अक्षुण्ण स्वास्थ्य प्राप्ति हेतु एक शाश्वत राजमार्ग

मितभुक्, हितभुक, ऋत्भुक्

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कहा जाता है कि महर्षि चरक अपनी संरचना और शिक्षा का समुचित विस्तार कर चुके तो उन्हें यह जानने की सूची कि उनके प्रतिपादन का रहस्य कितनों ने समझा, इसका पता लगाया जाय। उपरोक्त प्रयोजन के लिए महर्षि ने एक कपोत का रूप बनाया और उस क्षेत्र में पहुंचे, जहां चिकित्सकों की भरमार थी। पक्षी रूपधारी चरक ने अपनी भाषा में चिकित्सकों से एक मार्मिक प्रश्न पूछा—‘कोऽरुक’ अर्थात् कौन रोगी होता है? इस प्रश्न से उनका मन्तव्य यह था कि जो मूल कारण को जानता होगा वही उसकी रोक-थाम के उपाय सोचेगा। चिकित्सा उपचार भी उसी का सफल होगा। अन्यथा औषधि मात्र से अस्वस्था का स्थाई निराकरण कहां सम्भव है? कपोत चरक ने बारी-बारी सभी से चिकित्सकों के सम्मुख वही प्रश्न दुहराया ‘कोऽरुक्’ रोगी कौन बनता है? निरोग कैसे होता है?

प्रश्न के उत्तर में सभी ने अपनी मान्यता व्यक्त की। रोग मुक्त होने के निमित्त सभी उपचार बताते चले गये किसी ने भी यह न बताया कि रोगी पड़ने का अवसर ही न आवे, अथवा जो रुग्ण हो गया है, उसे सहज ही उससे छुटकारा पाने का अवसर मिल जाय। उत्तर तो सभी के शास्त्र सम्मत थे, पर उनमें सारे सिद्धान्त का समावेश न रहने से उन्हें सन्तोष न हुआ। और वे खिन्न मन से उदास होकर एक कोने में जा बैठे। सोचने लगे या तो मुझे पक्षी समझ कर उपेक्षित किया गया है। अथवा इन लोगों का अनुभव गम्भीर नहीं है।

उधर से महर्षि वाग भट्ट निकले। उनसे भी कपोत न वही प्रश्न पूछा। उनने कपोत रूपी चरक को पहचान लिया और नत मस्तक होकर उन्हीं की भाषा में प्रत्युत्तर देते हुए तीन प्रतिपादन प्रस्तुत किये।

‘‘मित भुक’’—अर्थात् भूख से कम खाना।

‘‘हित भुक’’—अर्थात् सात्विक खाना।

‘‘ऋत भुक’’—अर्थात् न्यायोपार्जित खाना।

जो इन तीनों बातों का ध्यान रखेंगे, उन्हें बीमार पड़ने का अवसर ही न आवेगा। ऐसी दशा में बिना चिकित्सा के ही स्वास्थ्य ठीक बना रहेगा।

इन दिनों स्वास्थ्य कर आहार के सन्दर्भ में अमुक रसायनों के बाहुल्य को सन्तुलित आहार कहा जाता है और अमुक की कमी रहने पर कुपोषण की शिकायत होने की बात कही जाती है। इन दिनों कुपोषण दूर करने के लिए खाद्य सन्तुलन पर बहुत महत्व दिया जा रहा है और यह सोचा जा रहा है कि किस प्रकार आहार का रासायनिक स्तर बढ़ाया जाय। यह प्रयत्न सामान्यतया ही है। रासायनिक उत्कृष्टता की बात को महत्व मिलना ही चाहिए पर साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि पकाने की प्रक्रिया एवं खाने की पद्धति में तो कहीं कोई त्रुटि नहीं रही है। इस सन्दर्भ में बरती गई लापरवाही ऐसी है जिसके कारण बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थ भी तथा कथित कुपोषण वाले आहार से भी गये बन बीते जाते हैं।

कुपोषण वाले पदार्थों के कारण शारीरिक विकास में जो कमी रही जाती है तथा मानसिक विकास में अवरोध उत्पन्न होता है, उसकी जानकारी सर्वविदित है। अब इस क्षेत्र में चल रहे अनुसन्धानों ने एक नया मोड़ लिया है। जिनको पर्याप्त मात्रा में पुष्टाई मिलती है वे कुपोषण ग्रस्तों से भी गई गुजरी स्थिति में क्यों पड़े रहते हैं? उन्हें वे लाभ क्यों नहीं मिलते जो खाद्य रसायनों का गुण गान करते हुए आमतौर से बताये जाते हैं।

इस असमंजस का समाधान ढूंढ़ने के लिए स्वारप्य विज्ञान में संलग्न कितने ही शोध संस्थान अपने-अपने ढंग से काम कर रहे हैं। इण्डियन कौंसिल ऑफ मेडीकल रिसर्च—इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडीकल साइन्स नेशनल इन्स्टीट्यूट आफ न्यूट्रीशन—पोस्ट ग्रेजुएट इन्स्टीट्यूट आफ मेडीकल एजूकेशन एण्ड रिसर्च जैसी भारत की शोध संस्थायें न केवल देश की आर्थिक परिस्थितियों में अधिक उपयोगी खाद्यान्नों की शिफारिसें कर रही हैं वरन् यह भी सोच रही हैं कि उपयोगी स्तर का आहार ग्रहण करने पर भी असंख्यों को क्यों उसका लाभ नहीं मिलता है? यह समस्या उन सभी लोगों की है जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और बौद्धिक दृष्टि से सुशिक्षित होते हुए शारीरिक दृष्टि से दुर्बल और रुग्ण बने रहते हैं। इससे प्रतीत होता है कि आहार का सन्तुलित होना ही पर्याप्त नहीं, वरन् उसके पकाये और खाये जाने का तरीका भी अपना विशिष्ट महत्व रखता है। इस सन्दर्भ में बरती गई असावधानी भी आहार का मूल्यवान् होते हुए भी उसके प्रभाव परिणाम से वंचित रहना पड़ता है।

तेज आग पर देर तक पकाने से सभी खाद्य पदार्थ अपनी मौलिक विशेषताओं का अधिकांश भाग गंवा बैठते हैं। चिकनाई में तलने-भूनने से रही बची उपयोगिता भी नष्ट हो जाती है। मसाले की भरमार से वह आहार न रहकर नशा रहित मादक द्रव्य बन जाता है और उत्तेजना ही नहीं विषाक्तता भी उत्पन्न करता है।

खाने के सम्बन्ध में बरती जाने वाली भूलें और भी दुर्भाग्य पूर्ण हैं। कम चबाना जल्दी-जल्दी में निगलते जाना आहार को मुख में सम्मिलित होने वाले पाचक रसों से वंचित रखना है। जायकेदार चीजें स्वभावतः भूख से अधिक मात्रा में उदरस्थ होती रहती हैं। एक बार का किया हुआ आहार पचने से पहले ही उस पर नई खेप की बात लद जाती है। यही है अपच का प्रधान कारण। पेट में बिना पचा आहार सड़ता है। सड़न से उत्पन्न विषैली गैसें शरीर के विभिन्न अवयवों में पहुंच कर वहां चित्र-विचित्र बीमारियों का सृजन करती हैं। इन गलतियों के रहते पौष्टिक भोजन भी कुपोषण के कारण अखाद्य ठहराये जाने वाले आहार से भी बीता बन जाता है।

आवश्यक नहीं कि गरीब लोगों को कीमती खाद्य सामग्री खरीदने के लिए दबाया और उसकी परिस्थिति का उपहास उड़ाया जाय। अच्छा यह है कि हरे शाक भाजी बिना पकाये खाने या कम पकाये की आदत डाली जाय और उनमें पाये जाने वाले बहुमूल्य क्षार खनिजों को पोषण में सम्मिलित होने का अवसर दिया जाय। सूखे अन्नों को अंकुरित करके तथा धीमी आग पर उबाल कर खाने का तरीका भी ऐसा है, जिससे मोटे अनाज मेवे जैसा गुण देने लगते हैं।

प्राकृतिक खाद्य पदार्थों से अंकुरित आहार सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। होते समय बीजों में पाये जाने वाली प्रोटीन, विटामिन एन्जाइम एवं मिनरल (खनिज लवण) की वृद्धि असाधारण रूप से होती है। अंकुरण के समय अन्न की जीवनी शक्ति विकासोन्मुख एवं अधिक सक्रिय होती है। उस स्थिति में एन्जाइम की मात्रा बीजों अत्यधिक बढ़ जाती है जो शरीर गत चयापचय क्रिया को अधिक अच्छी तरह सम्पन्न कर रक्त संचार व पाचन तन्त्र को विशेष शक्ति प्रदान करते हैं।

तेज आग पर उबाल देने या भून देने से बीजों की अंकुरण क्षमता नष्ट प्रायः हो जाती है और जीवनी शक्ति भी बहुत मात्रा में कम हो जाती है। अंकुरित आहार कम मात्रा में ग्रहण किए जाने पर भी पोषण की आवश्यकता पूरी हो जाती है। अंकुरित करने के लिए कोई भी अनाज या बीज का प्रयोग किया जा सकता है। उनमें परिवर्तन भी करते रहना चाहिए। सामान्यता अंकुरण के लिए गेहूं, चना, मूंग, मूंगफली, मटर, सोयबीन आदि प्रयुक्त किए जाते हैं।

अंकुरित किए गये अन्न एवं बीजों में प्रोटीन की प्रचुरता हो जाती है। साथ ही जटिल एवं गरिष्ठ प्रोटीन का रूपान्तर सरल प्रोटीन अमीनों एसिड्स में हो जाता है। बीजों के अंकुरण के पश्चात् श्लेष्मा कारक एवं गैस उत्पन्न करने का दोष बहुत ही न्यून रह जाता है। अंकुरण के तीन चार दिन बाद गेहूं में विटामिन ‘सी’ की मात्रा तो 300 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इसी प्रकार विटामिन ‘बी’ काम्पलेक्स की मात्रा भी अंकुरण की प्रक्रिया में कई गुना बढ़ जाती है।

अंकुरण की सरल विधि से सस्ता व सहज ही पौष्टिक भोजन हर किसी को उपलब्ध हो सकता है। इससे प्रचुर मात्रा में प्रोटीन, विटामिन एवं पोषक तत्व मिल जाते हैं, कुपोषण की समस्या का सहज समाधान इससे हो सकता है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अंकुरित आहार सस्ता, सन्तुलित या पूर्ण आहार है।

आहार के निर्धारण में अब एक और तत्व सामने आया है कि जिसे खाद्य की जीवनी शक्ति एवं प्राण ऊर्जा कहा गया है। यह रासायनिक संरचना से भिन्न है। अब तक प्रोटीन, स्टार्च, लवण, खनिज आदि रसायनों का सन्तुलन ही खाद्य का स्तर गिरा जा रहा है, अब उन पदार्थों में पाई जाने वाली प्राण चेतना का अन्वेषण वर्गीकरण भी चल पड़ा है और उस सूक्ष्म भाव के आधार पर उपयोगिता एवं समर्थता का प्रतिपादन होने लगा है। भारतीय अध्यात्म विज्ञान के सूक्ष्मदर्शी सदा से पदार्थों की सात्विक, राजस, तामस प्रकृति की चर्चा करते रहते हैं। यह सब क्या है? उसकी व्याख्या पिछले दिनों तो नहीं हो सकी थी, पर अब इस खोज से यह पता लगता है कि खोये जाने वाले रसायनों से भी अधिक महत्वपूर्ण पदार्थों की प्राण ऊर्जा होती है।

प्राण शक्ति या सूक्ष्म शक्ति जिसे विज्ञान की भाषा में ‘बायोप्लाज्मा’ कहते हैं, सृष्टि के प्रत्येक कण कण में विद्यमान है, परन्तु चेतन तत्वों विशेषतः जीव-जन्तु मनुष्य एवं पेड़ पौधों में अधिक सक्रिय रहती है। सन् 1968 में रूस के कुछ प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के एक संगठन ने अपने अनुसन्धान कार्य का प्रकाशन कराया जिसमें उन्होंने लिखा था कि समस्त चेतन प्राणियों, पौधों, मनुष्यों एवं जानवरों में एक स्थूल शरीर होता है, और एक सूक्ष्म शरीर। सूक्ष्म शरीर में ही प्राणशक्ति रहती है।

अमेरिका के येल यूनीवर्सिटी के डॉ. वर्र एवं नायापि ने दो वृक्षों के बीच एक सेन्सिटिव वोल्टमीटर जोड़कर निःसृत होने वाली सूक्ष्म प्राणशक्ति का मापन व अंकन का सफल प्रयोग किया। इस शोध कार्य में उन्हें कई वर्ष तक अथक परिश्रम करना पड़ा।

पौधों में प्राणशक्ति के निरन्तर प्रवाह के सम्बन्ध में ब्रिस्टोफर बड एवं पीटर टाम्किन्स ने अपनी ‘दी सिक्रेट लाइफ आफ प्लान्ट’ पुस्तक में लिखा है कि पौधे भी अन्य जीवों एवं मनुष्यों की तरह प्राण शक्ति के स्तर से प्रभावित होते हैं। पौधों की प्राणशक्ति मनुष्यों और जीव-जन्तुओं को प्रभावित करती है। जैव रसायन विशेषज्ञ ‘डा. एनल फ्रीड फेफर’ ने पशु मनुष्य व पौधों की सूक्ष्म प्राणिक शक्ति का परीक्षण किया। उन्होंने अपने प्रयोगों से सिद्ध किया है कि प्राकृतिक भोज्य पदार्थों में प्राणशक्ति का स्पन्दन अधिक सशक्त होता है। शारीरिक आवश्यकताओं के लिए प्राकृतिक भोजन में पाये जाने वाले विटामिन, खनिज, लवण उपयुक्त व पर्याप्त है। कृत्रिम खाद्य पदार्थों में प्राण शक्ति की मात्रा न्यून होने से उनका जैविक महत्व बहुत कम होता है।

प्रकृति मनुष्य के लिए खाद्य सामग्री सूर्य की अग्नि में पकाकर समग्र रूप में प्रस्तुत किया करती है। टहनी में से आम तभी टपकता है जब वह पककर खाने योग्य हो जाता है। यही बातें प्रायः अन्य सभी फलों पर लागू होती हैं। अन्न के दाने भी पककर तैयार हो जाने पर ही पौधे से अलग होते हैं। प्रकृति प्रदत्त उपहारों को उसी रूप में ग्रहण करना स्वास्थ्य प्रद होता है। इनमें शरीर के पोषण के लिए आवश्यक सभी तत्व विद्यमान रहते हैं। खाद्य पदार्थों को गरम करने, उबालने अथवा भूनने से वे अप्राकृतिक हो जाते हैं। उसी तरह स्वाद बढ़ाने की दृष्टि से अलग से नमक, मिर्च मसाले, गुड़, शक्कर, आदि वस्तुयें मिलाकर जायके के लोभ में उन्हें अखाद्य बना दिया जाता है।

मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई भी जीव अपना भोजन पकाकर नहीं खाता। फल, दूध, घास, अनाज आदि उन्हें जिस रूप में प्रकृति ने प्रदान किया होता है उसी रूप में वे उसे ग्रहण किया करते हैं। जंगली पशु जेब्रा, जिराफ हिरन, जंगली भैसें, नील गाय तथा पक्षी तोता मैना आदि हमेशा फल-फूल अन्न पत्तियों आदि खाते हैं, परन्तु मनुष्य अपने खाद्य को अप्राकृतिक बनाकर खाने के फलस्वरूप किसी न किसी बीमारी से ग्रसित रहता है। प्रकृति के अंचल में स्वस्थ रहने वाले जीव भी मनुष्य के सम्पर्क में आकर बीमार पड़ जाते हैं।

स्वास्थ्य की दृष्टि से देखने पर कच्चे खाद्य पदार्थों में अपेक्षाकृत अधिक पोषक तत्व विद्यमान होते हैं। प्रमाण स्वरूप देखा जा सकता है कि उबाले अथवा भूने गए दाने अंकुरित होकर पौधे के रूप में विकसित होते हैं। हड्डियों की मजबूती के लिए आवश्यक स्टार्च अधिक मात्रा में कच्चे खाद्य पदार्थों से ही मिलती है। दांतों का व्यायाम और पाचन रस की प्राप्ति भी कच्चे पदार्थों से होती है मुंह से अधिक अच्छी तरह चबाने के कारण पर्याप्त ‘लार’ निकल कर इनमें मिल जाती है।

कच्चे भोजन का स्वरूप क्या हो यह उस फल, सब्जी या अनाज के प्रकार पर निर्भर करता है। दानेदार अन्न को अंकुरित कर खाना लाभप्रद होता है। इससे उनमें पोषक तत्व की मात्रा बढ़ जाती है। गेहूं, चना, मटर, मूंग आदि जो अंकुरित करने के लिए 12 से 24 घन्टे तक लटका दें। अंकुरित होने पर चबा-चबाकर खायें तो बहुत लाभ होगा। दांतों के व्यायाम के साथ ही पोषक रस भी अधिक मिल जाता है।

फलों अथवा सब्जियों को सलाद के रूप में लेना चाहिए। गाजर, मूली, ककड़ी, खीरा, लौकी, भिण्डी, टिन्डा, पालक, धनियां, पुदीना आदि को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर मिला लें। इनमें पोषक तत्व सुरक्षित रूप में मिल जाता है। अतएव अतएव सलाद ग्रहण करें। किसी भी स्थिति में कच्चा भोजन हमारे लिए बहुत लाभप्रद है। यदि कारणवश उबाल भूनकर खाना ही पड़े तब भी कच्चे भोजन को कुछ न कुछ अंशों में अवश्य लिया जाना चाहिए स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि भोजन को सन्तुलित आहार की श्रेणी में तभी गिना जा सकता है जब उसमें कच्चे आहार का समावेश समुचित मात्रा में किया गया हो।
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