स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा

अनगढ़ता मिटे, सुगढ़ता विकसित हो

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पृथ्वी का उत्तर ध्रुव निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त पदार्थ- संपदा में से अपने लिये आवश्यक तत्त्व खींचता रहता है। वही धरती की विविध आवश्यकताएँ पूरी करता है। जो निरर्थक अंश बचा रहता है, वह पदार्थ ध्रुव- मार्ग से कचरे की तरह बाहर फेंक दिया जाता है। यही क्रम मनुष्य- शरीर का है। वह अपनी रुचि और प्रकृति के अनुरूप चेतन तत्त्व आकाश में से खींचता और छोड़ता रहता है। उसी पूँजी से अपना काम चलाता है।

 क्या ग्रहण करना और क्या बहिष्कृत करना है, यह मनुष्य के मानसिक चुंबकत्व पर निर्भर है। यदि अपना मानस उच्चस्तरीय बन चुका है तो उसका आकर्षण विश्वब्रह्माण्ड से अपने स्तर के सहकारी तत्त्व खींचता और भण्डार करता रहेगा, पर पूँजी अपने मनोबल के अनुरूप ही जमा होती रहती है। वैसे मनुष्य को जन्मजात रूप से विभूतियों का वैभव प्रचुर मात्रा में मिला है, पर वह प्रसुप्ति की तिजोरी में बंद रहता है; ताकि आवश्यकता अनुभव होने पर ही उसे प्रयत्नपूर्वक उभारा और काम में लाया जा सके। सभी जानते हैं कि भूगर्भ में विभिन्न स्तर के रासायनिक द्रव्य भरे पड़े हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि आकाश से निरंतर धरती पर प्राणतत्त्व की वर्षा होती रहती है। वनस्पतियों और प्राणियों का गुजारा इन्हीं उभयपक्षीय अनुदानों के सहारे चलता है। मानवीय व्यक्तित्व के संबंध में भी यही बात है। वह इच्छित प्रगति के लिये अपने वर्चस्व का कितना ही महत्त्वपूर्ण अंश उभार सकता है और अपने बलबूते वांछित दिशा में अग्रगमन कर सकता है। उर्वरता भूमि में होती है, पर उसके प्रकट होने के लिये ऊपर से जल बरसना भी आवश्यक है अन्यथा उर्वरता हरीतिमा का रूप धारण न कर सकेगी। मनुष्य को अपने में सन्निहित विशेषताओं को भी ऊर्ध्वगामी बनाना चाहिये और साथ ही अदृश्य जगत् के विपुल वैभव का अंश भी अपनी आकर्षण- शक्ति से खींचकर अधिकाधिक सुसम्पन्न बनना चाहिये।

अपने गुण, कर्म, स्वभाव को प्रखर- परिष्कृत बनाना और ईश्वर- सान्निध्य स्थापित करके व्यापक शक्ति के लिये कुछ उपयुक्त से खींच बुलाना, ये दोनों ही क्रियायें अपने ढंग से नियमित रूप से चलती रहें तो समझना चाहिये कि प्रगति का सुव्यवस्थित सरंजाम जुटने की समुचित व्यवस्था बन गई। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए चिंतन, चरित्र और स्वभाव को गुण, कर्म और भाव- संवेदना को दिनों- दिन अधिक उत्कृष्ट बनाते चलने की आवश्यकता को ध्यान रखने पर जोर दिया गया है; साथ ही आवश्यक यह भी है कि इस विराट् विश्व की कामधेनु की अनुकूलता प्राप्त करके अमृत भरे पयपान का लाभ उठाते रहा जाए।

प्राण अपना है, प्रतिभा भी अपनी है, पर वह अनगढ़ स्थिति में झाड़- झंखाड़ों से भरी रहती है। उसे सुरम्य उद्यान में बदलने के लिये कुशल माली जैसे अनुभव और सतर्कता भरा प्रयत्न चाहिये। जो उसे कर पाते हैं, वे ही देखते हैं कि ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ का प्रतिपादन सोलहों आना सच है। उसमें किसी प्रकार की अत्युक्ति नहीं है। घाटे में वे रहते हैं, जो अपनी उपेक्षा आप करते हैं। जो अपनी अवमानना अवहेलना करेगा, वह दूसरों से भी तिरस्कृत होगा और स्वयं भी घाटे में रहेगा

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