संतान के प्रति कर्तव्य

सन्तान माता -पिता के अनुरुप ही होती हैं

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उपर्युक्त उद्धरण से पाठक अनुमान कर सकते हैं कि सन्तान के भले-बुरे होने की जिम्मेदारी किस हद तक माता-पिता के ऊपर है । यों तो कोई- कोई नीतिकार कह गये हैं- 'होय भले कैं सुत बुरो, भलो बुरे कैं होय ।

दीपक से काजल प्रकट, कमल कीच से होय । ।

पर यह दोहा केवल कवि की कलम की करामत ही है । हमारा कहने का आशय यह नहीं कि ऐसा कभी नहीं होता, पर ऐसा जब कभी होता है, तो उसका कारण प्राय: माता-पिता की कोई असावधानी ही होती है ।

बालक के शरीर की उत्पत्ति माता -पिता के शरीर से होती है । जैसी खरी- खोटी धातु गलाई जाएगी वैसा ही बर्तन बनेगा । जैसे ईट -चूने का प्रयोग होगा वैसा ही मकान बनेगा । यदि माता -पिता के शरीर स्थूल या सूक्ष्म रोगों से ग्रसित हैं तो सन्तान पर भी उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा ।

शरीर शास्त्र के ज्ञाता यह भली- भाँति जानते हैं कि कितने ही रोग ऐसे हैं जो पीढ़ियों तक चलते हैं । कुष्ट, उपदंश, मृगी, उन्माद, अर्श, क्षय आदि के बीजाणु माता-पिता के शरीर में विद्यवान हों तो बहुधा उनका प्रभाव सन्तान में भी देखा जाता है । माता-पिता के रंग-रुप की छाया भी बालकों पर रहती है । गोरे या काले माता-पिता की सन्तान प्राय: अपने माता-पिता के रंग की ही होती है । माँ-बाप के शरीर की कृशता या स्थूलता भी बालकों पर प्रकट होती देखी गई है ।

वेष, भाषा, संस्कृति, रुचि, आहार, विहार आचार, विचार आदि बातों में भी बच्चे अपने माँ-बाप का अनुसरण करते हैं । छोटा बालक माँ के उदर में ही उन बातों के बहुत कुछ संस्कार ग्रहण कर लेता है और जन्म धारण के पश्चात् उन बातों को सहज ही अपनाने लगता है । इस प्रकार शारीरिक और मानसिक दृष्टि से बालक सत्तर प्रतिशत अपने जन्मदाता शरीरों की प्रतिमूर्ति होता है । वंश, जातियाँ, नस्ल, वर्ण आदि विभागों के मूल में यही तत्व काम करता है, यदि माता-पिता का प्रभाव सन्तान पर न आता तो इस प्रकार का वर्गीकरण दृष्टिगोचर न होता और नीग्रो, चीनी, पंजाबी, बंगाली, मद्रासी, यूरोपियन आदि जातियों में जो आकृति, रंग, स्वभाव आदि में जो अन्तर दिखाई पड़ता है, वह भी न दीखता ।

पिता -माता के शरीर स्वभाव और प्रवृत्तियों का अनुसरण प्राय: अन्य सभी जीव जन्तुओं की भाँति मनुष्य जाति में भी होता है । साथ ही मनुष्य की मानसिक और आध्यात्मिक सम्पत्तियों का उत्तराधिकार उसके आत्मजों को मिलता है । हम माता-पिता के धन-सम्पत्ति एवं यश-अपयश के ही नहीं उनकी आन्तरिक विशेषताओं, आध्यात्मिक संपदाओं के भी उत्तराधिकारी होते हैं । उत्तम ब्राह्माण कुल में बहुधा सात्विक मनोवृति के बालक जन्मते हैं और बधिक, म्लेच्छ एवं कसाइयों के घरों में वैसी ही प्रकृति के बच्चे जन्मते और बनते हैं ।

यों हर जीव अपने पूर्व जन्मों के स्वतंत्र संस्कार और प्रारब्ध साथ लाता है । इसलिए कभी-कभी सन्तान माता-पिता से भिन्न स्वभाव की होती देखी गई है, पर ऐसा होता अपवाद स्वरुप ही है । अधिकांश बच्चे अपने जन्मदाताओं के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरुप होते हैं । भारतीय वर्ण व्यवस्था में इस तत्व को प्रमुख आधार मानकर जन्म एवं वंश को प्रधानता दी गई है । एक शरीर त्याग कर जीव जब दूसरे शरीर में जाने को होता है, तो वह अपनी संचित रुचि और प्रवृत्ति के अनुकूल स्थान को खोजता है । रेलगाड़ी के फर्स्ट क्लास के डिब्बे में यात्रा करने वाले यात्री विशेष मुसाफिर खाने में चले जाते हैं तीसरे दर्जे में यात्रा करने वाले उसी दर्जे के निमित्त बने हुए मुसाफिरखाने में जा बैठते हैं । वैसे ही जीव भी अगले जन्म के लिए अपने उपर्युक्त वंश में जा पहुँचता है । आकाश में उड़ते हुए पक्षी तथा कीट -पतंग अपनी रुचिकर वस्तुओं को खोजते फिरते हैं और जब अनुकूल-अभीष्ट वस्तु मिल जाती है, तब उसे प्राप्त करने के लिए नीचे की ओर आते हैं । गिद्ध मृत मांस को, कौए विष्टा को, भौंरा फूलों को, बाज चिड़ियों को खोजते फिरते हैं । जहाँ उनकी मनचाही वस्तु दिखाई देत है वहीं उतर पड़ते हैं । जीवों को प्रारब्ध तो अपने कर्मानुसार ही भुगतने पड़ते हैं , जो हर कुल और वंश में भुगते जाने संभव हैं, पर जन्म लेने के लिए वे अपनी पूर्व संचित रुचि के अनुकूल स्थिति ही खोजते हैं और दयामय प्रभु उन्हें इच्छित वातावरण में ही जन्मने का अवसर प्रदान कर देते हैं ।

माता -पिता की जैसी आध्यात्मिक भूमिका होती है, उसी के अनुरुप प्रारब्ध संस्कार वाले जीव उनके शरीर में प्रवेश करके उस वातावरण में जन्म धारण करते हैं । इसलिए यदि अपने घर में उत्तम सन्तान को जन्म देना है तो उसके लिए अपने आपको उत्तम बनाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । जो लोग स्वयं पतित दशा में हैं, जिनकी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्थिति गिरी हुई है, उनकी सन्तान भी दीन-हीन ही रहेगी ।

सन्तानोत्पादन एक महान् उत्तरदायित्व है, जिसे उठाने के लिए बहुत समय पूर्व तैयारी करने की आवश्यकता है । किसी महत्वपूर्ण कार्य को सफलता पूर्वक पूर्ण करने के लिए जिस प्रकार उसके लिए सभी आवश्यक उपकरण इकट्ठे करने पड़ते हैं उसी प्रकार उत्तम सन्तान प्राप्त करने के लिए जहाँ बालक की उत्तम शिक्षा-दीक्षा की आवश्यकता है, वहाँ उसके जन्म से पूर्व वे परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेनी भी आवश्यक हैं, जिनमें कोई उत्तम जीव, स्थान ग्रहण कर सकें । उत्तम फसल प्राप्त करने के लिए किसान पौधों को सींचने और रखवाली की व्यवस्था करता है किन्तु यदि भूमि की अच्छी जुताई, परिपुष्ट बीज आदि की पूर्ण तैयारी ठीक प्रकार न हो तो सिंचाई और रखवाली की अच्छी व्यवस्था भी निष्फल चली जाती है और किसान वैसी फसल उत्पन्न न कर सकेगा, जैसी कि वह चाहता है ।

कहा गया है कि सन्तान के कारण उसके पितरों को नरकगामी होना पड़ता है । कारण स्पष्ट है कि सन्तान को समुचित पूर्ण तैयारी के बिना ही उत्पन्न कर डालना एक भारी पाप है, जिसका दण्ड उसे पारलौकिक जीवन में तो मिलता ही है, लौकिक जीवन में भी उसकी कम दुर्गति नही होती । सन्तान की हीनता और नीचता से जो अनुचित कार्य होते हैं, उनसे पिता-माता की भी निन्दा होती है, क्योंकि वे सुयोग्य सन्तान उत्पन्न करने का अपना उत्तरदायित्व पूरा करने में सफल न हो सके । जो व्यक्ति अनधिकार चेष्टा करते हैं वे निन्दा के पात्र होते हैं । मनुष्योचित गुण जिनमें न हों, वह तो पशु ही हैं । पशुओं की भाँति केवल काम प्रेरणा से गर्भाधान में प्रवृत्त हो जाना और एक असंस्कृत जीव उत्पन्न कर देना पशु प्रवृत्ति ही है । यह मनुष्यता के प्रति, देश और जाति के प्रति एक अपराध भी है क्योंकि उनके पाशविक उद्देश्य के फलस्वरुप जो बालक उपजते हैं वे संसार के लिए अहित कर और अवांछनीय कार्य करते हैं । उनसे पृथ्वी का बोझ बढ़ता और संसार में अनीति तथा अशान्ति की वृद्धि होती है । इस गड़बड़ी की जिम्मेदारी उन माता-पिता पर है जो सन्तानोत्पत्ति का महान् उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य करने से पूर्व उसकी भावी सम्भावनाओं पर विचार नहीं करते । ऐसी गैर जिम्मेदारी किसी व्यक्ति की लौकिक और पारलौकिक दुर्गति का ही कारण हो सकती है । ऐसे पिता नरकगामी नहीं होंगे तो क्या स्वर्गगामी होंगे ?

आज हमारे परिवार क्लेश और कलह से भर रहे हैं । उनमें प्रधान कारण असंस्कृत सन्तान हैं । घर के मुखिया एवं बड़े-बूढ़े छोटों की उद्द्ण्डता, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, चोरी, स्वार्थपरता, अशिष्टता से परेशान देखे जाते हैं । स्कूलों में अध्यापक सिर घुनते हैं, घर में अभिभावकों की आँतें-पीते जलती हैं । क्या लड़कियाँ, क्या लड़के सभी की चाल बेढ़गी है । जब तक बचपन रहता है, तब तक उद्द्ण्डता करते हैं, कुछ समझदार होते हैं तो वासना और विलासिता की ओर झुक पड़ते हैं । बड़े होने पर उनकी कार्य पद्धति स्वार्थपरता से ओत-प्रोत हो जाती हैं । माता- पिता के लिए, संस्कृति के लिए, मनुष्यता के लिए वे अभिशाप ही सिद्ध होते हैं । हमारी नई पीढ़ियाँ इसी मार्ग का अनुसरण कर रही हैं । कोई विरले ही भाग्यशाली घर ऐसे होंगे जिनमें कर्तव्यपालन, शिष्टाचार, सद्भावना, सेवा, त्याग, आत्मीयता एवं सदाशयता का अमृत बरसता हो । प्राचीनकाल में जो स्थिति घर-घर में थी वह आज कहीं दिखाई नहीं पड़ती, जो बातें पूर्व काल में कहीं देखी तक नहीं जाती थीं, वे आज घर-घर में मौजूद हैं । परिस्थितियों में इतना भारी परिवर्तन हो जाने के कारणों में सबसे बड़ा कारण माता- पिता की गैर जिम्मेदारी है, जो सन्तानोत्पत्ति के लिए आवश्यक योग्यता प्राप्त किए बिना इस भारी उत्तरदायित्व को कन्धे पर उठाने का दुस्साहस कर बैठते हैं । इन्हीं भूलों के कारण आज हमारा पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन विषाक्त बनता चला जा रहा है ।

यह सभी जानते हैं कि माता-पिता को अपने शरीर का पूर्ण विकास कर लेने तक, युवावस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए । ग्रहस्थ जीवन में भी पूर्ण संयम का पालन करने से बलवान, निरोग, बुद्धिमान और दीर्धजीवी संतान पैदा होती है । परन्तु इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि माता-पिता के शुद्धाचरण का बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ता है ? बालक केवल हाड़-मांस का ही नहीं होता, उसमें अन्त:चेतना का भी प्रमुख भाग रहता है । यदि माता-पिता के मन में, मस्तिष्क में, अन्त:करण में कुविचार, स्वार्थपरता, वासना, असंयम, अनुदारता की वृत्तियाँ भरी हुई हैं तो वह उसी रुप में या थोड़े- बहुत परिवर्तित रुप में बालक में भी प्रकट होंगी । जैसे कोढ़ी या क्षयग्रस्त स्त्री-पुरुषों के रजवीर्य से दूषित रक्त वाले बालक जन्मते हैं वैसे ही बौद्धिक एवं नैतिक दृष्टि से रोगी लोगों की सन्तान भी पतित मनोभूमि की होती है ।

व्यभिचार जन्य जारज और वर्णशंकर सन्तान आमतौर से दुष्ट, दुराचारी एवं कुसंस्कारों से भरी हुई होती है क्योंकि उनके माता-पिता में पाप वृत्तियों की प्रधानता रहती है । जिन स्त्री-पुरुषों में परस्पर द्वेष, घृणा एवं मनोमालिन्य रहता है, उनके बच्चे प्राय: कुरुप और बुद्धिहीन होते हैं । डाक्टर फाउलर ने इस सम्बन्ध में बहुत खोजबीन की है । उन्होंने बहुत से बालकों की विशेषताओं का कारण उनके माता- पिता की मानसिक स्थिति को पाया है, शारीरिक दृष्टि से गिरे हुए माता-पिता के द्वारा उन्होंने उत्तम स्वास्थ्य के बालकों की उत्पत्ति का कारण उन्होंने दम्पत्ति का पारस्परिक सच्चा प्रेम पाया । इसी प्रकार उन्हें इस बात के भी प्रमाण मिले कि उद्धिग्न मनोद्शा के दम्पत्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अच्छी स्थिति के होने पर भी बीमार और बुद्धिहीन संतान के जनक बने ।

डाक्टर जान केवन ने मनोविज्ञान की दृष्टि से इस सम्बन्ध में विशेष शोध की है और वे अनेक उदाहरणों एवं प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यदि माता- पिता सद्गुणी, अच्छे स्वभाव के, कर्तव्यनिष्ठ, नीतिवान और धर्मात्मा हैं तो उनकी अपूर्णताओं और विकास की अन्य सुविधाओं के अभाव में भी बालक उत्तम शरीर और मन वाले उत्पन्न होते हैं। कभी-कभी जो प्रतिकूल अपवाद देखे जाते हैं उनमें भी मानसिक प्रतिकूलताओं को ही उनने निमित्त कारण पाया है । धर्मात्मा लोग भी जब किसी अनीति से पीड़ित होते हैं और उनके मन में पीड़ा, उद्वेग एवं प्रतिहिंसा की अग्नि जलती है तो उनके बुरे संस्कारों से बालक की मनोभूमि भर जाती है । इसी प्रकार कभी-कभी बुरे आदमी भी परिस्थिति वश उच्च विचारधारा से भरे होते हैं, तो उसकी उत्तम छाया भी बच्चों पर आती है । पुलस्त ऋषि के घर रावण का, हिरण्यकश्यप के घर प्रहलाद का जन्म होने जैसी घटनाओं में उनने माता-पिता की मनोदशा के परिवर्तनों को ही कारण माना है ।

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