इस संदर्भ में एक और भी बढ़ी मूर्खता जनसाधारण के मन में गहरी जड़ें जमाकर बैठ गई है कि ईश्वर में सिद्धांत- रहित किसी ऐसे भूत- प्रेत की कल्पना समाविष्ट कर ली गई जो निशिदिन उपहार बटोरते और नाक रगड़ते हुए भक्तजनों के पीछे रहता है; साथ ही पूजा- पाठ की छुट- पुट टण्ट- घण्ट कर देने भर से फूलकर कुप्पा हो जाता है और मनचाहे उपहार- वरदान बाँटकर हर किसी की मनोकामनाएँ पूरी करता है; भले ही वे कितनी ही अनावश्यक या अनुचित क्यों न हों।
इसके अतिरिक्त इस परमेश्वर में एक और भी बुरी आदत है कि पूजा- पत्री में कोई छोटी- मोटी गलती हो जाए तो भी वह आगबबूला हो जाता है और कल तक जिसे भक्त मानता था, आज उसकी जान लेने तक को तैयार हो जाता है। राजी होने के लिये बढ़े- चढ़े उपहार माँगता है। अपना भक्त किसी दूसरे देवता की पूजा करने लगे तो उसकी भी अच्छी- खासी खबर लेता है।
यही है आज का सशक्त परमेश्वर जिसे जातियों, वर्गों, कबीलों और मत- मतांतरों वाले लोग अपने- अपने तरीके से खोजते और अपनी- अपनी मान्यता के अनुरूप नाम व रूप देते हैं। इस कालभैरव से किसी का क्या भला होता है, इसे तो पूजने वाले ही जानें, पर एक बात निश्चित है कि इन स्वयंभू देवी- देवताओं के स्वयंभू एजेण्टों की पाँचों उँगलियाँ हर घड़ी घी में रहती हैं। वे मनोकामना पूरी कराने अथवा गरीबी दूर करने- कराने के बहाने हर स्थिति में अपनी एजेण्टों का धंधा बढ़ाते चलते रहे हैं।
विचारणीय यह है कि क्या सिद्धांत- रहित उपहार, मनुहार का लालची और किसी भी चाटुकार की सही- गलत मनोकामनाएँ पूरी करने वाला कोई परमेश्वर हो भी सकता है क्या? इस संदर्भ में किसी भी दृष्टिकोण से विचार करने पर उत्तर नहीं में ही देना पड़ता है; क्योंकि यह सिलसिला यदि चल पड़े तो रही- बची विवेकशीलता और न्यायनिष्ठा के परखचे ही उड़ जाएँगे।
ऐसे कबायली परमेश्वर को पूजने वाले ही मनोकामनाएँ पूरी न होने पर उसे सौ गुनी गाली भी देते देखे गये हैं, जो कि आशाएँ लगाये रहने से पूर्व मिन्नतें करने और चमचागिरी दिखाने में अतिवाद की सीमा तक पहुँच जाते हैं। इस भ्रांत मान्यताओं वाले जंजाल को ही यदि परमेश्वर माना जाए तो फिर इसी के साथ एक बात और भी जान लेनी चाहिये कि इसके पीछे वास्तविकता कुछ भी न होने से लाभ कुछ भी नहीं होने वाला है। अंधे के हाथों कभी बटेर लग जाए तो बात दूसरी है, पर उससे भ्रांति पर आधारित मान्यता की पुष्टि नहीं होती।
उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़ने के उपरांत तथाकथित पूजा- पाठ करने वालों की मान्यताएँ डाँवाडोल हो सकती हैं। जो थोड़ी- बहुत आधे- अधूरे मन से टंट- घंट करते थे, उसमें भी कमी आ सकती है। भक्तिवाद की आड़ में यह मिथ्या भ्रम- जंजाल चलाते रहने वाले को तो अपने व्यवसाय में घाटा दीख पड़ते ही अलग होने में ऐसी स्थिति भी आ सकती है जो प्रतिपक्ष पर किसी भी स्तर का आक्रोश लेकर पिल पड़े, पर सही अध्यात्म की स्थापना करने के लिये यह भी सहना पड़े तो उद्यत रहना चाहिये।