटता है और विरोध विग्रह उत्पन्न करता है। कुचक्रों का यही शिकार होता है और अन्ततः विनाश जैसी दुर्गति भी इसी की होती है। इस संसार में देवत्व ही नहीं असुरत्व भी मौजूद है सम्भवतः यही परिचय देने के लिए यह प्रति क्षण विद्यमान हो।

परमाणु के प्रत्येक मूल कण के साथ विपरीत प्रकृति का एक ‘प्रति कण’ भी रहता है। जैसे इलेक्ट्रान का प्रति कप पॉजीट्रान, प्रोटान का एंटीप्रोटान, न्यूट्रॉन का एंटी न्यूट्रॉन, न्यूट्रिनो का ऐन्टी न्यूट्रिनो है। मेसानों में भी यह विरोधी प्रतिकण रहते हैं।

सभी प्रतिकण अल्प जीवी होते हैं। यह प्रतिकण जब अपने समान सामान्य कण से टकराते हैं तो दोनों एक-दूसरे से भिड़ जाते हैं और भयंकर विस्फोट उत्पन्न होता है। उसी से विकरण उत्पन्न होता है, और भयानक ऊर्जा फैलती है।

यह विरोधी प्रकृति के प्रति कण कहां से आते हैं? क्यों अवरोध उत्पन्न करते हैं? कुछ समझ में नहीं आता। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस ब्रह्माण्ड में शायद कोई अन्य विश्व ऐसा है जिसे सर्वथा विपरीत प्रति विश्व कहा जा सके। उसकी संरचना इन विपरीत प्रकृति के प्रतिकणों से ही हुई होगी। वहां सब कुछ यहां से उलटा ही होता होगा। इस लोक में सारा पदार्थ—ऐन्टी मैटर—होगा। वहां के नाभिक— एंटी प्रोटान और एंटी न्यूट्रॉन के बने होंगे। उन प्रति नाभिकों के इर्द-गिर्द इलेक्ट्रान के स्थान पर पॉजीट्रान भ्रमण करते होंगे। वहीं से यह प्रति कणों का प्रवाह धरती पर आता होगा और यह कि अणु रचना के साथ उसका सम्मिश्रण यह परस्पर विरोधी स्थिति उत्पन्न करता होगा। यह प्रतिविश्व कहां है यह ढूंढ़ा नहीं जा सका पर उसका अस्तित्व तो एक प्रकार से मान ही लिया गया है।

हमें अपने चिन्तन और व्यवहार में इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि इस विश्व में जहां देव सत्ता का वर्चस्व है वहां असुर सत्ता भी हर जगह मौजूद है। न कोई व्यक्ति या पदार्थ पूर्ण शुद्ध है न अशुद्ध। गुण, दोष की मात्रा सर्वत्र मौजूद है। हमें गुणों को देखना, समझना, ढूंढ़ना और बढ़ाना चाहिए क्योंकि वे ही स्थिर और सत् हैं। असुरत्व भी हर जगह मौजूद है, उससे सतर्क रहें, बचें। मनुष्य में यह कुशलता बनी रहे वह नीर-क्षीर, विवेक कर सकने में समर्थ रहे इस प्रशिक्षण के लिए भगवान ने संसार में असुरता का अंश रखा है परमाणु में भी प्रति कण अंश भेजा है। भेजने वाली असुर सत्ता सम्पन्न दुनिया भी कहीं है। वह बाहर भी है और भीतर भी। उससे सतर्क रहना भी उतना ही आवश्यक है जितना देवत्व का अवलम्बन।

पदार्थ और प्रतिपदार्थ

धूप के साथ छाया जुड़ी रहती है ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है, रबड़ की गेंद को दीवार पर मारने से लौट कर वह वापिस आती है। प्रकाश का प्रति द्वन्द्वी अन्धकार मौजूद है। पेंडुलम एक ओर चला देने से उसके आगे-पीछे चलने की क्रिया अनायास ही चलने लगती है। हृदय की धड़कन, श्वास प्रश्वास, आकुंचन प्रकुंचन जैसे परस्पर विरोधी क्रिया-कलाप ही शरीर को जीवित रखते हैं। समुद्र में ज्वारभाटे के कारण ही लहरों की तरंग श्रृंखला चलती है। ‘पिस्टन’ द्वारा गति तभी उत्पन्न होती है जब वह आगे-पीछे चलने का क्रम अपनाता है। शक्ति तरंगों के कम्पन आगे-पीछे बढ़ने हटने की हलचल पर ही निर्भर हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया पर ही इस विश्व का सारा क्रियाकलाप चल रहा है। पुण्य का प्रतिद्वन्दी पाप, देव विरोधी दानव, भगवान विरोधी शैतान, सत् विरोधी तम, स्वर्ग का प्रतिद्वन्दी नरक; इसी विरोध विपक्ष के आधार पर अध्यात्म जीवन की गतिविधियां कार्यान्वित हो रही हैं।

अब पता चला है कि विश्व का प्रतिद्वन्दी भी एक प्रति विश्व है। जिसका अस्तित्व उस विश्व के समान ही मौजूद है जिससे कि हमारा निरन्तर काम पड़ता है और जिसकी शक्तियों से अवगत मानव समाज ने पदार्थ विज्ञान की शोध की है और उसी आधार पर विविध आविष्कारों के द्वारा अनेकों सुविधाओं की—शक्ति और सामर्थ्य की—उपलब्धियां प्राप्त की जा सकी हैं।

प्रति विश्व का अन्वेषण होना अभी बाकी है। उसकी शक्तियों का जानना, और उन्हें प्रयोग में लाने का श्रीगणेश अगले दिनों करना होगा क्योंकि वर्तमान उपलब्धियां एकांगी एवं एकांकी हैं। उनको पूर्णता में तभी परिणत किया जा सकेगा जब प्रति विश्व की शक्तियों को प्राप्त कर लिया हो। फिर एक की कमी दूसरी से पूरी होगी और एक का ईंधन दूसरी से मिलेगा। तब विविध यन्त्रों के संचालन के लिए तेल, कोयला, भाप, बिजली, एटम शक्तियों के द्वारा ईंधन प्राप्त करने की आवश्यकता न पड़ेगी। विश्व और प्रतिविश्व का परस्पर संतप्त समन्वय हो जाने से पदार्थ और प्रति पदार्थ एक दूसरे का अभाव पूरा कर दिया करेंगे और लगभग सभी प्रयोजन स्वसंचालित पद्धति द्वारा पेण्डुलम प्रक्रिया की भांति अपने आप चलते रहेंगे और जब जिस कार्य की आवश्यकता होगी उसे पदार्थ ओर प्रति पदार्थ का तोल-मेल बिठा देने की प्रणाली संचालित कर देने मात्र से सब कुछ गतिशील हो जाया करेगा।

प्रति विश्व की प्रति पदार्थ की और सब से वैज्ञानिकों का ध्यान गया है तब से एक नई हलचल, एक नई उमंग सर्वत्र दिखाई पड़ने लगी है। उसकी खोज के लिये सिद्धांत और आधार तलाश किये जा रहे हैं क्योंकि जिन सिद्धांतों के आधार पर प्रस्तुत पदार्थ विज्ञान का ढांचा खड़ा किया गया है, वे प्रति पदार्थ के लिये लागू न किये जा सकेंगे वरन् उसमें लगभग उलटे आधारों का कहीं-कहीं तिरछे लहराते सिद्धान्तों का प्रयोग करना पड़ेगा, जब उसकी रूपरेखा बन जायगी तब आशा की जाती है कि एक ऐसी प्रति विद्युत शक्ति का आविष्कार किया जा सकेगा जो उपलब्ध विद्युत से कहीं अधिक शक्तिशाली होगी। उसके माध्यम से प्रस्तुत विद्युत उत्पादन के लिये जो साधन जुटाने पड़ते हैं उनमें से किसी की भी आवश्यकता न रहेगी। बटन दबाने भर की देर होगी कि आकाश व्यापी विद्युत और प्रति विद्युत परस्पर मिलकर प्रचुर परिमाण में बिजली पैदा करने लगेंगी और यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक उन दोनों को प्रथक न किया जाय।

यह ब्रह्माण्ड अणु गठित पदार्थ से भरा है—जिसे मैटर कहते हैं। पंच तत्व और उनसे बने अनेक जड़ चेतन इस पदार्थ वर्ग में ही आते हैं। प्रकाश किरणें, रेडियो किरणें, विद्युत किरणें, ध्वनि किरणें अणु कम्पनों सहित पदार्थ जन्य क्रिया-कलाप में गिनी जाती हैं। जो शून्य या रिक्त दिखाई पड़ता है उस पोले भाग में वायु, ईथर आदि आंख से न दीखने वाले पदार्थ भरे पड़े हैं। यहां खाली कुछ नहीं है। विज्ञान की पिछली मान्यता यही रही है।

पर अब विज्ञान ने एक और तत्व खोज निकाला है। प्रति पदार्थ का प्रतिद्वन्दी। जैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, ध्वनि की प्रतिध्वनि; इसी प्रकार पदार्थ का प्रतिद्वन्दी एक प्रति पदार्थ भी है जो सामर्थ्य में कम नहीं वरन् अधिक ही बैठता है।

जब केम्ब्रिज विश्व विद्यालय के गणित प्राध्यापक डिराक ने ब्रिटेन की रायल सोसायटी के सम्मुख अपना एक निबन्ध सुनाते हुए यह तथ्य प्रतिपादित किया तो उस गोष्ठी में उपस्थित संसार भर के वैज्ञानिक अवाक् रह गये। डिराक ने क्वांटम भौतिकी, सापेक्षतावाद, के सिद्धान्तों पर अणु के प्रतिद्वन्दी प्रति अणु का प्रतिपादन जिन अकाट्य तथ्यों के आधार पर किया था, उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता है। जिस प्रकार ईश्वर का प्रतिद्वन्दी शैतान, धर्म का विरोधी पाप, देवता का प्रति पक्षी असुर है उसी प्रकार यह प्रति अणु प्रति पदार्थ न केवल अपना अस्तित्व ही सिद्ध करता है वरन् प्रति-पक्षी होने के कारण सामर्थ्यवान भी अधिक बैठता है। कितने आश्चर्य की बात है कि यह विश्व अपने साथ एक प्रति विश्व भी संजोये हुए है। पदार्थ के साथ-साथ प्रति पदार्थ भी अपना काम कर रहा है।

बहुत दिनों से विज्ञान क्षेत्र में परमाणु की जानकारी थी। पीछे वह भी एक इकाई नहीं रहा। वरन् इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन आदि का समूह माना गया। पीछे उसके भीतर और भी ऐलीक्वेन्टरी पार्टिकल मेसान, न्यूट्रिनो आदि मिले। यह सभी अपने-अपने ढंग से गतिशील हैं। पर गति करने को तो जगह चाहिए खाली जगह न हो तो गति कहां और कैसे होगी? यह खाली जगह ही प्रति पदार्थ है।

यदि एक डिब्बे में खचाखच गोलियां भर दी जायं तो फिर न तो वह हिलडुल सकेंगी और न गिनी जा सकेंगी। इसी प्रकार यदि विश्व में अणु खचाखच भरे हों तो वे वैसी गति नहीं कर सकते जैसी कि अब करते हैं; और न उनका अस्तित्व ही अनुभव किया जा सकेगा। गतिशील अणु और उसके साथ जुड़ा हुआ अवकाश दोनों के परस्पर संयोग वियोग का जो क्रम निरन्तर चलता है उसी से शक्ति उत्पन्न होती है और चुम्बकत्व भरी ऊर्जा का जो प्रवाह सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है वह उसी उद्गम से प्रादुर्भूत होता है। इसका जितना श्रेय अणु को है उतना ही उसे गतिशील रहने का अवसर देने वाले प्रति अणु को। दोनों में से एक का अस्तित्व यदि समाप्त हो जाय तो विश्व में फिर किसी प्रकार की कोई हलचल दिखाई न पड़ेगी। तब अणु गतिशील न रहकर स्थित बने बैठे होंगे। इलेक्ट्रान के इस प्रतिद्वन्दी को ऐन्टी इलेक्ट्रान या पाजिट्रान कहते हैं। डिराक के इस प्रतिपादन के आधार पर यह सोचा गया कि अणु के प्रत्येक अवयव का प्रतिद्वन्दी हो सकता है। प्रकृति के प्रत्येक भौतिक पदार्थ का—तत्व का—प्रतिद्वन्दी यह है तो फिर सचमुच ही पदार्थ की तुलना में एक उतना ही सशक्त प्रति पदार्थ भी मानना पड़ेगा। इस शोध की वैज्ञानिकों ने जोर-शोर से खोज आरम्भ की और आइरीन, फेडरिक, क्यूरी दम्पत्ति, न उसे एक वास्तविकता के रूप में पाया। एण्डरसन ने ब्रह्माण्ड किरण सम्बन्धी अपने अनुसन्धान में इसी आधार पर सफलता प्राप्त की। प्रति पदार्थ कणों के बारे में एक बार ध्यान रखने योग्य है कि वे अकेले अपना अस्तित्व बनाये नहीं रह सकते, उत्पन्न होते हैं और अन्य कणों के साथ संयोग करके स्वयं विलुप्त हो जाते हैं। उनकी इस आंखमिचौनी के कारण ही विद्युत चुम्बकीय विकरण को ऊर्जा इस विश्व को प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो रही है। अब ब्रह्माण्ड का प्रतिद्वन्दी प्रति ब्रह्माण्ड—एण्टी युनिवर्स के सम्बन्ध में खोजें चल रही हैं। इस सन्दर्भ में यह जानकारी भी मिली है कि ‘साइग्लेस’ और ‘विर्गो’ नीहारिकाओं में पदार्थ और प्रति पदार्थ के बीच युद्ध चल रहा है। सम्भव है यह अपना ब्रह्माण्ड भी अपने प्रतिद्वन्दी प्रति ब्रह्माण्ड के साथ संघर्ष में निरत हो।

अध्यात्म जगत में दक्षिण मार्ग और वाममार्ग—योग और तन्त्र की द्विविध परस्पर विरोधी आत्मबल उत्पादक साधना पद्धतियां प्रचलित है। दोनों ही विद्याएं अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं। तन्त्र की प्रत्यक्ष शक्ति योग से अधिक है इसलिए असुर वर्ग उसे अपनाता रहेगा। जहां तक शक्ति उत्पादन का सम्बन्ध है वहां तक तन्त्र अधिक क्षमता सम्पन्न और जल्दी परिणाम उत्पन्न करने वाला है पर उसमें दोष एक ही है कि योग सम्बन्धित सतोगुण का सर्वथा प्रतिकूल तमोगुण उत्पन्न होता है। पाप वृत्तियां भड़कती है और उपलब्धियों को असुर कर्मों में लगा देने का क्रम चल पड़ता है। इसीलिये विचारशील लोगों ने उसे विष मिश्रित मक्खन की तरह हेय ठहराया है। परमात्मा और जीव को पदार्थ—प्रति पदार्थ का युग्म कह सकते हैं। दोनों जब मिल जाते हैं तो परस्पर पूरक होते हैं। एक के अभाव की पूर्ति दूसरे से होती है। और जीव अपने में स्वसंचालित शक्ति प्रवाह का स्रोत उमड़ा देखता है; ऐसा स्रोत जो न तो कभी समाप्त होता है और न जिसकी क्षति पूर्ति के लिये कुछ साधन जुटाने की आवश्यकता होती है।

सामान्यतया रयि और प्राण की एकांगी स्थिति की पूर्ति प्रति पक्षी लिंग वाले जीव के सान्निध्य से पूरी होती है। पति-पत्नी मिलन से न केवल भावनात्मक अभाव और इन्द्रिय जन्य अतृप्ति तृप्त होती है वरन् प्रजनन प्रक्रिया से सम्बन्धित वंश वृद्धि का क्रम भी चलता है। यह प्रचलित एक पक्षीय पदार्थ क्रम है। शक्ति उत्पादन के लिए ईंधन चाहिए। इस ईंधन की पूर्ति नर के लिए मादा से और मादा के लिए नर से पूरी होती है। रयि को चेतना प्राण से और प्राण की तृप्ति रयि से होती है। प्रचलित स्थूल क्रम यही है।

अगले दिनों पदार्थ और प्रति पदार्थ की परस्पर पूरक उपलब्धि एक ही शरीर से पूरी हो जाया करेगी। प्राचीन काल में यह विज्ञान कुण्डलिनी योग के नाम से प्रचलित था उसमें एक ही शरीर की अवस्थित रयि और प्राण को उभार कर आत्म रति का उच्च स्तरीय आनन्द लिया जाता है इतना ही नहीं आत्मा और प्रतिआत्मा के संयोग से वे सभी उपलब्धियां मिल जाती हैं जिन्हें ऋद्धि-सिद्धि के नाम से पुकारा जाता है। भारतीय आत्म विज्ञानी-चेतना विश्व में पदार्थ और प्रति पदार्थ के आधार सिद्धान्तों से न केवल परिचित ही रहे हैं वरन् उनका प्रयोग भी करते रहे हैं। यदि इस सन्दर्भ में सुविस्तृत शोध की जाय तो भौतिक विज्ञान और आत्मिक विज्ञान के क्षेत्र में इतनी बड़ी उपलब्धियां हाथ लग सकती हैं जिनके आधार पर मनुष्य को धरती का देवता कहा जा सकेगा।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118