संतान के प्रति कर्तव्य

बच्चों को भी विकसित होने दीजिए

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दुनियाँ के सभी देशों में बालक की महिमा गायी गई है । आज भी गायी जाती है । बालक राष्ट्र की अनमोल निधि है, राष्ट्र की नींव में बालक बैठा है । जो राष्ट्र अपने बालकों की सही-सही सार-सँभाल रखता है, उसे अपने जीवन में कभी पछताना नहीं पड़ता क्योंकि आज का बालक ही कल का नागरिक बनता है और राष्ट्र की बागडोर सम्भालता है । जैसा बालक होगा, वैसा ही राष्ट्र बनेगा । दुनियाँ में सर्वत्र यही हो रहा है । हिन्दुस्तान में भी आज हम इसी सत्य के दर्शन कर रहे हैं ।

हमने अपने देश में अपने बालकों की कम चिन्ता की है । अपने विकास के लिए कम से कम पुरुषार्थ किया है । उनके सर्वागीण विकास के साधनों को जुटाने की तरफ हमारा ध्यान नहीं के बराबर ही गया है । हमने अपने घरों में, विद्यालयों में समाज में और राज दरबार में, ऐसा कोई वातावरण भी नहीं बनाया कि जिसके बीच जीकर हमारा बालक सहज भाव से सुसंस्कृत और सुविकसित बन सके । विकृति के अनेक क्षेत्र हमने अपने बीच बढ़ाकर और फैलाकर रक्खे हैं । संस्कृति के सुन्दर केन्द्रों का व्यापक विकास करने की तरफ हमारा ध्यान आग्रह के साथ जाना चाहिए, पर जा नहीं रहा है । इसी कारण आज हमारे बालकों का जीवन चारों तरफ से रुँघा पड़ा है और उन्हें ऊपर उठने के इने-गिने अवसर ही मिल रहे हैं । आज हमारे समाज में बालक जितने दलित और उत्पीड़ित हैं, उतने और कोई शायद नहीं हैं । पर हमें अपनी इस स्थिति का न तो पूरा भान है और न इससे ऊपर उठने की चिन्ता ही है । आज यही हमारे समाज के विचारशील लोगों की सबसे बड़ी चिन्ता का विषय हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं ।

जिन घरों में बालक खा-पीकर और पहन-ओढ़कर सुखी हैं, वहाँ भी वह एक-दूसरी दृष्टि से भूखा, प्यासा और बेआसरा पड़ा हुआ है, क्योंकि मनुष्य का जीवन पशु के जीवन से भिन्न है । मनुष्य भाव का भूखा होता है । मनुष्य स्वाभिमान को प्राणों से भी अधिक मूल्यावान समझने वाला प्राणी है । मनुष्य अपनों से और गैरों से भी आदर, सत्कार, स्नेह और सराहना की चाह रखता है । मनुष्य स्वयं अपने हाथों कुछ करने कराने की इच्छा रखता है और करके सुखी होता है । मनुष्य को पराधीनता प्यारी नहीं लगती । मनुष्य अपने बलबूते जीकर अधिक शक्तिशाली बन सकता है, बनना चाहता है । उसे बन्धन पसन्द नहीं होते, वह खुला और स्वतंत्र जीवन बिताने का इच्छुक होता है । दूसरों के बन्धन में बँधने की अपेक्षा अपनी इच्छा से अपनाये हुए बन्धन उसको अधिक लाभकर होते हैं और उनके द्वारा वह अपनी सच्ची उन्नति और मानवता की सही उपासना करता है । यह स्वस्थ और संस्कारी मनुष्य का अपना वैभव है।

आज हमारा बालक घरों में, मदरसों में और समाज के बीच इस वैभव से वंचित है । जैसे-तैसे जी रहा है । हमने उसके जीवन का कोई स्वस्थ और मनोवैज्ञानिक क्रम अभी निश्चित नहीं किया है । वह भगवान का भेजा हमारे बीच आता है और भगवान के भरोसे ही जीने व बढने लगता है । उसके सम्मान का हमारा ज्ञान तो बहुत ही अल्प और अपर्याप्त है । हम न उसके शरीर की आवश्यकताओं को ठीक से जानते हैं न उसके मन और मस्तिष्क की आवश्यकताओं की सही-सही जानकारी रखते हैं, फिर हमें उसकी आत्मा की भूख का तो भान ही क्यों होने लगा । अमीर से अमीर और गरीब से गरीब घरों में जीने और पलने वाले हमारे बालकों का यह घोर दारिद्र्य हमारी वर्तमान अवनति के और लड़खड़ाती चाल से बढ़ने वाली प्रगति के लिए जिम्मेदार है ।

जन्म से सात साल तक की उम्र के बच्चों के सर्वतोमुखी विकास के लिए हम व्यक्तिगत और सामाजिक रुप से बहुत ही कम चिन्ता करते हैं । बच्चों के जीवन का अत्यन्त कीमती समय हमारे इस घोरतम प्रमाद के कारण व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है । मनोविज्ञान के ज्ञाता और शिक्षा शास्त्र के विशेषज्ञों का कथन है कि सात साल से पहले की उमर ही बच्चों के जीवन का सच्चा और सही नियमन और निर्माण करने वाली उमर होती है । यदि इस उमर में पूरी सतर्कता से काम लेकर बालकों के विकास की पर्याप्त चेष्टा न की गई तो बाद में उन पर किया जाने वाला सारा खर्च और परिश्रम बेकार हो जाता है । यह एक ऐसी सचाई है जिस पर दो रायें हो नहीं सकतीं ।

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