ध्यानयोग ही अंतिम लक्ष्य हो
श्री भगवान् जब कहते हैं कि तप से- शास्त्र ज्ञान से-
सकाम कर्म से ध्यान योग श्रेष्ठ है, तो इसका यह मतलब नहीं कि
जीवन में तप, शास्त्राध्ययन, सेवाभाव,
कर्मयोग की जरूरत नहीं। ये सभी साधन हैं- हमारे अंतिम लक्ष्य
नहीं। एकाग्र तन्मय मन से हमारी बुद्धि की प्रकाशक सत्ता का
ध्यान ही हमारी अंतस् की दुर्बलताओं को शक्ति में बदल सकता है,
हमें जीवन के हर क्षेत्र में सफल बना सकता है। भगवान् अपने
शिष्य अर्जुन के सबसे हितैषी हैं एवं वे चाहते हैं कि उनका
प्रतिभाशाली यह शिष्य अपने को अब तक दिए गए ज्ञान द्वारा मात्र
कुछ लक्ष्यों से बँधकर, सीमित होकर न रह जाय। उनकी अपेक्षाएँ
काफी हैं एवं उसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह कि अर्जुन ध्यान
योग को जीवन में उतार कर अपने शीर्ष पर पहुँचे- व्यक्तित्व को निखारे एवं एक आदर्श लोकसेवी बने। किसी भी ऐसे दिव्यकर्मी
के लिए नियमित ध्यान से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ और नहीं। सभी
योग अंतिम स्थिति में पहुँचकर ध्यानयोग रूपी पराकाष्ठा में परिणित
हो- अंतिम सत्य समाधि- तद्रूपता के मिलन संयोग तक पहुँचकर पूर्णता को प्राप्त होते हैं।
तपस्वी, ज्ञानी, कर्मकाण्डी एवं योगी
ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि ‘‘यहाँ
अंतर लक्ष्य का है। जो स्वयं को संसार से विमुख कर परमात्मा
के सम्मुख कर ले, वही वास्तव में योगी है। ऐसा योगी बड़े- बड़े
तपस्वियों, शास्त्रज्ञ पण्डितों और कर्मकाण्ड तक सीमित रहने वाले
सकाम कर्मियों से भी ऊँचा है, श्रेष्ठ है। कारण यह कि तपस्वियों
का उद्देश्य संसार होता है एवं सकाम भाव होता है जबकि योगी
जनों का उद्देश्य परमात्मा होता है तथा निष्काम भाव होता है।’’ तपस्वी सहिष्णु होता है, ज्ञानी- बुद्धिज्ञान
संचय तथा कर्मी- शास्त्र कर्म तक सीमित रहता है। ये तीनों ही
सकाम भाव से काम करने वाले व्यक्ति हैं। इसीलिए भगवान् ने योगी
को सर्वश्रेष्ठ बताया है, जो निष्काम भाव से परमात्मा का ध्यान
करता है एवं स्वयं की सत्ता को अहं से मुक्त कर उन्हीं में
विलीन कर देता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण सबसे उत्तम पथ अपने प्रिय
शिष्य को बताते हैं कि, तू योगमुक्त हो जा, योगी बन जा। पाँचवे अध्याय के शुभारंभ में अर्जुन ने कहा था- ‘‘यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ’’- ‘‘कोई एक मार्ग जो निश्चित रूप से कल्याण कारक हो- वही आप मुझे बताइये।’’ प्रस्तुत ४६ वाँ श्लोक उसी का उत्तर है। वे कहते हैं कि ‘‘तू ध्यान योगी बन जा’’- यही तेरे लिए हितकारी होगा। पूरे श्लोक
का सार यह कि सकाम भाव वाले भोगी जनों से जो तपस्या, ज्ञान
और सकाम कर्मों- कर्मकाण्डों से जुड़े होते हैं- निष्काम भाव वाला
ध्यान योगी श्रेष्ठ है।
राजमार्ग है ध्यान योग
जितनी भी योग पद्धतियाँ किसी एक स्थान पर मिलती हैं तो वह है ध्यान योग। राजयोग, हठयोग, नादयोग, ऋजुयोग, लययोग सभी की परिवक्वावस्था, पराकाष्ठा ध्यान में होती है। ध्यान एक समर्थ सशक्त योगोपचार पद्धति है। ध्यान का एक ही लक्ष्य है कि किस तरह व्यक्तित्व संपूर्णता से विकसित हो। ध्येय में, परमसत्ता में ध्याता
विलीन हो जाय। चाहे वह परम पूज्य गुरुदेव का बताया ध्यान हो-
साधक का सविता को समर्पण- विसर्जन प्रारंभ ही समर्पण से करता है
व विलय में परिपूर्णता को प्राप्त होता है। जब विलय हो, तो
ध्यान ही बचे, न ध्याता बचे, न ध्येय। यही ध्यान की सर्वोच्चावस्था है।
श्रीरामाकृष्ण परमहंत कहते थे- हमारे देश (कामारपुकुर) में बच्चे नेवले की पूंछ
में कंकड़ बाँध देते थे। जब वह बिल में घुसता तो फिर बाहर आ
जाता। कंकड़ उसे अंदर ही न घुसने देता था। आदमी के जीवन में भी
तरह तरह के कुसंस्कार हैं, मनोग्रंथियाँ हैं, ईर्ष्या है, द्वेष है
इसी कारण उसी तरफ मन चला जाता है। यह एक प्रकार के कंकड़ हैं
जो हमें हमारे अंतर्जगत
में प्रवेश ही नहीं करने देते। ध्यान निष्काम कर्म से आरंभ
होता है, निष्काम साधना से आराधना तक की यात्रा कराता है, तब
जाकर साधक का प्रवेश अन्तर्जगत में होता है। ध्यान अंतर्जगत की यात्रा का नाम है। ध्यान वस्तुतः द्वार खटखटाने की प्रक्रिया है। ईसा ने कहा है- नॉक द डोर एण्ड डोर विल ओपन- (Knock the Door and Door Will Open )। ध्यान भी इसी तरह अंतःगुहा में प्रवेश की प्रक्रिया है।
महापुरुषों ने भी ध्यान से पाया सत्य
योगेश्वर श्रीकृष्ण इस पूरे अध्याय का समापन अर्जुन को
ध्यान की महत्ता समझाकर व उसे भी ध्यान योगी बनने की प्रेरणा
देकर कहते हैं कि ध्यान सूक्ष्मतम की जानकारी कराता है। स्वामी विवेकानंद
दो घण्टे रोज ध्यान करते थे। वही उनकी सारी सिद्धियों का मूल
था। कोई और कर्मकाण्ड नहीं, कोई अन्य विधि नहीं, मात्र ध्यान। परम
पूज्य गुरुदेव ने जीवन भर रात्रि १ से प्रातः ५ तक चार घंटे ध्यान कर सारी सिद्धियाँ प्राप्त की एवं स्वयं को एक युग प्रवर्तक- क्रान्तदर्शी
ऋषि- प्रज्ञावतार की सत्ता के रूप में स्थापित किया। ध्यान एक
सामान्य व्यक्ति भी करना चाहे तो उसे ध्यान के शिखर पर पहुँचे
व्यक्तियों, महापुरुषों के जीवन प्रसंगों को याद करना चाहिए, ऐसे
वीतराग महामानवों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। श्रीरामकृष्ण
परमहंस कहते थे कि विचारों की धूलि रोज उड़ेगी- कषाय कल्मष
चढ़ेंगे, तुम्हें अपने बर्तन रोज मांजने
पड़ेंगे, इसलिए ध्यान करो। ध्यान के स्वरूप व कक्षाएँ बदल सकती
हैं, पर ध्यान कभी बन्द नहीं होना चाहिए। सतत चलते रहना चाहिए।
विराम जरा भी न हो।
सात्विकता लाता है, देवत्व बढ़ाता है
ध्यान स्वयं में एक साधना भी है- सिद्धि भी है। साधना
में हम अपने आपको देखते हैं- सिद्धि रूप में हम ब्रह्माण्डीय
ऊर्जा चुम्बक की तरह एकत्र करते हैं। ध्यान की गहराई में जो भी
सोचा जाता है, वह निश्चित ही फलित होता है। आत्महित की बात भी,
परहित के कार्य भी। ध्यान से आसक्ति मिटती है, निरन्तर अपने विचार
परिमार्जित होते रहते हैं। सुषुम्रा- चक्रों में ऊर्ध्वगमन प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। सतोगुणों की वृद्धि साधक में स्वतः दिखाई देने लगती है। साधक फिर बूंद- बूंद
सात्विकता एकत्र करता है। खान- पान में परिवर्तन से, व्यवहार से,
स्वाध्याय एवं सत्संग से। यही ऊर्जा ध्यान को और भी परिवक्व
बनाती है। ध्यान हमें देवत्व के प्रवाह में बहा ले जाने की
प्रक्रिया है। हमारे अंदर के प्रसुप्त देवत्व को जगाकर हमें देव
मानव बनाने की एक क्रिया पद्धति है।
सभी धर्म- संप्रदाय कहीं किसी एक बिन्दु पर आकर मिलते हैं तो वह है ध्यान। सिख एक गुरु सतनाम या गुरुग्रंथ साहब के समक्ष संकीर्तन द्वारा, हिंदु
अपनी आराध्य ज्योति में विलय द्वारा, मुस्लिम निराकार अल्लाह का
स्मरण कर एवं सूफी प्रेमभाव द्वारा ध्यान में प्रवेश कर अपनी
साधना को उच्च शिखर पर पहुँचाते हैं। ध्यान एक उच्चस्तरीय शल्य
क्रिया है, जिसमें हम चेतन मन को एक उपकरण बनाकर अपने चित्त के
कुसंस्कारों को लेजर किरणों द्वारा निकालते हैं। ध्यान किसी भी
प्रतीक का हो सकता है, किसी भी पवित्र भाव का हो सकता है। जैसे-
जैसे हमारा मन उस पवित्र भाव में विलीन होता है, शुद्धतम होता
चला जाता है एवं ऊर्जावान बनता चला जाता है। यह भाव यदि ध्यान
की अवधि के अलावा भी चौबीस घंटे बना रहे तो हम सतत ध्यान की
स्थिति में चले जायेंगे और ढेर सारी ऋद्धि- सिद्धियों का
रहस्योद्घाटन अपने जीवन में कर सकेंगे।
एक पवित्र भाव का ध्यान
ध्यान के लिए एक पवित्र भाव का ध्यान पोली बांसुरी का हो सकता है। हम यह सोचें कि हम गाँठयुक्त बाँस नहीं, पोली पोंगरी की तरह हैं। हमारा अंतस् हमारे गुरु को समर्पित है। देहमात्र
हमारी है। हम सूक्ष्म- सूक्ष्मतम स्थिति में पहुँच रहे हैं। हमारे
माध्यम से, इस पोली बाँसुरी से अब गुरु के, सद्गुरु के स्वर ही
गुंजायमान हो रहे हैं। हम उन्हीं के अंग- अवयव बनते चले जा रहे
हैं। वे ही हमारी चेतना में विराजमान हैं। हम अहं रहित होते
चले जा रहे हैं। अब द्वेष, अहं, आसक्ति, तृष्णा का अंदर कोई स्थान
नहीं। साक्षात् सद्गुरु ही हमारे अंदर से स्वरों को बजा रहे
हैं। क्रमशः यह ध्यान करते- करते साधक समर्पण भाव द्वारा पवित्रतम
बनता चला जाता है, साथ ही उसका मन ऊर्जावान बन जाता है। पतंजलि
ने सही ही कहा है कि ध्यान करने वाला परमाणु से लेकर महत तत्व
तक का वशीकरण कर लेता है। उन पर उसका अधिकार हो जाता है। वह
आश्चर्यजनक सिद्धियों का अधिकारी हो जाता है। ऐसी है ध्यानयोग
की महिमा, जिसे अपनाने का संदेश योगेश्वर अपने शिष्य को दे रहे
हैं।
छठे अध्याय का एक सार संक्षेप
यदि हम ‘‘आत्मसंयम योग’’ नामक इस छठे अध्याय के प्रथम श्लोक
से अब तक की यात्रा देखें तो हमें पता चलता है एक कुशल
प्रशिक्षक, शिक्षक, चिकित्सक की तरह योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने
शिष्य अर्जुन की मनोग्रंथियाँ निकाली हैं एवं उसकी आध्यात्मिक मनश्चिकित्सा
की है। उसे ध्यान की पद्धति सिखाई है और निष्काम कर्म से
समर्पण योग की एक अति निराली दुनिया की सैर कराई है। यह भी कहा
है कि यह जो हम बता रहे हैं, व्यावहारिक भी है और संभव भी।
हर कोई इसे प्रयोग करके देख सकता है। वे शुरु- शुरु में ही कह देते हैं कि योगारूढ़
होने की इच्छा करने वाले को निष्काम भाव से कर्म कर, कर्मों
में आसक्ति एवं इन्द्रिय भोगों से सतत दूरी बनाए रखना चाहिए। वे
यह भी कहते हैं कि मनुष्य चाहे तो यह कार्य स्वयं अपने आपही कर सकता है। क्योंकि उसे लड़ना वास्तव में अपने आपे से ही है। यही अंतर्जगत का महाभारत है। देवासुर संग्राम है। मन ही मित्र है एवं मन ही शत्रु है (६/५)।
उसे अपने अंतःकरण की वृत्तियों को शान्त कर स्वयं को
सच्चिदानन्द घन परमात्मा में स्थित करना चाहिए। ज्ञान- विज्ञान से
तृप्त, विकारमुक्त, जितेन्द्रिय व्यक्ति को फिर कोई तृष्णा- इच्छा नहीं सताती। वह सभी में समान भाव रख जीता है।
आगे वे ध्यान करने की पद्धति, आसन, वातावरण एवं साधक की
मनःस्थिति की चर्चा करते हैं। यह भी कहते हैं कि यथायोग्य आहार-
विहार एवं कर्मों पर सतत् दृष्टि इसके लिए जरूरी है। सही ध्यान किसका है, इस विषय में श्रीकृष्ण वायुरहित स्थान में निश्चल दीपक की लौ की उपमा देते हैं। ऐसा ही योगी का जीता हुआ चित्त होना चाहिए (६/१९)। ध्यान से बुद्धि शुद्ध होती है और परमात्मा की प्राप्ति रूपी जो आनंद मिलता है, उसके सामने बड़े से बड़ा दुख या हानि भी हल्के ही पड़ते हैं (६/२२)। धीरज पूर्वक क्रमशः उपरति
को प्राप्त होने वाले चिन्तन, जिसमें परमात्मा रूपी आदर्शों के
अतिरिक्त कुछ भी न हो- से ही एवं मन को बार- बार विचरण होने से
विषयों की ओर जाने से बचाकर परमात्मा में निरुद्ध करने से ही
ध्यान लगता है (६/२६)। ऐसे व्यक्ति परमात्मा की सतत निगरानी में बने रहते हैं, वे चारों ओर हर जीवात्मा में उस परमात्मा की ही झांकी करते हैं (६/३१)। इसी बीच अर्जुन की जिज्ञासा उठती है कि उसका भी मन बड़ा चंचल, प्रमथन
स्वभाव वाला, दृढ़ है। उसे रोकना अर्थात् चलती वायु के वेग को
थामने जैसा दुष्कर कार्य है। कैसे उसे नियंत्रित किया जाय (६/३४)।
मन को साधने की कुंजी
श्रीभगवान् उसे कहते हैं- अभ्यास (परमात्मा के सतत चिन्तन) एवं वैराग्य (निरासक्ति से किये गये कर्म) द्वारा मन को नियंत्रित किया जा सकता है (६/३५)।
पुनः अर्जुन पूछता है कि जो संयम न बरत पाये, योग पथ पर चलते-
चलते अंतकाल में विचलित में हो जाय, उसकी क्या गति होगी, तो
भगवान् श्लोक क्र० ४० से ४५ तक उसे ऐसे योगभ्रष्ट
साधक की आगामी जन्मों में क्या गति होगी- यह बताते हैं। आश्वस्त
करते हैं कि किसी भी योगी की दुर्गति नहीं होगी। वह या तो
श्रीमंतों के यहाँ जन्म लेता है या योगियों के कुल में एवं
अपनी योग यात्रा को चालू रखता है। सभी सकाम कर्मों को पार कर
वह संसिद्धि को प्राप्त हो, पापरहित हो परम गति को प्राप्त होता है (६/४५)। इतनी सुंदर व्याख्या श्रीगीता
जी जीवन की योग के माध्यम से विकसित अवस्था की करती हैं कि
कोई भी संशय मन में नहीं रह जाता। अंततः श्रीकृष्ण कह उठते हैं
कि इतना जो कुछ बताया है, उसका सार यही है कि उसे ध्यान योगी
बन अपने को सूक्ष्म बुद्धि संपन्न, पवित्रतम, ऊर्जावान बनाना
चाहिए। इस योग को सभी तप साधनाओं (हठयोगादि), शास्त्र ज्ञान से अथवा कर्मकाण्डों से श्रेष्ठ मानकर उसे दैनंदिन जीवन का अंग बनाना चाहिए। इसी में उसका, गीता पढ़ रहे किसी भी साधक का कल्याण है। (६/४६)
समर्पंण ही धुरी बने ध्यान की
अब इस अध्याय के अंतिम श्लोक में अचानक वे ध्यान योग की भक्तियोग परक व्याख्या कर एक प्रकार से उसके हाथ में कुंजी थमा देते हैं, साधना से सिद्धि की। वह कुंजी है समर्पण। भागवतसत्ता
के प्रति निष्काम भाव से सब कुछ अर्पण। यह इस अध्याय की ही
नहीं- अध्यात्म के इस दुरूह कहे जाने वाले पथ की भी पराकाष्ठा
है।
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥ (६/४७)
इस अंतिम श्लोक
का शब्दार्थ है- जो (यः) श्रद्धायुक्त होकर (श्रद्धावान) अपनी
अंतरात्मा को मुझमें लगाकर (मद्गतेन अन्तरात्मा) मुझ परमेश्वर का
(मां) ध्यान करते हैं- (भजते)हैं- वह (सः) सभी (सर्वेषां) योगियों में भी (योगिनाम अपि) श्रेष्ठतम माने जाने योग्य है (युक्ततमः), [यह] मेरा (मे) मत है, (मतं)। ६/४७
भावार्थ इस प्रकार है
‘‘तमाम
योगियों में वह योगी जो श्रद्धापूर्वक अपना हृदय मुझे अर्पित
कर, मुझे निरन्तर भजता है, मेरा ही ध्यान करता है, मेरी उपासना
करता है, वह मुझे सर्वश्रेष्ठ मान्य है।’’ (६/४७) यहाँ आकर श्रीकृष्ण बड़े स्पष्ट विचार करते नजर आ रहे हैं। उनका
मत है कि बहुत से व्यक्ति योग द्वारा उनकी प्राप्ति कर सकते
हैं, किन्तु उन सभी योगियों में भी सर्वश्रेष्ठ उन्हें वही मान्य
है, जिसने ध्यान के माध्यम से उनका परमात्मा रूप पा लिया है,
उसका दर्शन कर लिया है एवं श्रद्धा पूर्वक प्रभु के कार्यों में
-उन्हें आगे बढ़ाने में लगा है। अनन्त आत्मा के रूप में
परब्रह्म परमात्मा का अनुभव ज्ञानी को जिस पराकाष्ठा पर पहुँचाता
है, वहाँ उसके अंदर से एक भक्त जाग उठता है, जो सर्वतोभावेन
प्रभु को, उनकी इस सुंदर सृष्टि को ही समर्पित होता है। ऐसा
सतोगुणी भक्त भगवान को सर्वाधिक प्रिय है। यहाँ यह ध्यान रखने
योग्य बात है कि श्रीकृष्ण क्रमशः ७ वें से १२ वें अध्याय तक ‘‘भक्तियोग’’
की ही व्याख्या करने वाले हैं, जिसमें वे अपनी विभूतियों की
चर्चा भी करेंगे पर कर्म व ज्ञान को भी साथ लेकर चलेंगे।
कर्मयोग की पराकाष्ठा वाले इस छठे अध्याय में अंतिम श्लोक
में वे अचानक नहीं, क्रमशः हर गीता पढ़ने वाले साधक को समर्पण
योग में लाकर छोड़ देते हैं। भगवान श्री वेदव्यास जिनने गीता को
लिपिबद्ध किया है, के काव्य का यही लालित्य इस ग्रंथ को
सर्वश्रेष्ठ बना देता है। कर्म में भी समर्पण, ज्ञान भी पूर्णतः
श्रद्धावान बनकर एवं अंततः सभी योगों का सिरमौर ध्यानयोग एक
प्रकार से लययोग- समर्पण योग का पर्याय बनकर साधक की मनःस्थिति
को प्रभु की चेतना से प्रकाशित कर देता है और आलोकित कर सारे
भक्तिभाव को अंदर से जगा देता है।
प्रभु समर्पित साधकः एक लोकसेवी दिव्यकर्मी
भारतीय अध्यात्म- हिंदू धर्म एक दिव्य अनुभूति के साथ
साधक को दिव्य चैतन्य लोक के प्रति जाग्रत करता है एवं अर्जित
ज्ञान को व्यवहार में उतारने, उपासना- साधना को आराधना की परिपक्वावस्था में पहुँचाने की बात करता है। फिर चारों ओर उसे भगवद्सत्ता
के ही दर्शन होने लगते हैं। अपने को तो वह सुधारता ही है,
अपना विकास करता है, सारी जगती के लिए समर्पित भाव से जीने, सब
को सुधार कर युग निर्माण करने की उसकी उमंगें जाग उठती हैं। ऐसा
ध्यान योगी जो कन्दराओं में नहीं, हिमालय की वादियों में नहीं,
समाज के ऐसे वर्ग के बीच जहाँ उसकी जरूरत है, भक्तिभाव से कार्य
करता है, तो वह परमात्मा की दृष्टि में श्रेष्ठतम बन जाता है।
इस विलक्षण भावाभिव्यक्ति के साथ श्रीकृष्ण छठे अध्याय का समापन
करते हैं। धन्य हैं वे जो इस अति महत्त्वपूर्ण अध्याय को जीवन
में उतार पाते हैं। सेवा- साधना में स्वयं को निरत कर पाते हैं।
यहीं छठा अध्याय समाप्तहोता है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्न्यासयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः॥ ६॥