स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा

उदारता जन्मदात्री है प्रामाणिकता की

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दूसरा सद्गुण जो इतना ही आवश्यक है, वह है- उदारता जिसके अंतराल में करुणा, ममता, सेवा- सहायता की कोमलता है, वही दूसरों को भी निष्ठुरता से विरत कर सकता है, करुणाकर बना सकता है। ईश्वर की अनुकंपा उन्हें मिलती है, जो दूसरों पर अनुकंपा करने में रुचि रखते हैं। निष्ठुरों की कठोरता और संकीर्ण स्वार्थपरता देखकर पड़ोसियों से लेकर भगवान् तक की अनुकंपा वापस लौट जाती है। असुरों की निष्ठुरता और अनैतिकता प्रसिद्ध है, इसलिये उनका अंत भी अन्यत्र से दौड़ पड़ने वाली निष्ठुरता के द्वारा ही होता है। असुरों के वध की कथाएँ प्राय: इसी तथ्य से सनी हुई मिलती हैं।

पूजा- पाठ का उद्देश्य आत्म- परिष्कार और सत्प्रवृत्ति- संवर्धन की उदारता जगाना भर है। यदि भाव- कृत्यों से ये दोनों उद्देश्य सध रहे हों तो समझना चाहिये कि उनका समुचित लाभ मिलेगा किंतु यदि क्रिया मात्र चल रही हो और सद्भावनाओं के विकास- परिष्कार पर उनका कोई प्रभाव न पड़ रहा हो तो समझना चाहिये कि क्रियाकलापों की लकीर भर पीटी जा रही है और उसके सहारे आत्म- प्रवंचना जैसी ही कुछ विडंबना बन पड़ेगी। इन दिनों प्राय: ऐसा ही खेल- खिलवाड़ चलता रहा है और लोग देवी- देवताओं की हजामत बनाने के लिये चित्र- विचित्र स्वांग रचते और बड़ी मनोकामनाओं की पूर्ति की प्रतीक्षा करते रहे हैं। देवता उतने मूर्ख हैं नहीं, जितने कि समझे जाते हैं। हेय स्तर का व्यक्ति ही छोटे- मोटे उपहारों या कथन- श्रवणों से भरमाया जा सकता है, पर देवता तो वास्तविकता परखने में प्रवीण होते हैं; साथ ही इतने दरिद्र भी नहीं हैं कि छोटे- छोटे उपहारों के लिये आँखें मूँदकर दौड़ पड़ें; जो माँगा गया है उसे मुफ्त में ही बाँटते- बखेरते रहें। यही कारण है कि मनौती मनाने के लिये पूजा- पत्री का सरंजाम जुटाने वालों में से अधिकांश को निराश रहना पड़ता है। आरंभ में जो लॉटरी खुलने जैसा उत्साह होता है, वह परीक्षा की कसौटी पर कसे जाने पर निरर्थक ही सिद्ध होता है। आस्तिकता के प्रति उपेक्षा- आशंका का भाव बढ़ते जाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि लोग कम कीमत में बहुमूल्य वस्तुएँ पाने की आशा लगाने लगते हैं और जब वह विसंगति गलत सिद्ध होती है तो कभी साधना को, कभी देवता को और कभी अपने भाग्य को दोष देते हुए भविष्य के लिये एक प्रकार से अनास्थावान् ही बन जाते हैं।

हमें तथ्यों को समझना चाहिये। प्रामाणिकता की परख होने पर ही कोई बड़े काम, दायित्व या अधिकार सौंपे जाते हैं। ईश्वर के दरबार में भी यही नियम है। वहाँ साधना का अर्थ जीवनचर्या के हर पक्ष में आदर्शवादिता और प्रामाणिकता का समावेश लगाया जाता है। जो भी इस कसौटी पर खरा उतरता है, उसको हर स्वर्णकार की तरह सम्मानपूर्वक उचित मूल्य मिलता है, पर पीतल को सोना बनाकर बेचने की फिराक में फिरने वाले को हर कहीं दुत्कारा जाता है।

छोटे बच्चे को खड़ा होने और धीरे- धीरे चलने में सहारा देने के लिये पहिये की हाथगाड़ी बना दी जाती है। बच्चे को खड़ा तो अपने ही पैरों पर होना पड़ता है, पर उस गाड़ी की सहायता मिलने से कार्य सरल हो जाता है। ठीक इसी प्रकार पूजा- अर्चा मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रामाणिक बनाने भर के लिये की जानी चाहिये अन्यथा भीतर घटियापन छाया रहने पर यह भी कहा जा सकता है कि साधना का सटीक अर्थ न समझा गया- उसे सही रीति से संपन्न न किया जा सका।

उदारमना होना भी ईश्वर- भक्ति का अविच्छिन्न अंग है। कृपणता, निष्ठुरता एवं संकीर्ण स्वार्थपरता उसके रहते टिक ही नहीं सकती। संत, भक्तजन, इसीलिये अमीर नहीं रहते कि वे उपलब्धियों का न्यूनतम उपयोग करके जो बचत संभव हो, उसे प्रसन्नतापूर्वक परमार्थ- प्रयोजनों में लगाते रहे। यह उदारता ही उनमें दैवी उदारता का आह्वान करती और उसे घसीटकर बड़ी मात्रा में सामने ले आती है। बादल उदारतापूर्वक बरसते रहते हैं। समुद्र उनके भंडार को खाली न होने की प्रतिज्ञा निभाते रहते हैं। नदियाँ भूमि पर प्राणियों की प्यास बुझाती हैं। उनमें जल कम न पड़ने पाये, इसकी जिम्मेदारी हिमालय पर पिघलती रहने वाली बरफ उठाती है। पेड़ बिना मूल्य फल देते रहते हैं, बदले में नई फसल पर उन्हें उतने ही नये फल बिना मूल्य मिल जाते हैं। गाय दूध देती है। इससे उसका थन खाली नहीं हो जाता; सबेरे खाली हो गया थन शाम तक फिर उतने ही दूध से भर जाता है। धरती बार- बार अन्न उपजाती है। उसकी उर्वरता अनादिकाल से बनी हुई है और अनंतकाल तक अक्षुण्ण बनी रहेगी। उदार सेवा- भावना का जिसके चिंतन और व्यवहार मे जितना पुट है, समझना चाहिये कि उस प्रामाणिक व्यक्ति को समाज का सम्मान भरा सहयोग और ईश्वर का अनुदान उसी अनुपात में निरंतर मिलता रहेगा।

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