अक्षुण्ण स्वास्थ्य प्राप्ति हेतु एक शाश्वत राजमार्ग

चिन्तन की स्वच्छता भी उतनी ही अनिवार्य

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पिछली भूलों का परिमार्जन, वर्तमान का परिष्कृत निर्धारण एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्माण यदि सचमुच ही अभीष्ट हो तो इसके लिए विचार संस्थान पर दृष्टि जमानी चाहिए। इस मान्यता को सुस्थिर करना चाहिए कि समस्त समस्याओं का उद्गम भी यही है, और समाधान भी इसी क्षेत्र में सन्निहित है। यह सोचना सही नहीं है कि धन वैभव के बाहुल्य से मनुष्य सुखी एवं समुन्नत बनता है। इसलिए सब कुछ छोड़कर उसी का अधिकाधिक अर्जन जैसे भी सम्भव हो करना चाहिए इस भ्रान्ति से जितनी जल्दी छुटकारा पाया जा सके, उतना ही उत्तम है।

शरीर की बलिष्ठता और चेहरे की सुन्दरता का अपना महत्व है। धन की उपयोगिता है, और उसके सहारे शरीर यात्रा के साधन जुटाने में सुविधा रहती है। इतने पर भी यह तथ्य भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि व्यक्तित्व का स्तर और स्वरूप, चिन्तन क्षेत्र के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। व्यक्तित्व का स्तर ही वस्तुतः किसी के उत्थान-पतन का आधारभूत कारण होता है। उसी के अनुरूप भूतकाल बीता है, वर्तमान बना है और भविष्य का निर्धारण होने जा रहा है। उसकी उपेक्षा करने पर भारी घाटे में रहना पड़ता है। स्वास्थ्य का—शिक्षा का—प्रतिभा का—सम्पदा का—पद अधिकार का—कितना ही महत्व क्यों न हो, पर उनका लाभ मात्र सुविधा संवर्धन तक सीमित है। यह सम्पदा अपने लिए तथा दूसरों के लिए मात्र निर्वाह सामग्री ही जुटा सकती है, पर इतने भर से बात बनती नहीं, आखिर शरीर ही तो व्यक्तित्व नहीं है, आखिर सुविधायें मिल भर जाने से ही तो सब कुछ सध नहीं जाता कुछ इससे आगे भी है यदि न होता तो साधन सम्पन्न ही सब कुछ बन गये होते, तब महामानवों की कहीं कोई पूछ न होती न आदर्शों का स्वरूप कहीं दृष्टिगोचर होता है और न मानवी गरिमा का प्रतिनिधित्व करने वाले महामानवों की कहीं आवश्यकता उपयोगिता समझी जाती।

समझा जाना चाहिए कि व्यक्ति या व्यक्तित्व का सारतत्व उसके मनःसंस्थान में केन्द्रीभूत है। अन्तःकरण अन्तरात्मा आदि नामों से इसी क्षेत्र का वर्णन विवेचन किया जाता है। शास्त्रकारों ने, ‘मन एवं मनुष्याणां कारणं वंध मोक्षये’ ‘आत्मेव आत्मनः बन्धु आत्मैव रिपुरात्मनः’ उद्दरेदात्मनात्मानम् नात्मानम् अवसादयेत्’ आदि अभिवचनों में एक ही अंगुलि निर्देश किया है कि मन के महत्व को समझा जाय और उसके निग्रह के, परिशोधन-परिष्कार के निमित्त संकल्पपूर्वक साधनारत रहा जाय। मन को जानने की उपमा विश्वविज्ञान से दी गई है, जो अपने ऊपर शासन कर सकता है वह सबके ऊपर शासन करेगा—इस कथन में बहुत कुछ तथ्य है।

मन का, आत्मा का, जो निरूपण किया जाता है उसे एक शब्द में विचारणा का स्तर ही कहना चाहिए। मान्यतायें, भावनायें, आस्थायें इसी क्षेत्र की गहरी परतें हैं। कल्पना, विवेचना, धारणा इसी क्षेत्र में काम करती हैं। सम्मान, आदत, स्वभाव की खिचड़ी इसी चूल्हे पर पकती है। लगने को यह भी लगता है कि विचार बिना बुलाये आते हैं और अनचाहे ही चढ़ दौड़ते हैं पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। हम कोई दिशा-धारा निर्धारित करते हैं और उस सरिता में तदनुरूप लहरें उठने लगती हैं।

भीतरी हेर-फेर का वाह्य क्रिया-कलापों और परिस्थितियों में परिवर्तन होना सुनिश्चित है। मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थिति के बदल जाने की बात को सभी विज्ञजन एक स्वर से स्वीकार करते हैं। अस्तु परिस्थितियों को बदलने के निमित्त मनःस्थिति को बदलना प्राथमिक उपचार की तरह माना गया है। विचारों में मूढ़ता भरी रहने पर, भ्रान्तियों और विकृतियों के अम्बार लगे रहने पर यह सम्भव नहीं कि किसी को गई-गुजरी स्थिति में पड़े रहने से छुटकारा मिल सके। जिसका भाग्य बदलता है उसके विचार बदलते हैं। विचार बदलने से मतलब है—अवांछनीयताओं की खोज कुरेद और जो भी अनुपयुक्त है, उसे बुहार फेंकने का साहस भरा निश्चय।

यहां एक तथ्य और भी स्मरण रखने योग्य है कि मात्र कुविचारों का समापन ही सब कुछ नहीं है। एक कदम उठाने, दूसरा बढ़ाने के उपक्रम के साथ ही यात्रा आरम्भ होती है। छोड़ने पर खाली होने वाले स्थान को रिक्त नहीं रखा जा सकता उस स्थान पर नई स्थापना भी तो होनी चाहिए। अनौचित्य के अनुकूल के साथ ही औचित्य का संस्थापन भी आवश्यक है। आपरेशन से मवाद निकालने के उपरान्त घाव भरने के लिए तत्काल मरहम-पट्टी भी तो करनी पड़ती है। कुविचारों की विकृत आदतों का निराकरण तब हो सकता है, जब उस स्थान पर सत्प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठित कर दिया जाय, अन्यथा घोंसला खाली पड़ा रहने पर चमगादड़ न सही अबावील रहने लगेगा।

दुष्प्रवृत्तियां, अवांछनीय आदतें, कुविचारणायें बहुत समय तक अभ्यास में सन्निहित रहने पर स्वाभाविक प्रतीत होने लगती हैं, निर्दोष लगती हैं और कभी-कभी तो उचित एवं आवश्यक दीखने लगती हैं। उनके प्रति पक्षपात बनता है और मोह जुड़ता देखा गया है। ऐसी दशा में उन्हें ढूंढ़ निकालना और यह समझ सकना तक कठिन पड़ता है कि उनसे कुछ हानियां भी हैं या नहीं। इसका निश्चय श्रेष्ठ, सज्जनों और दुष्ट दुर्जनों की सद्गति एवं दुर्गति का पर्यवेक्षण करते हुए किया जा सकता है। जो दुष्प्रवृत्तियों को अपनाते रहे, हेय जनों जैसी मनःस्थिति में सन्तुष्ट रहे, अचिन्त्य चिन्तन में निरत रहे, उन्हें ठोकरें खाते और ठोकरें मारते हुए ही दिन काटने पड़े हैं, जिनने प्रगति की बात सोची और वरिष्ठता के लिए आकांक्षा जगाई, उन्हें साथ ही वह निर्णय भी करना पड़ा है कि व्यक्तित्व का स्तर उठाने वाली विचार प्रक्रिया को अपनाने स्वभाव का अंग बनाने में कोई कोर कसर न रहने दी जायगी।

इस सन्दर्भ में सर्वप्रथम उन आदतों से जूझना चाहिए जो एक प्रकार से अपंग स्थिति में डाले रखने के लिए उत्तरदायी हैं। पक्षाघात पीड़ितों, अपंगों, अशक्तों की तरह हीनता के विचार भी ऐसे हैं, जिनके रहते किसी का भी पिछड़ेपन से पिंड छूटना असम्भव है। ‘लो ब्लड प्रेशर’ के मरीज ऐसे पड़े रहते हैं, जैसे लंघन करने वाले ने चारपाई पकड़ ली हो और करवट बदलना तक कठिन हो रहा हो। आलसियों की, अकर्मण्यों की गणना ऐसे ही लोगों में होती है। वे समर्थ होते हुए भी असमर्थ बनते हैं, निरोग होते हुए भी रोगियों की चारपाई में जा लेटते हैं। आरामतलबी, काहिली, कामचोरी, हरामखोरी ऐसी ही मानसिक व्यथा है, जिसके कारण बहुत कुछ कर सकने में समर्थ व्यक्ति भी अपंग-असमर्थों की तरह दिन गुजारता है। ढेरों समय खाली होने पर भी महिलाओं की तरह उसे जैसे-तैसे काटता है, जबकि उन क्षणों का किन्हीं उपयोगी कामों में नियोजन करने के उपरान्त कुछ ही समय में अतिरिक्त योग्यता का धनी बना जा सकता था, सक्षमों, सुयोग्य प्रतिभावानों और सुसम्पन्नों की पंक्ति में खड़ा हुआ जा सकता था।

‘आलस्य’ शरीर को स्वेच्छापूर्वक अपंग बनाकर रख देने की प्रक्रिया है। इसी प्रकार प्रमाद मन को जकड़ देने वाली रीति-नीति है। प्रमादी सोचने का कष्ट सहन करना नहीं चाहता है, जो चल रहा है, उसी से समझौता कर लेता है। नया कुछ सोच न सकने पर, नया साहस न जुटा सकने पर, प्रगति की सुखद कल्पनायें करते रहना, शेखचिल्ली की तरह उपहासास्पद बनना है। आलसी उन कार्यों को नहीं करते, जो बिना कठिनाई के तत्काल किये जा सकते थे। इसी प्रकार प्रमादी उतार-चढ़ावों के सम्बन्ध में कुछ भी सोचने का कष्ट नहीं उठाते मात्र जिस-तिस पर दोषारोपण करते हुए, दुर्भाग्य का रोना रोते हुए मन हल्का करते रहते हैं, जबकि दोष उनका अपना होता है। परिस्थितियों को बदलने-सुधारने के लिए जिस सूझबूझ धैर्य सन्तुलन, साहस एवं प्रयास की आवश्यकता पड़ती है उसे जुटा न पाने का प्रतिफल यह होता है कि अनीति जड़ जमा लेती है। पिछड़ापन ऐसा सहचर बनकर बैठ जाता है, जिसे हटाने या बदलने जैसी कोई बात बनती ही नहीं। अस्त व्यस्त विचारों को यदि वर्तमान को सुधारने वाले उपाय ढूंढ़ने में लगाया जा सके और वर्तमान परिस्थितियों से तालमेल बिठाते हुए अगला कदम क्या हो सकता है, यदि इस पर व्यावहारिक दृष्टि से चिन्तन किया जा सके तो प्रगति पथ पर बढ़ चलने का कोई मार्ग अवश्य मिलेगा, पर जिसने पत्थर जैसी जड़ता अपनाली है, उसे रचनात्मक प्रयासों में लग पड़ने के लिए न आलस्य छूट देता है न विचारों की असंगत उड़ानों से विरत करके कुछ व्यावहारिक उपाय सोचने की सुविधा, प्रमाद की खुमारी रहते बन पड़ती है। वस्तुतः प्रगतिशीलता के यही दो अवरोध चट्टान की तरह अड़ते हैं इन्हें हटाये बिना कोई गति नहीं कोई प्रगति नहीं।

मनुष्य को हीन बनाने वाले मनोविकारों में उदासी और निराशा प्रमुख हैं। पेट भरने के बाद नदी की बालू में लोटपोट करने वाले मगर और उदरपूर्ति के उपरान्त कीचड़ में मस्त होकर पड़े रहने वाले वाराह को फिर दीन—दुनिया की कोई सुध नहीं रहती। जब बासी पच जाता है और झोले में खालीपन प्रतीत होता है, तभी वे उठने और कुछ करने की बात सोचते हैं। ‘पंछी करें न चाकरी अजगर करें न काम’ का उदाहरण बनकर जो समस्त कामनाओं से रहित परमहंसों की तरह दिन गुजारते हैं और ‘राम भरोसे जो रहे पर्वत पै हरियाय’ के भाग्य भरोसे जो समय काटते हैं उन्हें ‘ना काहू सों दोस्ती ना काहू सो वैब’ वाली स्थिति रहती है। वे न कल की सोचते हैं न परसों की। उन उदासीन समुदाय का दर्शन अपनाने वालों के लिए प्रगति और अवगति से कुछ लेना-देना नहीं होता, मुट्ठी बांधकर आते और हाथ पसार कर चले जाते हैं, न शुभ की आकांक्षा न अशुभ की उपेक्षा—ऐसी उदासीनता पिछले और गये गुजरे स्तर का प्रतीक है।

निराशा इससे बुरी है, वह सोचती भी है और चाहती भी, किन्तु साथ ही अपनी असमर्थता, भाग्य की मार परिस्थितियों की प्रतिकूलता, साथी की बेरुखी जैसी निषेधात्मक सम्भावनाओं पर ध्यान केन्द्रित करती है और कदम उठाने से पहले ही असफल रहने का दृश्य देखती और हार मान लेती है। ऐसे लोग उदास रहने वालों की उपेक्षा अधिक दीन-हीन स्थिति में होते हैं और सन्तोष भी हाथ से गंवा बैठते हैं।

अशुभ की आशंका जिन्हें डराती रहती है, वे चिन्तातुर पाये जाते हैं। कुछ चाहते तो हैं, किन्तु सूझबूझ और पुरुषार्थ के प्रभाव को परिस्थितिजन्य गतिरोध मान बैठते हैं। अपने को ऐसे चक्रव्यूह में फंसा पाते हैं, जिसमें से बच निकलने का रास्ता अवरुद्ध पाते हैं, इस स्तर के व्यक्ति चिंतातुर देखे जाते हैं, घबराहट में सिर धुनते हैं, हड़बड़ी में कुछ का कुछ कहते, कुछ करते और सोचते हैं वह सब बेतुका होता है। अपनी परेशानी साथियों के सामने इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, मानो आकाश टूटकर उन्हीं पर गिरा हो। यों इस कथन में उनका प्रयोजन सहायता न सही, सहानुभूति पाने का तो होता ही है पर वे यह भूल जाते हैं कि हारते का सभी साथ छोड़ देते हैं मित्र भी कन्नी काटने लगते हैं। इस दुनिया में सफल, साहसी और समर्थ को ही साथियों का भी सहारा मिलता है। डूबते को देखकर लोग दूर रहते हैं, ताकि चपेट में आकर कहीं उन्हें भी न डूबना पड़े। उदार-परोपकारी तो जहां-तहां उंगलियों पर गिनने जितनी संख्या में ही पाये जाते हैं। ऐसी दशा में चिन्तातुर, निराश भयभीत संत्रस्त कायर, दुर्बल होने की दुहाई देने के नाम पर यदि सहानुभूति अर्जित करना चाहता हो तो उसे नहीं के बराबर सफलता मिलेगी। जो मिलेगी वह भी उथली एवं व्यंग्य-तिरस्कार से भरी हुई होगी। सहायता तो कहीं से कदाचित ही मिल सके। यह भी हो सकता है जिनसे सामान्य स्थिति में थोड़ी-बहुत सहायता की आशा थी, उससे भी हाथ धोना पड़े।

अपने आपको कमजोर करने और गिराने का यह अवसाद-उपक्रम जिसने भी अपनाया है, वे घाटे में रहे हैं। मनोबल को गिराना भी धीमी आत्महत्या है, जो रोग निवारण, अर्थ-उपार्जन सौभाग्य-सम्वर्धन, संकट निवारण जैसे अगणित महत्वपूर्ण कार्यों में अजस्र सहयोग प्रदान करता है। गिराने थकाने और खोखला बनाने वाले उपरोक्त मनोविकारों में चिन्तन का निषेधात्मक प्रवाह ही आधारभूत कारण होता है। जैसे सोचा होता है, उसमें वास्तविकता का नगण्य-सा ही अंश रहता है। कुकल्पनाओं का घटाटोप ही, शंका-डाक मनसामते की उक्ति चरितार्थ करता है। कुकल्पनाओं के अंधेरे में झाड़ी की आकृति भूत जैसी बन जाती है। साहस और विवेक की मात्रा घट जाने पर ऐसे अनगढ़ विचार उठने लगते हैं, जिनसे विपत्ति का आक्रमण।

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*समाप्त*
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