दृश्य जगत की अदृश्य पहेलियाँ

पेड़ पौधों की विस्मय जनक गतिविधियां

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रेल की पटरियों पर एक विद्युत ट्रेन दौड़ी जा रही थी। ट्रेन छोटी-सी थी और उसमें आठ दस डिब्बे से अधिक डिब्बे नहीं थे। यात्री भी बहुत थोड़े से थे। ट्रेन चालू कर देने के बाद ड्राइवर भी इंजन छोड़कर पीछे के डिब्बे में जा बैठे थे। गाड़ी अपनी गति से चली जा रही थी कि रास्ते में खड़े एक पेड़ ने हुक्म दिया—‘‘रुक जाओ।’’ ‘पीछे की ओर चलो’ वृक्ष ने ही आदेश दिया। गाड़ी पीछे चलने लगी। फिर दूसरे किनारे पर खड़े पेड़ ने कहा—‘रुक जाओ।’

गाड़ी फिर रुक गयी। पेड़ ने गन्तव्य दिशा की ओर चलने का आदेश दिया तो गाड़ी गन्तव्य की ओर चल पड़ी।

यह पंक्तियां न किसी परी कथा से उद्धृत की गयी हैं और न ही किसी ने इस घटना को स्वप्न में देखा है। अब से कुछ वर्ष पूर्व न्यूजर्सी (अमेरिका) में हजारों दर्शकों ने यह प्रदर्शन देखा और प्रदर्शनकर्त्ता है इलेक्ट्रानिकी विशेषज्ञ पियरेणल साविन। प्रदर्शन से पूर्व साविन ने घोषणा की थी कि वे अपनी आन्तरिक शक्ति को किसी भी पेड़ पर केन्द्रित करके विद्युत ट्रेन को आगे-पीछे दौड़ा सकते हैं। घोषणा को लोगों ने अविश्वास, कौतूहल और आश्चर्य के साथ सुना तथा हजारों की संख्या में निर्धारित स्थान पर पहुंचे जहां सफलतापूर्वक घोषित कार्यक्रम पूरा किया गया। ट्रेन पटरियों पर थोड़ा आगे बढ़ती किनारे पर खड़े वृक्ष में कुछ हल-चल होती और ट्रेन एक विद्युत का झटका खाकर रुक जाती। फिर पीछे दौड़ने लगती।

पेड़ के संकेतों निर्देशों पर केवल रेलगाड़ी चल पड़ती हो इतना ही नहीं है। बल्कि ऐसे पेड़ भी हैं जो स्वयं चलते फिरते और गति करते हैं। ‘‘नेचर मैगज़ीन’’ के सितम्बर 61 अंक में श्री हेनरिक हाज ने मैन ग्रोव नामक एक ऐसे वृक्ष का उदरदरी किया है जो यायावर जिन्दगी बिताता है, परिव्राजकों की तरह धूम-धूम कर लोगों में कौतूहल, सौंदर्य और जीवन को मात्र प्रवास मानने की प्रेरणा देता रहता है।

‘‘दि ट्री बैट बाक्स’’ शीर्षक से लिखे इस लेख को पढ़ने के बाद कुछ क्षणों के लिए ‘‘कैटर पिलर’’ जीव की बात याद आये बिना नहीं रही, यह जीव जब लाखा की स्थिति में होता है तो उसकी आंखों के ऊपर से सींग की तरह बर्रों की मूंछ के समान दो बाल फूटते हैं। धीरे-धीरे यह बाल ऊपर बढ़ने शुरू होते हैं और कीड़ा एक पौधे की शक्ल में बदल जाता है। वृक्षों में जीवन और प्रकृति में चेतना का दिग्दर्शन कराने वाला यह बहुत ही कौतूहल वर्द्धक उदाहरण है। चेतना शरीर छोड़कर बाहर जाने की अपेक्षा अन्तर्मुखी होकर एक वृक्ष का रूप ग्रहण कर सकती है तो शरीर छोड़कर, कुछ समय चेतन शरीर, परमाणुओं से बसे शरीर, जीन्स प्रसुप्त स्थिति में रहकर नव जीवन धारण की शक्ति संग्रह कर वृक्ष वनस्पति का रूप धारण करते हों तो उसमें आश्चर्य क्या? भारतीय योग दर्शन में जीवन की जड़ अवस्था को ही वृक्ष का रूप बताया है, आत्म चेतना की दृष्टि से मानव सत्ता और वनस्पति सत्ता में कुछ अन्तर नहीं है। वह वृक्ष उस प्रतिपादन की अगली श्रृंखला को भी पूरा कर देता है। अर्थात् आत्म सत्ता वाली वस्तु को गतिशील होना चाहिये। वृक्षों के गतिशील होने का यह प्रत्यक्ष उदाहरण है।

इस घुमक्कड़ वृक्ष भैन गांव की जन्मभूमि मियामी, फ्लैरिड तथा बिस्कैनीवी खाड़ी है। फ्लैरिडा के कुछ वृक्ष वहां से 1000 मील का समुद्री सफर तक करके पेनिनसुला तक तथा कैरेबियन समुद्र से होकर प्रशान्त और हिन्द महासागर के तट तक फैलकर इन्होंने ‘‘चरैवैति-चरैवैति’’ के शास्त्रीय अभिमत का पालक किया है। सम्भवतः अपने इस गतिशील स्वभाव के कारण ही यह रोग-शोक से मुक्त परमात्मा की सृष्टि के मात्र दृष्टा होने का आनन्द लेते रहते हैं।

समुद्र का सौन्दर्य बढ़ाने वाले इस मैनग्रोव के लिए जीवन व्यवस्थाएं समुद्र से उसे स्वयं मिल जाती हैं। खारे पानी में अन्य वृक्ष उसी तरह नहीं पनप सकते जिस तरह हर क्षण सुविधाओं के परावलम्बी थोड़ी-सी कठिनाइयों से ही घबड़ा उठते हैं दूसरी ओर उसी पानी में यह वृक्ष अपना गुजारा आसानी से कर लेते हैं। शुद्ध पानी की कमी को यह पौधे अपनी पत्तियों में संचित जलकणों से उसी तरह पूरी कर लेते हैं। जिस तरह मरुस्थल के ऊंट शरीर में बनी थैली में संचित जल से।

यह वृक्ष प्रारम्भ में तट के कीचड़ वाले भागों में पैदा होता है। विचारवान् व्यक्तियों के द्वारा इन्द्रिय लिप्सा और सांसारिक सुखों से विरक्ति की तरह यह पौधे ठण्डक में ठिठुरते रहने की अपेक्षा परिव्राजक की उष्णता का आनन्द लेते हुए वहां समुद्र की ओर चल देते हैं। इनकी जड़ों में एक विलक्षण प्रक्रिया होती है ऊपर से हवा कीचड़ के भीतर जड़ को जाती है जिससे जड़ों में उस तरह की क्रिया होती है जिस तरह रेंगने वाले कीड़े अपनी पीठ वाले हिस्से को उठाकर चिमटी की सी आकृति बना लेते हैं। फिर सिर की तरफ का भाग आगे बढ़ाते हैं। इसी तरह वे एक लम्बी यात्रा करते रहते हैं। सामान्य अवस्था में मैनग्रोव की जड़ें जहाज द्वारा लंगर डाल लेने के समान कीचड़ को पकड़े रहती हैं और वायु द्वारा कीड़े की तरह जड़ें आगे भी बढ़ती रहती हैं। यह गति यद्यपि मन्द होती है, पर कुछ ही समय में वे जाने कहां से कहां चले जाते हैं। बुद्ध द्वारा आपातकालीन प्रव्रज्या आन्दोलन के लिए सैकड़ों परिव्राजक एक साथ धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए खोंक देने का परिणाम यह हुआ कि उस समय विकराल रूप धारण किये अश्रद्धा अन्धविश्वास, अधार्मिकता और अपवित्रता का असुर वहीं रोक दिया गया। इस वृक्ष ने भी एक बार द्वितीय विश्व युद्ध के समय अमरीकी, सैनिकों को बर्बर आक्रमण से रोक दिया। जिस समय अमरीकी नौ सैनिक आगे बढ़े इन वृक्षों की पूरी की पूरी कालोनियां आगे सामना करने के लिए डटी पाई गई।

कोई यह न समझ ले कि यह पौधे बोने होते होंगे। इनकी पूरी ऊंचाई सौ-सौ फुट तक होती है। पीले रंग के फूलों से आच्छादित इस वृक्ष के फल जब पकते हैं तो उन फलों में अंकुर भी डाल में लगे-लगे ही फूट पड़ते है। जब तक यह अंकुर आठ दस फुट के नहीं हो जाते तब तक पौधे की डाल से उसी तरह लगे रहते हैं जिस तरह परिव्राजक योग्य व्यक्तियों को आत्मोत्कर्ष के सन्देश देकर तब-तक पकाते रहते हैं, जब तक उनकी घनिष्ठता, श्रद्धा और निष्ठा में परिणत नहीं हो जाती। इस तरह अंकुरित फल एक धड़ाके के साथ टूटता है और 10-12 इंच का नुकीली अंकुर तेजी से समुद्र की गहराई में धंसता चला जाता है। यदि उसने धरती पा ली तो वहीं से नये वृक्ष के रूप में पनपना प्रारम्भ कर देता है। कदाचित ऐसा न हुआ तो वे फिर जल की ऊपरी सतह में आकर तैरना प्रारम्भ कर देते हैं। तैरते-तैरते वे एक संगठन बना कर काम करने की तरह कई ऐसे अंकुरित फल मिलकर कालोनी बना लेते हैं और जहां कहीं उचित स्थान मिला वहीं अपनी जड़ें जमा कर आत्म विकास प्रारम्भ कर देते हैं।

बोतल वृक्ष—शिक्षक पेड़

‘बाटल ट्री’ (बोतल वृक्ष) में आस्ट्रेलिया में पाये जाने वाला एक वृक्ष है। बोतलें पैदा होती हों, यह बात नहीं। पर जो बात है वह इससे भी अद्भुत है। बात यह है कि इसके तने की बनावट बोतल की सी होती है और उसमें पानी की बहुत अधिक मात्रा भरी होती है। अपने इस गुण के कारण बहुत लम्बे अर्से तक भी बिना पानी के बना रह सकता है। यही नहीं जल का अकाल पड़ जाये तो कोई भी मनुष्य उससे जल निकाल कर बहुत दिन तक अपना काम चला सकता है। एडीनम वृक्ष के तनों में भी पानी बहुतायत से पाया जाता है।

ऐसे ही कैलीफोर्निया के 500 मील लम्बे और 30 मील चौड़े क्षेत्र, आस्ट्रेलिया व तस्मानिया आदि देशों में कुछ पौधों को आकाश नापने का शौक है। यूकेलिप्टस नेगनान्स नामक वृक्ष 325 फुट तथा सेक्युआ वृक्ष 290 फुट तक ऊंचे पाये जाते हैं। इसी प्रकार अफ्रीका में पाये जाने वाले वाओबाब नामक वृक्षों का तना इतना मोटा होता है कि उसके किनारे वट सावित्री के दिन कोई भारतीय महिला सूत के सात फेरे लपेटे तो उसके लिये उसे 630 फीट लम्बे सूत की आवश्यकता पड़ेगी। अनैतिक कमाई खा-खाकर अपना पेट बढ़ा लेने वाले मनुष्यों के समान यह वृक्ष भी किसी काम के नहीं होते, सिवाय इसके कि उन्हें जलाकर ईंधन का काम ले लिया जाय।

सभी तेल जड़ या फलों से प्राप्त किये जाते हैं। पर वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि तुलसी वृक्ष की पत्तियों में तैल ग्रन्थियां पाई जाती हैं। उन्हीं का परिणाम है कि तुलसी का पौधा दूर तक अपनी सुगन्ध फैलाता और कृमियों को नष्ट करता है। अपनी इस उपकार प्रियता के कारण ही तुलसी एक वन्दनीय पौधा है।

और विश्वास कीजिये कुछ ऐसे वृक्षों पर, जो लोगों को आवाज देकर बुलाते और आतिथ्य करते हैं। अमरीका के उष्ण प्रदेश में जमइका में सीकेलिस नारियल जैसा एक वृक्ष होता है, उसके फल का वजन 20 किलो होता है। जब ये पककर तैयार होते और फूटते हैं तो उससे पटाखे की सी धड़ाम की आवाज होती है। गोली की आवाज हो तो लोग डरें और भागें, किन्तु इस धमाके की आवाज सुनते ही बन्दरों के झुण्ड के झुण्ड उधर लपकते और जहां वह वृक्ष फूटा था, पहुंच कर उसकी गिरी खाने का आनन्द लेते हैं।

आस्ट्रेलिया के उत्तर में इमली का एक इतना विशालकाय वृक्ष है कि उसके तने में पाये जाने वाले खोखले किसी समय जेल की आवश्यकता पूरी करते थे। लम्बी कैद वाले अपराधियों को लाकर उसमें बन्द कर दिया जाता था। कहा जाता है कि यह वृक्ष दो हजार वर्ष पुराना है। विशेषज्ञों का कथन है कि इस वृक्ष की जड़ें बहुत गहरी हैं, उसी से वह अपनी सामर्थ्य इतनी अधिक बढ़ा सकने योग्य हुआ। जिस समाज में इस वृक्ष की तरह अपनी सांस्कृतिक और जातीय, संगठन की आस्थायें ऐसी गहरी होती हैं, उनकी सामर्थ्य भी इस वृक्ष जैसी ही होती है। हजारों वर्षों के प्रतिकूल आघात भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते।

ग्रीक में लाल लकड़ी (रेडबुड) नामक वृक्षों की ऊंचाई 370 फीट तक पाई गई। वृक्षों की ऊपर उठने की यह प्रवृत्ति मानो मनुष्यों को यह प्रेरणा देती हो कि मनुष्य पार्थिव समस्याओं में ही उलझा मत रह। ऊपर देख संसार कितना विराट है। ऊर्ध्वमुखी बनो और उसका ज्ञान भी प्राप्त करो।

इसी प्रकार अफ्रीका में पाये जाने वाले बालसा वृक्ष मनुष्य को इस संसार में हलका-फुलका जीवनयापन करने की प्रेरणा देते हैं। 20 इंच व्यास वाले किसी 15 फुट लम्बे रेडवुड के टुकड़े को तोलें तो उसका वजन लगभग 14 टन बैठेगा। पर यदि इतनी ही लम्बाई के बालसा वृक्ष के तने को लें तो वह कुछ पंसारियों में ही तौला जावेगा। कोई भी व्यक्ति उसे आसानी से कन्धे पर उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जा सकता है।

अफ्रीका के जंगलों में एक ऐसा वृक्ष भी पाया जाता है, जिसका तना प्रतिदिन उतना दूध दे सकता है, जितना 5 गायें मिलकर। यह दूध अन्य दूध के समान ही पाचक, गुणकारी तथा स्वास्थ्य वर्धक होता है। वहां के लोग इस वृक्ष की उसी प्रकार पूजा करते हैं जिस प्रकार भारतवर्ष में गोपाष्टमी के दिन गऊ की पूजा की जाती है। मनुष्य कैसा भी हो यदि उसे अपनी आन्तरिक क्षमताओं का उपयोग करना शक्ति, प्रकाश और पोषण प्रदान करने में आ गया तो वह इस वृक्ष की तरह ही क्यों न हो। संसार उसका आदर किये बिना रहेगा नहीं।

भयंकर तूफान आये, वर्षा हुई, आंधी चलीं और आस-पास के बहुत-से पेड़, जो अकेले का दम्भ लिये खड़े थे, उजड़ कर नष्ट हो गये। किन्तु इंग्लैंड के दो ऐलम-वृक्ष आघातों के बावजूद भी हरे-भरे खड़े हैं। कोई भी तूफान उन्हें धराशायी न कर सका। उसका कारण यह है कि पति-पत्नी की तरह यह दोनों वृक्ष एक दूसरे में जुड़कर एक हो गये हैं। कहते हैं इन वृक्षों को देखने बहुत-से लोग जाते हैं और वहां से एक प्रेरणा और जागृति लेकर लौटते हैं कि जिन मनुष्यों के दाम्पत्य जीवन आत्मीयता की ऐसी प्रगाढ़ स्थिति में होते हैं। उन्हें संसार की कैसी भी परिस्थितियां परास्त नहीं कर सकतीं।

कोई भी व्यक्ति चाहे वह आकृति में कितना ही छोटा हो, शक्ति में किसी से कम नहीं—इस बात का रहस्य जानना हो तो घास के किसी मैदान का आणविक विश्लेषण करना चाहिए। अपने आप उगने और कुछ दिन में ही सूख जाने वाली साधारण-सी घास—700 बीघे मैदान से काट ली जाये और उसकी सारी आणविक ऊर्जा एकत्र कर ली जाये। उसकी शक्ति 20 हजार टन टी.एन.टी के बराबर अर्थात् पूरे एक हाइड्रोजन बम के बराबर होगी। इसी तरह छोटी-छोटी शक्ति वाले साधारण मनुष्यों में भी यदि कहीं से घास जैसा आत्म-विश्वास जागृत हो जाये, तो वही सारे संसार की ऐसी काया पलट कर सकते हैं, जैसी कोई हाइड्रोजन बम।

फ्लोरिडा अमेरिका में एक अति प्राचीन वट वृक्ष अतीव सजीव प्रेरणाओं के साथ आज भी खड़ा है। इसके तन कई-कई सौ गज की दूरी में फैले हैं, फिर भी वे कहीं से इसलिए नहीं टूटते क्योंकि उनमें से निकल-निकल कर जड़े पृथ्वी में इस तरह मजबूत होती गई हैं, जैसे 84 खम्भों वाली दालान की छत को खम्भे साधते हैं।

कोई इन पेड़ों वृक्षों से शिक्षा ले या न ले पर यह सच है—

शास्त्रकार उस अखिल ब्रह्माण्ड व्यापी दिव्य-सत्ता की यह विचित्र कलाकृतियां देखकर धन्य हो गया उसकी वाणी इतना ही कह सकी—‘‘तत्वं वन्दे तद्भुतम्’’ उस अद्भुत तत्व को मेरा बारम्बार प्रणाम है।

उदाहरण स्वरूप सुमात्रा (इन्डोनेशिया) के उस कूयें को ले सकते हैं जिसके अन्दर झांकने के दर्शन को एक के स्थान पर दो प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं। प्रकाश किरणों में ऐसी अद्भुत क्षमतायें तो हैं कि वे किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब कहीं, भी कैसा भी, चित्र-विचित्र बना दें किन्तु उसके लिए तरह-तरह के त्रिपार्श्व (प्रिज्म) और लेन्सों का उपयोग आवश्यक होता है इस कूयें में कहीं कोई शीशा नहीं जड़ा। आश्चर्य तो यह है कि जो दो प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते हैं उनमें से एक तो दर्शक का ही होता है पर दूसरा, किसी अपरिचित का—किस अपरिचित का वैज्ञानिकों के पास उसका कोई उत्तर नहीं है।

वेलाविस्त्रिया (दक्षिण अफ्रीका) में संसार का सब से विचित्र पौधा पाया जाता है उसकी ऊंचाई कुल 1 फुट होती है जब कि तने का व्यास 15 फीट। शतायु जीवी इस पौधे का एक और बड़ा आश्चर्य है—उसकी तीन पत्तियां जो जन्म के साथ आती हैं और मृत्यु के साथ जाती हैं। प्रकृति में ऐसा गुण कहीं नहीं पाया जाता जिससे वनस्पति शास्त्री उसकी संगति मिलाते और इस पौधे के सम्बन्ध में कोई अनूठा सिद्धान्त दे पाते।

धरती ब्रह्माण्ड की तुलना में बहुत छोटी है। रीडर्स डाइजेस्ट प्रकाशन ने एक एटलस प्रकाशित किया है उसमें विराट ब्रह्माण्ड का भी नक्शा प्रस्तुत किया गया है उस तमाम नक्शे में समूचे सौरमण्डल के लिये जिसकी लम्बाई चौड़ाई प्रकाश वर्षों में भी नापी जाती है, कोई स्थान नहीं दिया गया। एक तीर जैसा संकेत भर है और लिखा है हमारा सौरमण्डल यहां कहीं है (अवर सोलर सिस्टम इज समव्हेर हियर)। फिर इस पृथ्वी के अस्तित्व की नगण्यता का तो कहना ही क्या? उसमें भी इटली जैसे छोटे से देश की गिनती करना भी व्यर्थ है पर उसी इटली के उसेला नामक स्थान में एक किला देखने जायें तो सारे ब्रह्माण्ड की विचित्रता को उसी किले में उतरा हुआ पायेंगे। इस किले की वैज्ञानिक इन दिनों तत्परता पूर्वक खोज कर रहे हैं पर उसके अद्भुत रहस्य की कोई जानकारी नहीं मिल रही है। सूर्योदय होने को होता है तो यह किला समूचा दिखाई देता है उसी प्रकार सूर्यास्त होता है उससे थोड़ी देर पहले भी किला समूचा दिखाई देता है शेष समय किला एक मात्र खण्डहर के रूप में दिखाई देता है किन किरणों का खेल है यह जो अपनी इच्छानुसार उसे किले के रूप में प्रस्तुत कर देती हैं अथवा खण्डहर के रूप में, कुछ भी तो पता नहीं चल पाया वैज्ञानिकों का कथन है कि सूर्य के साथ उदय या अस्त होने वाली किरणें इस पृथ्वी पर पहुंचने से पहले तारों से भरे आकाश में 10 हजार वर्ष तक घुस लेती हैं तब पहुंचती हैं सम्भव है इस घटना का सम्बन्ध इस ताप से हो पर उसके लिये व्यक्ति को विराट आंखें चाहिये चमड़े वाली नहीं।

प्रकाश तत्व और शब्द तत्व दोनों ही शक्ति के रूप हैं प्रकाश ही नहीं इटली के ही लुसेरा नामक स्थान में ब्रह्म अपनी शब्द की गोपनीयता का भी आभास कराता है यहां एक ऐसा मकान है जिसमें कोई चिल्लाये या बात करे तो उसकी आवाज 11 बार प्रतिध्वनित होती है पर सूर्यास्त हो जाने के बाद आप कोई बात कहेंगे तो प्रतिध्वनि 11 की अपेक्षा 12 बार आयेगी, किसी नियम के द्वारा वैज्ञानिक कहते हैं भाई कुछ अता-पता नहीं, कारण क्या है?

बिहार राज्य के चंपारन जिले में एक प्रकार का धान पाया जाता है जिसका उल्लेख करते हुए डा. डाग स्टोरर ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘‘वर्डर बुक आफ स्ट्रेन्ज फैक्ट्रस’’ में लिखा है कि यह धान अपना सिर हमेशा पानी की सतह से ऊपर रखता है। यदि कदाचित खेत में बहुत अधिक बाढ़ आ जाये तो धान के पौधे असामान्य गति से बढ़कर दूसरे ही दिन जल की सतह से ऊपर अपना सिर उठा लेते हैं, जब कि जड़ें जमीन में ही लगी रहती है। गति की इस असामान्यता का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह पौधे एक या दो दिन में ही 20 फीट तक बढ़ सकते हैं जब कि सामान्य पौधों को इतनी ऊंचाई तक बढ़ने के लिए कई महीनों का समय चाहिए।

यह प्रमाण दर्शाता है कि वृक्ष भी उसी दिव्य चेतना के प्रकाश पुंज है जिसमें मनुष्य और मनुष्येत्तर प्राणी। जो शक्तियां मनुष्य तथा प्राणियों में दिव्य विलक्षणतायें उत्पन्न कर देती हैं वही शक्तियां वृक्ष वनस्पतियों को भी प्रभावित करती हैं। पहले कभी तो विज्ञान ही यह मानता रहा था कि पेड़ पौधे भी धूल पत्थर की तरह निष्प्राण है। कुछ वर्षों से ही यह माना जाने लगा है कि वृक्ष वनस्पतियों में भी प्राणचेतना विद्यमान है।

एक छोटी-सी घटना से प्रेरित होकर हमारे ही देश के एक वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने यह सिद्ध किया कि पेड़ पौधों में भी जान है। वे भी अनुभव करते हैं। उनमें भी अनुभूति और भावनायें मौजूद रहती हैं? वे भी मनुष्यों और जानवरों की तरह सुख में सुख तथा दुःख में दुःख अनुभव करते हैं। बसु ने ‘आप्टीकल लीवर’ नामक एक विशेष यन्त्र बनाया था जिसके माध्यम से पेड़ पौधों की गति, स्पन्दन और संवेदनाओं का अध्ययन किया जाता था। पेड़ की पत्ती तोड़ने पर उसे जो पीड़ा होती है, आप्टीकल लीवर ने उसे पकड़ा और बताया इसी तरह की कई और बातें, प्रक्रियायें ‘आप्टीकल लीवर’ से देखी जा सकीं।

परन्तु सर जगदीश चन्द्र बसु के बाद से अब तक विज्ञान ने काफी तरक्की करली है और उसी तरह वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में हुई नयी-नयी शोधों ने वनस्पति संसार के नये रहस्य खोलकर रख दिये हैं। जैसा कि उपरोक्त घटना में ही देखा गया। पेड़ पौधे मनुष्य के संकेतों को समझते हैं और उन्हें प्रेरित किया जाय तो सम्मोहित व्यक्ति की तरह उन पर आचरण भी करते हैं। पियरे पाल साविन ने यही तो किया था। उन्होंने घोषित प्रदर्शन के पूर्व बिजली के एक स्विच का सम्बन्ध अपनी देह के साथ जोड़ा और दूसरे स्विच को गैल्वेनोमीटर से लगाया। इस गैल्वेनोमीटर का सम्बन्ध एक पौधे के साथ जोड़ा गया था। साविन वहां बैठे बैठे संकेत देते और पौधा विद्युत ट्रेन के परिपथ के साथ उलटा सम्बन्ध स्थापित करता, जिससे ट्रेन पीछे की ओर चलने लगती। इस प्रयोग को अमेरिका में टेलीविजन पर भी बताया गया। लोग दंग रह गये यह देखकर कि पौधा भी इतना आज्ञाकारी हो सकता है।

भारतीय धर्मशास्त्रों में पेड़ पौधों और वनस्पतियों से मनुष्य द्वारा स्थापित किये गये सजीव सम्पर्क की ढेरों घटनाओं का उल्लेख मिलता है। आयुर्वेद शास्त्र के पितामह चरक के सम्बन्ध में विख्यात है कि उन्होंने अपने छोटे से जीवन में हजारों जड़ी-बूटियों के गुण मालूम किये तथा कौन-सी जड़ी किस रोग में कैसे प्रयोग की जानी चाहिए इसका विस्तृत विधि-विधान खोजा। आजकल वैज्ञानिक एक रोग की दवा खोजने अथवा एक औषध का परीक्षण विश्लेषण करने में ही जीवन भर गुजार देते हैं तो एक व्यक्ति द्वारा अपने छोटे से जीवन में हजारों औषधियों का अध्ययन विवेचन कैसे सम्भव है। विश्वास नहीं किया जाता।

ऐसा उल्लेख मिलता है कि आयुर्वेद की रचना करते समय चरक जंगल में एक-एक झाड़ी, पौधे और वनस्पति के पास जाते तथा उससे उसकी विशेषतायें पूछते। वनस्पति स्वयं अपनी विशेषतायें बता देती। इसी आधार पर हजार वर्षों या हजार वैज्ञानिकों का कार्य एक अकेले व्यक्ति द्वारा सम्पन्न किया जा सका। पहली बात को जहां सन्दिग्ध समझा जाता रहा है वहीं दूसरी को हास्यास्पद कहा जाता है। परन्तु अब, जबकि वनस्पति जगत में हुई अधुनातम खोजों के आधार पर वैज्ञानिक यह कहने लगे हैं कि पेड़ पौधों से न केवल सम्वाद सम्भव है वरन् उनसे इच्छित कार्य भी कराया जा सकता है। पियरे पाल साविन का तो यहां तक कहना है कि चोरों से घर की सुरक्षा के लिए भी भविष्य में पेड़-पौधों का इस्तेमाल किया जा सकेगा। उसके लिए किसी भी पौधे का सम्बन्ध दरवाजे के साथ जोड़ दिया जायगा और मकान मालिक जब उस पौधे के पास जाकर खड़ा हो जायगा तो पौधा अपने मालिक को पहचान कर दरवाजा खुलने देगा।

यहां तक तो फिर भी उतना आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अमेरिका के ही एक और इलेक्ट्रानिकी विशेषज्ञ वैकस्टर ने तो यहां तक कहा है कि पेड़ पौधे अपने मालिकों की मृत्यु पर शोक भी व्यक्त करते हैं। पियरे पाल साविन ने तो यहां तक कहा है कि पेड़-पौधे न केवल मनुष्यों की मृत्यु पर शोक व्यक्त करते हैं बल्कि उन्हें मानव कोशाओं की मृत्यु का बोध होता है तो वे उस पर भी अपनी सम्वेदना व्यक्त करते हैं।

इसके लिए साविन ने अस्सी मील दूर पर एक प्रयोग किया साविन ने जिस पौधे को प्रयोग के लिए चुना था वह अस्सी मील दूर पर एक अनुसन्धान केन्द्र में स्थित था। फिर उसने अपने शरीर को बिजली के झटके दिये। अस्सी मील की दूरी पर स्थित पौधे पर इसकी प्रतिक्रिया नोट की गई जबकि दोनों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं था सिवा इसके कि जब साविन के शरीर को बिजली के झटके दिये जा रहे थे तो वह कल्पना में उन पौधों का ध्यान कर रहा था।

फिर भी साविन को यह विश्वास नहीं हुआ कि पौधे उसके शरीर पर लगने वाले विद्युत झटकों पर ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे। साविन ने विचार किया कि सम्भव है पौधे अपने आस-पास की दूसरी किसी घटना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हों। अतः अब एक पौधे के स्थान पर तीन-तीन पौधे लिए गये और तीनों पौधों को अलग-अलग कमरों में रखा गया। हर कमरे का माहौल दूसरे के माहौल से बिल्कुल भिन्न था तथा तीनों पौधे एक ही विद्युत पथ से जुड़े हुए थे। उधर अस्सी मील दूरी पर स्थित साविन ने अपना प्रयोग आरम्भ किया। न कोई सम्पर्क न सम्बन्ध सूत्र। केवल विचार शक्ति का उपयोग करना था। साविन ने जब अपना प्रयोग आरम्भ किया तो तीनों ही पौधों पर एक समान प्रतिक्रियायें हुईं। अब इसमें कोई सन्देह नहीं था कि पौधे अस्सी मील दूर बैठे साविन की अनुभूतियों सम्वेदनाओं को ग्रहण कर अपनी प्रतिक्रियायें व्यक्त कर रहे थे।

पेड़-पौधे न केवल मनुष्य के आज्ञा पालक को तत्पर और दुःख-सुख में सम्वेदनायें व्यक्त करते हैं वरन् उनमें भी भावनाओं का आवेश उमड़ता है। जापान के मनोविज्ञानी डा. केन हाशमोतो ने ‘लाई डिटेक्टर’ के माध्यम से इस बात का पता लगाया। ‘लाइ डिटेक्टर’ एक ऐसा यन्त्र है जो अपराधियों का झूठ पकड़ने के काम आता है। इसका सिद्धान्त है कि व्यक्ति जब कोई बात छुपाता है या झूठ बोलता है तो उसके शरीर में कुछ वैद्युतिक परिवर्तन आ जाते हैं। लाइ डिटेक्टर उन परिवर्तनों को अंकित कर लेता है और बता देता है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है। अर्थात् मनुष्य की भावनात्मक स्थिति में आने वाले परिवर्तनों को लाइ डिटेक्टर बता देता है।

डा. केन हाशीमोतो ने इस मशीन का सम्बन्ध कैक्टस के एक पौधे से जोड़ा इसके बाद यन्त्र को चालू कर दिया यन्त्र ने बड़ी तेजी से कम्पन अंकित किये। हाशीमोतो ने इन कम्पनों का ध्वनितरंगों में बदलने के लिए कुछ विशेष इलेक्ट्रानिक यन्त्रों का सहारा लिया। इन यन्त्रों की मदद से कम्पनों को ध्वनितरंगों में परिवर्तित किया और उन्हें सुना गया तो लयात्मक स्वर सुने गये उनमें कहीं हर्ष का आवेग था तो कहीं भय की भावना।

हाशीमोतो ने केक्टस के पौधे पर इतने प्रयोग किये कि उसे गिनती गिनना तक सिखा दिया। कैक्टस का पौधा हाशीमोतो की आज्ञा पाकर एक से बीस तक गिनती गिनने लगता और यह पूछने पर कि दो और दो कितने होते हैं, स्पष्ट उत्तर देता चार। इस प्रयोग को अन्य कई वैज्ञानिकों ने भी देखा और संसार की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराया।

प्रदर्शन के समय पेड़ के सामने प्रश्न रखा गया कि बारह में से चार घटाने पर कितने बचते हैं। केक्टस ने जो उत्तर दिया डा. हाशीमोतो ने उसे ध्वनितरंगों के रूप में परिवर्तित करके दिखाया। ध्वनि तरंगों को जब हैडफोन पर सुना गया तो स्पष्ट उत्तर सुनाई दे रहा था—आठ। इन प्रयोगों और निष्कर्षों को लेकर जापान ही नहीं संसार के वनस्पति विज्ञान में एक नयी हलचल पैदा हो गयी है।

अब इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि चरक ने कभी जड़ी बूटियों से प्रश्न किया हो और जड़ी बूटियों ने बताया हो कि हम अमुक रोग का उपचार करने में समर्थ हैं। प्रश्न उठता है कि प्राचीनकाल में जब भारतीय विज्ञान इतना विकसित रहा था तो वह लुप्त क्यों हो गया। इस सन्दर्भ में एक बात स्मरणीय है कि आधुनिक विज्ञान यन्त्रों के द्वारा शोध और प्रयोग करता है परन्तु प्राचीनकाल में यही आत्मा की शक्ति सामर्थ्य के बल पर किया जाता था। चेतना तक चेतना की पहुंच सुगम है अपेक्षाकृत चेतन को यन्त्रों से सम्बोधित करने के। वहां भी चेतना ही काम करती है, परन्तु यान्त्रिक व्यवस्था जब बीच का माध्यम बनती है तो चेतना की गति निर्विरोध नहीं रह जाती। प्राचीनकाल में चेतन को चेतन से प्रभावित करने और आत्मिक चेतना से अदृश्य गुह्य रहस्य उद्घाटित करने के जो प्रयोग हुए तथा उनमें जो सफलतायें मिली उन्हें परम्परागत रूप से दूसरे को प्रत्यावर्तित नहीं किया जा सका।

डा. हाशीमोतो ने जब जापान के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इस तरह के लेख लिखे तो उनके पास ढेरों पत्र पहुंचने लगे। लोगों ने कैक्टस की इन भौतिक क्रियाओं के पीछे विद्यमान रहने वाले भौतिक कारणों को जानना चाहा तो डा. हाशीमोतो ने एक दूसरे लेख में लिखा—संसार में ऐसी कितनी ही घटनायें घटती हैं जिनके पीछे विद्यमान कारणों पर भौतिक विज्ञान प्रकाश नहीं डाल सकता, क्योंकि वह अभी पूर्ण विकसित नहीं हुआ है। इस गुत्थी को सुलझाने में पूर्व का अध्यात्म विज्ञान ही समर्थ है जो चेतना की सर्व व्यापकता और उसके जीवन्त अस्तित्व को स्वीकारता है। यह कोई विलक्षण घटना नहीं है विलक्षण इसलिए लगती है कि हमारी जानकारी में अभी आयी है। अन्यथा गैलीलियो के बताने से पूर्व भी पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती थी और बताने के बाद भी। केवल गैलीलियो का यह सिद्ध करना विस्मयकारी और अविश्वसनीय रहा कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।

अगले दिनों भारतीय तत्वदर्शन की अन्यान्य मान्यतायें भी इसी प्रकार खरी सिद्ध हो सकती है कि सृष्टि ब्रह्माण्ड में जड़ कुछ नहीं है। अद्वैत दर्शन सर्वत्र एक चेतना के अस्तित्व का ही तो प्रतिपादन करता है।
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