साधना हेतु स्वर्णिम सूत्रः सटीक मार्गदर्शन
चौदहवें श्लोक (अध्याय ६)
के ये छह सूत्र किसी भी ध्यान की कक्षा में प्रवेश करने वाले
साधक के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। पुनः इन्हें समझ लें तो
आगे के प्रतिपादनों को समझना आसान हो जाएगा।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥ ६/१४
प्रशांतात्मा के माध्यम से अंतःविक्षोभों पर विजय प्राप्त कर अपने मन—अंतःकरण को शांत बना लेना चाहिए। जिस अंतःकरण में जितनी गहरी शांति होगी, वहाँ शक्ति भी उतनी ही सघन होगी। श्रीगीता में अन्य स्थान पर श्रीकृष्ण कहते भी हैं—‘अशांतस्य कुतः सुखम्’ अर्थात् ‘अशांत को सुख कैसे?’
मिलेगा शांति होगी, तभी तो उस परमसत्ता से प्रेम हो पाएगा।
शांति वह धुरी है, जहाँ सभी आध्यात्मिक गुण स्वतः चले आते हैं।
हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि जिनके लिए हमारे मन में द्वेषभाव
हैं अथवा जो हमसे ईर्ष्या करते हैं, उनके लिए भी हम शांति की
प्रार्थना कर रहे हैं। शांति निस्तब्धता ही नहीं, वह घनीभूत ऊर्जा
है, जो मनुष्य को रूपांतरित कर देती है।
विगतभीः का अर्थ है—हमें
सभी प्रकार के डर से मुक्त होकर ध्यान करना चाहिए। जो भयभीत
है, ज्ञात- अज्ञात कारणों से, वह स्वतः परमात्मचेतना के अंदर प्रवेश
का मार्ग बंद कर देता है। हमें इस संसार में निर्भीक भाव से
जीना सीखना चाहिए। जितना भय से हम दूर हटेंगे, उतना ही परमात्मा
के निकट आएँगे। जितना प्रभु के निकट आएँगे, हम निर्भय होते
जाएँगे। भयभीत वही हो सकता है, जिसका मनोबल कमजोर हो अथवा जिसने
कभी गलत कार्य किए हों एवं वे सतत अचेतन से उभरकर आते रहते
हों। हम अपने को प्रभु को समर्पित कर निर्भय हो ध्यान की ऊर्जा
से युक्त हो सकते हैं। ब्रह्मचारिव्रते स्थितः की बात जब प्रभु
कहते हैं, तो उनका आशय है—ब्रह्मचर्य में स्थित होकर। अपनी मन- इंद्रियों पर पूर्णतः नियंत्रण स्थापित कर विचारसंयम, समय संयम, अर्थसंयम एवं इंद्रियसंयम का पालन कर हम ब्रह्मचर्य में स्थित हो सकते हैं। शरीर से ब्रह्मचर्य का पालन एवं मन में कुत्सित विचारों का पोषण—कामवासना प्रधान चिंतन से तो ब्रह्मचर्य में स्थित नहीं हुआ जा सकता। ब्रह्मरूप में विद्यमान परमात्मा में पूर्णतः विराजमान व्यक्ति कभी अपने ब्रह्मचर्य व्रत से च्युत नहीं होता।
मनः संयम्य अर्थात् मन को संयत करना—चित्त
को संसार से सर्वथा हटाकर केवल परमात्मा के स्वरूप में चिंतन
को नियोजित कर देना। मन कभी भूतकाल की ओर भागता है, कभी भविष्य
की चिंता में उद्विग्र
हो उठता है। योगाभ्यास इसी का नाम है कि हम वर्तमान में ही
रहें एवं मन को परमात्मा में ही लगाने का प्रयास करें। मच्चित्तः
कहकर श्रीकृष्ण कह रहे हैं—संयमित मन को सच्चिदानंदघन
परमात्मा में ही लगाएँ, हमारा लक्ष्य हो परमात्मा का चिंतन, न
कि संसार का चिंतन। यह संसार तो नष्ट होने वाला है। जिन परमात्मा
में हम मन लगा रहे हैं, वह सदैव से था व आगे भी जिसका
अस्तित्व रहने वाला है। हमें सांसारिक वस्तुओं से चिंतन हटाकर मन
को उत्कृष्ट चिंतन में, आदर्शों के समूह परमात्मा में लगा देना
चाहिए।
सतत परमात्मा का चिंतन
युक्त आसीत का भाव है—ध्यानस्थ
योगी को सतत सावधान रहना चाहिए। समाहित चित्त होकर ध्यान में
बैठना चाहिए। कभी भी इस कार्य में आलस्य- प्रमाद आदि नहीं करना
चाहिए। चलते- फिरते, काम करते हुए भी यह सावधानी रहे कि हमें
भगवान् से तदाकार- तद्रूप होना है। उनका ही चिंतन करना है। हर
श्वास में हम परमात्मा को जिएँ। चौबीस घंटे योगमय जीवन जिएँ, चाहे
हम एकांत में हों अथवा लौकिक जगत् का व्यवहार निभा रहे हों।
श्री अरविंद ने कहा भी है—‘‘होल लाइफ इज योगा।’’ परमपूज्य गुरुदेव ने कहा है—सारा जीवन—हर श्वास अध्यात्ममय हो, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। यही है ‘युक्त’ होकर ‘बैठने’ का मतलब। मत्परः अर्थात् मेरे परायण होकर—भगवत्परायण
होकर बैठें। हमारा लक्ष्य- उद्देश्य ध्येय मात्र भगवान् हों और
कुछ नहीं। हमारे सभी कर्म भी उन्हीं को समर्पित हों। भगवान् के
सिवाय और कोई कामना या वासना न हो। यह समर्पण भाव हो, तो ही
ध्यान लगेगा। यही बात प्रकारांतर से दसवें श्लोक
में योगी युञ्जीत सतत आत्मानं रहसि स्थितः के माध्यम से प्रभु
पहले भी कह चुके हैं, इसकी व्याख्या भी की जा चुकी है। अगले श्लोक में योगेश्वर कहते हैं—
युंजन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शांतिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥ ६/१५
शब्दार्थ—योगी पुरुष (योगी) इस प्रकार (एवं) निरंतर (सदा) अपने मन को (आत्मानं) समाहित कर—परमात्मा में लगाकर (युञ्जन्) संयत मन द्वारा, मन पर अधिकार स्थापित कर (नियतमानसः) मुझ में सम्यक् स्थिति वाली, मेरी स्वरूपता की प्राप्तिस्वरूप (मत्संस्थाम्) परम निर्वाण की नित्यशांति जो है, उसको (निर्वाणपरमाम् शांतिम्) प्राप्त हो जाते हैं (अधिगच्छति)।
भावार्थ इस प्रकार हुआ—‘‘वश
में किए हुए मन वाला योगी इस प्रकार अपनी आत्मा को निरंतर
मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें स्थित ऐसी शांति
को प्राप्त होता है, जो परमानंद की पराकाष्ठारूप है तथा परम निर्वाण—मोक्ष में विलीन होती है।’’
सबसे बड़ा अनुदान
ऊपर वर्णित छह सूत्रों को जीवन में उतारने वाले व्यक्ति को सबसे बड़ा अनुदान मिलता है—परमानंद की पराकाष्ठा वाली शांति। यह दिव्य शांति उसी को मिल पाती है, जो नियतमानसः अर्थात् संयत मन वाला होता है तथा युञ्जन् अर्थात् परमात्मा में चित्त लगा पाता है। इस ऊर्जायुक्त शांति में परमतत्त्व से साधक का साक्षात्कार हो जाता है और वह लोभ- मोह की तीन बेड़ियों से मुक्ति पाकर निर्वाण—मोक्षरूपीआजादी को प्राप्त होता है। शरीर हमारा वासना से दग्ध रहता है, काफी कष्ट पाता है, बुद्धि की भगदड़ हमें जीवन भर तंग करती है तथा भावनाएँ भी हमें सम्मोहित करती रहती हैं—यही है वह जीवन- संग्राम, जिसमें मनुष्य को जीवन जीने की कला की कसौटी पर परखा जाता है। मन भावनामय है, कामनामय है और इंद्रिय- निरोध के रूप में ही उसकी परीक्षा होती है। यह परीक्षा हर साधक को उत्तीर्ण करनी होती है; ताकि वह परम निर्वाण की, मोक्ष की शांति को प्राप्त हो सके।
मुक्ति एवं निर्वाण
परम पूज्य गुरुदेव मुक्ति के संबंध में कहते हैं—‘‘जिस
मुक्ति को अध्यात्म- क्षेत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि माना गया है,
वह किसी लोक विशेष में जा बसने जैसी बात नहीं है। उसका सीधा- सा
अर्थ है- भवबंधनों से छुटकारा। यह संकीर्ण स्वार्थपरता के
चक्रव्यूह से निकलकर समष्टि—विराट् के साथ एकात्मभाव
स्थापित करना है। जो इस स्तर पर पहुँचता है, वह किसी एक का या
कुछेक का होकर नहीं रहता। वह अपने को सबका और सबको अपना अनुभव
करता है।’’ निश्चित ही जिसने अपने को इस स्तर तक विकसित कर लिया, वह सतत परमात्मसत्ता में ही अधिष्ठित रहेगा एवं निर्वाणरूपी शांति को प्राप्त होगा। इस श्लोक में छह सूत्र प्रशांतात्मा,
विगतभीः, ब्रह्मचारिव्रते मनः संयम्य, मच्चित्तः, मत्परः को जीवन में
उतारकर समाहित चित्त के साथ (युक्त आसीत) ध्यान में बैठने की
फलश्रुति पाने हेतु दो चरण बताए गए हैं। पहला इस प्रकार वश में
किए हुए मन वाला योगी (नियतमानसः योगी) निरंतर अपने मन को परमात्मा में लगाता है—वहाँ अपने ध्यान को ले जाकर स्थापित कर देता है। (युञ्जन्नेवं सदात्मानं)। इसकी प्रतिक्रिया दूसरे चरण में बताई गई है। वह है—वह ‘‘मेरी स्वरूपता की प्राप्तिस्वरूप परम निर्वाण की शांति’’ (मत्संस्थाम् शांतिंनिर्वाणपरमां) को वह प्राप्त हो जाता है। (अधिगच्छति) ये दोनों ही चरण समझने योग्य हैं।
प्राथमिकता है—मन का संयम
किसी भी प्रकार की साधना के पथ में बढ़ने वाले योगी को सबसे पहले अपने मन को अपने वश में करना होगा। मनःसंयम सबसे पहली प्रायरिटी है—सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शर्त है। मनःसंयम्य तथा नियतमानसः के माध्यम से दो ही श्लोकों
में क्रमशः दो बार इस बात को कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस
तथ्य की महत्ता प्रतिपादित कर दी है। जिसका मन औरों के वश में है—जो
कह दिया, वह मान लिया, जो पढ़ लिया या देख लिया, उसी में खो
गए, वह क्या तो योग कर पाएगा, क्या उसे साध पाएगा। अपना मन हमें
नियंत्रित करना सीखना होगा। मन का स्वभाव चंचल है। वह भागेगा व
ढलान की ओर जाना सरल होने से हमें पतनोन्मुखी
प्रवाह की ओर ले चलेगा। सारे जगत् की यही रीति है। यही मन कभी
हमें कामवासना प्रधान चिंतन में लिप्त कर देगा, कभी शेखचिल्लियों
की तरह स्वप्रों में उलझा देगा। कभी भी यह स्थिर नहीं रह सकेगा और ध्यान में सबसे प्रमुख बाधा यही है। तो फिर क्या करें?
हमारा आदर्श ईश्वर हो
इसका उपाय प्रभु स्वयं बार- बार बताते रहे हैं—अपने
मन को, अपनी आत्मा को परमेश्वर के स्वरूप में लगाएँ। आदर्शों,
श्रेष्ठ वृत्तियों, सद्गुणों के समुच्चय परमात्मा के चिंतन में मन
को सदैव निरत रखें। स्वाध्याय द्वारा, स्मरण द्वारा प्रभु- कार्यों
में लगे रहकर, अपने अंदर उनके लिए प्रीति जगाकर हमें
परमात्मसत्ता में मन को नियोजित करने की कला सीखनी चाहिए।
परमात्मा साकार भी है, निराकार भी है। ब्रह्मरूप में भी है, परब्रह्म की परमचेतनारूप में भी। जो ध्यान हमें रुचता हो, वह करते हुए हम निरंतर अपनी चिंतनचेतना
को परमात्मचेतना में स्नान कराते रहें। जरा भी मन भटकने न दें।
ध्यान स्वयं अपने आप के साथ किए जाने वाला एक परीक्षण है और
हर एक योगपिपासु
को शांति की इच्छा रखने वाले को अपने भीतर ही इसे सफलतापूर्वक
पूरा करना होगा। मच्चित्तः, मत्परः के द्वारा वे पहले भी चौदहवें
श्लोक
में बता चुके हैं कि ध्यानयोगी को भगवान् कृष्ण के (परमात्मा
के) मनमोहन रूप में कल्पित, परम ऐश्वर्य रूप परमात्मा के अनंत
तत्त्व में केन्द्रित- घनीभूत होकर उसे ही अपना परमलक्ष्य मानना चाहिए—वही हमारा एकमेव आदर्श होना चाहिए। ऐसा होने से हमारा लक्ष्य एक ही होगा—प्रभुस्वरूप
की प्राप्ति, आदर्शों की प्राप्ति, उन्हें जीवन में उतारने की
अभीप्सा और अधिक आकांक्षा। यह जितनी प्रबल होती जाएगी, उतनी ही प्रभुमिलन
की, मन के योग के सधने की तथा उस अनिर्वचनीय शांति की
संभावनाएँ बढ़ती जाएँगी, जिनकी चर्चा वे स्थान- स्थान पर कर चुके
हैं।
निर्वाण तक ले जाने वाली परमशांति
निर्वाण की ओर ले जाने वाली यह परमशांति तब प्राप्त होती है, जब चित्त पूर्णतः संयत हो, कामनामुक्त हो आत्मा में स्थित हो गया हो। मन और इंद्रियों का सुख तो अशांति की ओर ले जाता है—कभी तृप्त नहीं होता, निरंतर हमें भटकाए रहता है। हमें वास्तविक परमसुखरूपी
शांति का एक बार अनुभव कर लेना है। इसमें स्थित हो जाने के
बाद साधक कभी भी अपनी सत्ता के इस आध्यात्मिक सत्य से (कि वह
उस अविनाशी परमात्मसत्ता का ही अंशधर है) च्युत नहीं हो सकता।
मनःसंताप फिर कभी उसे विचलित नहीं करते। वह एक परमशांति में जाकर स्थित हो जाता है, जो कि निर्वाण की, बंधनमुक्ति
की है तथा जिसकी नींव हमारे अपने ही अंदर है। इसीलिए योग के
साधक को तब तक निरंतर प्रयास करते जाना चाहिए, जब तक वह इस
मुक्ति को प्राप्त न हो जाए, उसे इस ब्रह्मनिर्वाण
का आनंद सदा के लिए न मिल जाए। जीवित रहते हुए भी फिर वह
अहंता- वासना के प्रलोभनों से दूर प्रसन्न मन से इस संसार में
मुक्त विचरण करता है—सदैव शांत बना रहकर औरों को भी शांति बाँटता है।
इसके पूर्व द्वितीय अध्याय (सांख्य योग) में प्रभु कह चुके हैं—स शांतिम् आप्नोति न कामकामी (२/७०—वही पुरुष परमशांति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं) तथा निर्ममो निरहंकारः स शांतिम् अधिगच्छति (२/७१—जो समस्त कामनाओं को त्याग देता है, अहंकाररहित निस्पृह जीवन जीता है—वही शांति को प्राप्त होता है)।
निष्काम कर्मयोग का शिक्षण योगेश्वर श्रीकृष्ण का सतत एक ही
उद्देश्य से चल रहा है। उस शांति को प्राप्त कराने के लिए, जो
कि अर्जुन ही नहीं, हर दिव्यकर्मी
के लिए अनिवार्य है। बिना शांति प्राप्त किए बड़े- बड़े काम नहीं
किए जा सकते। शांति प्राप्ति हेतु निष्काम कर्म समझाने के लिए
प्रभु ने यज्ञीय जीवन जीने की बात कही (कर्मयोग—तृतीय अध्याय में) एवं फिर ज्ञान के महत्त्व पर लाकर उसे स्थित कर दिया—ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् अचिरेणाधिगच्छति। (ज्ञान को प्राप्त होकर जितेन्द्रिय- श्रद्धावान मनुष्य बिना किसी विलंब के तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूपी शांति को, परम शांति को प्राप्त हो जाता है—अध्याय ४, श्लोक ३९)।
जिस ज्ञान की चर्चा प्रभु कर रहे हैं, वह अत्यधिक पवित्र है
एवं श्रद्धा से उत्पन्न हुआ है, तर्क से नहीं, बुद्धि जंजाल से
नहीं। किंतु चूँकि अज्ञान से ज्ञान को ढँक रखा है—सभी अज्ञानी मनुष्य मोहित होकर नर- पशु (जंतु) जैसा व्यवहार कर रहे हैं (अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः—५/१५), वह ज्ञान प्रकट नहीं हो पाता। यह प्रकट तभी हो पाता है जब अज्ञान को (अविद्या को)परमात्मा के तत्त्वज्ञान द्वारा, उनकी तद्रूपता पाकर, उनकी शरण में जाकर नष्ट करने का प्रयास किया जाए।
विलक्षण है यह प्रशिक्षण
ज्ञानयोग एवं भक्तियोग का विलक्षण समन्वय है श्रीकृष्ण
के कर्मयोग का यह प्रशिक्षण। वे इसी कर्मयोग प्रधान अध्याय छह
में ध्यानयोग का शिक्षण दे रहे हैं, पर एक- एक सीढ़ी चढ़ाते हुए
उसे एक सच्चे ज्ञानी भक्त के रूप में भी विकसित कर रहे हैं।
यही समग्रता गीता के योग की विशेषता है। यदि हमें अक्षय आनंद की
प्राप्ति करनी है, तो हमें जानना होगा कि दुःखों के हेतु—सुखरूप लगने वाले इंद्रिय भोगों से हम दूर चलें;
क्योंकि वे अनित्य हैं, क्षणिक हैं और यदि हम विवेकवान हैं, तो
उनमें रमण करने के स्थान पर हम प्रभु की बात मानते हुए स्वयं
को उनके चरणों में नियोजित कर देंगे (न तेषु रमते बुधः—५/२२)।
ब्रह्मनिर्वाण एवं उससे प्राप्त होने वाली शांति की चर्चा भी कर्मसंन्यासयोग नामक पंचम अध्याय के २३ से २८ क्रमांक के श्लोकों
में की जा चुकी है। अब यहाँ यह चर्चा सीधे- सीधे उस अनुभव की
प्राप्ति कराने हेतु ध्यानयोग के परिप्रेक्ष्य में की जा रही
है। इसके लिए मन को वश में करने के उपाय बताए गए एवं सतत
परमेश्वर में ही चित्त को लगाने की बात बार- बार कही गई। इस
ध्यान से अर्जित शांति ही हर योगी का इष्ट है, परमलक्ष्य है,
परमानंद का पर्याय है तथा पराकाष्ठा की स्थिति में ही यह
प्राप्त होती है।
शांत अंतःकरण वाले व्यक्ति अधिकाधिक होंगे, तब ही तो संसार में शांति होगी—आतंकवाद,
युद्धोन्माद मिटेगा। निश्चित ही शांत मन- अंतःकरण वाले व्यक्ति
अपने आस- पास भी ऊर्जा भरी शांति का संचार करते हैं। हम बाहर
चारों तरफ शांत स्थान ढूँढ़ते रहते हैं, ढेरों व्यक्ति शांति पाने
गायत्रीतीर्थ—शांतिकुंज
आते हैं, पर विडंबना यह है कि उनके हृदय में अशांति है। वहाँ
शांति स्थापित हो, तब ही तो बाहर शांति का साम्राज्य होगा। श्री अरविंद ने कहा है—‘‘इनर रेगुलेट्स आउटर बिईंग’’ (हमारा अंतरंग बहिरंग को नियंत्रित करता है)। इसी बात को पूज्यवर ने कहा है—मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति बदले।
श्री रमण महर्षि एवं श्री अरविंद
अरुणाचलम् को दक्षिण भारत (तमिलनाडु) में भगवान् कार्तिकेय का सुब्रह्मण्यम
स्वामी का प्रतीक माना जाता है। रमण महर्षि सत्रह वर्ष की उम्र
में वहीं आकर विराजमान हो गए। उनके वहाँ मौन साधना करने से उस
शांति का साम्राज्य स्थापित हो गया, जिसकी चर्चा पाल ब्रण्टन ने ‘इन सर्च ऑफ सेक्रेड’ में की है। तिरुवन्नमलाई
जिले का यह आश्रम आज महर्षि रमण के न होने पर भी उसी तरह
शांति से युक्त है। कहते हैं कि इस आश्रम में कभी वन्य- पशु,
हिंसक जीव, सभी एक साथ रहते थे। अंदर शांति होने के बाद असाधारण
चमत्कार पैदा होता है। श्री अरविंद जिन दिनों पांडिचेरी में थे, समुद्री तूफानों से सारे भवन हिल उठते थे। एक बार ऐसा तूफान आया। श्री अरविंद कक्ष में ध्यान कर रहे थे। श्रीमाँ भागी- भागी आईं कि खिड़कियाँ खुली होंगी, बंद कर दें, पर उनने देखा कि वे सोफे पर ध्यानस्थ थे। समाधि की स्थिति में नीरोदवरण को ‘सावित्री’ लिखा रहे थे। बाहर तूफान था, पर श्री अरविंद के कमरे में निस्तब्ध शांति थी। एक भी तिनका उड़ नहीं रहा था। नीरोदवरण
ने बाँस में कपड़ा बाँधकर खिड़की के बाहर निकाला, देखा कि कक्ष
से दस- पंद्रह फीट दूरी तक तूफान अप्रभावी था। कपड़ा हिला तक
नहीं। यह योगस्थ- अनिर्वचनीय शांति से युक्त श्री अरविंद की योग- साधना की फलश्रुति थी—प्रत्यक्ष
चमत्कार था। हम सब भी इसी तरह की शांति से भर जाएँ, सारी जगती
के ताप को शांत कर दें, ऐसी साधना हमारी हो, यही योगेश्वर की
इच्छा है।