स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा

अनास्था की जननी-दुर्बुद्धि

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इस भ्रांत धारणा की एक हानि यह है कि मनुष्य स्वेच्छाचारी व अनाचारी बनता है और अपनी राह पर तीर की नोंक वाले काँटे बोने में लगा रहता है। न चाहते हुए भी अंधकारमय परिस्थितियों को अपने समीप बुलाने के लिये निमंत्रण देने में बाध्य रहा है। अभावग्रस्तता, विषमता और विपन्नताएँ प्राय: इसीलिए दीख पड़ती हैं। यदि सोच ठीक रही होती और उसके प्रकाश में सीधे मार्ग पर चल सकना संभव हुआ होता तो यहाँ सब लोग मिल- जुलकर रहते, हँसती- हँसाती जिंदगी जीते, एक- दूसरे को ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में सहयोग करते। तब सीमित साधनों में भी लोग संतुष्ट रहते और अभीष्ट वातावरण बना हुआ होता- हर किसी को अदृश्य मार्ग का दृश्यमान अरुणोदय अनुभव करने का अवसर मिल रहा होता पर उस दुर्बुद्धि को क्या कहा जाए जिसने मनुष्य को मर्यादाओं, प्रतिबंधों और वर्जनाओं को तोड़ने के लिये उद्धृत स्वभाव वाला वनमानुष बनाकर रख दिया है।

आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य को बंदर बनाने वाली दो भूलें एक साथ जन्मी हैं और उसने एक ही चक्कर में पूरी तरह चोट करने के बाद आगे बढ़ने का सिलसिला बनाया है। दूसरी भूल है अपने स्वरूप, कर्तव्य और उद्देश्य को भूलने की तथा अपने अति निकट रहने वाले उदार स्वभाव वाले परम सज्जन भगवान् से परिचय बनाने तक की इच्छा न करने की अन्यमनस्कता- अवमानना अपने से बड़ी शक्ति के साथ संबंध जोड़ने की महत्ता को छोटे बच्चे तक समझते हैं। वे उसी की ओर खिसकते हैं, जिसके पास खिलौने, चाकलेट और अच्छे उपहारों का सामान होता है; जो प्यार से बुलाते और दुलारपूर्वक गोदी में चढ़ाते हैं। जब इतनी समझ छोटे बालकों तक में पाई जाती है तो आश्चर्य होता है कि मनुष्य भगवान् का घनिष्ठ बनने या उसे अपना घनिष्ठ बनाने में इतनी अधिक उपेक्षा क्यों बरतता है।

ऊँची सतह के बड़े तालाब में अधिक पानी होता है। पास में ही कोई कम पानी वाला गड्ढा हो तो दोनों की तुलना में असाधारण अंतर होगा। इतने पर भी यदि दोनों के बीच एक नाली बना दी जाए तो ऊँचे तालाब का पानी नीचे गड्ढे को भरना जल्दी आरंभ कर देगा और वह सिलसिला तब तक चलता रहेगा, जब तक कि दोनों जलाशय एक सतह पर नहीं आ जाते। नीचे वाले गड्ढे का पानी निश्चित रूप से ऊँचा उठेगा; भले ही इसमें ऊँचे वाले को कुछ घाटा ही क्यों न रहा हो।

ईश्वर- सान्निध्य के लिये किये गये प्रयास अंधविश्वास नहीं है। यदि उनका सही तरीका न समझ सके तो मृगतृष्णा में भटकने वाले हिरण की तरह भ्रमग्रस्तों जैसी धमाचौकड़ी मचाते रहेंगे। तब तो खिन्नता, विपन्नता और असफलताएँ ही हाथ लगेंगी। यदि रुके बिना धीरे- धीरे चलने वाली चींटी भी पर्वत शिखर पर जा पहुँचती है तो फिर कोई कारण नहीं कि ईश्वर- सान्निध्य का सही मार्ग विदित हो जाने पर उस प्रयोजन में आश्चर्यजनक सफलता न मिल सके।

कहना न होगा कि सशक्तों की समीपता- सान्निध्यता मनुष्य के लिये सदा लाभदायक ही होती है। सुगंध जलाते ही दुकान पर सजी चीजों में से अनेकानेक महकने लगती हैं। चंदन के समीप उगे झाड़- झंखाड़ भी प्राय: वैसी ही सुगंध वाले बन जाते हैं। पारस को छूने से लोहे से सोना बनने वाली उक्ति बहुचर्चित है। कल्पवृक्ष के नीचे बैठने वालों का मनोरथ पूरा होने की बात सुनी जाती है। अमृत की कुछ बूँदें मुँह में चले जाने पर मुरदे जी उठते हैं। भृंग अपने संकल्प के प्रभाव से छोटे कीड़े को अपने साँचे में ढाल लेता है। हरियाली के समीपता में रहने वाले टिड्डे और साँप हरे रंग के हो जाते हैं। सीप में स्वाति की बूँदें गिरने पर मोती बनने और बाँस के ढेरों में बंसलोचन उत्पन्न होने की मान्यता प्रसिद्ध है। इनमें से कितनी बात सही और कितनी गलत हैं, इस विवेचना की तो यहाँ आवश्यकता नहीं, पर इतना निश्चित है कि सज्जनों के महामानवों के सान्निध्य में रहने वाले अधिकांश लोग प्रतापी जैसी विशेषताओं में से बहुत कुछ अपना लेते हैं। राजदरबारी शिष्टाचार का पालन अच्छी तरह कर सकते हैं। अत: हर कोई बड़ों का सान्निध्य चाहता हैं, किंतु आश्चर्य की बात यह है कि सर्वशक्तिमान् साथी के साथ जुड़ने में हमारे प्रयत्न उतने भी नहीं होते, जितने कि स्वजन- कुटुंबियों के साथ आत्मीयता प्रदर्शित करने में होते हैं। यदि ऐसा बन सकना संभव होता तो हम जड़- से न रहे होते और इस स्थिति में पड़े न रहते, जिसमें कि किसी प्रकार खाते- पीते इन दिनों समय गुजार रहे हैं।

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