स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा

इन दिनों की सर्वोपरि आवश्यकता

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करने को तो काम एक ही है, पर वह है इतना बड़ा और व्यापक, जिसकी तुलना हजार छोटे- बड़े कामों के समूह से की जा सकती है। बदलाव पदार्थों का सरल है- लोहे तक को गलाकर दूसरे साँचे में ढाला जा सकता है; वेश- विन्यास से कुरूप को भी रूपवानों की पंक्ति में बिठाया जा सकता है, पर विचारों का क्या किया जाए, जो चिरकाल से बन पड़ते रहे कुकर्मों के कारण स्वभाव का अंग बन गये हैं और आदतों की तरह बिना प्रयास के चरितार्थ होते रहते हैं। सभी जानते हैं कि नीचे गिराने में तो पृथ्वी की आकर्षण- शक्ति ही पूरा- पूरा जोर हर घड़ी लगाये रहती है, पर ऊँचा उठने या उठाने के लिए तो आवश्यकता के अनुरूप समर्थ साधना चाहिए। इस निमित्त सामर्थ्य भर जोर लगाना पड़ता है। श्रेष्ठ काम कर गुजरने वालो में- आततायी द्वारा प्रयुक्त होने वाली शक्ति की तुलना में- सैकड़ों गुनी अधिक सामर्थ्य चाहिए। किसी मकान को एक दिन में- नष्ट किया जा सकता है और इसके लिए एक फावड़ा ही पर्याप्त हो सकता है, पर यदि उसे नये सिरे से बनाना हो तो उसके लिये कितना समय व कितना कौशल लगाना पड़ेगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। श्रेय ध्वंस को नहीं, सृजन को ही मिलता रहा है।

इन दिनों एक ही बड़ा काम सामने है कि जन- जन के मन- मस्तिष्क पर छाई हुई दुर्भावना के निराकरण के लिये कितना बड़ा, कितना कठिन और कितने शौर्य- पराक्रम की अपेक्षा रखने वाला पुरुषार्थ जुटाया जाना चाहिए? यह कार्य मात्र उपदेशों से नहीं होगा। इसके लिए तदनुरूप वातावरण चाहिए। फिर उपदेष्टा का व्यक्तित्व ऐसा चाहिए जो अपने कथन व अपने व्यवहार में उतरने की कसौटी पर हर दृष्टि से खरा उतरता हो। बढ़िया बंदूक ही सहज निशाना लगाने में समर्थ होती है, टेढ़ी- मेढ़ी अनगढ़ नहीं, बालक का तमंचा प्राय: असफल निशाना ही लगाता रहता है। सदाशयता और सद्भावना का निजी जीवन में परिचय देने वाले ही दूसरों को ऊँचा चढ़ाने, आगे बढ़ाने और सृजनात्मक प्रयोजनों को पूरा कर पाने में समर्थ हो पाते हैं।

विचार क्रांति की सर्वोपरि आवश्यकता है। हेय चिंतन ही दरिद्रता, अशिक्षा, अस्वस्थता, कुचेष्टा और दुष्प्रवृत्तियों का निमित्त है। इन बीमारियों का अलग- अलग इलाज कारगर नहीं हो सकता। रक्त शोधक उपचार करने से ही आए दिन उगने वाले फोड़े- फुंसियों से छुटकारा मिलता है। जड़ सींचने से ही पेड़ हरा होता है। वह कार्य पत्तों को पोसने से पूरा होना संभव नहीं। विकास और सुधार के लिए तो अनेकानेक काम करने को पड़े हैं, पर यदि उन सबको समेटने की अपेक्षा विचारों का तारतम्य सही बिठा लिया जाए तो अन्यान्य बहुमुखी विकृतियों पर सहज काबू पाया जा सकता है। विचारों से ही कार्य विनिर्मित होते हैं। इन्हीं कारण उत्थान- पतन की भूमिका दृष्टिगोचर होती है। यदि विचारों को शालीनता, सज्जनता, नीति- निष्ठा कर्तव्यपरायणता और समाजनिष्ठा की दिशा में उन्मुख किया जा सके तो फिर शरीर एवं साधनों के माध्यम से मात्र वे ही कार्य बन पड़ेंगे, जो सुधार एवं विकास के लिये आवश्यक हैं।

प्राचीनकाल में घर- घर अलख जगाने, संपर्क साधने और विचार- विनिमय करने जैसे कुछ ही कार्य ऐसे थे, जिनके सहारे लोकमानस का परिष्कार बन पड़ता था। अधिक लोगों को एक स्थान पर एकत्र करने के लिये सामूहिक कर्मकाण्डों की आवश्यकता होती थी, पर अब तो विज्ञान ने उन सभी कार्यों को सरल बना दिया है। यदि उन्हें योजनाबद्ध रूप से बड़े पैमाने पर किया जा सके तो क्षेत्र की व्यापकता होते हुए भी प्रयोजन की पूर्ति में अधिक कठिनाई न रहेगी।
प्रेस अपने समय का एक वरदान है। इसके द्वारा कम समय में अधिक लोगों तक सस्ते आधार पर पहुँचना संभव हो सकता है। लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर, वीडियो तथा स्लाइड प्रोजेक्टर जैसे सस्ते उपकरण भी अधिक लोगों तक कम समय में विचारोत्तेजक प्रवाह पहुँचाने में समर्थ हो सकते हैं। संगीत- मंडलियाँ यदि योजनाबद्ध रूप से काम करें तो उनके सहारे भी जागरण का बड़ा काम बड़े परिमाण में बन सकना संभव हो सकता है। ऐसे ही अन्य छोटे- बड़े माध्यम से ढूँढ़े जा सकते हैं, जो उल्टी दिशा में बहते- प्रवाह को उलटकर सीधा कर सकें। यह प्रचार प्रतिभासम्पन्न लोगों की सहायता से और भी अच्छी तरह व्यापक परिधि में पूर्ण हो सकता है।

इतने पर भी एक कठिनाई फिर भी ज्यों- की रह जाती है कि अंतःकरण की गहराई तक प्रवेश करके उन्हें क्रियान्वित होते देखने की आशा- संभावना तभी पूरी होती है, जब उस हेतु प्रखर प्रतिभाएँ निखरकर, आगे बढ़कर आएँ और मोर्चा सँभालें। यह कार्य घटिया लोगों का नहीं है, उनकी कृतियाँ उपहासास्पद बनती हैं। दूरवर्ती अनजान लोग किसी की वाचालता पर सहज विश्वास नहीं करते और जो मन, वचन, कर्म से आदर्शों के प्रति समर्पित हों, ऐसे लोग ढूँढ़े नहीं मिलते। इस विसंगति के कारण लोकमानस में अभीष्ट परिवर्तन बन नहीं पड़ता और अनेक विडम्बनाओं की तरह धर्मोपदेश भी मनोरंजन का एक निमित्त कारण बनकर रह जाता है।

कठिनाई यही दूर करनी है। स्रष्टा का अवतरण इन्हीं दिनों इस प्रकार होना है, जिसमें भावनाशील लोग अपनी कुत्सा- कुंठाओं पर विजय प्राप्त करें। ब्राह्मणोचित जीवन अंगीकार करें और अपना समग्र व्यक्तित्व इस स्तर का ढालें, जिसके प्रभावक्षेत्र में आने वाले सभी लोग यह विश्वास कर सकें कि उत्कृष्टता की पक्षधर आदर्शवादिता, कार्यरूप में अपनाई जा सकती है और उसमें हानि- ही सहनी पड़े, ऐसी बात नहीं है। आर्थिक दृष्टि से सुविधा- साधनों में कुछ कमी हो सकती है, पर उसके बदले जो आत्मसंतोष, लोक- सम्मान और दैवी अनुग्रह उपलब्ध होता है, वह इतने कम महत्त्व का नहीं है, जिसे संकीर्ण स्वार्थपरता के बंधनों में बँधे, रोते- कलपते जीवन की तुलना में किसी भी प्रकार कम महत्त्व का माना जा सके ।।

इन दिनों यही होना चाहिए, संभवतः होने भी वाला है। भाव- संवेदना मात्र कल्पना- जल्पना के क्षेत्र तक सीमित न रहे वरन् कार्यक्षेत्र में उतरे और अपनी सामर्थ्य के अनुरूप प्रचार- प्रयोजनों में से उन्हें अपनाएँ, जो उसके लिए संभव और स्वाभाविक हैं। ऐसे परामर्श हर परिष्कृत अंतःकरण में दैवी प्रेरणा से अनायास ही अवतरित हो रहे हैं। आवश्यकता मात्र उन्हें हृदयंगम करने और कार्यरूप में परिणत करने भर की है।

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