स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा

सद्बुद्धि का उभार कैसे हो ?

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अभावों और संकटों में से कितने ही ऐसे हैं, जिनके कारण मनुष्य को आए दिन बेचैन रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में वह दूसरे संपन्नों से आशा भी करता है कि उसकी कुछ मदद की जाए। करने वाला इसमें कर्तव्यपालन और पुण्यपरमार्थ अनुभव करता है। दुर्बलता, रुग्णता, दरिद्रता, शत्रुता, मूर्खता व आशंका जैसे कितने ही कारण ऐसे हैं जो दुःखों को बढ़ाते और त्रास देते रहते हैं, पर इन सबके मूल में एक ही विपत्ति सर्वोपरि है, जिसका नाम है- अदूरदर्शिता अविवेक भी इसी को कहते हैं। दिग्भ्रांत मनुष्य अपने को समझदार मानते हुए भी कुचक्र में फँसते और भटकाव के कारण पग- पग पर ठोकरें खाते हैं। अनाचार भी इस कारण बनते हैं। गुण, कर्म, स्वभाव में निकृष्टता इसी कारण घुस पड़ती है। जड़ में से अनेक टहनियाँ, पत्तियाँ फूटती हैं, इसी प्रकार एक अविवेकशीलता का बाहुल्य रहने पर कारणवश या अकारण ही समस्याओं में उलझना और विपत्तियों में फँसना पड़ता है।

पत्ते सींचने से पेड़ की सुव्यवस्था नहीं बन पड़ती, इसलिए जड़ में खाद- पानी लगाने और उजाड़ करने वालों से रखवाली करनी पड़ती है। इतना प्रबंध किये बिना अच्छी भूमि में बोया गया अच्छा बीज भी फूलने- फलने की स्थिति तक नहीं पहुँचता। सद्ज्ञान को समस्त विपत्तियों का निवारक माना गया है। रामायण का कथन है कि ‘जहाँ सुमति तहाँ संपत्ति नाना’ अर्थात् जहाँ विचारशीलता विद्यमान रहेगी वहाँ अनेकानेक सुविधाओं- संपदाओं की शृंखला अनायास ही खिंचती चली आएगी। यही कारण है कि सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री गायत्री को माना गया है। मनःस्थिति परिस्थितियों का निर्माण करती है। परिस्थितियाँ ही दुःख का, उत्थान- पतन का निमित्त कारण बनकर सामने आती हैं। गीताकार ने सच ही कहा है कि मनुष्य ही अपना शत्रु है और वही चाहे तो अपने को सघन सहयोगी मित्र बना सकता है, इसलिए अपने आपको गिराना नहीं, उठाना चाहिए।

आशा और विश्वास के बल पर कष्टसाध्य रोगों के रोगी- बीमारियों से लड़ते- लड़ते देर- सबेर चंगे हो जाते हैं; जबकि शंकालु, डरपोक और अशुभ चिंतन करते रहने वाले साधारण रोगों को ही तिल का ताड़ बनाकर मौत के मुँह में जबरदस्ती जा घुसते हैं। देखा गया है कि अशुभ चिंतन के अभ्यासी अपना जीवट और साहस आधी से अधिक मात्रा में अपनी अनुपयुक्त आदतों के कारण ही गँवा बैठते हैं। कठिनाइयाँ और अड़चने हर किसी के जीवन में आती हैं, पर उनमें से एक भी ऐसी न होगी जिसे धैर्य और साहसपूर्वक लड़ते हुए परास्त न किया जा सके। सहनशीलता एक ऐसा गुण है, जिसके साथ धैर्य भी जुड़ा होता है और साहस भी। आजीवन जेल की सजा पाये हुए कैदी भी उस विपत्ति को ध्यान में न रखकर घरेलू जैसी जिंदगी जी लेते हैं और अवधि पूरा करके वापस लौट आते हैं। सुनसान बीहड़ों में खेत या बगीचे रखाने वाले निर्भय होकर चौकीदारी करते हैं; जबकि डरपोकों को घर में चुहिया की खड़बड़ भी भूत- बला के घर में घुस आने जैसी डरावनी प्रतीत होती है। शत्रु किसी का उतना अहित नहीं कर पाते, जितनी उनके द्वारा पहुँचाई जा सकने वाली हानि की कल्पना संत्रस्त करती रहती है। कुछ लोग गरीबी के रहते हुए भी हँसती- हँसाती जिंदगी जी लेते हैं, जबकि कितनों के पास पर्याप्त साधन होते हुए भी तृष्णा छाई दिखती रहती है। यह मन का खेल है। हर किसी की अपनी एक अलग दुनिया होती है, जो उसकी अपनी निज की संरचना ही होती है; परिस्थितियों और साथियों का इस निर्माण कार्य में यत्किंचित् सहयोग होता है। जीवन गीली मिट्टी की भाँति है, उसे कोई जैसी भी कुछ चाहे, आकृति दे सकता है।

निजी जीवन में आन- बान पर मर मिटने वालों की लंबी कहानी है। जयचंद, मीरजाफर के उदाहरण ऐसे ही लोगों में सम्मिलित हैं। शत्रु से बदला चुकाने के नाम पर न जाने- क्या अनर्थ होते रहे हैं। ईर्ष्या ने अपने प्रतिद्वंद्वियों को धूल चटाने में कमी नहीं रखी- ऐसे बहुत हैं, जो भयंकर अग्निकाण्ड रचने की ललक में अपने को भी घास- फूस की तरह जला बैठे। युद्धों की कथा- गाथाओं के पीछे भी इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों की भूमिका काम करती रही है। कहने को तो उन्हें भी दुस्साहस ही कह सकते हैं। अनाचारी, आतंकवादी और षड्यंत्रकारी ऐसा ही ताना- बाना बुनते रहते हैं।

प्रश्न इन दिनों सर्वथा दूसरी प्रकार का है- सृजन और उन्नयन के लिए किसकी सद्भावना किस हद तक उभरती है? देखा जाना है- स्वार्थ के मुकाबले में परमार्थ सुहाता किसे है? ध्वंस करने वाले जिस प्रकार मूँछों पर ताव देते हैं और शेखी बघारते हैं, वैसा सृजनकर्मियों को नहीं सुहाता है। निर्माणकर्ताओं की मंद गंध चंदन जैसी होती है, जो बहुत समीप से ही सूँघी जा सकती है, पर ध्वंस की दुर्गंध तो अपने समूचे क्षेत्र को ही कुरुचि से भर देती है और अपनी उपस्थिति का दूर- दूर तक परिचय देती है। दुष्टता भरी दुर्घटनाएँ दूर- दूर तक चर्चा का विषय बन जाती हैं, पर सेवा- सद्भावना भरे कार्य कुछेक लोगों की जानकारी में ही आते हैं। इतने पर भी उन्हें वैसा विज्ञापित होने की आवश्यकता नहीं होती है, जैसी कि दुष्ट- दुराचारी अपने नाम की चर्चा दूर- दूर तक होती सुन लेते हैं और अहंकार को फलितार्थ हुआ देखते हैं।

इन परिस्थितियों में सत्प्रवृत्ति- संवर्धन जैसे सत्प्रयोजनों के लिए किन्हीं दूरदर्शी और सद्भावना- संपन्नों के कदम ही उठते हैं। अनुकरण के प्रत्यक्ष उदाहरण सामने न होने पर अपना उत्साह भी ठण्डा होता रहता है। संचित कुसंस्कारों से लेकर वर्तमान प्रचलनों के अनेक अवरोध इस मार्ग में अड़ते हैं कि फूटे खंडहरों जैसी व्यवस्थाओं को किस प्रकार नये सिरे से भव्यभवन का विशाल रूप देने की योजना बनाई जाए तथा इसके लिये निरंतर कार्यरत और आवश्यक साधन जुटाने की हिम्मत कैसे जुटाई जाए?

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