अध्यात्मबल का संपादन कठिन नहीं वरन् सरल है। उसके लिये आत्मशोधन एवं लोकमंगल के क्रियाकलापों को जीवनचर्या का अंग बना लेने भर से काम चलता है। व्यक्तित्व में पैनापन और प्रखरता का समावेश इन्हीं दो आधारों पर बन पड़ता है। यह बन पड़े तो दैवी अनुग्रह अनायास बरसता है और आत्मबल अपने भीतर से ही प्रचुर परिमाण में उभर पड़ता है। केवट, शबरी, गिलहरी, रीछ- वानर ग्वाल- बाल जैसों की भौतिक सामर्थ्य स्वल्प थी, पर वे अपने में देवत्व की मात्रा बढ़ा लेने पर ही इतने मनस्वी बन सके, जिनकी चर्चा इतिहासकार आये दिन करते रहते हैं। सुग्रीव की विजय के पीछे उसकी निज की बलिष्ठता मात्र ही कारण नहीं हुई थी। नरसी मेहता ने अभीष्ट धन अपने व्यवसाय से नहीं कमाया था। अमृतसर का स्वर्णमंदिर किसी एक धनवान् की कृति नहीं है। इनके पीछे देवत्व का अदृश्य सहयोग भी सम्मिलित रहा है। ध्रुव को ब्रह्मांड के केंद्र बनने का श्रेय उसके तपोबल के सहारे ही संभव हुआ था। अगस्त्य का समुद्रपान और परशुराम द्वारा अपने कुल्हाड़े के बल पर लाखों- करोड़ों का जो ‘ब्रेन वाशिंग’ हुआ था, उसे किन्हीं वक्ताओं के धर्मोपदेश से कम नहीं कहा जा सकता।
सतयुग, ऋषियुग का ही प्रकट रूप है। असुरता की अभिवृद्धि होते ही कलहयुग- कलियुग आ धमकता है। उच्चस्तरीय प्रतिभाओं का पौरुष जब कार्यक्षेत्र में उतरता है तो न केवल कुछ व्यक्तियों व कुछ प्रतिभाओं को वरन् समूचे वातावरण को ही उलट- पुलट कर रख देता है। धोबी की भट्ठी पर चढ़ने से मैले कपड़ों को सफाई से चमचमाते देखा गया है। भट्ठी में तपने के बाद मिट्टी मिला बेकार लोहा फौलाद स्तर का बनता और उसके द्वारा कुछ न कुछ कर दिखाने वाले यंत्र उपकरण बनते हैं। आत्मशक्ति की प्रखरता को इसी स्तर का बताया और पाया गया है।
इक्कीसवीं सदी से प्रारंभ होने वाला युग- अभियान संपन्न तो प्रतिभावान् मनुष्यों द्वारा ही होगा, पर उनके पीछे निश्चित रूप से ऐसी दिव्यचेतना जुड़ी हुई होगी, जैसी की फ्रांस की एक कुमारी जोन ऑफ आर्क ने रणकौशल से अपरिचित होते हुए भी अपने देश को पराधीनता के पाश से मुक्त कराने में सफलता प्राप्त की थी। महात्मा गाँधी और संत विनोबा जी जो कर सके, वह उस स्थिति में कदाचित् ही बन पड़ता जो वे बैरिस्टर, मिनिस्टर, नेता, अभिनेता, आदि बनकर कर सके होते।
चंद्रगुप्त जब विश्वविजय की योजना सुनकर सकपकाने लगा तो चाणक्य ने कहा- तुम्हारी दासी पुत्र वाली मनोदशा को मैं जानता हूँ। उससे ऊपर उठो और चाणक्य के वरद् पुत्र जैसी भूमिका निभाओ। विजय प्राप्त कराने की जिम्मेदारी तुम्हारी नहीं, मेरी है।’’ शिवाजी जब अपने सैन्यबल को देखते हुए असमंजस में थे कि इतनी बड़ी लड़ाई कैसे लड़ी जा सकेगी, तो समर्थ रामदास ने उन्हें भवानी के हाथों अक्षय तलवार दिलाई थी और कहा था- तुम छत्रपति हो गये, पराजय की बात ही मत सोचो। राम- लक्ष्मण को विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के बहाने बला और अतिबला का कौशल सिखाने ले गये थे; ताकि वे युद्ध लड़ सकें- असुरता का समापन और रामराज्य के रूप में ‘सतयुग की वापसी’ संभव कर सकें। महाभारत लड़ने का निश्चय सुनकर अर्जुन सकपका गया था और कहने लगा कि ‘‘मैं अपने गुजारे के लिये तो कुछ भी कर लूँगा, फिर हे केशव! आप इस घोर युद्ध में मुझे नियोजित क्यों कर रहें है?’’ इसके उत्तर में भगवान् ने एक ही बात कही थी कि ‘‘इन कौरवों को तो मैंने पहले ही मारकर रख दिया है। तुझे यदि श्रेय लेना है तो आगे आ अन्यथा तेरे सहयोग के बिना भी वह सब हो जाएगा, जो होने वाला है। घाटे में तू ही रहेगा- श्रेय गँवा बैठेगा और उस गौरव से भी वंचित रहेगा जो विजेता और राज्यसिंहासन के रूप में मिला करता है।’’ अर्जुन ने वस्तुस्थिति समझी और कहने लगा- करिष्ये वचनं तव’’ अर्थात् आपका आदेश मानूँगा। ऐसी ही हिचकिचाहट हनुमान, अंगद नल- नील आदि की रही होती तो वे अपनी निजी शक्ति के बल पर किसी प्रकार जीवित तो रहते, पर उस अक्षय कीर्ति से वंचित ही बने रहते, जो उन्हें अनंतकाल तक मिलने वाली है।
युगसृजन में श्रेय किन्हीं को भी मिले, पर उसके पीछे वास्तविक शक्ति उस ईश्वरीय सत्ता की ही होगी, जिसने नई सृष्टि रचने जैसे स्तर की अभिनव योजना बनाई है और उसके लिये आवश्यक साधनों एवं अवसर विनिर्मित करने का साधन जुटाने वाला संकल्प किया है।