अक्षुण्ण स्वास्थ्य प्राप्ति हेतु एक शाश्वत राजमार्ग

नैसर्गिक जीवन क्रम आरोग्य प्रदाता

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सौर ऊर्जा को जगत् आत्मा और प्राणियों की जीवन धारा कहा गया है। उसके सन्तुलित सहयोग से ही पृथ्वी का यह सुरम्य वातावरण बना है। वनस्पतियों के उत्पादन और प्राणियों के निर्वाह में प्रत्यक्ष कारण कुछ भी क्यों न हो, परोक्ष कारण और ऊर्जा का ही माना जायेगा। उससे बरसने वाली गर्मी रोशनी की उपयोगिता आवश्यकता से तो सभी अवगत हैं, पर इस रहस्य से बहुत कम परिचित हैं कि सविता की किरणों से जीवन भी बरसता है और साथ ही आरोग्य पर आक्रमण करने वाली गन्दगी जैसी अगणित अवांछनीयताओं से त्राण मिलता है। इसलिए सूर्य सान्निध्य में रहने और उसके द्वारा बरसने वाली जीवनधारा से अधिकाधिक लाभान्वित होने का प्रयत्न करना चाहिए।

वनस्पतियों में हरीतिमा का सौन्दर्य और पोषण का बाहुल्य मात्र धरती का ही अनुदान नहीं है, उसके साथ सविता देवता का वरदान और भी अधिक मात्रा में जुड़ा हुआ है। फल, शाक और अन्न मनुष्य के प्रमुख खाद्य पदार्थों में हैं। इनमें सर्वाधिक पोषण ऊपर छिलकों में पाया जाता है। विटामिन डी. जैसा अत्यधिक उपयोगी तत्व समूचे फल की तुलना में उसके छिलके में ही प्रधान रूप से पाया जाता है। इसे हटा देने के उपरान्त जो गूदा शेष रहता है उसे एक प्रकार से सिर काट लेने के बाद बचा हुआ धड़ ही समझना चाहिए। होता यही है। स्वादिष्टता के क्षेत्र में अपनी प्रवीणता बताने वाले लोग आमतौर से प्रत्येक खाद्य पदार्थ से छिलका अलग करने का प्रयत्न करते हैं। वह कुरूप जो लगता है, फिर कसैला भी तो होता है। तनिक कड़ा रहने के कारण उसे चबाने में मेहनत करनी पड़े तो वह बड़े आदमियों और नाजुक मिजाज वालों को बर्दास्त कैसे हो?

दालें छिलका उतार कर पकाई जाती हैं। कोमल फलों तक के छिलके उतारे जाते हैं। केला, आम, नारियल जैसों की बात दूसरी है, पर जब सेब, अमरूद तक को छीलने की आवश्यकता पड़े तो समझना चाहिए कि चोचले बाजी की हद हो गई। अनाज की भूसी उतार कर उसे मैदा, सूजी के रूप में सुन्दर-सफेद बनाया जाता है। आज का यही प्रचलन है। इसे ऐसा ही समझना चाहिए, जैसा कि गूदा फेंककर गुठली चबाने लगना। मोती की ऊपरी चमक उतर जाने पर वह दो कौड़ी का हो जाता है। छिलके उतार देने के बाद खाद्य-पदार्थों की प्रायः वैसी ही दुर्गति होती है।

जिनके लिए चटोरापन ही आराध्य है जिन्हें आहार का रंग, रूप, गन्ध और स्वाद ही सब कुछ है उनसे कुछ कहना व्यर्थ है। उनके लिए अभक्ष को भक्ष्य और भक्ष्य को अभक्ष सिद्ध करने में भी अपनी चतुरता और कलाकारिता की भी तुष्टि होती दीख सकती है। ऐसी भ्रान्तियों-विकृतियों से ही अधिकांश लोगों पर बुद्धि भ्रम सवार है। नशे के आवेश में सुनने समझने जैसी स्थिति ही नहीं रहती। उनसे कोई क्या कहे जब मानने का मूढ़ नहीं तो फिर व्यर्थ की सिर फोड़ी से मतलब भी क्या निकलता है? चर्चा समझदारी की है, प्रगति की बात सोचने के साथ-साथ वह भी देखना होता है कि कहीं भूल तो नहीं हो रही है? किसी छेद में से पानी तो नहीं रिस रहा है। ऐसे लोग भूल सुधारने के लिए तत्पर रहते हैं। जो होता रहता है, वह ठीक है—ऐसा दुराग्रह हठवादियों को ही होता है और ऐसे अड़ियल अन्ततः घाटे में ही रहते हैं।

खाद्य-पदार्थों के छिलके उतारने की बात प्रकारांतर से सूर्य देवता का तिरस्कार करना है। उनके द्वारा बरसाये जाने वाले जीवन तत्व को लात मारकर घर से बाहर खदेड़ना है, यदि वैसा न किया गया हो तो सम्भव है कड़ा चबाने और कुछ कसैलापन रहने जैसी दीखती, किन्तु बदले में जो लाभ मिलता है उसे बहुमूल्य टॉनिक खरीदते रहने से कम न आंका जाता। गेहूं के छिलके में विटामिन बी. का बाहुल्य रहता है। वह विटामिन बी. जिसकी सिफारिश डॉक्टर लोग हर कमजोर के लिए करते हैं और जिनके पैकेट खरीदने में ढेरों रुपये खर्च होते हैं। विटामिन डी की बात पहले ही कही जा चुकी है। इनके अतिरिक्त और भी अनेकों पोषक तत्व हैं। जिन्हें आहार के छिलके वाले भाग में ही पाया जाता है। गेहूं की भूसी और दालों की चूनी दुधारू जानवरों को खिलाकर उनकी दूध की मात्रा और पुष्टाई बढ़ाई जाती है, किन्तु यह नहीं सोचा जाता कि बहुमूल्य अंश का उपयोग अपने लिए भी किया जाय, तो क्या बुरा है?

बात खाद्य पदार्थों के छिलके तक ही सीमित नहीं है। मनुष्य शरीर पर भी एक छिलका चढ़ा है जिसे त्वचा कहते हैं। इसे सूर्य सम्पर्क से बचाकर रखा जाय तो उसकी वही दुर्गति होगी, जो बद कमरे में उगने पर अंकुरों की होती है। वे बहुत समय नहीं जीते। रोशनी और गर्मी के अभाव में कुम्हलाते और दम तोड़ते देखे जा सकते हैं। त्वचा और सूर्य प्रकाश के बीच भारी व्यवधान उत्पन्न करने वाले कपड़ों की यदि भरमार रहे, अवयवों को सके-जकड़े रहा जाये, तो किसी अच्छे परिणाम की आशा नहीं की जा सकती।

इसलिए मनुष्य को अन्य प्राणियों की तरह अपनी त्वचा को सूर्य सम्पर्क का लाभ उठाने देना चाहिए। चमड़ी अपने आप में एक अच्छा खासा परिधान है। उसे जान-बूझकर दुर्बल न बनाया जाय तो उसकी मौलिक क्षमता के सहारे ऋतु प्रभाव का सामना किया जा सकता है और गर्मी सर्दी से अनायास ही सुरक्षा सधती रह सकती है। हाथ प्रायः हर मौसम में खुले रहते हैं। चेहरे पर होठों पर जाकिट कसे हुए किसे देखा जाता है। यह अवयव खुले ही रहते हैं। उन पर मौसम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यही बात समस्त शरीर पर भी लागू होती है। कपड़े न पहने जायें या कम पहले जायें तो स्वतः वैसा अभ्यास हो जायेगा जिसके कारण सर्दी-गर्मी के कारण किसी प्रकार की हानि होने का अवसर न मिले। वनवासी आदिवासी ऐसी ही स्थिति में रहते हैं। उन्हें ऋतु प्रभाव से पीड़ित होने जैसी शिकायत करते कहीं नहीं सुना गया।

इसके विपरीत कपड़े लादे रहने वालों की शिकायतें बनी रहती हैं कि ठण्ड लग गई या लू का आक्रमण हुआ। एअर कण्डीशन कमरों में रहने वालों को इस संकट से ग्रसित पाया गया है कि बाहर निकलने पर उन्हें जुकाम होता है, निमोनिया होता है, लू सताती है। इसमें ऋतु प्रभाव कारण नहीं है। यदि वैसी बात होती, तो हर किसी पर वह मुसीबत उतरती। जब वह प्रकोप अधिकतर एअर कण्डीशन कमरों में रहने वाले पर ही उतरे तो समझना चाहिए कि चमड़ी की सहन-शक्ति कुण्ठित कर देने वाली आवरण सज्जा का ही यह प्रतिफल है। लंगोट कसे रहने वाले मर्दों और तंग चोलियों या पेटियों से जकड़ी रहने वाली औरतों के बेढंग कसे अवयव विशेष रूप से दुर्बल और पीले देखे जाते हैं। सूर्य को शत्रु मानने और उसके प्रभाव सम्पर्क से लाभ उठाने से कतराने वाले लोग सुरक्षा दीवार खड़ी नहीं करते वरन् एक महत्वपूर्ण अनुदान से वंचित होकर घाटे में ही रहते हैं।

सूर्य की तरह उपवन देवता के भी अनुदान मनुष्य की जीवन सम्पदा का भण्डार भरते हैं। सभी जानते हैं कि सांस द्वारा ग्रहण की जाने वाली प्राण वायु पर जीवन निर्भर रहता है। अन्न जल के बिना तो कुछ समय निकल भी सकता है, पर सांस न मिलने पर तो दम घुटते और प्राण निकलते देर नहीं लगती। आक्सीजन प्राणों का सबसे बड़ा और सबसे बहुमूल्य आहार है। उसे पवन ही प्रदान करता है। काया के कण-कण में रोम-रोम में उसकी पहुंच होती है। तब स्वास्थ्य अक्षुण्ण रहता है और उत्पन्न होती रहने वाली गन्दगी में बुहारी लगती है। इस उपक्रम के रुक जाने पर इतना बड़ा संकट उत्पन्न होता है, जिसे जीवन की इतिश्री ही माना जा सके।

शरीर न केवल नाक से सांस लेता है वरन् त्वचा में विद्यमान असंख्य रोमकूपों द्वारा भी वह प्रक्रिया चलती रहती है। त्वचा पर मोम कोलतार आदि पोत दिया जाय तो भी दम घुट जायेगा। भारी और कसे कपड़े लाद लेने से भी न्यूनाधिक मात्रा में यही कठिनाई उत्पन्न होती है। ठण्डक से बचने का लाभ सोचकर, या साज-सज्जा का ठाठ-बाट अपनाकर, जो लोग अधिक कपड़े पहनते हैं, वे सूर्य और पवन दोनों ही देवताओं की अहेतुकी अनुकम्पा का प्रयत्न तिरस्कार करते हैं। इस अवज्ञा में मात्र हानि ही है, लाभ जैसा तो कहीं कुछ है ही नहीं।

मकान भी एक प्रकार का शरीर है। उसमें सूर्य और पवन की प्रवेश व्यवस्था रहनी चाहिए। चोर के डर से खिड़कियां न छोड़ना निकलने भर का एक दरवाजा रखना, माल गोदाम के लिए तो उपयुक्त हो सकता है, पर मनुष्य के निवास करने योग्य वे नहीं माने जा सकते। जहां धूप नहीं पहुंचती वहां बीमारी डेरा डालती है। यह उक्ति अक्षरशः सत्य है। सीलन, सड़न, घुटन, बदबू वाले मकानों में रहना गन्दगी में रहने वाले विषाणुओं को छाती के नीचे पाल कर रखने जैसा है। इससे पेड़ के नीचे खुली हवा-धूप में रहना हजार गुना अच्छा। चोरों के डर से यदि संकरी गलियों में और नीचे की मंजिल वाली कोठरियों में रहना पड़ता हो तो अच्छा है कि उस माल असबाव को—धन-दौलत को बेच दिया जाय। और इस प्रकार का जीवन क्रम स्वीकार किया जाय जैसा कि गाड़ियां-लुहार अपनी बैल गाड़ियां लेकर जहां-तहां घूमते रहते हैं, कड़ी मेहनत से लोहा पीटकर आजीविका कमाते हैं।

देखना यह है कि स्वास्थ्य का महत्व समझा गया या नहीं। ‘पहला सुख निरोगी काया’ वाली उक्ति की गरिमा स्वीकारी गई या नहीं। यदि हां तो फिर एक ही उपाय है कि दिनों लम्बे समय से जो भूलें अपनाई जाती रही है, उन्हें साहसपूर्वक सुधारा जाय और प्रकृति के साथ छेड़ छाड़ करने, उसकी अवज्ञा करते हुए मनमानी के दुराग्रह को छोड़ दिया जाय। प्रकृति अनुसरण की कसौटी पर कसने के उपरान्त प्रतीत होगा कि अपनी इन दिनों की आदतें और परम्परायें बुरी तरह अवांछनीयताओं से भर गई हैं। इनका कायाकल्प जैसा सुधार परिवर्तन होना चाहिए। इसके लिए प्रवाह को चीर कर उलटी दिशा में चल कसने वाली मछली जैसा साहस एकत्र करना चाहिए।

इस प्रयोजन में सूर्य और पवन का अधिकाधिक सान्निध्य उपलब्ध किया जाय। वे दोनों अश्विनी कुमारों की तरह उच्चस्तरीय चिकित्सक हैं। च्यवन ऋषि के बुढ़ापे को जवानी से बदल देने वाले अश्विनी कुमारों के अनुग्रह से जो चमत्कारी लाभ उन दिनों देखने को मिला था, उसकी पुनरावृत्ति सूर्य और पवन को अधिकाधिक समीपता में रहने की योजना बनाकर अपने समय में ढंग का लाभ हम सब भी उठा सकते हैं।

पहनने के कपड़े तो कम रखें ही जायं, वे हलके कम और हवादार भी होने चाहिए। पसीने के सम्पर्क में आते रहने के कारण जहां उन्हें धोते रहना आवश्यक है, वहां यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि उन्हें धूप में न केवल गीलापन दूर होने तक सुखाया जाय, वरन् देर तक गरम होते रहने का अवसर दिया जाय ताकि उनमें पनपने वाले विषाणुओं से छुटकारा मिल सके। भारी बिस्तर तकिये जो नहीं धोये जा सकते उन्हें भी धूप में उलट-पुलट कर गरम करना चाहिए, चारपाइयों में खटमल आदि पलते रहते हैं। उन्हें भी धूप में सुखाते रहने और खौलता गर्म पानी डालते रहने की आवश्यकता है। कोठों में रखे अनाज कनस्तरों में बन्द आटा, दाल आदि को भी जल्दी-जल्दी धूप लगाते रहना चाहिए। क्योंकि उसमें सीलन के कारण छोटे कीड़े उत्पन्न होने और स्वास्थ्य संकट बनाने जैसी विपन्नता खड़ी न हो।

भारतीय धर्म में सूर्योपस्थान, सूर्यार्घ्यदान, स्तवन आदित्य हृदय आदि का महत्व है। गायत्री मन्त्र में सविता की आराधना है। उसका आध्यात्मिक भावनात्मक महत्व तो है ही, साथ ही यह संकेत निर्देश भी सन्निहित है कि सूर्य सम्पर्क में अधिकाधिक समय तक रहा जाय और खाद्य पदार्थों से लेकर त्वचा, वस्त्र उपकरण साधन आदि को भी उस सान्निध्य का भरपूर लाभ ले सकने का अवसर दिया जाय।

हनुमानजी पवनसुत थे। भीम भी वायु देवता के पुत्र थे। ऋषि उसी अमृतोपम प्राण सम्पदा को अधिक मात्रा में अर्जित करने के लिए हिमालय के वन्य प्रदेशों में निवास करते और प्राणायाम जैसे योगाभ्यासों में निरत रहते थे। हम खुली हवा में रहने और गहरी सांस लेने का अभ्यास तो कर ही सकते हैं। उतना न बन पड़े तो भी प्रातः दो तीन मील तेज चाल से चाल से चलते हुए गहरी सांस लेते-छोड़ते हुए खुली हवा वाले क्षेत्र में टहलने के लिए जाते रहने का नियम तो बना ही लेना चाहिए। यह सुविधा घर के अन्य सदस्यों को भी स्त्री बच्चों को मिलती रहे इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए बड़े नगरों के गली-कूचों में रहने की अपेक्षा छोटे देहातों में एक मंजिल खपरैल वाले ऐसे घर बनाकर रहना चाहिए जिसमें धूप और हवा का निर्वाध प्रवेश होता रहे। नगर में काम करने जाना पड़े तो भी नित्य दूर की यात्रा करने का परिश्रम उपयोगी व्यवसाय समझकर किया जा सकता है। ऐसे मकानों को अधिक संख्या में बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला बनाया जा सकता है, जबकि धनी आबादी में घिच-पिच निवास की ही विवशता रहती है।

छोटे देहातों में भी इन दिनों संकरी गलियों में बसावट बसी है। घर की नालियां गली में बहतीं और कीचड़ बनाये रहती हैं। अच्छा हो नये सिरे से गांव बसाये जायं। वैसी बड़ी व्यवस्था न बन पड़े, तो भी विज्ञजनों को अन्यान्य जोखिमें उठाते हुए भी अपने निवास के लिए खुली धूप हवा वाला स्थान बनाना चाहिए, भले ही वह सस्ते साधनों का कम टिकाऊ और बार-बार मरम्मत वाला ही क्यों न हो।

सूर्य और पवन सर्वोत्तम चिकित्सक हैं। उनमें रुग्णता निवारण और आरोग्य सम्वर्धन का असाधारण गुण है। यह सोचते हुए उनमें अधिकाधिक सम्पर्क वाली रीति-नीति ही अपनानी चाहिए।
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